बिहार राज्य में औरतों को सस्ते सैनेटरी नैपकिन मुहैया कराने की योजना खुद ही दर्द से कराह रही है. लोअर मिडिल क्लास, लोअर क्लास और गांवों की औरतों और लड़कियों के लिए महंगी और ब्रांडेड सैनेटरी नैपकिन खरीदना आज भी सपने की तरह ही ह ज्यादातर औरतें और लड़कियां आज भी माहवारी के दौरान पुराने और गंदे कपड़ों के टुकड़ों का इस्तेमाल ही करती हैं. इस वजह से वे इंफैक्शन से जूझती रहती हैं और बांझपन समेत कई दूसरी  परेशानियों को न्योता देती रहती हैं. साल 2012 में राज्य सरकार ने बड़े ही तामझाम के साथ 10 जिलों में सस्ते सैनेटरी नैपकिन बांटने के लिए पायलट प्रोजैक्ट की शुरुआत की थी. इस योजना के तहत 6 रुपए में 5 नैपकिन मुहैया कराने थे.

केंद्र सरकार की इस योजना को बिहार राज्य स्वास्थ्य समिति को जमीन पर उतारने का जिम्मा सौंपा गया था, पर यह योजना खुद ही दर्द से छटपटा रही है. 10 जिलों में शुरू की गई इस योजना को बाद में बाकी 28 जिलों में भी चालू करना था, पर वह योजना ऐलान से आगे नहीं बढ़ सकी. इस पर डाक्टर दिवाकर तेजस्वी कहते हैं कि कई सर्वे में यह खुलासा होता रहा है कि 70 फीसदी औरतें हर महीने सैनेटरी नैपकिन खरीदने का खर्च नहीं उठा सकती हैं. इस में तकरीबन 25 फीसदी औरतें सैनेटरी नैपकिन खरीदने को पैसे की बरबादी समझती हैं. वहीं 30 फीसदी लड़कियां माहवारी के दौरान स्कूल नहीं जा पाती हैं. इस का मतलब यह है कि वे हर महीने 5 दिन स्कूल नहीं जाती हैं. इस हिसाब से वे साल में 60 दिन स्कूल नहीं जा पाती हैं, जिस से उन की पढ़ाई में बाधा आती है.

सस्ती कीमत पर सैनेटरी नैपकिन बांटने की इस योजना को पहले फेज में रोहतास, कैमूर, भागलपुर, मुंगेर, दरभंगा, सारण, बक्सर, भोजपुर, औरंगाबाद और वैशाली जिलों में शुरू किया गया था, लेकिन हर जिले में इस की हालत लस्तपस्त है. इस वजह से बाकी जिलों में यह योजना चालू ही नहीं हो सकी. वैशाली जिले में जिस एनजीओ को नैपकिन बांटने की जिम्मेदारी सौंपी गई थी, उसे सैनेटरी नैपकिन मुहैया ही नहीं कराए गए. इस वजह से जिले में नैपकिन बांटने और महिला स्वच्छता की मुहिम शुरू होने से पहले ही दम तोड़ चुकी है. औरंगाबाद जिले में तो सैनेटरी नैपकिन बांटने में भी घोटाले की गंदगी घुस गई है. सरकार ने 5 सैनेटरी नैपकिन की कीमत 6 रुपए तय कर रखी है, इस के बाद भी उन्हें 10 से 15 रुपए में बेचा जा रहा है. इसे बांटने का काम ‘आशा कार्यकर्ताओं’ को सौंपा गया है. जहां एक ओर ‘आशा कार्यकर्ताएं’ मनमानी कीमत पर सैनेटरी नैपकिन बेच कर अपनी जेब गरम कर रही हैं, वहीं दूसरी ओर सैनेटरी नैपकिन का प्रचारप्रसार भी ठीक से नहीं कर रही हैं. इस वजह से गरीब और निचले तबके की औरतों को इस योजना के फायदे का पता नहीं चल रहा है.

औरंगाबाद के दाऊदनगर में  किराना की दुकान चला कर अपने परिवार का पेट पालने वाली रामसती देवी कहती हैं कि उन्हें सस्ती कीमत पर सैनेटरी नैपकिन मिलने की किसी योजना के बारे में पता नहीं है. वे और उन की बेटियां पुराने कपड़ों का ही इस्तेमाल करती हैं. बाजार में मिलने वाले महंगे नैपकिन खरीदना उन के बूते की बात नहीं है. डाक्टर किरण शरण बताती हैं कि माहवारी के दौरान गंदे और पुराने कपड़ों  के इस्तेमाल से होने वाली बीमारियों से बांझपन तक का खतरा पैदा हो सकता है. बच्चेदानी के मुंह पर इंफैक्शन होने से फैलोपियन ट्यूब बंद हो जाती है. इस वजह से बांझपन होता है. दोतिहाई औरतें और लड़कियां माहवारी के दौरान सैनेटरी नैपकिन का इस्तेमाल नहीं करती हैं. गरीबी के अलावा सैनेटरी नैपकिन को ले कर जागरूता नहीं होने की वजह से और पुराने व गंदे कपड़ों के टुकड़ों का इस्तेमाल करने के लिए वे मजबूर हैं. इस के बाद भी सैनेटरी नैपकिन की योजना पर सरकार और अफसर गंभीर नहीं हैं.

सरकारी स्कूलों में पढ़ने वाली तकरीबन 36 लाख लड़कियों को सस्ती कीमत पर सैनेटरी नैपकिन मुहैया कराने थे. अभी तक ठीक से यह तय नहीं हो सका है कि सस्ते नैपकिन आएंगे कहां से और अगर आ गए, तो स्कूली लड़कियों तक पहुंचेंगे कैसे? सरकार ने ऐलान किया था कि महिला स्वयंसहायता समूहों की मदद से सैनेटरी नैपकिन बनाए जाएंगे, जिस से कई औरतों को रोजगार भी मिल सकेगा. पर शिक्षा विभाग और स्वास्थ्य विभाग के दफ्तरों के चक्कर काटती यह योजना दावों और वादों के जाल में उलझ कर रह गई है. साल 2014-15 में यह योजना फाइल दर फाइल और टेबल दर टेबल घूमती रह गई और साल 2015-16 में तो इस का कहीं अतापता ही नहीं चल पा रहा है.

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