लेखक- डा. जया आनंद
‘स्नेहा, छोले तो बहुत टैस्टी हैं, आंटी ने बनाए होंगे,’ नेहा खातेखाते बो ‘नहीं, मैं ने बनाए हैं,” स्नेहा कुछ गंभीर हो गई थी. ‘तुम ने! यार स्नेहा, यू आर ग्रेट कुक. वैसे आंटी कहां हैं?’ नेहा ने पूछा. ‘मम्मी…’ स्नेहा की बात अधूरी रह गई. पीछे वाले कमरे से सांवली, साधारण सी बिखरे बालों के साथ एक महिला वहां आ गई. नेहा कुछ आश्चर्य से उन्हें देखने लगी. फिर ‘मेरी मम्मी’ कह स्नेहा ने उस महिला का परिचय कराया.
नेहा सोच में पड़ गई. स्नेहा तो कितनी सुंदर और उस की मम्मी साधारण सी, बिखरे बाल, दांत भी कुछ टूटे हुए… यह कैसे? कई सारे सवालों से नेहा घिर गई थी. स्नेहा की मम्मी कुछ अलग सी मुसकान के साथ अंदर चली गई.
‘नेहा, तुम्हें आश्चर्य हो रहा होगा न. मेरी मम्मी ऐसी… दरअसल, मम्मी पहले बहुत अच्छी दिखती थीं लेकिन जब मेरा भाई किडनैप हुआ तब से मम्मी की हालत ऐसी हो गई. भाई तो वापस मिला लेकिन मम्मी तब तक मैंटल पेशेंट हो चुकी थीं,’ स्नेहा धीरेधीरे बोल रही थी.
‘उफ्फ़…’ नेहा ने एक लंबी सांस भरी. कितना दुख है जीवन में. मां होते हुए भी मां का प्यारदुलार न मिले. स्नेहा तो अपनी मां से कोई ज़िद भी न कर पाती होगी. नेहा का मन भरा जा रहा था.
“चलो नेहा, मैं तुम्हें अपना स्कूल दिखाती हूं. हमारा स्कूल कोएजुकेशन था, एक से एक स्मार्ट लड़के पढ़ते थे. अब तो हम गर्ल्स कालेज में आ गए,’ स्नेहा ने शायद नेहा के माथे पर पड़ी सलवटों को देख लिया था और वह माहौल को कुछ हलका करना चाहती थी.
‘स्नेहा, तुम भी न,” नेहा ने यह कह कर हंसी तो स्नेहा भी खिलखिला पड़ी थी.नेहा उस अलबम की हर फोटो को बड़े गौर से देख रही थी. वेलकम पार्टी, टीचर्स डे, फेयरवैल, ऐनुअल फंक्शन… हर फोटो में नेहा और स्नेहा छाई हुई थीं. दिन हंसतेगाते, पाकीज़ा जूस सैंटर का जूस पीते हुए बीत रहे थे. पर दिन हमेशा एक से नहीं रहते. ग्रेजुएशन के फाइनल ईयर के आख़िरी दिनों में स्नेहा कालेज में लगातार गैरहाजिर हो रही थी. नेहा चिंतित थी, क्या हुआ, क्यों नहीं आ रही है स्नेहा? पता चला, स्नेहा बहुत दिनों से हौस्पिटल में एडमिट है. स्नेहा को क्या हो गया, नेहा परेशान हो उठी.
नेहा हौस्पिटल पहुंची जहां स्नेहा एडमिट थी. स्नेहा का चेहरा स्याह पड़ चुका था, आंखें गड्ढे में चली गई थीं, चेहरा फीकाफीका सा लग रहा था, देह जैसे हड्डी का ढांचा. नेहा को स्नेहा का वह पहले वाला दमकता सौंदर्य याद आ गया. और अब…
‘आओ नेहा,’ एक कमज़ोर सी आवाज़ और फीकी मुसकान के साथ स्नेहा बोली. नेहा उस के पास रखे स्टूल पर बैठ गई. नेहा ने स्नेहा का हाथ पकड़ते हुए पूछा, ‘क्या हो गया स्नेहा? किसी को कुछ बताया भी नहीं, अकेलेअकेले ही सारे दुख़ झेलती रही?’
नहीं, नहीं नेहा, कुछ पता ही नहीं चला. पहले फीवर और हलकी कमज़ोरी थी, फीवर की दवा ले लेती थी, पर घर का काम भी रहता था और वीकनैस बढ़ने लगी. और एक दिन खून की बहुत सारी उलटियां हुईं. मेरे पापा तो बहुत घबरा गए. यहां हौस्पिटल में एडमिट करा दिया,’ स्नेहा धीरेधीरे सारी बातें नेहा को बताती जा रही थी.
‘और तुम्हारी मम्मी?’ नेहा ने तुरंत ही पूछा.‘मम्मी को तो कुछ पता ही नहीं चलता. वे तो…’ बोलतेबोलते स्नेहा रुक गई और एक गहरी सांस अंदर खींच कर रह गई.
‘पर खून की उलटियां क्यों हुईं तुम्हें?’ नेहा अगले प्रश्न के साथ तैयार थी. ‘दरअसल, मुझे सीवियर ट्यूबरकुलोसिस है. पूरे लंग्स में इन्फैक्शन है. थोड़ा मुझ से दूर ही रहो,’ स्नेहा पहले तो कुछ गंभीर थी, फिर हंस दी.
‘पर स्नेहा, तुम्हारा इलाज तो सही हो रहा है न, यहां के डाक्टर्स अच्छे हैं न? नेहा ने चिंतित स्वर में पूछा. स्नेहा के चेहरे पर शरारत टपक गई, बोली, ‘अरे यार नेहा, डाक्टर्स तो अच्छे हैं, एक नहीं दोदो अच्छे हैं, एक सीनियर डाक्टर और एक जूनियर डाक्टर. सीनियर वाला न, मेरे गढ़वाल का ही है. पर, सूरत जूनियर वाले की ज़्यादा अच्छी है.’ ‘स्नेहा, तुम नहीं सुधरोगी, इतनी बीमार हो, फिर भी…’ नेहा हंसते हुए उस का गाल सहलाते हुए बोली.
नेहा, तो क्या रोती रहूं हर समय. अब तुम ने ही पूछा कि डाक्टर्स कैसे हैं तो मैं ने बताया,’ स्नेहा हलके गुस्से से बोली. इतने में एक साधारण नयननक्श का सांवला डाक्टर आया, उसे एग्जामिन किया और पूछा, ‘स्नेहा जी, अब वौमिटिंग बंद हुई, फीलिंग बेटर नाउ?’
‘हां डाक्टर,’ स्नेहा ने धीमे से जवाब दिया. पीछे एक हैंडसम सा जूनियर डाक्टर साथ था. उस ने स्नेहा को कुछ दवाएं दी और मुसकराते हुए चला गया. ‘देखा स्नेहा, दोनों डाक्टर अच्छे हैं न,’ स्नेहा चहक कर बोली. नेहा प्यार से स्नेहा को सहलाने लगी और बोली, ‘स्नेहा, जल्दी से ठीक हो जाओ, परीक्षाएं पास आ रही हैं, मैं तुम्हें नोट्स दे दूंगी, ओके.’
स्नेहा ने भी नेहा का दूसरा हाथ अपने हाथों से कस के पकड़ लिया और अंसुओं की दो बूंदें उस की आंखों से ढ़ुलक गईं. नेहा अपनी आंखों को छलकने से बचाने के लिए तेज़ आवाज़ में बोली, ‘माय डियर, गेट वैल सून.’ नेहा भीगी पलकों के साथ वहां से चली आई.
परीक्षाएं पास आ गई थीं. स्नेहा की तबीयत पूरी तरह ठीक नहीं हो पाई थी. वह फाइनल एग्ज़ाम नहीं दे सकी. स्नेहा हौस्पिटल से डिस्चार्ज हो कर अपनी दादी के साथ पहाड़ चली गई. इधर नेहा आगे की पढ़ाई के लिए दिल्ली चली गई. वहीं होस्टल ले कर पोस्टग्रेजुएशन करने लगी और साथ में सिविल सर्विसेज़ की भी तैयारी कर रही थी. उसे बिलकुल भी फुरसत न मिलती. मोबाइल उन दिनों था नहीं जो हर समय दोस्तों से वह बात कर सके.
लखनऊ घर बात करने के लिए हफ्ते में एक बार होस्टल के पीसीओ जा पाती थी. नेहा स्नेहा को याद करती, पर बात नहीं हो पाती. ‘पता नहीं स्नेहा कैसी होगी, उस की तबीयत… उस की मां का क्या हाल होगा…’ एक लंबी सांस खींच कर नेहा किताब खोल कर पढ़ने बैठ जाती.
स्नेहा से मिले हुए नेहा को 10-11 महीने हो रहे थे. नेहा दिल्ली से छुट्टियों में अपने घर आई हुई थी. कहते हैं, किसी को शिद्दत से याद करो तो वह मिल ही जाता है. उस दिन भी ऐसा ही कुछ हुआ. स्नेहा ने नेहा को अचानक ही फ़ोन लगा दिया था.
अब नेहा दूसरे दिन स्नेहा के फ़ोन का इंतज़ार कर रही थी और साथ ही चिंतित भी थी क्योंकि स्नेहा ने हौस्पिटल जाने की बात कह कर फ़ोन काट दिया था. कुछ देर बाद फ़ोन की घंटी बजी. नेहा ने पहली घंटी बजते ही रिसीवर उठा लिया.
“हैलो, स्नेहा?” “हां नेहा, मैं स्नेहा बोल रही हूं.”