लेखक- डा. जया आनंद
“हैलो, कौन?” “पहचानो…””कौन है?””अरे यार, भुला दिया हमें?” और एक खिलखिलाती हुई हंसी फोन पर सुनाई पड़ी. “अरे स्नेहा, तुम, इतने दिनों बाद, कैसी हो?” नेहा पहचान कर खुशी ज़ाहिर करते हुए बोली.
“नेहा, यार, तुम तो मेरी पक्की सहेली हो, तुम से कैसे दूर रह सकती थी. ऐसे भी दोस्ती निभाने में हम तो नंबर वन हैं. बहुत सारी बातें करनी है मुझे तुम से. अच्छा, मेरा फोन नंबर लिख लो. अभी मुझे हौस्पिटल जाना है, कल बात करते है,” और स्नेहा ने फ़ोन रख दिया.
“हौस्पिटल…” बात अधूरी रह गई. नेहा कुछ चिंतित हो उठी, ‘आख़िर, उसे हौस्पिटल क्यों जाना था…’ नेहा बुदबुदा रही थी.
नेहा के मन में स्नेहा की स्मृतियां चलचित्र की तरह तैर गईं… कालेज में फौर्म भरने की लाइन में नेहा खड़ी थी लाल रंग के पोल्का डौट का सूट पहने और उसी लाइन मे स्नेहा काले रंग के पोल्का डौट का सूट पहने खड़ी थी. उन दिनों पोल्का डौट का फैशन चल रहा था.
“गम है किसी के पास,” स्नेहा ज़ोर से बोली. स्नेहा को फौर्म पर फोटो चिपकानी थी.”हां है, देती हूं,” नेहा ने मुसकराते हुए गम की छोटी सी शीशी स्नेहा को थमा दी. बदले में स्नेहा ने मुसकान बिखेर दी.
फौर्म जमा कर बाहर निकलते हुए स्नेहा चपल मुसकान के साथ नेहा की ओर मुखातिब हुई, “थैंक्यू सो मच, फौर्म से मेरी फोटो निकल गई थी, मैं तो घबरा गई थी कि क्या होगा अब…”
“थैंक्यू कैसा, चलो आओ, उधर सीढ़ियों पर थोड़ी देर बैठते हैं,” नेहा बीच में ही बोल पड़ी.नेहा, स्नेहा दोनों वहां अकेली थीं. दोनों को, शायद, इसीलिए एकदूसरे का साथ मिल गया था.”अच्छा, तुम्हारा नाम क्या है?”
“स्नेहा ढोले.”“और तुम्हारा?””नेहा खरे. अरे वाह, हम दोनों के नाम कितने मिलते हैं… और हमारी ड्रैसेस भी,” नेहा आश्चर्यमिश्रित खुशी के साथ बोली, वैसे, ढोले…क्या?”
“हम गढ़वाल के हैं,” स्नेहा ने उत्तर दिया.नेहा गौर से स्नेहा को निहार रही थी. बड़ीबड़ी आंखें, तीखी नाक, गुलाब की पंखुड़ियों जैसे होंठ, दमकता हुआ रंग मतलब सुंदरता के पैमाने पर तराशा हुआ चेहरा थी स्नेहा और पहाड़ी निश्च्छलता से सराबोर उस का व्यक्तित्व.
“क्या हुआ?”, स्नेहा ने टोका.”न…न…नहीं, बस, ऐसे ही,” नेहा मुसकरा कर रह गई.”तुम कितने भाईबहन हो? स्नेहा ने पूछा.”एक भाईबहन.”“हम भी एक भाईबहन हैं. कितना कुछ मिलता है हम में न,” स्नेहा ज़ोर से खिलखिलाते हुए बोल पड़ी.
“हां, सच में,” नेहा भी आश्चर्य से भर गई थी.”तो आज से हम दोनों दोस्त हुए,” दोनों ने एकसाथ हाथ पकड़ कर हंसते हुए कहा था.
लखनऊ अमीनाबाद कालेज से निकल कर दोनों ने पाकीज़ा जूस सैंटर पर ताज़ाताज़ा मौसमी का जूस पिया. दोनों को ही मौसमी का जूस बहुत पसंद था और इस तरह शुरू हुई दोनों की दोस्ती.
लोग कहते हैं, दोस्त हम चुनते हैं. पर नेहा का मानना है कि दोस्ती भी हो जाती है जैसे उस दिन स्नेहा से उस की दोस्ती हो गई थी.
नेहा स्नेहा की यादों को एक सिरे से समेट रही थी. उस ने पुराने अलबम निकाले. एक फोटो थी एनसीसी कैंप की, जिस में वह खुद और स्नेहा पैरासीलिंग कर रही थीं. नेहा को कैंप की याद आई…’यार, वह लड़का कितना हैंडसम है. बस, एक नज़र देख ले,’ स्नेहा ने चुहलबाज़ी करते नेहा से कहा था.
‘क्या स्नेहा, हर समय लड़कों को देखती रहती हो,’ नेहा गंभीरता ओढ़ कर बोली थी.‘अरे यार, एनसीसी में हमारे कैंप लड़कों से अलग हो जाते हैं, तो नैनसुख तो ले ही सकते हैं न,” स्नेहा बोलतेबोलते ज़ोर से हंस पड़ी थी.
नेहा और स्नेहा दोनों ने ही ग्रेजुएशन में एनसीसी ली थी और पहली बार दोनों घर से दूर कैंप गई थीं. साथसाथ खाना, साथसाथ रहना, साथसाथ परेड करना…लगभग सारे काम साथ. उन की दोस्ती गहरी होती जा रही थी.
‘कितने गंदे पैर ले कर आई हो,’ स्नेहा ने डांटते हुए कहा था.‘अरे यार, आज मेरी सफाई की ड्यूटी थी, सो पैर में कीचड़ लग गया,” नेहा ने गुस्साते हुए कहा था.‘ह्म्म्म्मम, कैंप की सफाई कर खुद को गंदा कर लिया,’ स्नेहा बड़बड़ाती जा रही थी.
स्नेहा तुरंत उठी और एक तौलिया ले कर नेहा का पैर बड़ी ही तन्मयता के साथ साफ करने लगी. नेहा स्नेहा का यह रूप देख कर हैरान थी. स्नेहा को उस का पैर साफ करने में तनिक भी संकोच नहीं हुआ. एक मातृवत भाव के साथ वह यह सब कर रही थी. कहां से आई उस के अंदर यह भावना, शायद उस की परिस्थितियां…, नेहा सोच में मे पड़ गई थी.
एक दिन पाकीज़ा जूस सैंटर पर जूस पीतेपीते नेहा ने कहा, ‘स्नेहा, आज चलो मेरे घर, मेरे मांपापा से मिलो.’ स्नेहा उस दिन नेहा के घर गई. उसे नेहा के यहां बहुत अच्छा लगा. ‘कितने अच्छे हैं तुम्हारे मांपापा और तुम्हारी प्यारी सी दादी. मां ने कितने अच्छे पकौड़े बनाए,’ स्नेहा बिना रुके बोले जा रही थी, अचानक मुसकराई, ‘और तुम्हारा भाई भी बहुत अच्छा है.’ शरारत के साथ आंखें मटकाते अपने चिरपरिचित अंदाज़ में स्नेहा बोली थी.
स्नेहा के इस अंदाज़ को नेहा बखूबी समझ चुकी थी, वह भी हंस पड़ी.‘अब मुझे भी अपने घर ले चलो,’ नेहा ने स्नेहा से कहा. ‘मेरे घर…,’ स्नेहा कुछ हिचकिचा गई‘ले चल स्नेहा, तुम्हारा घर तो सीतापुर रोड पर खेतखलिहानों के पास है, बहुत मज़ा आएगा.”‘ह्म्म्म्म, अच्छा, कल चलना,’ स्नेहा का स्वर कुछ धीमा पड़ गया था.
‘कितनी सुंदर जगह है तुम्हारा घर, हरेभरे खेतों के बीच,’ नेहा, स्नेहा का घर देख कर खुशी से झूमी जा रही थी. स्नेहा का घर कच्चे रास्तों से गुज़रता था. घर पहुंचते ही स्नेहा ने अपनी दादीमां से मिलवाया, ये हैं मेरी सब से प्यारी दादी तुम्हारी दादी की तरह. और दादी, यह है मेरी पक्की वाली दोस्त नेहा.” स्नेहा ने फिर गरमागरम छोलेचावल खिलाए.