सरकार की नई शिक्षा नीति 2020 में सब से बड़ी आपत्ति तो ‘नई’ शब्द पर ही होनी चाहिए. इस नीति में आधुनिकता, नैतिकता, तार्किकता, वैज्ञानिकता पर जोर कम जबकि पौराणिकता, संस्कारिता, संस्कृत, पौराणिक हथियारों, पौराणिक काल की कपोलकल्पित प्रथाओं को अंतिम सत्य मान लेने पर ज्यादा है. इस का नाम तो असल में ‘प्राचीन शिक्षा नीति 2020’ होना चाहिए.

पहला वाक्य चाहे यह हो कि इस का उद्देश्य न्यायसंगत, न्यायपूर्ण समाज का विकास और राष्ट्रीय विकास है, पर ज्यादा जोर ‘सांस्कृतिक संरक्षण’, ‘बुनियादी कथा’, ‘साहित्य’, ‘संस्कृति’, ‘भारत की परंपरा’, ‘सांस्कृतिक मूल्यों’, ‘प्राचीन और सनातन भारतीय ज्ञान व विचार की समृद्ध परंपरा’, ‘ज्ञान, प्रज्ञा और सत्य की खोज’, ‘भारतीय परंपरा’, ‘भारतीय दर्शन’, ‘ज्ञान अर्जन नहीं पूर्ण आत्मज्ञान’, ‘मुक्ति’ जैसे शब्दों पर होने से इस नीति को प्रारंभ में ही इस तरह सजा दिया गया है जैसे पंडित किसी भी जन्म, विवाह और मृत्यु जैसे आवश्यक प्राकृतिक कर्म के प्रारंभ पर कब्जा कर के तथाकथित मंत्रों से उस की सफलता की गारंटी लेते हैं.

प्राचीन नीति के इस नए संस्करण में लचीलेपन शब्द का इस्तेमाल बहुत किया गया है. चाहे उस का शाब्दिक मतलब कुछ हो, वर्तमान में यही माना जाएगा कि लचीलेपन का मतलब है कि जो पढ़ने योग्य है उसे पढ़ाओ, बाकी को छोड़ दो. विशिष्ट क्षमताओं की स्वीकृति को पहचान कर के बच्चे को शिक्षा देने का अर्थ है कि जो बच्चे पढ़ना नहीं चाहते या जिन के परिवार उन्हें पढ़ा नहीं सकते, उन से कोई जोरजबरदस्ती न की जाए.

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क्या बच्चे अपनी क्षमता और प्रतिभा कक्षा में तय कर सकते हैं? पर यह नीति कहती है कि उसे निर्णय लेने दो. वह अपनी प्रतिभा के अनुसार जीवन का रास्ता चुने यानी जिसे गांव में गाय चराने में मजा आता है उसे करने दो, स्कूल तक न ले जाओ. दलितों, शूद्रों के बच्चे पढ़ कर क्या करेंगे? उन्हें अपने मन की मरजी करने दो. यह इस नीति की मूल आत्मा है जो पूरी तरह पौराणिक वर्णव्यवस्था के अनुसार है जिस में बच्चों और औरतों को पढ़ने पर पूरी पाबंदी है और अनपढ़ों के किस्सों को दिखादिखा कर ढोल बजाया जाता है.

मूलभूत सिद्धांतों में यह निर्देश स्पष्ट है कि शिक्षा का भारतीय जड़ों और गौरव से बंधे रहना अनिवार्य है. प्रधानमंत्री मानवनिर्मित रामलला की मूर्ति के सामने जिस तरह लोट लगा कर 5 अगस्त को फोटो खिंचवा रहे थे वह इस सिद्धांत का प्रैक्टिकल उदाहरण है. छात्रों और शिक्षकों को यह ज्ञान प्राप्त करना होगा कि कहां इस तरह का साष्टांग प्रणाम करना जरूरी है और कब असल ज्ञान के लिए किसी गुफा में जाना है. शिक्षा नीति कहती है कि जड़ों को वहां याद रखें और उन से बंधे रहें जहां प्रासंगिक लगें. गौमूत्र, गोबर के सिद्धांत आज भी हमें याद दिलाए जा रहे हैं और यह शिक्षा नीति का छिपा हुआ अतिरिक्त आदेश है.

प्रारंभिक शिक्षा अब कक्षा 1-2, कक्षा 3 से 5, कक्षा 6 से 8, कक्षा 9 से 12 के 4 वर्गों में विभाजित होगी. एलिमैंट्री चाइल्ड केयर शिक्षा के वर्ग में अक्षर, भाषा, खेल, पहेलियां, चित्रकला, नाटक, कठपुतली, शिष्टाचार, नैतिकता, समूह में काम करना या रैजिमैंटेशन, अच्छा व्यवहार यानी ओबिडियंस, सांस्कृतिक विकास यानी पूजापाठ आदि 6-7 वर्षों तक सिखा कर बच्चों को ऐसा बना दिया जाए कि वे आगे मस्तिष्क चलाने के लायक ही न रहें.

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इस शिक्षा नीति में इसी तरह की बातें कहीं छिपा कर, कहीं खुले शब्दों में बिना हिचक के कही गई हैं.

पिछली शिक्षा नीतियों का कोई अच्छा परिणाम निकला हो, ऐसा नहीं. आजादी के बाद से ही हमें कूपमंडूक बने रहने की शिक्षा मिली है. कभी केंद्र के निर्देश पर तो कभी राज्यों या स्थानीय शिक्षा नौकरशाही के कारण जो शिक्षा मिली है उस के कारण देश में हर वर्ष अंधविश्वासी लोगों की गिनती बढ़ी है. आधुनिक तकनीक का सहारा अंधविश्वास और अपना दंभ बढ़ाने के लिए पिछले सालों में लिया गया है. आज कुछ नया नहीं होने वाला है. कांग्रेस ने भी धार्मिक शिक्षा नीति बनाई थी, पर ढोल नहीं पीटा था.

भाजपा फेल, गहलोत पास

कर्नाटक और मध्य प्रदेश में कांग्रेस से सत्ता छीन लेने के बाद भारतीय जनता पार्टी अब राजस्थान में बेईमानी से सत्ता पर आना चाहती है. अपने को नैतिक व भ्रष्टाचारमुक्त कहने वाली पार्टी जनता द्वारा चुने गए प्रतिनिधियों को खरीद कर रही है. यह असल में नया नहीं है. पौराणिक कहानियां इसी तरह के प्रपंचों से भरी हैं. विभीषण का तो नाम है ही, पर महाभारत के युद्ध में भी अपनों का साथ छोड़ कर दुश्मन से मिलने की कई कथाएं बिना आंख झपकाए बारबार दोहराई जाती हैं और उन पर धार्मिकता का ठप्पा भी लगा दिया जाता है.

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कांग्रेस को तोड़ने की पूरी कोशिश कर रही भाजपा को खासी असफलताओं का सामना करना पड़ रहा है क्योंकि असल बात यह है कि रामधुन गाने भर से ही जनता का कल्याण नहीं होता. रामलला के सामने लोट लगाने से जनता का भला नहीं होता, उलटे, अपना खुद का आत्मविश्वास समाप्त होता है. राजस्थान में सचिन पायलट को मध्य प्रदेश में ज्योतिरादित्य सिंधिया की तरह फोड़ कर मिलाने का काम आसान नहीं रहा. कांग्रेसी मुख्यमंत्री अशोक गहलोत ने फिलहाल मात दे दी है.

भाजपा की राज्य सरकारें थोड़ेबहुत अच्छे काम कर रही हैं, इस का दावा नहीं किया जा रहा, बल्कि भाजपा के दोनों नेता देश की अर्थव्यवस्था से बेखबर होते हुए राज्यों की विपक्षी सरकारों को गिराने में लगे हैं. अपने कर्तव्य के प्रति भाजपा सरकार की इस तरह की उदासीनता एकदम खतरनाक है. खासतौर से तब जब देश कोविड से भी कराह रहा है और बढ़ती बेकारी व बंद होते उद्योगों तथा व्यापारों से भी.

यह कहना कि देश तो चल रहा है, गलत है. जब राजा नहीं होते तब भी तो देश चलते हैं. तब, लोकल गुंडों की बन आती है. जिस के हाथ में बंदूक होती है, वह अपना पैरेलल शासन बना लेता है. देश अब इस कगार पर पहुंच गया है कि जिस के हाथ में आज भगवा झंडा है, मुंह में जय श्रीराम है वह विधायकों को हड़का सकता है और थानेदार को पीट सकता है, आम आदमी की तो हैसियत ही क्या है.

जब देश सरकार से सही फैसलों की उम्मीद कर रहा है, उसे थालियों, तालियों, दीयों और रामनगरी के झुनझुने पकड़ाए जा रहे हैं, ताकि देश को चलाने वाले राज्यों की विपक्षी सरकारें गिरा सकें. मजेदार बात यह भी है कि इस हमले के शिकार कांग्रेसी शिकारी के छिप कर वार करने की पोल खोलने के बजाय अपनी ही कमियां गिनाने में लगे दिख रहे हैं.

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प्यार के रिश्ते में कानूनी दीवारें

पतिपत्नी विवादों में अब काजियों का दखल बढ़ता जा रहा है, क्योंकि अब पतिपत्नी एकदूसरे से ज्यादा ही मांग कर रहे हैं. दिल्ली उच्च न्यायालय ने इस बारे में ऐलीमनी को निर्धारित करने के लिए पतिपत्नी दोनों को अपने बारे में और ज्यादा बताने का शपथपत्र तैयार किया है. इस में वे कौन सी घड़ी पहनते हैं, कौन सा मोबाइल इस्तेमाल करते हैं, कौन सी मेड या डोमैस्टिक हैल्प रखते हैं और सोशल मीडिया अकाउंटों में किसकिस तरह के फोटो डालते हैं, बताने को कहा गया है.

ऐलीमनी मांगते समय पत्नियां पति की ब्लैक ऐंड व्हाइट इनकम बढ़ाचढ़ा कर बताती हैं और इतना ज्यादा पैसा मांगती हैं कि पति का दीवाला ही निकल जाए. दूसरी तरफ  गुस्सा हुआ पति सबकुछ दांव पर लगाने को तैयार होता है, पर पैसा देने को तैयार नहीं होता. पति व्यवसाय बंद कर देते हैं, नौकरी छोड़ देते हैं.

विवाहपूर्व अपना सही खर्चा दोनों बताएं, इसलिए यह 99 पौइंट का शपथपत्र पति और पत्नी दोनों की पोल खोल देगा. पक्की बात है कि दोनों को लगेगा कि विवाह करना आसान है, झगड़ा करना मुश्किल नहीं है. हां, घर छोड़ना कठिन है. वहीं, तलाक पाना, वह भी झगड़ा कर के, सब से बड़ी मुसीबत है.

कहने को तो यह औरतों को बराबरी का हक दिलाने की सारी कोशिश है ताकि पति पत्नी से उस की जवानी छीन लेने के बाद उसे फ टेहाल बना कर दरदर भटकने को मजबूर न करे, पर असल में, यह दोनों के लिए एक आफ त लाएगा.

विवाह 2 जनों का आपसी सहमति से बना संबंध है. उसे संस्कार या कानूनी जामा पहना कर जटिल बना दिया गया है कि जिस पर आप पूरा विश्वास कर के अपना तनमन दे दें उसी से चीजें छिपा लें. विवाह तभी तक सफ ल होता है जब तक दोनों पक्ष रजामंदी से इसे निभाते हैं. जब एकदूसरे पर हावी होने लगें या किसी और के प्रति किसी भी कारण से आकर्षित होने लगें तो खटास पैदा होगी. पर इस में विवाद नहीं खड़ा होना चाहिए, यह आराम से टूटने वाला संबंध होना चाहिए.

आज आखिर बेटोंबेटियों का मातापिता पर क्या हक है, क्या वे बेघर और बेसहारा हैं? बिना कानूनी संरक्षण के बच्चों को मातापिता का पूरा कानूनी और सामाजिक प्रोटैक्शन मिलता है. उन्हें अपने हकों के लिए अदालतों के दरवाजे नहीं खटखटाने पड़ते.

अगर पतिपत्नी विवादों में सदियों से विवाद खड़े होते रहे हैं तो इस का मुख्य कारण धार्मिक कानून रहे हैं, जिन्होंने विवाह पर कब्जा कर के अपना हित साधा है. कानून उसी विवाह को मानता है जो धार्मिक बिचौलिए द्वारा या अदालत द्वारा संपन्न कराया गया हो.

पत्नी को सुरक्षा देने के नाम पर इस बहाने धर्म ने पत्नी को असल में अपने जाल में फंसाया होता है. हर धर्म में पतिपत्नी विवाद में औरतों को सब से पहले चर्च, मंदिर, मसजिद, गुरुद्वारे में जाने का आदेश दिया जाता है. वहां वे अपना रोना रोती हैं, अपना सबकुछ देती हैं. अब उन की जगह अदालतों ने ले ली है. पर, धर्म के दुकानदारों का रसूख आज भी बड़ा है.

पति-पत्नी में विवाद होंगे, दोनों एकसाथ न रह पाएं, यह असंभव बात नहीं. पति और पत्नी के बीच में कोई और भी भा सकता है और वे पुराने साथी को छोड़ कर नए के साथ कुछ समय या हमेशा के लिए रहने की जिद सी पकड़ सकते हैं. इसे ज्यादा तूल देना गलत है. उस ने विवादों को जन्म दिया है, सुलटाया नहीं है. पतिपत्नी के प्यार के रिश्ते में कानूनी दीवारें खड़ी कर दी गई हैं.

पति और पत्नी अब जरा सी अनबन होने पर मेरातेरा करने लगते हैं. पहले तो सबकु छ पति का ही होता था, तो विवाद की गुंजाइश ही नहीं होती थी. पति ने छोड़ा तो या तो मर जाओ या फि र मांबाप के पास लौट कर नौकरानी की तरह रहो. अबला की तरह भी बहुत थीं, आज भी बहुत हैं.

पतिपत्नी विवादों को देखते हए लगता है कि दोनों पक्षों को तो विवाह के पहले ही प्यार को ताक पर रख कर एक कौंट्रैक्ट साइन करना पडे़गा. विवाह के बाद भी तेरामेरा बना रहेगा. जीवनसाथी की ही कठिनाई उस की कठिनाई होगी, दोनों की नहीं. यह स्थिति और भयंकर व विवादों से भरी होगी. अफ सोस यह है, दुनियाभर की सरकारें धर्म की दुकानों की जिद के कारण पतिपत्नी संबंधों को सहज और सरल बनाने के लिए कुछ नहीं कर रही हैं, जबकि अदालतें इन्हें और उलझा रही हैं. तलाक आसान क्यों न हो, इस पर कहीं कोई चर्चा??? तक नहीं हो रही.

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