पिछले करीब 16 महीनों से बेटी सोनिया की शादी की तैयारियों में जुटे भोपाल सैंट्रल जेल में प्रधान आरक्षक रमाशंकर यादव की ड्यूटी जब दिवाली की रात भी लगा दी गई, तो वह ज्यादा परेशान नहीं हुए. इस की वजह यह थी कि दूसरे ही दिन यानी 1 नवंबर से उन की डेढ़ महीने की छुट्टी मंजूर हो गई थी.
रमाशंकर यादव मिलनसार और हंसमुख स्वभाव के व्यक्ति थे. इसी के चलते जल्द ही भोपाल जेल और पुलिस विभाग में उन की एक अलग पहचान बन गई थी. करीब एक साल पहले उन का तबादला सारंगपुर से भोपाल हुआ था. भोपाल आते ही उन्होंने सोच लिया था कि रहने के लिए इस से बेहतर कोई शहर नहीं हो सकता. रमाशंकर दिल के मरीज थे, इसलिए बहुत नियम करम से रहते थे. भोपाल में हर तरह की चिकित्सा सुविधा उपलब्ध थी, यह उन के लिए और भी अच्छी बात थी.
रमाशंकर ने अपनी पूरी जिंदगी जेल विभाग की नौकरी में खपा दी थी. उन की उम्र 57 साल हो चुकी थी, सेवानिवृत्ति के केवल 3 साल बचे थे. उन्होंने केवल भोपाल में ही रहने का फैसला कर लिया था, बल्कि वहीं पर अपना मकान भी बनवा लिया था. चूंकि इस नए मकान में उन की पहली दिवाली थी, इसलिए यादव परिवार ने अपने इस आशियाने को पूरे तनमन से सजाया था.
मूलत: उत्तर प्रदेश के बलिया जिले से मध्य प्रदेश आ कर बसे रमाशंकर यादव में देशभक्ति का जज्बा किस तरह कूटकूट कर भरा था, इस का अंदाजा इसी से लगाया जा सकता है कि उन्होंने अपने दोनों बेटों को सेना की नौकरी के लिए खुद प्रशिक्षित और प्रोत्साहित किया था. बेटे भी पिता की तरह मेहनत कर के उन की उम्मीदों पर खरे उतरे तो उन की छाती और चौड़ी हो गई. उन का बड़ा बेटा शुभनाथ यादव असम में और छोटा बेटा प्रभुनाथ हिसार में पदस्थ है.
मिलिट्री वालों को दिवाली पर भी आसानी से छुट्टी नहीं मिलती, इसलिए दोनों बेटे इस बार भोपाल नहीं आ पाए थे. रमाशंकर ने अपनी पत्नी, बेटी, बड़ी बहू और पोते पोती के साथ दिवाली मनाई थी. बेटों से दिन में फोन पर बात हो गई थी. वैसे रमाशंकर का सारा लाडप्यार सोनिया पर उमड़ रहा था, जिस की 9 दिसंबर को शादी होनी थी. शादी के निमंत्रण पत्र भी छप चुके थे. दिवाली की पूजा पाठ के बाद रमाशंकर ने पोते पोती को आतिशबाजी चलवाई और रात करीब एक बजे पैदल ही ड्यूटी पर चले गए. जेल उन के घर के ज्यादा दूर नहीं थी.
भोपाल की सैंट्रल जेल हाईटेक और कड़ी सिक्योरिटी वाली मानी जाती है, जिसे देश का पहला आईएसओ का प्रमाण पत्र मिला हुआ है. इस जेल की गिनती देश की उन जेलों में शुमार होती है, जो हिफाजत के लिहाज से बेहद महफूज कही जाती हैं. इसी के मद्देनजर यहां कई खूंखार कैदियों के अलावा ऐसे नक्सलियों और आतंकियों को भी रखा गया है, जिन पर हिंसा, हत्या, लूटपाट, सांप्रदायिक हिंसा भड़काने और राष्ट्रदोह के मुकदमे चल रहे हैं.
जेल में करीब 48 सीसीटीवी कैमरे लगे हैं. यह जेल करोंद इलाके में है, जहां से एक रास्ता बैरसिया और दूसरा विदिशा और नरसिंहगढ़ को जाता है. जेल के चारों तरफ हरियाली है, हालांकि अब यह इलाका भी रिहायशी हो चला है. यहां से गुजरने वाले लोग जेल की 32 फुट ऊंची दीवार को देख कर सहज रूप से अंदाजा लगा लेते हैं कि इस जेल से किसी कैदी का भागना नामुमकिन भले ही न हो, लेकिन मुश्किल जरूर है.
वक्त के पाबंद रमाशंकर यादव की आदत थी कि वह ड्यूटी पर 5-10 मिनट पहले ही पहुंच जाते थे, जिस से पाली बदलने पर चार्ज देने वाले सहकर्मियों को परेशानी या देरी न हो. यह निष्ठा और भलमानसाहत कभी जानलेवा भी हो सकती है, उन्होंने कभी सोचा तक नहीं था. घर में शादी का माहौल था, जेवरों और कपड़ों की खरीदारी चल रही थी. इस के बावजूद रमाशंकर ने अपनी ड्यूटी में कोई कोताही नहीं बरती थी.
31 अक्तूबर की देर रात यानी ड्यूटी बदलने के बाद 2 बजे जेल में क्या हुआ, यह किसी को भी ठीकठाक पता नहीं है. रमाशंकर यादव अपनी आमद दर्ज करा कर ड्यूटी के समय से कुछ मिनट पहले ही अंदर पहुंच गए थे. उन्हें मालूम था कि इस जेल में करीब 3400 कैदी या तो अपने जुर्मों की सजा भुगत रहे थे या फिर अदालती फैसले का इंतजार कर रहे थे. इन में से कई खूंखार कैदी थे, जिन्हें खासतौर से अलग बने ब्लौक-बी में रखा गया था. चूंकि दिवाली का दिन था, इसलिए अधिकांश कर्मचारी छुट्टी पर थे. ड्यूटी पर तैनात 70 में से केवल 40 प्रहरी ही ड्यूटी पर आए थे. बाकी ने जैसेतैसे कर के अपनी छुट्टी मंजूर करा ली थी. यह तो तब था, जब कुछ दिनों पहले ही आईबी ने जेल के बाबत सरकार को आगाह कर दिया था.
रमाशंकर यादव ने ड्यूटी संभाली और आदतन रोजाना की तरह ठकठक कर के चलते हुए चहलकदमी शुरू कर दी. इत्मीनान से एक पूरा चक्कर लगा लेने और यह तसल्ली कर लेने में कि कहीं कोई गड़बड़ तो नहीं है, उन्हें आधा घंटे से भी ज्यादा समय लग गया.
अपनी नौकरी से तो रमाशंकर खुश थे, लेकिन स्टाफ और आला अफसरों से असंतुष्ट रहते थे. जेल में बहुत कुछ ऐसा खुलेआम होता रहता था, जो कायदे कानूनों और नियमों के खिलाफ था. इस पर रमाशंकर खामोश ही रहते थे. लेकिन जब कभी छुट्टियों पर दोनों बेटे आते थे तो उन्हें इस गड़बड़झाले के बारे में जरूर बताते थे. मसलन जेल कर्मचारियों के साथ किस तरह भेदभाव किया जाता है. जो अधीनस्थ कर्मचारी अधिकारियों की जीहुजूरी में लगे रहते हैं, उन्हें उन की पसंद की ड्यूटी दे दी जाती है. कई कर्मचारी जेल में ऐसी चीजें ले जाते हैं, जिन्हें ले जाना प्रतिबंधित है.
रात करीब पौने 2 बजे जब रमाशंकर बी ब्लौक की गैलरी में पहुंचे तो उस समय रात के 3 या पौने 3 बजे होंगे. यह भी संभव है कि जिस वक्त प्रतिबंधित संगठन सिमी यानी स्टूडेंट इस्लामिक मूवमेंट औफ इंडिया के 8 कैदी जेल से भागे, वह 2 बजे के आसपास का वक्त रहा हो. वक्त कोई भी रहा हो, अब इस बाबत दावे से कोई नहीं कह पा रहा है कि उस वक्त घड़ी की सुइयां कहांकहां रही होंगी.
31 अक्तूबर की सुबह जब लोग दिवाली की थकान और खुमारी उतार रहे थे, तभी एक दिल दहला देने वाली यह खबर आई कि भोपाल सैंट्रल जेल से सिमी के 8 कैदी सुबह लगभग 2 और 3 बजे के दरम्यान भाग निकले हैं. जिस ने भी सुना, वह सकते में आ गया. खबर जंगल की आग की तरह देश भर में फैली और लोगों ने जी भर कर पुलिस, प्रशासन और जेल विभाग को कोसा.
घटना के मद्देनजर अंदाजा भर लगाया जा सकता है कि जिस वक्त रमाशंकर यादव बी ब्लौक की बैरकों के पास से गुजरे, तब यह देख उन का खून जम गया होगा कि अलग अलग बैरकों में बंद 8 कैदी बाहर आ गए थे. वे आठों बाहर की तरफ भाग रहे थे. यह देख कर रमाशंकर ने उन्हें रोकने की कोशिश की होगी तो उन कैदियों ने उन की हत्या कर देने में ही अपनी भलाई समझी होगी.
उन की हत्या में किसी घातक हथियार का इस्तेमाल नहीं किया गया, बल्कि इस के लिए जेल की थाली काट कर हथियार की तरह प्रयोग की गई थी. हत्या कर के भागे कैदियों में हकीकत बताने के लिए अब कोई जिंदा नहीं है. लेकिन इतना जरूर समझा जा सकता है कि जांबाज, ईमानदार और देशभक्त रमाशंकर यादव एक या 2 लोगों के काबू में आने वाले शख्स नहीं थे.
संभावना इस बात की ज्यादा है कि रमाशंकर यादव का यूं आड़े आना इन कैदियों के लिए अप्रत्याशित बात रही होगी, इसलिए उन्हें मार देने में ही उन्हें अपनी बेहतरी दिखी. तय है कि यह अडंगा उन की मिलीभगत की डील के शेड्यूल में नहीं था. उन का रास्ता अभी भी पूरी तरह साफ नहीं हुआ था. अभी ये लोग कुछ कदम ही चल पाए थे कि एक नई अड़चन ड्यूटी दे रहे प्रहरी चंदर सिंह तिलंघे के रूप में सामने आ गई. लेकिन जाने क्यों उन्होंने चंदर की रमाशंकर की तरह बेरहमी से हत्या नहीं की, बल्कि उस के हाथपांव बांध कर मुंह में कपड़ा ठूंस दिया. इस नजारे को देख बुरी तरह घबराए चंदर ने देखा कि सिमी के आठों आतंकी एक एक कर भाग रहे हैं, चूंकि उस के हाथ पैर बंधे थे और मुंह में कपड़ा ठुंसा हुआ था, इसलिए वह बेबसी से उन्हें भागते देखता रह गया.
जातेजाते इन कैदियों ने चंदर को धमकी भी दी कि अगर शोर मचाया तो गला काट देंगे. उन्होंने उस की जेब में रखी व्हिसल भी तोड़ दी, जिस से अगर वह किसी तरह अपने हाथ पैर खोल भी ले तो किसी को एकदम होशियार न कर सके. बेबस और तिलमिलाया चंदर उन लोगों को भागते देखता रहा. उस का वाकी टाकी संकेत दे रहा था, लेकिन वह कंट्रोल रूम को या दूसरे सहयोगियों को कोई जवाब नहीं दे पाया. चंदर की तरफ से कोई जवाब न मिलता देख कर्मचारियों ने जांच पड़ताल की तो उन्हें सिमी के कैदियों के इतने आसानी से भाग जाने की खबर लगी. कुछ दूरी पर ही रमाशंकर यादव की लाश पड़ी थी.
लेकिन तब तक बकौल चंदर 15 मिनट में ही 8 कैदी 3 दीवारें फांद कर जेल से फरार हो चुके थे. रास्ते में भी इन्हें रोकने वाला कोई नहीं मिला था. जेलर के दफ्तर के बाहर निगरानी केबिन पर तैनात कर्मी भी गायब था. इन खूंखार कैदियों के लिए खासतौर से तैनात किए गए एसएएफ के 4 जवान का भी कोई अतापता नहीं था.
भगोड़े कैदियों ने फिल्मी स्टाइल में 32 फुट ऊंची दीवार फांदी, इस के लिए उन्होंने जेल में मिली चादरों के बीच बांस फंसा कर सीढ़ी बनाई और इस के बाद एक के ऊपर एक चढ़ कर दूसरी तरफ कूद गए. ये लोग कूदे या उतरे यह भी इन पंक्तियों के लिखे जाने तक स्पष्ट नहीं हो पाया था. लेकिन यह तो साफ है कि इतनी ऊंचाई से कूदने पर हाथोंपैरों और शरीर का सलामत रहना कतई मुमकिन नहीं है.
खबर मिलते ही जेल में हड़कंप मच गया. वहां मौजूद कर्मचारियों ने तुरंत इस घटना की खबर शीर्ष अधिकारियों को दी. अधिकारियों ने तुरंत मुख्यमंत्री शिवराज सिंह चौहान को इस घटना से अवगत कराया. उस वक्त रात के करीब 3 बजे थे. इस खबर ने शिवराज सिंह चौहान की नींद उड़ा दी. उन्होंने आला अफसरों को इस हिदायत के साथ कुछ निर्देश दिए कि उन्हें पलपल की खबर दी जाए.
इस बीच जेल का सायरन बजा था या नहीं, इसे ले कर भी दूसरी कई बातों की तरह विरोधाभास है, लेकिन जल्द ही सायरन बजाती गाडि़यां जेल की तरफ भागती दिखीं. उस वक्त भी भोपाल में छिटपुट आतिशबाजी हो रही थी. एकएक कर जेल और पुलिस विभाग के कई अधिकारी जेल पहुंचे और घटना की जानकारी ले कर आंखें फाड़े उन 8 बैरकों की तरफ देखते रहे, जिन की चाबियां सही सलामत डेढ़ किलोमीटर दूर जेलर के कमरे में रखी थीं.
जाहिर है, कैदियों ने ताले तोड़े नहीं, बल्कि खोले थे. कई हैरतअंगेज कारनामों और हिंसक वारदातों को अंजाम दे चुके इन कैदियों के बारे में कहा यह गया कि इन लोगों ने टूथब्रश की चाबियां बना ली थीं. यह शायद सन 2016 का सब से बड़ा मजाक था. सुबह 8 बजे तक लोगों को पता चल गया था कि क्या कुछ हो चुका है और कैसे हुआ है. उस दिन दिवाली के चलते अखबारों का अवकाश था, इसलिए हैरानी के मारे लोग न्यूज चैनल्स खोल कर बैठे रहे. वैसे यह खबर सोशल मीडिया पर ज्यादा वायरल हुई.
सुबह 9 बजे प्रमुख सचिव जेल ने निरीक्षण के बाद माना कि मिलीभगत के चलते ही आतंकी भागने में कामयाब रहे. इस से ठीक आधा घंटा बाद केंद्रीय गृहमंत्री राजनाथ सिंह ने फोन पर मुख्यमंत्री शिवराज सिंह चौहान से इस मामले की पूरी जानकारी ली. फिर आधा घंटे बाद यानी 10 बजे राज्य सरकार ने जेल अधीक्षक सहित 4 और कर्मचारियों को सस्पैंड कर दिया. 8 कैदी जो अब आतंकी करार दिए जा चुके थे, जेल से भागने में कामयाब रहे थे और अभी तक पकड़े नहीं गए थे. यह बात न केवल चिंता की थी, बल्कि दहशत फैलाने वाली भी थी. क्योंकि ये सिमी के खूंखार कार्यकर्ता थे.
बहरहाल, दोपहर होते होते घटना से पूरा देश परिचित हो चुका था और हर कोई जेल प्रबंधन की लापरवाहियों पर सवाल उठा रहा था. हर किसी ने एक बात तमाम विरोधाभासी बातों के बीच भी मानी कि बगैर किसी मिलीभगत के कैदी इस तरह जेल से नहीं भाग सकते, जिस तरह से भागे. इसी दौरान सोशल मीडिया पर सिमी के कैदियों की फोटो सहित क्राइम कुंडली भी वायरल हुई, जिस से लोगों ने जाना कि भागे हुए कैदियों पर लगे आरोप कितने गंभीर थे.
पुलिस मुख्यालय में हुई एक अहम मीटिंग के बाद पुलिस ने सर्चिंग शुरू की और आसपास के गांवों में अलर्ट जारी कर दिया. कैदियों को पकड़ने के लिए खोजी कुत्तों की मदद ली गई, पर वे कुछ खास नहीं कर पाए. कैदियों को जमीन निगल गई या आसमान खा गया, यह पुलिस के लिए तय कर पाना मुश्किल था.
इधर बवाल बढ़ता देख मुख्यमंत्री शिवराज सिंह चौहान ने सुबह साढ़े 10 बजे एक आपात बैठक बुलाई और आला अफसरों को कुछ आवश्यक निर्देश दिए. मुख्यमंत्री की चिंता जायज थी, क्योंकि इस से प्रदेश सरकार की साख पर बट्टा लग रहा था. तब तक विपक्षियों ने भी सरकार पर हमला बोलना शुरू कर दिया था.
सोशल मीडिया खासतौर से वाट्सऐप पर सक्रिय लोग हताश हो कर मान चुके थे कि अब ये आतंकी पकड़ में आने वाले नहीं हैं. एक हद तक यह अंदाजा स्वाभाविक ही था, क्योंकि जिस योजनाबद्ध तरीके से ये कैदी भागे थे, उस से लग रहा था कि इन लोगों को भीतरी ही नहीं, बाहरी मदद भी मिली थी. आमतौर पर होता भी यही है कि जेल से भागने वाले कैदी या उन के साथी पहले ही छिपने का इंतजाम कर चुके होते हैं.
लेकिन इन कैदियों ने ऐसा कुछ नहीं किया था. सुबह हो जाने के बाद भी अंधेरे में हाथपैर मार रही पुलिस को उम्मीद की एक किरण तब दिखाई दी, जब खबर मिली कि भागे हुए कैदी अचारपुरा की तरफ जाते देखे गए हैं.
दरअसल, ये कैदी जेल से बाहर निकल कर कच्चे रास्ते से डोबरा गांव होते हुए दूसरे गांव मनीखेड़ी की पहाड़ी पर पहुंच गए थे, जो एक तरह से पठार है. उन्हें नजदीक के गांव खेजड़ा देव के सरपंच मोहन सिंह मीणा ने देखा था. इस से पहले पुलिस इलाके के सरपंचों को आगाह कर चुकी थी कि 8 आतंकी भागे हैं, अगर दिखें तो तुरंत खबर दी जाए.
संदिग्ध लोगों को देख कर मोहन सिंह मीणा ने नजदीक के गांव चांदपुर निवासी अपने परिचित जीतमल और दीपक से बात की तो उन्होंने भी बताया कि 8 सदिंग्ध लोग देखे गए हैं, जो खेजड़ा के नाले से लगे कच्चे रास्ते पर गए हैं. इस पर मोहन सिंह ने अपने दोस्त सूरज सिंह मीणा को बुला लिया और टोह लेने लगे. कुछ ही देर में उन्हें हाथ में डंडा लिए एक व्यक्ति दिखा. इस के बाद एकएक कर 7 और लोग भी दिखे तो उन्हें यकीन हो गया कि ये वही खूंखार आतंकवादी हैं, जो जेल से भागे हैं. तब तक वाट्सऐप पर भी इन आतंकियों के फोटो वायरल हो चुके थे.
चलते हुए ये आतंकी मनीखेड़ी की पहाड़ी पर जा पहुंचे तो सूरज सिंह ने फोन पर इस की सूचना टीआई जितेंद्र पटेल को दे दी. मोहन सिंह ने खेत में पानी दे रहे एक किसान को बुला कर गांव से सौ, सवा सौ लोगों को ले कर आने को कहा. कुछ ही देर में गांव वालों ने मनीखेड़ी पहाड़ी को घेर लिया तो आतंकी उन्हें धमकाते हुए पाकिस्तान जिंदाबाद के नारे लगाने लगे. गांव वालों पर उन्होंने पत्थर भी बरसाए.
एक और प्रत्यक्षदर्शी मुकेश सिंह मीणा ने तो इन आतंकियों से निपटने के लिए अपने बेटे से बंदूक तक मंगा ली थी. लेकिन मुकेश गोली चला पाते, इस के पहले ही दनदनाती पुलिस की गाडि़यां आ गईं और उन्हें गोली चलाने से रोक दिया. भोपाल पुलिस मायूसी के बाद भी हाथ पर हाथ धरे नहीं बैठी थी. इन आतंकियों की खोज के लिए 3 टीमें गठित कर दी गई थीं. पहली टीम में डीएसपी क्राइम डी.एस. चौहान और शाहजहांनाबाद थाने के टीआई वीरेंद्र सिंह चौहान थे, जिन के साथ एसटीएफ के नारायण सिंह सहित क्राइम ब्रांच के 10 सिपाही शामिल थे.
दूसरी टीम में एटीएस के डीएसपी अभिषेक रावत व शाहपुरा थाने के टीआई जितेंद्र पटेल की टीम को पर्याप्त जवान दिए गए थे. तीसरी टीम में बैरागढ़ के एसडीओपी नागेंद्र सिंह बैस, बैरसिया की एसडीओपी वीना सिंह और गुनगा थाने के टीआई चैन सिंह रघुवंशी को रखा गया था. इस टीम को भी भारी पुलिस दल दिया गया था. इन तीनों टीमों को सीटीजी का बल भी दिया गया था. तीनों टीमों की अगुवाई संयुक्त रूप से भोपाल नार्थ के एसपी अरविंद सक्सेना, एसपी (साउथ भोपाल) अंशुमान सिंह, एटीएस के एसपी प्रणय नागवंशी, एएसपी धर्मवीर यादव और क्राइम ब्रांच के एसपी शैलेंद्र सिंह चौहान कर रहे थे.
जैसे ही आतंकियों के मनीखेड़ी पहाड़ी पर होने की सूचना की पुष्टि हुई, इन तीनों टीमों ने पूरी पहाड़ी को तीन तरफ से घेर लिया. गांव वालों के साथ भारीभरकम पुलिस बल को देख कर आतंकियों ने जम कर पथराव करना शुरू कर दिया, जिस से कुछ जवानों को भी चोटें आईं. अब तक पुलिस वाले ग्रामीणों को पीछे कर चुके थे, जो एक ऐसे एनकाउंटर के प्रत्यक्षदर्शी बनने जा रहे थे, जिसे पहली बार पुलिस ने महज 8 घंटों में अंजाम तक पहुंचा दिया था. ये गांव वाले अपने अपने मोबाइलों से कारवाई की वीडियो रिकौर्डिंग भी कर रहे थे, जो बाद में चल कर पुलिस के लिए बहुत सिरदर्द साबित हुईं.
इस से पहले पुलिस औपचारिक कागजी काररवाई पूरी कर के इन आतंकियों के खिलाफ चंदन सिंह की तरफ से हत्या, हत्या की कोशिश, शासकीय कार्य में बाधा पहुंचाने और जेल से फरार होने की रिपोर्ट दर्ज कर चुकी थी. अब कोशिश इस बात की थी कि इन आतंकियों को कैसे काबू किया जाए. जब आत्मसमर्पण की बात करने पर आतंकी नहीं माने और लगातार पत्थर फेंकते रहे तो अरविंद सक्सेना के आदेश पर पुलिस वालों ने अपने बचाव में गोलियां चलाईं. बचाव में गोलियों का सीधा सा मतलब था एनकाउंटर, जिस के तहत पुलिस वालों ने सुबह लगभग 11 बजे अपने हथियारों से पिछली रात से भी ज्यादा आतिशबाजी की और करीब आधे घंटे में आठों आतंकियों को मार गिराया.
पुलिस वालों की मंशा साफ साफ इन आतंकियों को मार गिरा देने की ही थी. जिस पर बाद में बवाल भी मचा. अधिकांश गोलियां आतंकियों के सीने, पीठ और कमर के ऊपर लगी थीं, क्योंकि पुलिस वालों ने 3 तरफ से ताबड़तोड़ फायरिंग की थी. जब उन लोगों के मर जाने की तसल्ली हो गई तो लाशों को उठा कर पोस्टमार्टम के लिए भेज दिया गया. इस तरह एक अद्भुत एनकाउंटर बड़ी आसानी से संपन्न हो गया. मगर इस में सब कुछ ठीकठाक नहीं था, इस बात को सब से पहले कांग्रेसी नेता दिग्विजय सिंह ने यह कहते हुए उठाया कि पहले खंडवा से आतंकी भागे, अब भोपाल सैंट्रल जेल से, जांच होनी चाहिए कि ये किस की मिलीभगत है, क्या वे किसी योजना के तहत भगाए गए थे. यह सरकार पर एक गंभीर आरोप था, पर जाने क्यों संभवत: जानबूझ कर दिग्विजय सिंह ने साजिश के बजाय योजना शब्द इस्तेमाल किया, जबकि उन की मंशा उन के शब्दों से साफ झलक रही थी.
इस बयान से विवादों की आग भड़की तो उस में घी डालने का काम असदुद्दीन ओवैसी ने यह कह कर किया कि आतंकियों ने जूते और बेल्ट कैसे पहन रखे थे, वे नई जींस पहने थे. किस ने पहनाए उन्हें ये सब? वे सब जुडीशियल कस्टडी में थे यानी अंडर ट्रायल. अगर उन्हें मारा गया तो इस का आधार क्या है? एसटीएफ उन्हें गिरफ्तार कर सकती थी. ये तो सीधेसीधे सबूत नष्ट करना है. कसाब को भी हथियार होने के बावजूद पकड़ा गया था, जबकि पुलिस कह रही है कि आतंकियों ने पत्थर बरसाए. दिग्विजय सिंह का बयान अंदाजों पर आधारित था तो ओवैसी की बात में दम था. यह सोचने वाली बात थी कि आतंकियों के पास नए कपड़े, जूते, टीशर्ट कहां से आए? उन की दाढ़ी कैसे बनी वगैरहवगैरह.
ये बातें एकदम खारिज कर देने वाली नहीं थीं, क्योंकि एनकाउंटर के बाद मृत आतंकियों के पास हथियार होने न होने को ले कर 2 जिम्मेदार वरिष्ठ अधिकारियों के बयानों में वाकई विरोधाभास था. आईजी योगेश चौधरी ने कहा था कि आतंकियों ने पुलिस पर फायरिंग की थी. जवाबी काररवाई में उन का एनकाउंटर हो गया. 2 आतंकियों के पास से 12 बोर के 2 कट्टे, 2 के पास से 315 बोर के 2 कट्टे मिले. जबकि 3 के पास से धारदार हथियार मिले. इधर घटनास्थल पर गए आईजी एटीएस संजीव शर्मा ने कहा था कि आतंकियों के पास कोई हथियार नहीं था, न ही उन्होंने कोई फायर किया था.
सच क्या है, यह शायद जांच के बाद सामने आ पाए. लेकिन सोशल मीडिया पर काफी आक्रामक और दिलचस्प बहस हुई, जिस में लोग सीधे तौर पर 2 गुटों में बंटे नजर आए. इन में से वह गुट भारी पड़ा, जो यह कह रहा था कि एनकाउंटर भले ही फरजी हो, पर आतंकी तो असली थे. उन्हें इस तरह मारने में हर्ज क्या है. एक वायरल हुए वीडियो में साफतौर पर यह दिख रहा था कि पुलिस वाले बेहद नजदीक से एक आतंकी को गोली मार रहे थे. एक आवाज भी आ रही थी कि जल्दी करो, एसपी साहब आने वाले हैं.
मीडिया ने भी जम कर दलीलें दीं, पर वे जेल की हिफाजत और जेल विभाग में पसरे भ्रष्टाचार और लापरवाही के इर्दगिर्द सिमटी रहीं. इन में से अधिकांश बातों को लोग पहले से ही जानते थे. मसलन जेल में पैसे दे कर तमाम तरह की सुखसुविधाएं हासिल की जा सकती हैं. बाद में धीरेधीरे पता चला कि पैसों के दम पर कैदियों को वाकई काजू, किशमिश, चिकन वगैरह सब कुछ मिलता है. वे महंगे कौस्मेटिक आइटम भी इस्तेमाल करते हैं और पैसे दे कर मनचाही जगह फोन पर बात भी कर सकते हैं. और तो और, जेल में कंप्यूटर भी कैदी ही चलाते हैं और सीसीटीवी कैमरे भी वही ठीक करते हैं. यानी खेतों की हिफाजत बागड़ के हाथों में सौंप दी जाती है.
भ्रष्टाचार तो सिद्ध हो गया, पर यह सोचने की जरूरत कोई नहीं समझ रहा कि अगर इन आतंकियों की भागने की हिम्मत हुई तो उस की वजह भी पैसा ही था. भ्रष्ट और घूसखोर जेल विभाग के अधिकारी इन आतंकियों से दहशत तो खाते ही थे, पैसे भी लेते थे. ये भ्रष्ट लोग कौन हैं, उम्मीद की जानी चाहिए कि जांच में उन के नाम उजागर होंगे. कैदियों के भागने के बाद सरकार ने जेल अधीक्षक अखिलेश तोमर, जेलर अशोक वाजपेयी, मुख्यप्रहरी आनंदीलाल और सहायक जेल अधीक्षक विवेक परस्ते को निलंबित कर दिया था. डीआईजी जेल मंशाराम पटेल को मुख्यालय अटैच किया गया.
इस के बाद का घटनाक्रम नाटकीय और राजनैतिक रहा, हालांकि अधिकांश बातें एनकाउंटर और भाजपा सरकार के पक्ष में थीं. इस के बाद भी लोगों के मन में संदेह तो था ही. दिग्विजय सिंह के बयान पर जवाबी हमला करते हुए शिवराज सिंह चौहान ने कहा कि शहादत पर राजनीति करने वालों पर लानत है. अपनी बात में दम लाने के लिए उन्होंने सारा बवाल आतंकियों के हाथों मारे गए रमाशंकर यादव के आसपास लाने में कामयाबी भी हासिल कर ली. वे ढांढस बंधाने यादव के घर गए और उन के घर वालों से मिले. उन्होंने उन की बेटी सोनिया के सिर पर हाथ फेरते हुए कहा कि पापा नहीं तो क्या हुआ, मामा तो हैं. मामा यानी खुद शिवराज सिंह, जो आम लोगों और खासतौर से बच्चों में मामा के नाम से लोकप्रिय हैं. रमाशंकर की अर्थी को उन्होंने कंधा दिया और उन के नाम पर चौराहा बनाने की भी घोषणा कर दी. सहायता राशि भी बढ़ा कर 25 लाख कर दी गई.
यह एक मुख्यमंत्री के व्यक्तित्व और स्वभाव का मानवीय पहलू था, जिस का एक वाजिब असर यह हुआ कि जिस रमाशंकर के बेटे अपने जांबाज पिता की हत्या के बाद उस का जिम्मेदार जेल प्रशासन की लापरवाही और भ्रष्टाचार को ठहरा रहे थे, उन की नजर और नजरिया अचानक बदला और उन्होंने भी कहा कि आतंकियों का कोई धर्म नहीं होता. इस तरह उन का एनकाउंटर किया जाना कोई हर्ज की बात नहीं है.
चूंकि दाल में काफी कुछ काला था, इसलिए सरकार ने पहले ही दिन घोषणा कर दी कि इस घटना की जांच एनआईए द्वारा कराई जाएगी. 1 नवंबर को एनआईए की टीम ने जेल की बारीकी से जांच भी की, इस बाबत फोन पर मुख्यमंत्री ने केंद्रीय गृहमंत्री राजनाथ सिंह से आग्रह भी किया था. लेकिन दूसरे ही दिन कहा गया कि एनआईए से जांच कराए जाने की कोई जरूरत और वजह नहीं है. अब जांच रिटायर्ड डीएसपी नंदन दुबे करेंगे. आखिर में जांच के लिए रिटायर्ड जज एस.के. पांडे की अगुवाई में एक न्यायिक आयोग का गठन कर दिया गया. जिन कैदियों को बारबार आतंकी कह कर हल्ला मचाया जा रहा था, उन की मौत की सूचना अदालत को देते वक्त पुलिस ने उन्हें विचाराधीन कैदी कहा.
जांच की शुरुआत में ही स्पष्ट हो गया कि जेल प्रशासन ने वाकई लापरवाही बरती है. जांच के बिंदु भी तय हो गए, जिन में रमाशंकर यादव की हत्या शामिल नहीं थी, जोकि होनी चाहिए थी. क्योंकि तमाम हालात के मद्देनजर यह कोई भी दावे या गारंटी से नहीं कह सकता कि उन की हत्या भगोड़े कैदियों ने ही की थी, जो अब सच बताने के लिए दुनिया में नहीं हैं. आयोग जिन बिंदुओं पर जांच कर रहा है, दरअसल वे इस मामले में क्लीन चिट देने वाले हैं. जांच में जाने क्यों ये बिंदु शामिल नहीं हैं कि क्या चंदन सिंह ने कैदियों को रमाशंकर की हत्या करते देखा था? साथ ही यह भी कि जेल की दीवार के पास बांस क्यों रखे गए थे?
क्या 8 कैदियों का वजन चादर में फंसाई बांस की खपच्चियां उठा सकती हैं, वह भी महज 15 मिनट में, ये बातें भी अपने आप में एनकाउंटर को साजिश करार देने के लिए काफी हैं. टूथब्रश से चाबी बनाने की बात तो यकीन से परे है. जांच इस बात की होनी चाहिए कि कहीं ताले असली चाबियों से तो नहीं खोले गए थे. लाख टके की बात यह है कि टूथब्रश से बनी चाबियां और कैदियों के पुराने कपड़े कहां हैं?
ऐसा भी नहीं कि सब कुछ खत्म हो गया हो, जेल सूत्रों की मानें तो दरअसल भागने की तैयारी बी ब्लौक की सेल में बंद 8 नहीं, बल्कि 9 आतंकियों ने की थी. नौवां आतंकी इरफान है जो अपनी बैरक की चाबी टूट जाने की वजह से नहीं भाग नहीं पाया. लेकिन यह लेख लिखे जाने तक इरफान ने अपना मुंह नहीं खोला था, पर इतना तय है कि अगर उस ने ईमानदारी से अपना मुंह खोला तो कइयों के मुंह बंद हो जाएंगे.?