एक पुरानी मंगोलियन कहावत है, ‘हमलावर हमेशा डरा रहता है.’ इसलिए जब किसी हमलावर के खिलाफ कोई पलटकर खड़ा हो जाता है, तो एक बार को तो हमलावर की सिट्टीपिट्टी गुम हो जाती है, चाहे फिर वह कितना ही ताकतवर क्यों न हो. पिछले लगभग 5 दशकों से जब से 1962 में भारत और चीन के विरूद्ध हुई लड़ाई में चीन को बढ़त हासिल हुई थी, तब से लगातार चीन जब तब भारत के साथ हमलावर अंदाज में हरकतें करता रहा है और आमतौर पर भारत बातचीत के जरिये चीन की आक्रामकता को काबू में करने की कोशिश करता रहा है. लेकिन इस बार मामला कुछ अलग हो गया है. जिस तरह 3 जुलाई 2020 को अचानक प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी लद्दाख पहुंच गये और वहां जवानों को संबोधित करते हुए पूरी दुनिया का भारत की दृढ़ता का संदेश दिया, उसके साथ ही चीन कूटनीति के वैश्विक चक्रव्यूह में घिरने लगा है.
प्रधानमंत्री मोदी ने लद्दाख के अपने संबोधन में चीन का नाम नहीं लिया, उन्होंने सिर्फ इतना भर कहा है कि यह विस्तारवाद का दौर नहीं है, यह विकासवाद का दौर है. विस्तारवादी जिद पूरी दुनिया की शांति भंग करेगी. इस प्रतीक वाक्य में निश्चित रूप से चीन को ही संबोधित किया गया है, लेकिन चीन का कहीं नाम नहीं लिया गया. अंतर्राष्ट्रीय कूटनीति का ये बहुत बुनियादी सिद्धांत है कि जब तक किसी का साफ तौरपर नाम न लिया जाए, उसे कोई देश अपने लिए कहा गया नहीं समझता. लेकिन चीन की बौखलाहट से साफ पता चलता है कि उसके पास कूटनीतिक तौर तरीकों में बने रहने का धैर्य नहीं बचा. यही वजह है कि चीन के भारत स्थित राजदूत ने साफ तौरपर कहा है कि चीन विस्तारवादी नहीं है.

ऐसा नहीं है कि प्रधानमंत्री मोदी के लद्दाख जाने के पहले चीन को लेकर दुनिया की सोच कुछ अलग थी. दुनिया चीन को लेकर पहले भी वही सोच रखती थी, जो 3 जुलाई 2020 को प्रधानमंत्री मोदी के लद्दाख दौरे के बाद सोच रखती है. लेकिन मोदी के इस दौरे के बाद दुनिया खुलकर वे बातें कहने लगी है, जो पहले इशारों से कही जा रही थीं. सबसे पहले तो चीन का धुर विरोधी जापान खुलकर भारत के साथ आ गया है. जापान ने साफ तौरपर कह दिया है कि एलएसी के साथ किसी तरह की छेड़छाड़ नहीं होनी चाहिए. दूसरी बड़ी बात यह हुई है कि यूनाइटेड नेशन में भारत के प्रतिनिधि ने हांगकांग को लेकर बयान दिया है कि वहां भारतीय नागरिक भी रहते हैं. भारत के इस बयान को आनन फानन में 27 देशों ने समर्थन किया है.
इन दो संदेशों के अलावा एक और बड़ा संदेश है, जो रूस की तरफ से आया है. रूस ने भारत को रक्षा संबंधी सैन्य साजोसामान आपूर्ति करने की अपनी वचनबद्धता दोहरायी है. इससे साफ होता है कि रूस भारत के साथ खड़ा है, जबकि पिछले दो पखवाड़ों से चीन हर हाल में रूस को अपने साथ खड़े रखने की कोशिश कर रहा था. आज की तारीख में दुनिया का कोई भी ताकतवर देश चीन के साथ सार्वजनिक तौरपर खड़ा नहीं है. चीन के साथ सार्वजनिक तौरपर सिर्फ पाकिस्तान है, जिसकी अंतर्राष्ट्रीय परिदृश्य में जरा भी हैसियत नहीं है. अमरीका पहले ही चीन के सख्त विरोध में था, यहां तक कि अमेरिका के विदेश मंत्री और खुद प्रेसिडेंट डोनाल्ड ट्रंप ने साफ साफ शब्दों में कह दिया है कि चीन की सैन्य दादागिरी पर न सिर्फ उनकी नजर है बल्कि किसी भी आपात समय पर इस पर काबू करने के लिए अमेरिका अच्छी खासी तादाद में अपने सशस्त्र सैनिकों को यूरोप से निकालकर दक्षिण एशिया की सुरक्षा में लगाने जा रहा है.

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देखा जाए तो चीन को अब के पहले किसी ने इस कदर डिप्लोमेटिक तौरपर अलग थलग नहीं किया था, जैसा भारत ने फिलहाल कर दिया है. दुनिया के 13 देश चीन से किसी न किसी तरह से पीड़ित हैं, लेकिन इनमें से वियतनाम के अलावा कोई भी देश अब तक चीन के विरूद्ध खुलकर कुछ नहीं कह रहा था. अब भारत के डटकर चीन के खिलाफ खड़े हो जाने के कारण इन 13 देशों में से लगभग सभी देश बोलने लगे हैं और अगले कुछ महीनों में ये बहुत मुखर ढंग से चीन से मुकाबिल हो जाएं तो इसमें आश्चर्य की बात नहीं होनी चाहिए. प्रधानमंत्री मोदी के अचानक किये गये लद्दाख दौरे ने सिर्फ चीन को ही यह संदेश नहीं दिया कि भारत अपनी आन, बान और शान के लिए आखिरी सांस तक पूरे जज्बे के साथ मोर्चे पर खड़ा है बल्कि इससे चीन के अलावा भी तमाम दूसरे देशों को साफ संदेश गया है कि भारत और चीन के बीच में उन्हें जिसे भी चुनना है स्पष्ट तौरपर चुनना पड़ेगा.

पिछले कुछ दिनों में जिस तरह से चीन के साथ साथ पाकिस्तान ने भी सरहद पर हरकतें करने की कोशिश की हैं और नेपाल ने हास्यास्पद तरीके से कुछ बयानबाजियां की थीं, उससे लग रहा था कि जैसे सिर्फ चीन ही मुगालते में नहीं है बल्कि उसके चलते पाकिस्तान और नेपाल जैसे देश भी भारत को लेकर मुगालता पाल रहे हैं. लेकिन प्रधानमंत्री के इस दृढ़ और जीवंत कदम ने पाकिस्तान और नेपाल को ही नहीं पूरी दुनिया को संदेश दे दिया है कि भारतीय सीमाएं न सिर्फ सुरक्षित है, वहां भारत के सैनिक खड़े हैं और जब चाहें यहां भारत के प्रधानमंत्री जा सकते हैं. ऐसा होना हमेशा सरहद के सुरक्षित होने का सबूत होता है.
प्रधानमंत्री मोदी के लद्दाख दौरे के बाद आॅस्ट्रेलिया, जापान, वियतनाम, यूरोप, अमेरिका आदि हांगकांग के मामले में ज्यादा मुखर हो गये हैं. यह इस बात का सबूत है कि चीन अलग थलग पड़ रहा है. चीन की सबसे बड़ी निराशा रूस को लेकर है, क्योंकि रूस कई बार चीन और अमेरिका के मामले में हमेशा चीन के साथ खड़े होता रहा है. लेकिन जिस तरह से तनाव की चरम सीमा पर रूस ने भारत को बेहद ताकतवर हथियार बेचने के लिए राजी है, उससे चीन को साफ संदेश है कि भारत के विरूद्ध रूस उसके साथ नहीं है. हम सब जानते हैं कि चीन का एक महत्वाकांक्षी चीनी सपना है और वह पिछले एक दशक से धीरे धीरे मजबूती से आगे बढ़ भी रहा था. चाहे अमेरिका के साथ, द्विपक्षीय व्यापारिक रिश्तों में चीन का अपरहैंड रहना रहा हो या साउथ चाइना सी में दुनिया की तमाम चेतावनियों के बावजूद चीन के दबदबे की बात रही हो या कहें चीनी कब्जे की लगातार ज्यादा मजबूत रहने की बात रही हो.

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लेकिन मोदी के लद्दाख दौरे के बाद चीन के अपने इस महत्वाकांक्षी सपने को धक्का लगा है. दुनिया के तमाम देश जो पहले ही चीन से खफा बैठे थे, लेकिन उन्हें कोई नैतिक और राजनीतिक मुद्दा नहीं मिल रहा था कि वो चीन के विरूद्ध कैसे खुलकर सामने आयें. लेकिन भारतीय सरहद पर अतिक्रमण करने की कोशिश करके और अब वहां जमे रहने की दादागिरी दिखाकर चीन ने इन देशों को आधार दे दिया है कि वो उसे किस तरह घेरें. कुल मिलाकर अगर व्यापक परिप्रेक्ष्य में देखा जाए तो चीन ने भारत से पंगा लेकर अपने महत्वाकांक्षी चीनी सपने के पैर में कुल्हाड़ी मार ली है. अब भी वक्त है चीन की आंखें खुल जाएं वरना उसे ये सब बहुत भारी पड़ेगा.

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