21वीं सदी में आने के बाद भी इस से बड़ी विडंबना क्या होगी कि आज भी हम पुनर्जन्म, प्रेतयोनि, पिंडदान व अस्थि विसर्जन में उलझे हैं. कब हम समझेंगे कि ये संस्कार महज ब्राह्मणों की जेबें भरने के लिए हैं न कि मृतक के परिवार को सांत्वना देने के लिए.

आश्चर्य तो तब होता है, जब हौलीवुड के संस्कारों व नैतिक मूल्यों को आदर्श मानने वाले भारतीय फिल्म कलाकार व निर्माता ‘भूत पार्ट वन : द हौंटेड शिप,’ ‘अमावस’, ‘परी’, ‘स्त्री’, ‘भूतनाथ’ आदि जैसी फिल्में बना कर अंतिम संस्कार के पाखंड व अंधविश्वास को बढ़ावा देते हैं. यही कहा जा सकता है कि बहुत थोड़े से लोगों के जीवन में तर्क का स्थान है व बहुत थोड़े से लोग ही तार्किक जीवन पद्धति अपनाते हैं. शेष तो कोल्हू के बैल की तरह आंखों पर पट्टी बांधे जुत (जोतना) रहे हैं. जोतने वाले पंडेपुरोहितों के पूर्वजों ने जो भय पैदा किया, वह कायम है.

सोलह संस्कारों की यात्रा पंडेपुरोहितों द्वारा सोचसमझ कर बनाई गई व्यवस्था है. इस का एक ही उद्देश्य है कि उन की पाखंड की जीविका चलती रहे. यह एक तरह का मुस्तकिल काम है. भले ही तीनों वर्णों के पास खाने को न रहे, वे बेकाम बैठे रहें, लेकिन पंडेपुजारियों की जीविका चलती रहे, उन का पेट भरता रहे, इस को ध्यान में रख कर हर संस्कार में ब्राह्मणों की उपस्थिति व दान की व्यवस्था की गई है.

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इसीलिए कहा गया है कि पंडेपुरोहित जन्म से ले कर मरने तक के खानेपीने का इंतजाम जजमान से कर गए हैं, जो पीढ़ीदरपीढ़ी बदस्तूर कायम है. खानापीना भी ऐसा जिस में कच्चा भोजन यानी चावलदाल नहीं. ब्राह्मण दूसरे वर्णों का कच्चा भोजन नहीं ग्रहण करते. यह दोष माना जाता है. पका भोजन यानी तलाभुना भोजन जैसे पूड़ीकचौड़ी और दूधदही इत्यादि ही वे ग्रहण करते हैं. अब जजमान भीख मांग कर लाए या चोरीछिनैती कर के, अगर मृतक को प्रेतयोनि से मुक्ति दिलानी है, तो पंडेपुरोहित को पका भोजन कराए.

‘भागते भूत की लंगोटी भली,’ अंतिम संस्कार में यह कहावत सटीक बैठती है. इस के बाद तो जजमान से कुछ मिलने वाला नहीं. मिलेगा कैसे? वह तो दिवंगत हो गया. सो, प्रेतयोनि का भय दिखा कर जितना ऐंठा जा सके, पंडेपुरोहित ऐंठते हैं.

इस संस्कार को विधिविधान से संपन्न कराने में परिवारजन भी पीछे नहीं हटते. जीतेजी मृतक पानी के लिए तरसता हो, पर मरने के बाद मृतक को पासपड़ोसी व रिश्तेदार शिकायत का मौका नहीं देते. दूसरा, भय भी रहता है कि संस्कार ढंग से नहीं किया, तो प्रेत बन कर सताएगा.
मृतक को ठिकाने लगाना हमारी अनिवार्यता है. मगर जिन अंधविश्वासों को ध्यान में रख कर हम 13 दिन का खटकर्म करते हैं, वह धन व समय के अपव्यय के अलावा कुछ नहीं.

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मुक्ति का फंडा भी अजीबोगरीब है. 13 दिनों के खटकर्म के बाद मृतक प्रेतयोनि से मुक्त हो जाता है. पहले यह जानना चाहिए कि क्या प्रेत होते हैं? क्या आज तक किसी ने प्रेत देखा? पुरोहित कहता है, इन्हें विधिविधान से ठिकाने न लगाए जाए, तो परेशान करते हैं. अनेक लावारिस लाशें जला दी जाती हैं. क्या ये लाशें प्रेत बन कर अपने परिवार वालों को परेशान करती हैं? क्या किसी ने ऐसा अनुभव किया है? अगर ऐसा है तो तमाम बेकुसूर लोग जो किसी अपराधी या अराजक तत्त्वों द्वारा मारे जाते हैं, क्यों नहीं प्रेत बन कर अपराधियों को सताते हैं?

तमाम माफिया व राजनीतिक हत्यारे कत्ल कर के भी मस्ती से घूम रहे हैं. उन का क्या बिगाड़ा प्रेतों ने? मरने के बाद भी लाश न मिलने की स्थिति में अनेक परिवार अपने परिजनों का अंतिम संस्कार नहीं करते, इस आशा से कि वह (मृतक) लौट कर आएगा. होना तो यह चाहिए कि मृतक, प्रेत बन कर परिवार वालों को परेशान करने लगे, जिस से उन्हें पता लग जाए कि जिसे वे जिंदा समझ रहे हैं, वह अब दुनिया में नहीं रहा. क्या ऐसा हुआ है? ज्यादातर सैनिक परिवारों के साथ ऐसा होता है.

दरअसल, प्रेत एक काल्पनिक चरित्र है जिसे पंडेपुरोहितों ने भयादोहन के लिए रचा है. वहम का कोई इलाज नहीं. पीढ़ीदरपीढ़ी इस वहम को स्थानांतरित किया जाता है. इस प्रकार पंडेपुजारियों को जजमान का आर्थिक शोषण करने का भरपूर मौका मिलता है.

मृतक की मृत्यु के 13वें दिन का खटकर्म सिर्फ पंडेपुरोहित के खानेपीने के लिए बनाया गया है. जो व्यक्ति अपने परिजनों को जलाता है वह 10 दिनों तक जमीन पर, सफेद वस्त्र में मुंडन करा कर सोता है तथा प्रतिदिन पीपल के वृक्ष पर टंगी हांडी, जिस के बारे में कहा जाता है कि मृतक प्रेतयोनि में आ कर इसी हांडी में रहता है, को दीपक व पानी देता है. पानी देने का मतलब, प्रेत को पानी देने से होता है. यानी मरने के बाद भी मृतक पीछा नहीं छोड़ता. तो क्या प्रेत जीवित शरीर है, जो उसे प्यास लगेगी? पीपल के पेड़ पर सिर्फ शनिवार छोड़ शेष दिन प्रेतों का वास होता है.

पंडेपुजारियों ने पीपल के पेड़ का हौआ इतना बना दिया है कि रातबिरात, जेठ की दुपहरिया के सन्नाटे में जल्दी उधर से कोई जाता नहीं. आग लगाने वाला आदमी मृतक को जलाने का पाप करता है, सो प्रायश्चित्तस्वरूप जमीन पर सो कर स्वयं को कष्ट देता है. यह समझ से परे है.
लाश को ठिकाने लगाने के तरहतरह के रास्ते हैं. अब कोई जलाए या गाड़े या फिर चीलकौओं को खिला दे, क्या फर्क पड़ता है, जैसा पारसी करते हैं. क्या पारसियों की समृद्धि में कोई कमी आई? गरुड़पुराण के अनुसार, 10 दिन ब्राह्मणों को भोजन व मिष्ठान्न खिलाना चाहिए. जिस के घर गमी पड़ जाए, क्या उसे खिलाना अच्छा लगेगा?

गरुड़पुराण के अनुसार, मृतक का 10 दिनों तक हर दिन पुत्र द्वारा पिंडदान करना अनिवार्य है. जिस का पिंडदान नहीं होता, वह निर्जन वन में 6 करोड़ कल्पभर प्रेतयोनि में भटकता है. इसलिए पुत्र को पिंडदान अवश्य करना चाहिए. पिंड चावल, जौ और तिल वगैरह से बनता है.

इस पिंडक के 4 भाग होते हैं. इस में पंचभूत के लिए 2 भाग, जिस से शरीर बनता है, तीसरा भाग यमदूतों को मिलता है, चौथा भाग प्रेत (मृतक) खाता है, क्या यमदूतों को मृतक को यमलोक में ले जाने के पारिश्रमिक के रूप में यह मिलता है?

इस प्रकार 9 दिनों का पिंडदान प्रेत खाता है. आश्चर्य है, प्रेत भी खाता है? प्रेत का शरीर 10वें दिन के पिंड से बनता है. तब वह चलने लायक होता है. यमदूत इसी शरीर को पकड़ कर ले जाते हैं. पूर्व शरीर के जल जाने के बाद पुत्र द्वारा दिए गए पिंडदानों से उस जीव (मृतक) को देह मिलती है, जो हाथभर का होता है.

10वें दिन के पिंड से उस देह में क्षुधा व तृषा उत्पन्न होती है. भूखप्यास से पीडि़त प्रेत, 11वें व 12वें दिन के श्राद्ध के भोजन से अपनी भूख मिटाता है.
11वें दिन और्ध्वदैहिक क्रिया की जाती है.

इस में ब्राह्मणों को बुला कर उन से हाथ जोड़ कर प्रेतयोनि की मुक्ति के लिए प्रार्थना की जाती है. सोने के विष्णु, चांदी के ब्रह्मा, तांबे के शिव, लोहे के यमराज बनाए जाते हैं. ब्राह्मण का चरण धो, वस्त्र आदि में उन की पूजा की जाती है. फिर लड्डू, पूआ, दूध व अन्य पके हुए फल भोजन के लिए दिए जाते हैं. इस के अलावा सांड़ भी छोड़ा जाता है. इस से मृतक को प्रेत से मुक्ति मिलती है. प्रेतयोनि से भले ही मुक्ति न मिले, हां सड़कों पर छुट्टा घूमने वाले सांड़ अकसर मनुष्य योनि से मुक्ति दिलाते हैं.

पिंडदान से बने शरीर को यमदूत यमलोक ले जाते हैं. रास्ते में अनेक कष्ट झेलता, वर्ष के अंत में यमलोक के करीब बहुभीतिपुर पहुंचता है तो हाथभर का शरीर त्याग कर मात्र अंगुष्ठ भर का हो जाता है, जो कर्मों के हिसाब से यातना सहने के लिए तैयार हो जाता है.

12वें दिन को सपिंडन कहा गया है. इस दिन 12 ब्राह्मणों को भोजन कराने का प्रावधान है. और इस दिन शैय्यादान भी करना चाहिए. शैय्या मजबूत लकड़ी की बनी, रेशमी सूत से बीनी, स्वर्ण पात्रों से शोभित होनी चाहिए. हंस के समान श्वेत रुई से ढके गद्दे व तकिया, सुंदरसुगंधित चादर बिछी हो जैसी शैय्या भूमि पर स्थापित करनी चाहिए. छाता, चांदी की दीवट, चामर, आसन, पात्र, झारी, गड़ुआ, दर्पण व 5 रंगों का चंदवा आदि उस शैय्या के चारों तरफ रखना चाहिए. उस शैय्या पर स्वर्ण की लक्ष्मी-विष्णु समेत, विष्णु की मूर्ति को गहने व आभूषणों से सजाया जाना चाहिए.

स्त्री की शैय्या पर काजल, रोली, वस्त्राभूषण आदि सुहाग की वस्तुएं सजाने के पश्चात गंध पुष्प से भूषित, ब्राह्मणी को कान में सोने के आभूषण व अंगूठी, सोने की सिकरी से सुशोभित करना चाहिए. इस के बाद ब्राह्मणब्राह्मणी को दान कर देना चाहिए.

शैय्यादान के पश्चात पददान दिया जाता है. जो मृतक  यममार्ग में गए हैं, पददान से उन्हें सुख मिलता है. छाता, जूता, वस्त्र, अंगूठी, कमंडल, आसन, पंचपात्र आदि पददान में आते हैं. इस के अलावा, दंड, तांबे के पात्र, भोजन, यज्ञोपवीत देने से पददान संपूर्ण माना जाता है.

12वें दिन, 13 ब्राह्मणों को 13 पददान देना चाहिए. ऐसा करने से मृतक, जो यममार्ग से यम के पास जाता है, को काफी सुविधा मिलती है. मसलन, यममार्ग में काफी गरमी पड़ती है, छाता देने से मृतक को छांव मिलती है. दुर्गम रास्ते पर चलने से पैर में छाले पड़ जाते हैं, इसलिए जूता दिया जाता है. कमंडल देने से, अतिधूप के चलते प्यास लगने पर जल मिलता है. तांबे का पात्र देने से हजार प्याऊ लगाने का फल मिलता है. भले ही उस ने जीते जी अपने पड़ोसियों को एक बूंद पानी न दिया हो, तो भी? ब्राह्मण को भोज देने से धीरेधीरे यममार्ग पर जाते मृतक को भोजन मिलता है.

ये तमाम चीजें, जो ब्राह्मणों को दानस्वरूप मिलती हैं, सब मृतक के काम आती हैं. इसे हास्यास्पद ही कहेंगे कि खाए ब्राह्मण, पेट भरे भूखे का. इस के अलावा वार्षिक श्राद्ध में भी ब्राह्मणों को भोजन कराया जाता है.

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