कभी सुना था कि नेता हमेशा जनता का अग्र बन कर नेतृत्व प्रदान करता है और जनता नेता के पीछेपीछे उस के बताए रास्तों पर चलती है. भारत में कई ऐसे नेता पैदा हुए जिन्होंने मजदूरों किसानों का नेतृत्व किया. कई नेता ऐसे आए जिन्होंने भ्रष्टाचार के खिलाफ बिगुल बजाया, कईयों ने न जाने कौन से रामराज्य का ख्वाब दिखाया. लेकिन जैसे जैसे समय बदला, समय के साथ साथ नेता जमीन से गायब होने लगे. गायब हुए नेता को ढूँढा तो शानदार चमचमाती 10 बाई 10 के बैनरों और पोस्टरों की शान बन गए. चुनाव शुरू हुए कि पंडित के माथे का टीका बन गए, जय श्रीराम का उद्घोष बन गए, दलित के बीच जय भीम बन गए, और हां.., कहीं कहीं मुसलमानों की टोपी भी बन गए. बस नहीं बन पाए तो किसी की भूख, बेगारी, और लाचारी.

आज ये नेता कमरों में बंद हैं, कोई रामायण देख रहा है तो कोई जनता के लिए चिंतामग्न है. लेकिन करे तो करे क्या भाई, बाहर जा कर बीमार थोड़ी होना है. आखिर जमीन से उठ कर इन नेताओं ने अपने लिए शाम-दाम-दंड-भेद से बड़ेबड़े आशियाने बनाए है. क्या यह इसलिए कि बुरे वक़्त में काम भी न आ सके. खैर, अपना घर होना दिलचस्प बात है, कमबख्त रोक ही लेता है बाहर जाने से. लेकिन नेतागिरी का चस्का घर बैठे जिंदगी से थोड़ी निकल जाता है. इसलिए जितनी संतुष्टि और खुन्नस इस लाकडाउन से आ रही है उसे ट्विटर पर 150 अक्षरों में ही सही लेकिन पेल दो, आखिरकार देश के लेमनचुसिया मध्यम और उच्च वर्ग तक तो बात पहुंचेगी. ओहो…अब इस में ओफेंड होने की क्या बात? लेमनचुसिया ही तो कहा है, अब है तो है.

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अब यही देखो, सुंदर अभिनेत्री कटरीना कैफ घर में बर्तन धोते हुए वीडियो में सन्देश दे रही थी कि घर का काम कर के बोरियत से बचे, तो यह देख कर सुमन चाची बहुत हंस पड़ी. अब बेचारी कटरीना को क्या पता कि जिस काम को वह बोरियत से बचने का तरीका सुझा रही है सुमन चाची के लिए यह काम रोटी कमाने का जरिया है. वहीँ ऋषि कपूर यानि चिंटू जी, सरकार से ट्विटर पर दारु के ठेकों से लाकडाउन हटाने का रिक्वेस्ट कर रहे थे. अब वह अपने चिंटूपने वाली हरकतों से बाज आए तो पता चले कि मजदूरों के पास खाने को दाना तक नहीं है. भोले है  क्या करे, अपनी अमीर मासूमियत को कुछ समय के लिए छुपा भी नहीं पा रहे है.

जिस समय हमारे प्यारे अमीर गिटार और हारमोनियम बजा, अन्ताक्षरी खेलकर, पेंटिंग बना कर लाकडाउन के खट्टेमीठे अनुभव शेयर कर रहे थे, जैसे मानो स्कूली बच्चों की छुट्टियाँ पड़ी हों और उन्हें मजा आ रहा हो, उस समय दिल्ली से बरेली जाने वाला ललित को उकडू बना कर सरकार जबरदस्ती केमिकल से नहला रही थी. वैसे सही हुआ ललित के साथ, कमबख्त नहाता भी तो नहीं है. हमेशा कहता है मजदूर हूँ मिटटी में जन्मा हूँ मिटटी में मरूँगा.

हद है यार, इस बेशर्म बिमारी ने सारे देशों के बॉर्डर लांघ दिए हैं, गरीब से लेकर अमीर किसी भी देश में फर्क नहीं छोड़ा. अब जब यह हमारे देश में है तो बेचारे अमीर लोग अपनी आज़ादी का मजा लेने कहीं विदेश निकल भी नहीं पा रहे. जैसा वो हमेशा से करते आए थे. कितनी दुख की बात है न, लेकिन जहां दुख है वहां सुख भी है. सुना है देश के सब से अमीर आदमी मुकेश अम्बानी ने लाकडाउन के कारण पहली बार मुंबई में अपने 27 मंजिला एंटिला मकान के अच्छे से दर्शन किये. वरना इस से पहले उन्हें पता ही नहीं था कि किस माले में पार्क है और किस में स्विमिंग पूल. खैर आजकल उनके लिए समस्या इस बात की है कि वे भूल जाते है कि खाना किस कमरे में है और सोना किस कमरे में है. वहीँ आनंद महिंद्रा साहब तो लोगों को यह बताने में लगे है कि वो घर में लुंगी पहनते है. सही हुआ उन्होंने बता दिया, अब पूर्वांचल के दिहाड़ी मजदूर और बंगाली बाबु मारे खुशी के खुद को महिंद्रा समझ कर अपनी दिमागी भूख मिटाने में मस्त हैं.

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अमीरों को कितनी टेंसन है अपने अमीरियत का हिसाब रखने की. इस से अच्छी जिन्दगी तो गरीब लोगों की होती है. नेताओं के 8 बाई 8 के बेनर जितने कमरों में रहते है. वहीँ खाना, वहीं सो जाना. आसपड़ोस की निकटता का अंदाजा इसी से लगाया जा सकता है कि किसी सज्जन की छोड़ी हुई विषेली गैस 3 घर छोड़ कर चौथे घर में पहुंच जाती है. और वो भी झट से सूंघ कर समझ जाता है कि फलाने घर में क्या बना था.

2011 की जनगणना के अनुसार मुंबई की 42 फीसदी आबादी झुग्गी झोपड़ियों में रहती है. यह आबादी पूरे मुंबई के मात्र 7 फीसदी क्षेत्र में अपना जीवन गुजरबसर करती है. वहीँ पुरे महारष्ट्र की झुग्गियों में रहने वाली आबादी का 66.5 फीसदी हिस्सा एक कमरे में अपना जीवन चला रही है. मोदी जी के विकास मोडल वाले गुजरात में 69.8 फीसदी और ईमानदार केजरीवाल की दिल्ली में 61.3 फीसदी हिस्सा एक कमरे में अपना जीवन गुजरबसर कर रही है.

जब बात मुंबई की हुई है तो सुना है कोरोना धारावी में भी घुस चुका है. क्या मुसीबत है यार. अब इन गरीबों का भी इलाज करना पड़ेगा सरकार को. भले बिमारी अमीर लाए हों लेकिन ये गरीब लोग किसी बिमारी से कम है क्या? बेचारी सरकार को चिंता इस बात की है कि कोरोना के आड़ में यह गरीब लोग टीबी के इलाज में सरकार का खर्चा न करवा दें. इन गरीबों से तो सोशल डिस्टेंस भी मेन्टेन नही होता. लेकिन झुग्गी में रहने वाला गरीब भी क्या करे? जिस धारावी में कोरोना घुसा है वहां इतने लोग है कि अगर उस इलाके में रहने वाले लोगों का अनुपात उस इलाके के कुल क्षेत्र से लगाया जाए तो मोदीजी का एक मीटर वाला सोशल डिस्टेंस भी फेल हो जाए.

आखिर इन गरीबों की समस्या क्या है?

माना यह अस्पताल, सड़क, मोल, बस और न जाने क्या क्या बनाते है उससे क्या, इस का मतलब यह तो नहीं की यह सरकार की बात ही न माने. अब देखो, सरकार ने कितनी मेहनत से लोगों का ध्यान हिन्दू मुस्लिम में बांटा है. लेकिन इन्हें चैन कहां, फिर से इन गरीब मजदूरों ने अपनी दो कौड़ी की औकात दिखा दी. आ गए न ये सेकड़ों की संख्या में सूरत की सड़कों में भात मांगते हुए. सुना है पुलिस को भी पीटा है आगजनी भी की है. सड़कों में उधम मचाया है. अखबार से पता चला कि यह मजदूर कई दिनों से भूखे थे. सरकार इन्हे राशन नहीं पहुंचा रही थी.  आसपास ढाई किलोमीटर के इर्दगिर्द कोई दुकान ही नहीं थी. बाहर निकल रहे थे तो सरकारी डंडे इन तक जरूर पहुँच जा रहे थे. खैर इनकी भूख का मसला हमारा नहीं हैं हम तो घर में अच्छे से खा पीकर ट्वीट कर रहे है.

हमारा मसला राष्ट्र का है. इसलिए देश के एक जिम्मेदार हष्टपुष्ट खाते पीते नागरिक के तौर पर इन भूखनंगे मजदूरों से सीधा सवाल. क्या तुम देश के खातिर एक महीने तक भूखे नहीं रह सकते?

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