(एनआरसी, सीएए और एनपीआर से संकट में किन्नर समाज)
दिल्ली में शंकर रोड की लालबत्ती पर जब कारें रुकती हैं, एक किन्नर कारों के शीशे खटका कर पैसा मांगता दिखता है. साड़ी-बिन्दी-चूड़ी में वह किन्नर हमेशा उसी चौराहे पर दिखता है. हर बार जब तक ट्रेफिक सिग्नल लाल रहता है, वह चार-छह गाड़ियों से पन्द्रह-बीस रुपया इकट्ठा कर ही लेता है और बदले में देने वाले के सिर पर हाथ फेर कर खुश रहने का आशीर्वाद देता है.
उस रोज मैंने अपनी गाड़ी सड़क किनारे पार्क के पास रोक दी. हरी बत्ती होते ही चौराहे का ट्रैफिक चल पड़ा और वह किन्नर अपनी साड़ी संभालता जल्दी से फुटपाथ पर चढ़ गया. मैंने गाड़ी से बाहर आकर इशारे से उसे बुलाया तो कुछ खास मिलने की हसरत में वह लपकता हुआ चला आया. मैंने पचास का नोट पर्स से निकाल कर उसके हाथ पर रख दिया. वह खुशी-खुशी मेरे सिर पर हाथ फेर कर बोला – खुश रहो, जोड़ी बनी रहे….
मैंने पूछा, ‘क्या नाम है?’
‘मुन्नी…’
‘दिन भर में कितना कमा लेती हो?’
‘यही सौ-दो सौ…’
‘कहां रहती हो?’
‘बड़े पार्क के कोने पर …’
‘इस चौराहे पर हमेशा तुम ही दिखती हो, कोई और नहीं…?’
‘यह मेरा इलाका, इसीलिए मैं ही दिखती… हमारे में इलाके बंटे हैं… दूसरा नहीं आता मेरे में…’
‘पढ़ी-लिखी हो?’
‘नहीं…’
‘एनआरसी और सीएए के बारे में सुना हैे?’
‘नहीं… क्या है ये?’
‘सरकार सबूत मांगने वाली है तुम्हारे हिन्दुस्तानी होने का… दस्तावेज मांगेगी… मां-बाप का पता ठिकाना मांगेगी… तब रहने देगी यहां… कुछ है तुम्हारे पास?’
‘सबूत…?’ आश्चर्य से उसकी आंखें चौड़ी हो गयीं. ‘मेरे पास कोई सबूत नहीं है… मां-बाप की तो शक्ल ही नहीं देखी…’
‘दिल्ली की ही हो?’
‘अब कहां पैदा हुए यह तो नहीं जानते… अपने गुरूभाई के साथ रहते हैं यहां… वह भी मेरे जैसा है…. अगले चौराहे पर भीख मांगता है…’
‘उसको तो पता होगा… सबूत होगा…’
‘नहीं… उसके पास भी कोई सबूत नहीं… कीड़े पड़े सरकार को जो हमसे सबूत मांगे… हाय, हाय, हम कहां से लाएंगे कोई सबूत…?’
लालबत्ती होते ही वह पल्लू संभालते ताली पीटते फिर चौराहे पर रुकती कारों की तरफ भागा. पेट की आग बुझाने के लिए इस तरह चौराहों पर भीख मांगते देश भर में मुन्नी जैसे लाखों किन्नर हैं, जो इसी देश के नागरिक हैं, इसी मिट्टी में पैदा हुए हैं, उनके पुरखे भी सदियों से भारत-भूमि पर रहते आये हैं, मगर इनके पास अपनी आइडेंटिटी प्रूफ करने का कोई दस्तावेज नहीं है. इनको तो पैदा होते ही मां-बाप ने बदनामी के डर से घर से बाहर फेंक दिया. इनको नहीं मालूम कि ये कब और कहां पैदा हुए. इनका घर कहां है. इनके मां-बाप कौन हैं. ये भारत के नागरिक हैं यह साबित करने के लिए इनके पास कोई दस्तावेज नहीं है. कोई राशन कार्ड, वोटर कार्ड, आधार कार्ड, बर्थ सर्टिफिकेट, ड्राइविंग लाइसेंस, रेजिडेंस एड्रेस प्रूफ कुछ भी नहीं है, फिर भी हैं तो वे भारत के नागरिक ही. जिस मिट्टी में जन्में हैं उसी मिट्टी में मिलना चाहते हैं. कुत्ते-बिल्ली भी मरते दम तक अपना इलाका नहीं छोड़ते, उन्हें पकड़ कर कहीं और डाल आएं तो ढूंढते-ढूंढते वापस आ जाते हैं, फिर ये तो इन्सान हैं, अपनी जमीन से उखड़ कर कहां जाएंगे, कैसे जिएंगे, लेकिन मोदी सरकार को कागज चाहिए, नागरिकता सिद्ध करने वाले कागज. कागज न दिखाए तो वह गरीब, असहाय, निरीह, निरक्षर जनता के पैरों के नीचे से जमीन खींच लेगी. अमित शाह डंके की चोट पर कहते हैं कि एनआरसी होकर रहेगा, सीएए आकर रहेगा.
ये भी पढ़ें- सार्वजनिक पोस्टर पर विवाद, कोर्ट और सरकार आमने-सामने
असम में एनआरसी हुआ और 2000 किन्नरों से उनकी नागरिकता का अधिकार छीन लिया गया. असम में तैयार नेशनल रजिस्टर आफ सिटीजंस (एनआरसी) में ट्रांसजेंडर समुदाय के दो हजार से ज्यादा लोगों के नाम दस्तावेजों की कमी के चलते एनआरसी में शामिल नहीं हुआ. इन लोगों को न तो इनके मां-बाप का कुछ पता है, न घर का. इनके परिवारों ने तो इनके जन्म लेते ही इनसे नाता तोड़ लिया है, फिर कहां से लाएंगे ये अपने घर-परिवार का सबूत, अपने जन्म का सबूत, अपने हिन्दुस्तानी होने का सबूत?
असम देश का पहला राज्य है, जहां सीटिजन रजिस्टर लागू किया गया है. असम की पहली ट्रांसजेंडर जज स्वाती विधान बरुआ ने केन्द्र सरकार के इस क्रूर और अन्यायपूर्ण कानून के खिलाफ सुप्रीम कोर्ट में याचिका दायर की है. राष्ट्रीय नागरिक रजिस्टर को लेकर स्वाति विधान बरुआ की याचिका में कहा गया है कि एनआरसी में ‘अन्य’ का कॉलम नहीं दिया गया है. इसका मतलब साफ है कि ट्रांसजेंडर को पुरुष या महिला के रूप में अपना जेंडर बताना होगा, जो कि सम्भव नहीं है. इसके अलावा ज्यादातर ट्रांसजेंडर ऐसे हैं जिन्हें उनके घर वालों ने पैदा होते ही छोड़ दिया है और उनके पास 1971 से पहले का कोई दस्तावेज नहीं है, जो कि एनआरसी के लिए जरूरी बताया गया है.
बरुआ के मुुताबिक ट्रांसजेंडर समुदाय में मतदान की संख्या भी इसलिए कम रहती है क्योंकि इन लोगों के पास वोटर आईडी कार्ड तक नहीं हैं. ये देश के नागरिक होते हुए भी अपने मत का प्रयोग नहीं कर सकते हैं. वहीं सरकार द्वारा वोटर आईडी में जेंडर ऑप्शन भी नहीं बदले गये हैं. बरुआ ने कहा ‘मैं खुद थर्ड जेंडर ऑप्शन के तहत मतदान करना चाहती थी, लेकिन ऐसा नहीं कर सकी. मुझ पर पुरुष श्रेणी के तहत मताधिकार का इस्तेमाल करने का दबाव बनाया गया. मैंने मुख्य चुनाव अधिकारी से भी संपर्क किया ताकि जेंडर सम्बन्धी मेरे कागजात सही हो जाएं, लेकिन मुझसे चुनाव के बाद आने के लिए कहा गया.’
जज स्वाति विधान बरुआ की याचिका पर संज्ञान लेते हुए सुप्रीम कोर्ट ने असम में अंतिम राष्ट्रीय नागरिक रजिस्टर से लगभग दो हजार ट्रांसजेंडरों को बाहर करने के केन्द्र और राज्य सरकार के फैसले पर दोनों सरकारों से जवाब मांगा है. मुख्य न्यायाधीश एस.ए. बोबडे, न्यायमूर्ति बी.आर. गवई और न्यायाधीश सूर्यकांत की पीठ ने ट्रांसजेंडर जज स्वाती विधान बरुआ द्वारा दायर जनहित याचिका पर केन्द्र और राज्य सरकार को नोटिस जारी किया है.
गौरतलब है कि असम में एनआरसी की आखिरी लिस्ट पिछले साल अगस्त में आयी थी. इससे करीब 19 लाख लोगों को बाहर कर दिया गया था, जिसमें 2000 ट्रांसजेंडर भी हैं. अब इन तमाम लोगों की उम्मीदें सुप्रीम कोर्ट की सुनवाई पर टिकी हैं. जज स्वाति विधान बरुआ आल असम ट्रांसजेंडर एसोसिएशन (एएटीए) की संस्थापक भी हैं और असम की पहली ट्रांसजेंडर जज भी, वह कहती हैं, ‘एनआरसी से बाहर होने की वजह से ट्रांसजेंडर समुदाय के लोगों में आतंक पैदा हो गया है. यह लोग अब इस डर से सड़कों पर नहीं निकल रहे हैं कि कहीं सरकारी अधिकारी उनको पकड़ कर विदेशी घोषित करते हुए डिटेंशन सेंटर में ना भेज दें. बीते 31 अगस्त को एनआरसी की अंतिम सूची प्रकाशित होने के बाद ट्रंसजेंडर समुदाय के लोग पकड़े जाने के डर से पत्रकारों से भी बातचीत नहीं कर रहे हैं. यह लोग बेहद आतंकित हैं.’
बरुआ आगे कहती हैं, ‘भीख मांगना ही आज इस तबके के लोगों का प्रमुख पेशा है, लेकिन अब डर की वजह से जब यह लोग सड़कों पर नहीं निकल रहे हैं तो इनके भूखों मरने की नौबत आ गयी है. जो लोग नाचना-गाना जानते हैं, वह महज शादी-ब्याह या बच्चे होने पर ही वहां नाच-गा कर बख्शीश वसूल रहे हैं.’ जज स्वाति आक्रोशित हैं और आरोप लगाती हैं कि किन्नर समुदाय के लोगों को पैन कार्ड, ड्राइविंग लाइसेंस और दूसरे कागजात मुहैया कराने की जिम्मेदारी राज्य सामाजिक कल्याण बोर्ड की थी, लेकिन उसने अब तक इस दिशा में कोई पहल नहीं की है.
एसोसिएशन के दस्तावेजों के मुताबिक राज्य में वर्ष 2011 में जहां ट्रांसजेंडरों की तादाद 11,374 थी, वहीं अब यह बढ़ कर 20 हजार तक पहुंच गयी है, लेकिन महज दो सौ ट्रांसजेंडरों के ही अपने घरवालों से संपर्क है, बाकियों को अपने घर-परिवार का कुछ पता नहीं है.
राजधानी गुवाहाटी निवासी एक ट्रांसजेंडर जोआना कहती हैं, ‘मैं खुद को भाग्यशाली मानती हूं कि परिवार के साथ मेरे रिश्ते कायम हैं, इसलिए एनआरसी की सुनवाई के दौरान नागरिकता सम्बन्धी दस्तावेज पेश करने में मुझे कोई दिक्कत नहीं हुई, लेकिन जिन लोगों के घरवालों ने उनसे नाता तोड़ लिया है, या पैदा होते ही उन्हें सड़क के किनारे फेंक दिया, या जिन्हें किन्नर समुदाय के लोग अपने साथ ले गये, उनके लिए तो अपनी नागरिकता साबित कर पाना असम्भव है.
भारतीय समाज, कानून और थर्ड जेंडर
भारत भौगोलिक रूप से एक विशाल देश है. क्षेत्रफल के हिसाब से भारत विश्व में सातवें स्थान पर है, जबकि जनसंख्या के आधार पर भारत का विश्व में दूसरा स्थान है. भारत की जनसंख्या सन् 2011 की जनगणना के अनुसार 121 करोड़ है. इसमें पुरुषों की संख्या 62,37,24,248 और महिलाओं की संख्या 58,64,69,174 है. भारत में लिंगानुपात 943 है अर्थात 1000 पुरुषों पर 943 महिलाएं हैं.
सन् 2011 की जनगणना के अनुसार भारत में 79.80 प्रतिशत हिन्दू, 14.23 प्रतिशत मुस्लिम, 2.3 प्रतिशत ईसाई, 1.72 प्रतिशत सिख, 0.70 प्रतिशत बौद्ध, 0.37 प्रतिशत जैन और 0.66 प्रतिशत अन्य निवास करते हैं. भारतीय सामाजिक संरचना में एक वर्ग और है जिसे किन्नरों के नाम से जाना जाता है, जो सामाजिक असमानता या भेदभाव से सर्वाधिक पीड़ित है. इसे तृतीय लिंग या थर्ड जेंडर के तहत रखा गया है. इस लिंग के साथ असमानता समाज में चरम पर है. किन्नरों के साथ समाज का कोई भी वर्ग समानता का व्यवहार नहीं करता है. लैंगिक भिन्नता का पता चलने के बाद उन्हें घर, परिवार, स्कूल, कॉलेज, कार्य स्थल आदि सभी जगहों पर भेदभाव का सामना करना पड़ता है.
देश में हिन्दू धर्म की प्रमुखता होने के बावजूद देश का कोई एक राष्ट्रीय धर्म नहीं है. संविधान में भारत को एक धर्मनिरपेक्ष राष्ट्र घोषित किया गया है. भारतीय संविधान में देश में निवास करने वाले सभी नागरिकों को समान अधिकार दिये गये हैं. भारतीय संविधान की प्रस्तावना कहती है कि –
‘हम भारत के लोग, भारत को एक सम्पूर्ण प्रभुत्व-सम्पन्न, समाजवादी, पंथ-निरपेक्ष, लोकतांत्रिक गणराज्य बनाने के लिए तथा उसके समस्त नागरिकों को सामाजिक, आर्थिक और राजनीतिक न्याय, विचार, अभिव्यक्ति, विश्वास, धर्म और उपासना की स्वतंत्रता, प्रतिष्ठा और अवसर की समता प्राप्त कराने के लिए तथा उन सब में व्यक्ति की गरिमा और राष्ट्र की एकता और अखण्डता सुनिश्चित करने वाली बन्धुता बढ़ाने के लिए दृढ़ संकल्प होकर अपनी इस संविधान सभा को अंगीकृत, अधिनियमित और आत्मार्पित करते हैं.’
भारतीय संविधान के भाग-3 में अनुच्छेद-12 से लेकर 35 तक यहां के नागरिकों के मूल अधिकारों के बारे में बताया गया है. अनुच्छेद-14 से लेकर 18 तक में सभी नागरिकों को समानता का अधिकार दिया गया है अर्थात धर्म, मूल वंश, जाति, लिंग या जन्म स्थान के आधार पर किसी भी प्रकार के विभेद को रोका गया है. अनुच्छेद-19 से लेकर 22 तक नागरिकों की स्वतन्त्रता के बारे में है. अनुच्छेद 23 व 24 के अन्तर्गत शोषण के विरुद्ध मूल अधिकार दिये गये हैं. इसके अतिरिक्त समाज में समानता लाने के लिए संविधान के भाग 4 में राज्यों को कर्तव्य करने के निर्देश दिये गये हैं.
ये भी पढ़ें- मध्य प्रदेश – हनुमान भक्त जीतेगा या राम भक्त ?
अन्तरराष्ट्रीय तथा राष्ट्रीय स्तर पर सभी को समानता का अधिकार प्राप्त होने के बावजूद लैंगिक आधार पर समाज में विभिन्नता, भेदभाव, शोषण, तिरस्कार का बोलबाला है और इससे सबसे ज्यादा प्रताड़ित किन्नर हैं.
किन्नरों का पुरातन इतिहास
किन्नर समुदाय को – हिजड़ा, अरावानिस, कोठी, जोगप्पा, शिव-शक्ति, मंगलामुखी जैसे अनेक नामों से जाना जाता है. अप्रैल 2014 में सुप्रीम कोर्ट ने इस समुदाय को तृतीय लिंग (थर्ड जेंडर) कह कर सम्बोधित किया है. भारतीय समाज में पुरातन काल से लिंगों का निर्धारण कठोर रूप से दो ही रूपों में हुआ है – महिला और पुरुष, किन्तु समाज में एक और वर्ग हमेशा से देखने को मिलता है, जिनके लिंग का निर्धारण निश्चित नहीं होता. ‘किन्नर’ शब्द ऐसे व्यक्तियों के लिए प्रयोग होता है जो निर्धारित लिंग (स्त्री या पुरुष) से असंगति दिखाते हैं. जिनकी शारीरिक विशेषताएं निर्धारित लिंगों से भिन्न होती है या जिनकी शारीरिक विशेषताओं के निर्धारण में असमंजस की स्थिति होती है. इन्हें ‘हिजड़ा’ भी कहा जाता है.
हिजड़ा उर्दू का शब्द है जो कि अरब मूल के शब्द ‘हिज्र’ से लिया गया है, जिसका अर्थ है ‘एक कबीले को छोड़ना’. इस शब्द-व्याख्या से ही स्पष्ट है कि सदियों पहले भी ऐसे बच्चों को परिवार खुद से अलग कर देता था. उसकी पहचान छीन लेता था. उन्हें समाज से बेदखल कर देता था.
किन्नरों की वास्तविक स्थिति की व्याख्या करने से पहले प्राचीन काल से चली आ रही उनकी स्थिति को समझना आवश्यक है. किन्नर मनुष्य जाति का हिस्सा हमेशा से रहे हैं. किन्नर समुदाय का अस्तित्व ई.पू. 9वीं शताब्दी से लिपिबद्ध है. हिन्दू, जैन, बौद्ध तथा वैदिक संस्कृति सभी में तीन लिंगों की बात होती है. वैदिक काल (1500-500 ईसा पूर्व) में तीन लिंगों की चर्चा की गयी है – पुरुष प्रकृति, महिला प्रकृति तथा तृतीय प्रकृति. प्राचीन भारतीय कानून, चिकित्सा विज्ञान, भाषा शास्त्र तथा ज्योतिष शास्त्र में भी तृतीय लिंग के बारे में चर्चा है. पुराणों में भी तीन लिंग बताये गये हैं – गन्धर्व, अप्सरा और किन्नर. महाभारत में भी किन्नरों का उल्लेख मिलता है. अज्ञातवास के दौरान अर्जुन भी एक शाप के कारण साल भर किन्नर वृहन्नला के रूप में रहे थे. वहीं शिखंडी को भी किन्नर ही माना जाता है, जिसने महाभारत के युद्ध में पांडव सेना की ओर से लड़ाई लड़ी थी और जिसकी ओट लेकर अर्जुन ने भीष्म पितामह पर बाण चलाये थे. शिखंडी ही एक तरह से भीष्म की मृत्यु का कारण बना था.
मनुस्मृति (200 बीसी-200 एडी) में तृतीय लिंग की जैविक उत्पत्ति की व्याख्या कुछ इस प्रकार है – ‘पुरुष बीज के अधिक मात्रा में होने से नर शिशु बनता है. स्त्री बीज के अधिक मात्रा में होने से मादा शिशु बनता है और यदि दोनों बीजों की मात्रा बराबर रहती है तो तृतीय लिंग शिशु बनता है या नर-मादा जुड़वां बच्चे होते हैं.’
मुगल काल में समृद्ध थे किन्नर
मुगल काल में किन्नर समुदाय को विशिष्ट स्थान प्राप्त था. उनका राज-दरबार में काफी हस्तक्षेप रहता था. वह कुशल सलाहकार, प्रशासक तथा हरम के संरक्षक के पद पर तैनात थे. मुगल सल्तनत में इनकी वफादारी के लिए शासकों द्वारा इन्हें धन और जमीनें प्रदान की जाती थीं. ये लोग इज्जत के साथ समाज में जीवन बिताते थे, किन्तु ब्रिटिश काल की शुरुआत में किन्नर समुदाय को अनेकों राज्यों से अपनी सुरक्षा के लिए सहायता लेनी पड़ी थी. ब्रिटिश कानूनों ने इनसे जमीन के अधिकार छीन लिये थे. चूंकि इनका जैविक अधिकार खून के रिश्ते पर आधारित नहीं था, इस कारण किन्नरों के जीवन पर संकट आ गया. वे सड़क पर आ गये और भूखों मरने लगे. इसका दुष्परिणाम यह हुआ कि धीरे-धीरे यह समुदाय अपराध में लिप्त होने लगा. चोरी, डकैती, अपहरण, उगाही इनका पेशा हो गया. इसकी रोकथाम के लिए सन् 1871 में ‘क्रिमिनल ट्राइब एक्ट’ लाया गया. इसमें सभी किन्नर समुदाय को शामिल किया गया और उनके लिए सजा का प्रावधान किया गया. हालांकि स्वतंत्रता प्राप्ति के बाद सन् 1952 में यह कानून खत्म कर दिया गया.
वर्तमान हालात
सन् 2011 की जनगणना के आंकड़े दर्शाते हैं कि देश में करीब 19 लाख किन्नर जनसंख्या है, जो कि कुल जनसंख्या का 0.15 प्रतिशत है. यह समुदाय आज भी सामाजिक बहिष्कार का शिकार है. जो आश्रय स्थल, रोजगार, स्वास्थ्य सुविधाएं सामान्यता सभी को मिल जाती हैं, इस समुदाय को हासिल नहीं हो पाती है. किन्नर समुदाय सामाजिक, सांस्कृतिक जीवन, आर्थिक, राजनीतिक और निर्णय लेने की प्रक्रिया से दूर है. वह अपने परिवार और समाज से बहिष्कृत है. समाज के अन्य लोग इनसे दूरी बरतते हैं, इनसे बातचीत नहीं करते. इनको देखकर एक प्रकार की उपेक्षा और तिरस्कार व्यक्त करते हैं. ये वर्ग हिंसा का भी शिकार है. इन पर पुलिस का कहर आये-दिन टूटता है. इनमें से ज्यादातर अशिक्षित है और स्वास्थ्य सेवाओं तक भी उसकी बहुत सीमित पहुंच है. तमाम सरकार अस्पतालों में स्त्री और पुरुषों को देखने के लिए अलग-अलग व्यवस्था है, उनके लिए अलग वार्ड और अलग डॉक्टर भी हैं, जो उनकी समस्याओं को मनोवैज्ञानिक और संवेदनशीलता के लिहाज से देखते-समझते हैं, मगर किन्नरों के लिए देश के किसी अस्पताल में न तो अलग डॉक्टर हैं, न अलग वार्ड है और न ही मनोवैज्ञानिक और संवेदनशीलता के तहत उनका इलाज होता है. अक्सर इन्हें पुरुष डॉक्टर के पास भेज दिया जाता है, या पुरुष वार्ड में भर्ती किया जाता है. देश की सरकारें इस वर्ग के प्रति कितनी निर्मम रही हैं, यह इन बातों से ही साफ हो जाता है. इनकी शिक्षा के लिए कोई विशेष व्यवस्था सरकारी स्कूलों में नहीं है. यदि कोई किन्नर बच्चा स्कूल में शिक्षा प्राप्त करने के लिए आता है, तो अन्य बच्चों और यहां तक कि टीचर्स और स्टाफ द्वारा उससे भेदभाव बरता जाता है, उनका मजाक उड़ाया जाता है, उन्हें मारापीटा जाता है. यही वजहें हैं कि अधिकांश किन्नर बच्चे दहशत में स्कूल जाना बंद कर देते हैं और अशिक्षित रह जाते हैं.
ये भी पढ़ें- मध्य प्रदेश की सियासत में आया भूचाल, कांग्रेसी विधायक डंग ने दिया इस्तीफा
नीड़ से उजड़े
आमतौर पर भारतीय समाज में यदि कोई नर शिशु अपनी अपेक्षित लैंगिक भूमिका से विपरीत आचरण करने लगता है, स्त्रियों के समान कपड़े पहनना, व्यवहार करना, बोलना शुरू कर देता है तो परिवार वाले उसकी हालत को समझे बगैर उसे मारने-पीटने, डांटने या धमकी देने लगते हैं. कुछ परिवार तो समाज के मूल्यों के विपरीत लैंगिक आचरण के चलते अपने बच्चे को सभी अधिकारों से बेदखल कर देते हैं या उनका पूर्णतया त्याग कर देते हैं.
अधिकांश लोगों का मानना है कि घर में किन्नर बच्चा पैदा होने से परिवार को सामाजिक अपमान का सामना करना पड़ता है. ऐसे बच्चे के कारण लोग उनका मजाक बनाते हैं. ऐसे बच्चे के विवाह के अवसर भी न के बराबर होते हैं. ऐसा बच्चा उनका वंश भी आगे नहीं बढ़ा सकता, इन तमाम कारणों को देखते हुए परिवार अपने किन्नर बच्चे को कहीं दूर छोड़ आता है, अथवा किन्नर समुदाय स्वयं ऐसे बच्चे को अपने साथ ले जाता है. परिवार भी बदनामी के डर से किन्नर बच्चे को उन्हीं को सौंप देते हैं. किन्नर उस बच्चे को अपनी बस्ती में लाकर उसका पालन-पोषण अपने ढंग से करते हैं और आजीविका चलाने के लिए उसे नाचना गाना सिखाते हैं. बच्चे को कभी नहीं बताया जाता है कि वह किस परिवार में पैदा हुआ या उसके माता-पिता कौन हैं, उसका धर्म क्या है, उसकी जाति क्या है आदि, आदि.
कुछ किन्नर बच्चे, जिन्हें उनके माता-पिता जन्म लेते ही अपने से अलग नहीं कर पाते, वह अन्य भाई-बहनों के साथ बड़े होते हुए माता-पिता द्वारा किये जाने वाले भेदभाव को देखकर आहत होते हैं. वे इस भेदभावपूर्ण व्यवहार को सहन नहीं कर पाते या अपने परिवार के लिए लज्जा का कारण न बनें इसलिए स्वयं ही घर को छोड़कर भाग जाते हैं. कम उम्र में घर छोड़ देने के कारण ये अशिक्षित रह जाते हैं, परिणामस्वरूप नौकरी पाने में या आजीविका चलाने में इन्हें कठिनाई आती है. साथ ही इनके पास अपनी आइडेंटिटी प्रूव करने का कोई पुर्जा नहीं होता है.
पहचान का संकट
कम उम्र में घर छोड़ देने के कारण किन्नर समुदाय के सामने पैसों की कमी की गम्भीर समस्या हमेशा बनी रहती है. शिक्षित न होने के कारण नौकरियां भी नहीं कर पाते और समाज के कुछ लोग किन्नर समुदाय का होने के कारण जानबूझकर इन्हें नौकरी पर नहीं रखते हैं. वे इन पर भरोसा नहीं कर पाते. इनके व्यवहार को उपेक्षा और संदेह की दृष्टि से देखते हैं. किन्नरों के पास स्वयं का रोजगार शुरू करने के लिए पैसा नहीं होता और बिना आइडेंटिटी प्रूफ के सरकार की तरफ से भी वह कोई सहायता प्राप्त नहीं कर पाते. आवश्यक प्रमाण पत्र जैसे – पहचान पत्र, आय प्रमाण पत्र, निवास स्थान पत्र, बैंक खाता, आधार कार्ड, पासपोर्ट इत्यादि न होने से नौकरी-रोजगार से दूर इस समुदाय के अधिकांश लोग भीख मांगने, नाचने गाने या वेश्यावृत्ति के लिए मजबूर हैं.
आज देश का अधिकांश किन्नर समुदाय गरीब बस्तियों, तंग गलियों में अपना जीवनयापन कर रहा है. जहां मकानों में हवा तक आने-जाने की जगह नहीं है. समाज में हाशिये पर खड़े ये रोजाना किसी न किसी के हाथों प्रताड़ित, अपमानित और तिरस्कृत होते हैं. जनता और लोकतांत्रित तरीके से चुनी गयी सरकारों की उदासीनता और भेदभाव के कारण ये दरिद्रता, भीख मांगने व अपराध के दलदल में फंसते जा रहे हैं.
किन्नरों की प्रमुख समस्या ही ‘पहचान का संकट’ है. किन्नरों की पहचान ही अस्पष्ट है. अत: इन लोगों को आगे भी इसी से जुड़ी हुई समस्याओं का सामना करना पड़ता है. जैसे बच्चा गोद लेने में या उत्तराधिकार की समस्या. कोई दस्तावेज न होने के कारण न तो यह कोई बच्चा गोद ले सकते हैं और न ही घर-जमीन आदि खरीद सकते हैं.
मानव अधिकार दिवस हर साल आता है और चला जाता है. मानव अधिकार के सक्रिय कार्यकर्ता पुलिस हिरासत में होने वाले उत्पीड़न के बारे में चर्चा करते हैं, वे बच्चों और महिलाओं के विरुद्ध होने वाले दुर्व्यवहार, बच्चों की तस्करी आदि के बारे में डिबेट करते हैं, लेकिन किन्नर समुदाय के अधिकारों के बारे में कभी कोई चर्चा नहीं होती है.
एक अनुमान के अनुसार करीब पचास फीसदी किन्नर पूर्णत: अशिक्षित हैं. किन्नरों की सर्वाधिक संख्या मुंबई में है. जो वहां भीड़भाड़ वाली गंदी जगहों पर रहते हैं. इनकी कमाई का कोई निश्चित जरिया नहीं है. वे नाच-गा कर, भीक्षा मांग कर या वेश्यावत्ति के जरिए पैसा कमाते हैं. किन्नरों को सड़कों, चौराहों, बाजारों और समुद्र किनारे लोगों से पैसे मांगते देखा जाता है. ये दिनभर में बमुश्किल सौ-दो सौ रुपये तक कमा पाते हैं, जिनसे यह अपनी जरूरत का सामान भर खरीद सकते हैं. बहुत बड़ी तादात में किन्नर मुम्बई में तीस-चालीस सालों से रह रहे हैं, लेकिन अभी भी ज्यादातर के पास कोई पहचान पत्र, राशन कार्ड, निर्वाचन कार्ड नहीं है. इनके पास अपना घर नहीं है. ये समूहों में एक दूसरे का सहयोग करते हुए रहते हैं. तमाम शहरों के रेडलाइट एरिया में इन्हें ठौर मिलता है. भारतीय संविधान इनके अधिकारों के बारे में स्पष्ट रूप से अलग से कुछ नहीं कहता है. ऐसे में मोदी सरकार द्वारा थोपे जा रहे एनआरसी, सीएए या एनपीआर की कसौटी पर यह समुदाय दस्तावेजों के अभाव में किस तरह खरा उतरेगा? इस बात में संदेह नहीं, कि आने वाले वक्त में इस कानून के खिलाफ चल रहे देश व्यापी आन्दोलनों में यह तबका भी जल्द उतरेगा और तालियां पीट-पीट कर मोदी सरकार की भद्द उड़ाता दिखायी देगा.