राहुल गांधी ने हरियाणा की खाप सभाओं की जगह उत्तर प्रदेश के चुनावों के लिए खाट सभाएं शुरू की हैं. अपनी 2500 किलोमीटर की बस व पैदल यात्रा में राहुल गांधी बीसियों खाट सभाओं में बोलेंगे. पहली खाट सभा के बाद सुनने वाले उठने के बाद खाटें ही ले भागे, तो खूब मजाक उड़ाया गया. सोशल मीडिया और टीवी मीडिया के लोग, जो गद्देदार पलंगों पर सोते हैं, नहीं जानते हैं कि देश की आम जनता के लिए खाट आज भी कितना कीमती है और किस तरह एकएक खाट पर 2-2, 3-3 लोग सोते हैं.
देश के अमीरों के साथ यही दिक्कत है कि वे गरीबी के बारे में जानना ही नहीं चाहते. वे गरीबों से काम लेना चाहते हैं, उन से कर्ज पर ब्याज वसूलते हैं, सस्ते में अनाज खरीदते हैं, उन की जमीनों पर महल, मकान, मौल, मोटर कारखाने बनाना चाहते हैं, पर वे खाट ले जाएं, इस पर उन्हें हंसी आती है. वे राहुल गांधी को ‘खाट बाबा’ कहने लगें, तो आश्चर्य नहीं.
खाट आज भी गरीब घरों में अकेला फर्नीचर होता है. यह अगर चुनावों की खातिर मुफ्त में मिल रहा हो, तो गरीबों पर दया आनी चाहिए. शर्म आनी चाहिए कि पढ़ेलिखों ने इस देश को इस लायक क्यों नहीं बनाया कि शहर का स्लम हो या गांव का झोंपड़ा, खाट की कमी नहीं रहेगी?
देशभर में गरीबों का यही हाल है. तमिलनाडु में जयललिता साडि़यां और टीवी बांट कर जीतती हैं. कहीं मोबाइल दिए जाते हैं, कही लैपटौप देने का वादा होता है. बिहार में साइकिलें दी गईं.
देश के लिए सरकार चुनने के लिए हमारा वोट इतना सस्ता हो चुका है कि कोई भी मोटा पैसा दे कर जीत सकता है. नरेंद्र मोदी ने काले पैसे से 15 लाख हर खाते में जमा करा कर खूब वादा कर के चुनाव जीत लिया. राहुल गांधी ने तो असल खाट दे दी.
राहुल गांधी इन चुनावों में काफी सख्त पैतरे दिखा रहे हैं. 1947 से राज करने वाला परिवार आसानी से अंधेरे की गुमनामी में नहीं खोने वाला, यह अविवाहित बिना बेटेबेटियों वाले राहुल गांधी दिखा रहे हैं. उन का यह काम दिखा रहा है कि अपनी बीमार मां की चिंता एक तरफ करते हुए वे उत्तर प्रदेश के बहुत जरूरी चुनावों के लिए हड्डीपसली एक कर रहे हैं, जबकि चुनावों के बारे में पहले से अंदाजा लगाने वाले उन्हें 20-25 सीटें मिल जाने से ज्यादा का भाव नहीं दे रहे.
राजगद्दी पर बैठने वालों को इस तरह से फिर से शुरुआत करने की आदत रहनी चाहिए. ऐसे कितने ही परिवार हैं, जिन के बच्चों ने राजनीति को दलदल मान कर छोड़ दिया और दादापिता की कमाई पर मौज कर रहे हैं. सोनिया गांधी का 1998 में और अब 2016 में राहुल गांधी का उत्तर प्रदेश के मैदानों में लड़ाई में उतरना कम से कम हिम्मत का काम तो है. कांग्रेस राज किसी और राज से बेहतर होगा, इस की कोई उम्मीद नहीं है, पर लोकतंत्र में वोट की कीमत में खाट की कीमत भी जुड़ी है, यह पक्का है.