सुप्रीम कोर्ट ने इस बार पश्चिम बंगाल में गरीबों और मजदूरों की हमदर्द मानी जाने वाली वामपंथी मार्क्सवादी पार्टी के सिंगुर में टाटा कंपनी के लिए हजारों एकड़ जमीन जबरन हथियाए जाने को गलत ठहराते हुए न केवल जमीन वापस दिलवा दी है, बल्कि यह भी कह दिया है कि जो मुआवजा दिया गया था, वह लौटाया नहीं जाएगा. उसे किसानों को हुए नुकसान की भरपाई समझा जाएगा. अमीरों के लिए गाड़ियां बनाने के लिए टाटा ने वामपंथी सरकार को पटा लिया था कि गरीब पैदल फटे जूते पहनने वाले किसानों की जमीन छीन ली जाए, उन के घर उजाड़ दिए जाएं. उन के कामधंधे बंद कर दिए जाएं, ताकि फर्राटे से दौड़ने वाली गाडि़यां बन सकें. टाटा को एक तरह से जमींदारी दे दी गई थी. ऐसा ही हरियाणा में मारुति के कारखाने के लिए किया गया है. अब टाटा यही नरेंद्र मोदी के गुजरात में कर रहे हैं.
यह ठीक है कि कारखाने लगने चाहिए, पर जैसे कारखानों के लिए मशीनें बनाई जाती हैं, जमीन किसानों से खरीदी जा सकती हैं. अगर चक टेढ़ेमेढ़े हैं, तो क्या हुआ? अगर देश के कारीगर 4 फुट, 11 इंच के होंगे, तो क्या कानून बना कर उन्हें 5 फुट, 9 इंच का कर दोगे? भूखेनंगे किसानों को जबरन मुआवजा दे कर जमीन अगर लेनी है, तो सड़कों के लिए लो, नहरों के लिए लो, अस्पतालों के लिए लो, अदालतों के लिए लो. कारखानों या अमीरों के घरों के लिए क्यों? इसलिए कि वे कमजोर हैं, सरकार अपनी पुलिस फौज इस्तेमाल कर सकती है? एक जमाना था, जब जमीन की कीमत नहीं थी. तब का कानून ठीकठाक था. पर आज वह कानून बेकार हो गया है. सरकार तय करे कि किस किसान को जमीन कितने में मिले, कौन सी मिले और वह कहां जाए, यह नाइंसाफी ही नहीं, क्रूरता भी है. यह जिंदा लोगों को मार डालना है. उद्योग पनपें, पर जिंदा लाशों पर नहीं. उद्योग मरों को जिंदा करें, वे खुशहाली लाएं, न कि घर से निकल जाने का फरमान हों.