यह सचमुच हैरानी की बात है कि कभी इसलाम पर खतरे की बातें करने वाले लोगों ने आज खुद पूरी मुसलिम कौम को ही खतरे में डाल दिया है. इसलाम न कल खतरे में था और न आज खतरे में है. सचाई यह है कि खतरे में धर्म नहीं, लोग होते हैं. इतिहास इस बात का गवाह है कि लाखों यहूदी मौत के घाट उतारे गए, पर उन का धर्म जिंदा है. लाखों ईसाई मारे गए, पर ईसाई धर्म जिंदा है. लाखों बौद्धों का कत्लेआम हुआ, उन के मठ और विहार तोड़ दिए गए, पर बौद्ध धर्म खत्म नहीं हुआ. हिंदुओं पर भी कम जोरजुल्म नहीं हुए, पर हिंदू धर्म अपनी तमाम परंपराओं के साथ जिंदा है. लेकिन दिलचस्प बात यह है कि यह सारा खूनखराबा धर्म के नाम पर हुआ और आज भी धर्म के नाम पर लोगों को मारा जा रहा है.
आज मुसलिम पूरी दुनिया में निशाने पर हैं. उन्हें शक की निगाह से देखा जा रहा है. हवाईअड्डों पर उन की कड़ी चैकिंग की जाती है और अगर किसी सार्वजनिक जगह पर कोई जालीदार टोपी पहने काली दाढ़ी वाला नौजवान दिख जाता है, तो लोगों में दहशत भर जाती है. अमेरिका में राष्ट्रपति पद के उम्मीदवार डोनाल्ड ट्रंप ने तो मुसलिमों के अमेरिका में दाखिल होने पर बैन तक लगाने का ऐलान कर दिया है. यह संकट सिर्फ बाहर ही नहीं है, बल्कि खुद मुसलिमों के भीतर भी है. खुद मुसलिम देशों में वे महफूज नहीं हैं. वे शिया के नाम पर मारे जा रहे हैं, सुन्नी के नाम पर मारे जा रहे हैं. बाजारों में मारे जा रहे हैं, रैस्टोरैंटों में मारे जा रहे हैं. बसों और ट्रेनों में मारे जा रहे हैं. स्कूलों में मारे जा रहे हैं. मसजिदों में मारे जा रहे हैं. यहां तक कि अल्लाह की हुजूरी में इबादत करते हुए मारे जा रहे हैं. यह कैसा जिहादी जुनून है कि जिन मुसलिमों को दुनिया में ज्ञानविज्ञान में तरक्की करनी थी, वह आज उन की ही आबादी का दुश्मन बना हुआ है?
दहशतगर्दी के समर्थक कहते हैं कि इस का जिम्मेदार अमेरिका है. अमेरिका ने ही आतंकवाद पैदा किया है और वही उस को पालपोस रहा है. कुछ समर्थक मानते हैं कि इराक की लड़ाई और सद्दाम हुसैन को फांसी दिए जाने के बाद मुसलिमों का गुस्सा आतंकवाद के रूप में उभरा है. अगर ऐसा है, तो यह बड़ा दिलचस्प है कि इसलाम के नाम पर आतंक फैलाने वाले मुसलिम अपने ही धर्म भाइयों को मार रहे हैं. वे उन मुसलिमों को मार रहे हैं, जिन का इराक की लड़ाई से कुछ लेनादेना नहीं है. वे स्कूलों में घुस कर पढ़ने वाले बच्चों का खून बहा रहे हैं, जिन्होंने ठीक से अभी दुनिया में कदम भी नहीं रखा है. वे जिस तरह से लोगों को अंधाधुंध मार रहे हैं, जो एकदम बेकुसूर और बेगुनाह हैं, उस से पता चलता है कि उन का मकसद सिर्फ दहशत फैलाना है और कुछ भी नहीं.
हैरत होती है कि वे न तो अपने आकाओं से सवाल करते हैं और न ही अपने दिल से पूछते हैं कि जिन मासूमों का खून बहाने का मिशन उन्हें दिया गया है, उस से इसलाम या मुसलिमों या फिर उन के आकाओं का कौन सा मकसद पूरा हो रहा है? अजीब बात है कि इस आतंक के खिलाफ मुसलिमों की आवाज बहुत दबीदबी सी है. हालांकि यह इस बात का सुबूत नहीं है कि वे अलकायदा या इसलामिक स्टेट जैसे खूंख्वार आतंकी संगठनों को पसंद करते हैं. इस की वजह शायद यह है कि भारत, पाकिस्तान और बंगलादेश समेत पूरी दुनिया के आम मुसलिमों की धार्मिक बागडोर उन धर्मगुरुओं के हाथों में है, जो अपनेअपने तरीके से उन्हें इसलाम समझाते हैं और अपने फायदे के लिए उन का इस्तेमाल करते हैं. मिसाल के तौर पर बरेलवी और देवबंदी संप्रदायों के धर्मगुरु अकीदतमंदों को इस तरह टे्रनिंग देते हैं कि नमाज पढ़ने के तौरतरीके तक पर वे एकदूसरे का सिर फोड़ने के लिए तैयार हो जाते हैं. बरेलवी संप्रदाय के एक मौलाना ने देवबंदी मजलिस में शिरकत की, जो मुसलिम एकता के लिए कराई गई थी, तो बरेलवी अकीदे के मुसलिम मौलाना के खिलाफ हो गए. मौलाना ने माफी मांग कर मामले को खत्म किया. इस तरह की जमातों और धर्मगुरुओं की जबरदस्त जकड़बंदी को तोड़ना अकीदतमंद मुसलिमों के लिए एक नामुमकिन सा काम है. ऐसे मुसलिम आतंकवाद के खिलाफ किसी बड़ी मुहिम या तहरीक में अपने धर्मगुरुओं की मरजी के खिलाफ कैसे भाग ले सकते हैं?
यह सही है कि आतंकवाद के खंडन में कुछ उलेमाओं के बयान आते रहते हैं और ज्यादातर इसे इसलाम विरोधी भी मानते हैं, पर इस के खिलाफ दुनियाभर के मुसलिमों को एकजुट करने वाले किसी भी आंदोलन की अगुआई वे नहीं करते.
अभी बंगलादेश के एक पत्रकार सैयद बदरुल अहसन ने अपने एक लेख में, जो 8 जुलाई, 2016 को हिंदी के अखबार ‘अमर उजाला’ में छपा था, लिखा था कि ढाका, पैरिस, ब्रसेल्स, इस्ताम्बुल, बगदाद और मदीना समेत दुनियाभर में इसलामी स्टेट के ये तथाकथित जिहादी नास्तिक हैं. अभी तक इन्हें इसलाम का दुश्मन तो कहा जाता रहा है, पर इन्हें नास्तिक किसी ने नहीं कहा था. आज पहली बार किसी ने इन्हें नास्तिक कहा है. दिलचस्प है कि यह नास्तिक शब्द नया है. इनसानियत में यकीन करने वाले नास्तिकों के लिए यह बेइज्जती वाला हो सकता है कि वे बेगुनाहों का खून भी बहाते हैं, पर यह सचमुच तीखा मजाक है. इसलाम के नजरिए से देखें, तो मुसलिम भाईचारा उस का सब से बड़ा सामाजिक फलसफा है, पर इसलामी स्टेट के जिहादी इसी फलसफे को तारतार कर रहे हैं. उस की दूसरी सब से बड़ी ताकत फलसफा ए तौहीद (एकेश्वरवाद) है, जिस का मतलब सिर्फ यही नहीं है कि एक ईश्वर के सिवा दूसरा कोई ईश्वर नहीं है, बल्कि यह भी है कि मुसलिम वह श्रेष्ठ समुदाय है, जिसे अल्लाह के बंदों की भलाई की जिम्मेदारी सौंपी गई है और जिस का काम बुरे कामों को रोक कर भलाई के कामों को अंजाम देना है.
इस लिहाज से अल्लाह के बेगुनाह बंदों का कत्ल करने वाले ये तथाकथित इसलामी जिहादी मुसलिम तो कतई नहीं हो सकते. अगर मुसलिम भाईचारा और फलसफा ए तौहीद में उन का अकीदा होता, तो वे यकीनन इस गुनाह से बचते. कुरान, जिसे मुसलिम पाक और आसमानी किताब मानते हैं, में कहा गया है कि (3:138) ‘यह मानव जाति के अधिकारों का घोषणापत्र और अल्लाह से डरने वालों के लिए मार्गदर्शन और हिदायत है’.
साल 1990 में इसलामिक फाउंडेशन ट्रस्ट, मद्रास ने जो ‘यूनिवर्सल इसलामिक डिक्लेरेशन औफ ह्यूमन राइट्स’ छापा था, उस में भी इस आयत को मुख्य आधार बनाया गया था, तो क्या बेगुनाहों का खून बहाना, मासूम बच्चों को गोलियों से भूनना और शहरों को तबाह करना अल्लाह की हिदायत और ऐलान है? जाहिर है कि नहीं है, इसलिए इन तथाकथित जिहादियों को इस माने में नास्तिक कहा भी जा सकता है कि उन्हें अल्लाह का खौफ नहीं है. शायद ये जानते हैं कि अगर अल्लाह सच में है, तो वह अपने बंदों को इन शैतानों से जरूर बचाता. शायद यही वजह है कि मुसिलम भाईचारा और फलसफा ए तौहीद उन के लिए कोई अहमियत नहीं रखता है.
एक डाक्टर जाकिर नाईक हैं, जो प्रवीण तोगडि़या की तरह डाक्टर का पेशा छोड़ धर्म के उपदेशक बन गए हैं. वे इसलामी रिसर्च फाउंडेशन के संस्थापक हैं और पीस टीवी पर इसलाम पर तुलनात्मक तकरीरें करते हैं. इसलाम के मौजूदा तमाम फिरकों में एक फिरका उन का भी है डाक्टर जाकिर नाईक 30 से भी ज्यादा देशों में 2 हजार से ज्यादा सभाएं कर चुके हैं, जिन्हें सुनने के लिए हजारों की तादाद में पढ़ेलिखे नौजवान आते हैं. उन के ट्विटर और फेसबुक अकाउंट को भी लगभग सवा करोड़ लोग फौलो करते हैं. एक तरह से देखा जाए, तो पढ़ेलिखे मुसलिमों पर डाक्टर जाकिर नाईक का असर दूसरे इसलामी धर्मगुरुओं से ज्यादा पड़ता है, इसलिए इसलामिक स्टेट के जिहादियों को मुख्यधारा से जोड़ने की कूवत इस इनसान में सब से ज्यादा है. पर यह अजीब बात है कि डाक्टर जाकिर नाईक की तकरीरें और इसलामी बातें पढ़ेलिखे मुसलिम नौजवानों को और भी ज्यादा उग्र और जिहादी बनाती हैं. सवाल है कि क्या मानव जाति के लिए इसलाम के घोषणापत्र को डाक्टर जाकिर नाईक जैसे तथाकथित धर्मगुरु जिहादी मुसलिमों में क्यों नहीं भरते?