नेपाल में पिछले एक दशक से भी अधिक वक्त से जिस तरह की राजनीतिक अराजकता रही, उसका सार्वजनिक खर्च पर काफी बुरा असर पड़ा है. शांति प्रक्रिया शुरू होने के बाद कई सरकारें तो जबर्दस्त सियासी उठापटक के कारण वक्त पर बजट तक पेश नहीं कर सकीं. फिर विभिन्न मंत्रालयों में राजनीतिक मतभेद रहा और स्थानीय स्तर पर भी काफी असहमतियां रहीं. सत्ता में तेजी से बदलाव के कारण भी सरकार की प्राथमिकताओं में स्थिरता नहीं रही.
कुल मिलाकर, आलम यह रहा कि एक के बाद दूसरी सरकारें बजट में आवंटित रकम को प्रभावी तरीके से खर्च करने में नाकाम रहीं. इस तरह, ज्यादातर रकम यूं ही रह गई. इस साल हालात कुछ बेहतर हुए हैं. इस साल सालाना बजट तय वक्त से लगभग डेढ़ महीने पहले ही घोषित हो गया था. इसने यह पता चला कि देश की बड़़ी पार्टियों की मिल-जुलकर काम करने की क्षमता पहले से सुधरी है.
जिस समय बजट को जारी किया गया था, उससे यह उम्मीद जगी थी कि बजट राशि वक्त पर और प्रभावी तरीके से खर्च होगी. लेकिन दुर्योग से यह न हो सका. पुरानी आदत और नौकरशाही की काहिली अब भी दूर नहीं हुई है, इस कारण आवंटित राशि को खर्च करने में रुकावट बनी हुई है. मौजूदा वित्त वर्ष को शुरू हुए लगभग तीन महीने होने को आ गए, मगर सरकार कुल बजट का 0.9 फीसदी राशि ही खर्च कर सकी है. यही रफ्तार रही, तो वित्त मंत्रालय के लिए पहले चार महीने में पूंजीगत बजट की 32 प्रतिशत राशि खर्च करने का लक्ष्य हासिल करना असंभव हो जाएगा.
यह स्थिति नेपाल की अर्थव्यवस्था के लिए शुभ नहीं है. देश की पनबिजली, सिंचाई परियोजनाओं, हवाई अड्डों व सड़कों के निर्माण में निवेश निजी क्षेत्र को आकर्षित करने और रोजगार पैदा करने के लिहाज से काफी महत्व रखता है. इसके अलावा, वित्त वर्ष के शुरुआती महीनों में पूंजीगत व्यय में कमी न सिर्फ आर्थिक कुप्रबंधन के जोखिम पैदा करता है, बल्कि बाद के महीनों में इसकी वजह से भ्रष्टाचार की आशंकाएं भी बढ़ जाती हैं. इसलिए सरकार सार्वजनिक खर्च के स्तर को सही बनाने के लिए तुरंत तमाम जरूरी कदम उठाए.