हजारों साल पहले मखाना चीन से चला और जापान को लांघते हुए पूर्वोत्तर भारत होते हुए बिहार के मिथिलांचल में आ कर रुक गया. मिथिलांचल में जहां पानी का भरपूर भंडार है, वहां की आबोहवा और मिट्टी भी मखाने की उम्दा खेती के लायक है. मिथिलांचल के दरभंगा, मधुबनी, सहरसा, पूर्णियां, कटिहार, सुपौल और सीतामढ़ी जिलों में मखाने की भरपूर खेती होती है. मिथिलांचल के जिलों में करीब 16 हजार तालाब हैं, जिन में मखाने का भरपूर उत्पादन होता था, पर पिछले कुछ सालों से ज्यादातर तालाबों का इस्तेमाल ही नहीं हो रहा?है. मखाने की खेती ठहरे हुए पानी के तालाब में ही होती है. डेढ़ से 2 मीटर गहराई वाले तालाब मखाने की खेती के लिए काफी मुफीद होते हैं. कृषि वैज्ञानिक ब्रजेंद्र मणि कहते?हैं कि मिथिलांचल में मखाने की अच्छी व कुदरती खेती होती है. समूचे भारत में मखाने का कारोबार 800 करोड़ रुपए का है और देश भर में करीब 15 हजार हेक्टेयर क्षेत्र में मखाने की खेती होती है, जिस में से 80 फीसदी पैदावार बिहार में होती है. बिहार में भी 70 फीसदी पैदावार मिथिलांचल में होती है. तकरीबन 12.50 लाख टन मखाने की गुर्री पैदा होती है, जिस में से 45 हजार टन मखाने का लावा निकाला जाता है.

मखाने का उत्पादन करने वाले मधुबनी के किसान अजय मिश्रा बताते हैं कि मिथिलांचल में भरपूर पानी होने की वजह से यहां मखाने की उम्दा और काफी पैदावार होती है. मखाने की बोआई दिसंबर से जनवरी के बीच पूरी कर ली जाती है और अप्रैल महीने तक तालाब का ऊपरी हिस्सा पूरी तरह से मखाने के बड़े और कंटीले पत्तों से भर जाता है. मई महीने में पानी में ऊपर बैगनी रंग के फूल आने शुरू हो जाते हैं, जो 2-3 दिनों में खुद ही पानी के भीतर चले जाते हैं. जुलाई महीने के आखिर तक मखाने की फसल तैयार हो जाती है और हर पौधे में 12 से 20 फल लगते हैं. फटने के बाद मखाने तालाब की निचली सतह पर जमा हो जाते हैं.

पानी के अंदर से मखाने को निकालने का काम काफी मुश्किल और जोखिम भरा होता है. प्रति हेक्टेयर क्षेत्र में करीब 15 माहिर मजदूर पानी के भीतर गोता लगा कर मखाने को निकालते हैं, जिस में कम से कम 15 दिनों का समय लगता है. पानी के नीचे सतह पर जमे मखाने के बीजों को बुहार कर जमा किया जाता है और बांस से बने गांज के जरीए उसे बाहर निकाला जाता है. बीजों को हाथों और पैरों से मसलमसल कर उस के?ऊपरी छिलके को हटाया जाता है. गुर्री को भून कर एकएक दाने को हथौड़ी जैसी लकड़ी से फोड़ा जाता है. कृषि वैज्ञानिक सुरेंद्र नाथ बताते हैं कि दाने को फोड़ना बड़ी कारीगरी और सावधानी का काम है. दाने पर अच्छी चोट पड़ती है तो उस से बड़े साइज का मखाना निकलता है.मखाने को पानी के अंदर से निकालना काफी मुश्किल भरा काम होता है. मखाने के बीज को पानी के भीतर सतह से बुहार कर निकालना हर किसी के बस की बात नहीं है. इसे माहिर मल्लाह ही कर सकते हैं, पर इस काम में ज्यादा जोखिम औ र कम मुनाफा होने की वजह से मल्लाह इस काम को छोड़ रहे हैं. पिछले 27 सालों से मखाने निकालने का काम कर रहे देवेश साहनी बताते हैं कि गंदे पानी में घुस कर मखाने निकालने से मजदूर कई तरह के चर्म रोगों व निमोनिया जैसी बीमारी की चपेट में आ जाते हैं. बीमार पड़ने पर किसानों या सरकार द्वारा कोई मदद नहीं दी जाती है, जिस से सैकड़ों मजदूर घुटघुट कर मर जाते हैं. मल्लाह अपने बच्चों को यह काम नहीं करने देते हैं. इस वजह से अब माहिर मल्लाह इक्केदुक्के ही बचे हैं.

पिछले 20 सालों से मखाने की खेती कर रहे असलम आलम बताते हैं कि तालाबों को भर कर मकान बनाने से मखाना उत्पादन पर बहुत ही बुरा असर पड़ रहा है. मखाने की खेती को बचाने और बढ़ाने के लिए सरकार ने दरभंगा में मखाना शोध संस्थान तो खोला पर वह सफेद हाथी बन कर रह गया?है. हर फसल का अच्छे किस्म का बीज तैयार किया जाता है, पर मखाने का अच्छा बीज अभी तक तैयार नहीं किया जा सका है और न ही सरकारी और गैरसरकारी लेवल पर इस की खेती को प्रोत्साहन देने के कदम उठाए जा रहे हैं. इस के भंडारण और बाजार का कोई ठोस नेटवर्क नहीं होना भी किसानों के लिए परेशानी का सबब है. इस से होता यह?है कि किसान थोक व्यापारियों या बिचौलियों को औनेपौने भाव में मखाना बेच देते हैं. कई किसानों की तो पूंजी भी नहीं निकल पाती है. ऐसे में मखाने की खेती करने वाले कई किसान इस से मुंह मोड़ने लगे हैं.

सरकार और प्राइवेट सेक्टर से भी मखाना उद्योग को किसी तरह की मदद नहीं मिल पा रही है. इस से पिछले कुछ सालों में खेती का आकार घट गया है और लगातार इस में कमी आती जा रही है. अब मखाने की खेती और पैदावार दम तोड़ रही है. ज्यादातर किसान कहते हैं कि अगर मिथिलांचल की पहचान मखाने को बचाने के लिए सरकार ने जल्द ही कोई ठोस कदम नहीं उठाया तो मखाने की खेती दम तोड़ सकती है.

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