बचपन में घर से डेढ़ किलोमीटर दूर तीसरी कक्षा तक मेरे भैया मुझे स्कूल पहुंचाते. पर जब मैं चौथी कक्षा में आई तब पापा बोले, ‘अब यह स्वयं अकेले जाएगी, इस से इस में आत्मविश्वास और स्वावलंबन आएगा.’ और मुझ में सचमुच हिम्मत आती गई. छठी से 12वीं कक्षा तक की पढ़ाई के लिए लगभग 6 किलोमीटर जाना पड़ता था. शुरू में तो भैया अपनी मोटरसाइकिल पर पीछे बिठा कर पहुंचा देते. पर साइकिल से स्कूल जाती लड़कियां हंसतीं कि यह तो अपने पैरों से नहीं चल सकती.
मैं ने पापा से साइकिल दिलाने की जिद की तो पापा खुश हो कर बोले, ‘गुड गर्ल, यही तो मैं चाहता था कि मेरी डौली (घर का नाम) का स्वयं का अपना अस्तित्व हो, उस का खुद का व्यक्तित्व हो.’ पापा मुझे समझाते कि परिस्थितियों से खुद लड़ने की क्षमता विकसित करो. तुम लड़कों की तुलना में किसी तरह कम नहीं हो. ग्रेजुएशन के समय तो मैं स्कूटी से कालेज जाती. पापा की प्रेरणा और प्रभावशाली सीख का यह असर हुआ कि साथ की लड़कियां मुझ से कहतीं कि यह तो लड़कों जैसा व्यवहार करती है. पापा आज नहीं हैं, लेकिन उन की आत्मविश्वास की अवधारणा जीवन के हर पल में आज भी मेरा साथ देती है.
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जया सिन्हा, लखनऊ (उ.प्र.)
*प्यार, सुरक्षा, त्याग व जिम्मेदारी- यही है पर्याय ‘मेरे पापा’ का. वैसे तो सभी के पापा दुनिया के सब से अच्छे पापा होते हैं पर कुछ पापा अपने व्यक्तित्व में इतने गुण समेटे होते हैं कि अनायास ही उन्हें सारी दुनिया को बताने की कसक हो उठती है. बिना कहे सब की हर जरूरत का ध्यान रखना, सब से सामंजस्य बिठा कर चलना, अपनी आदतों व स्वभाव को उदाहरण बना कर अनुशासन की सीख देना, न कि उपदेश देना- ऐसे हैं हमारे पापा. अपने पैरों पर काफी कम उम्र से ही खड़े हो कर सिर्फ मेहनत व लगन से उन्होंने सफलता पाई.
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आज हम तीनों भाईबहन अच्छी नौकरियों व अपनी मरजी की जिंदगी जी रहे हैं तो सिर्फ अपने पापा की वजह से. मां ने भी उन्हें व हमें अपना भरपूर सहयोग दिया. मेरे पापा आज 76 वर्ष की उम्र में भी किसी को तकलीफ देना या मदद लेना दूर, सभी की मदद करने को आगे आने को तत्पर हैं. न किसी से मनमुटाव, बहस, उलझन और न कोई दुश्मन. अपनी संतुलित दिनचर्या में नातीपोतों को भरपूर प्यार व अच्छे संस्कार देने में व्यस्त हैं.