उत्तर प्रदेश का एक जिला है प्रतापगढ़. उस की एक तहसील है कुंडा और उसी के नजदीक है एक गांव, जिसे लोग अधार का पुरवा कहते हैं. वहीं उन का जन्म हुआ. वे और कोई नहीं मेरे पिताजी थे जिन्हें मैं ‘बाबू’ कहती थी. सेवानिवृत्ति से पहले उन्होंने मेरी तथा मेरे 3 भाइयों व छोटी बहन की भी शादी कर दी थी. हम सब की पूरी पढ़ाई करा कर ही विवाह बंधन में बांधा.

अपनी मेहनत और लगन से उन्होंने पुलिस के गिनेचुने बहादुर अफसरों में अपना नाम लिखवाया. वीरता के 3 पुरस्कार लिए जिन में राष्ट्रपति द्वारा दिया गया ‘वीरता का पुलिस पदक’ भी शामिल था. मेरी बेटी के विवाह में मेरे बाबू बराबर व्यस्त रहे. बेटा यदि कहता ‘नाना, आप आराम से बैठ कर सब को काम बताइए’ तो उन का जवाब होता, ‘मैं पुलिस का जवान हूं, कैसे बैठ जाऊं.’  बाबू मेरे भतीजे तथा भतीजियों से पूछते, ‘क्यों, मैं कितने रन बना पाऊंगा?’ तो बच्चे हंस कर जवाब देते, ‘बाबा, आप पूरी सैंचुरी बनाएंगे.’ बाबू जोर से हंसते हुए कहते, ‘सौ नहीं, हां, 80 रन तो बना ही लूंगा.’ वे 78 साल की उम्र तक निरोग शरीर के स्वामी रहे.

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एक रात खाना खा कर सोए तो सोते ही रहे. कई साल बीत गए पर अभी भी लगता है बाबू हम लोगों को बुलाते हुए अपने कमरे से बाहर आ रहे हैं. हम सब भाईबहनों के लिए जो उन्होंने हमारे बचपन में योजनाएं बनाईं, बड़े हो कर हम सब वही बने. मेरे बाबू, अब सिर्फ यादों में बसते हैं, पर महसूस होता है कि आसपास ही कहीं हैं.

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