प्रभा हर शाम छह बजे जब औफिस से घर के लिए निकलती है, तो उसकी घबराहट और बेचैनी बढ़ जाती है. दिन भर औफिस के काम में थकने के बाद उसे अब दूसरी ड्यूटी जो निभानी है. वक्त जैसे पंख पसार कर उड़ने लगता है. रास्ते का ट्रेफिक, वाहनों का शोर-धुंआ, औटोवाले से किराये की झिक-झिक और घर पहुंचने की जल्दी में उसके हाथ-पैर फूले रहते हैं. घर पहुंचने से पहले उसे पास के मार्केट से सब्जी-भाजी और जरूरत की दूसरी चीजें भी खरीदनी होती हैं. घर में घुसते ही सास-ससुर की फरमाइशें, बच्चों की जिद सब उसे ही पूरी करनी है. खाना बनाने किचेन में घुसती है तो दस तरह के ख्याल रखने पड़ते हैं. सास के मुंह में दांत नहीं हैं तो उनको पतली रोटी के साथ दाल चाहिए तो ससुर को कब्ज की शिकायत रहती है, इसलिए उनके लिए अलग से खिचड़ी या पुडिंग बनानी है. बच्चे हमेशा कुछ चटपटा खाने को मचलते हैं तो पति को नौनवेज का शौक है. हर दूसरे दिन खाने में कुछ न कुछ नौनवेज तो होना ही चाहिए. साथ में चटनी और सलाद भी. सबकी फरमाइशें पूरी करते-करते प्रभा खीजने लगती है. उसे लगता है कि उसकी अपनी कोई ख्वाहिश, कोई चाह ही नहीं बची है, वह तो बस दो जेनरेशन के बीच सैंडविच बन कर रह गयी है. कभी-कभी यह दोहरी जिम्मेदारी प्रभा को बोझ लगने लगती है. उसका दिल चाहता है कि सबकुछ छोड़कर चुपचाप कहीं चली जाए. कहीं एकान्त में कुछ दिन शान्ति से बिता आये. मगर ऐसा करना भी सम्भव नहीं. जिम्मेदारियों से दामन छुड़ा कर कहां भाग जाए?

दरअसल पैंतीस-चालीस साल की प्रभा की पीढ़ी सैंडविच जेनरेशन कहलाती है, जो साठ साल से ऊपर के अपने बुजुर्गों और सोलह साल से कम के अपने बच्चों के बीच पिस रही है. जो कई-कई जिम्मेदारियों को एकसाथ निभा रही है. आमतौर पर अगर आप किसी से पूछें कि उसे अपने माता-पिता का ख्याल रखना कैसा लगता है, तो उसका जवाब होगा – बहुत अच्छा लगता है, मुझे मां-बाप की सेवा करके खुशी मिलती है, उनकी देखभाल करना तो मेरा फर्ज है, उन्होंने भी बचपन में मेरा ख्याल रखा, वगैरह, वगैरह. लेकिन बुजुर्गों के लिए काम करने वाली एक स्वयं सेवी संस्था के हालिया सर्वे के मुताबिक 29  प्रतिशत लोगों को अपने घर के बुजुर्ग बोझ की तरह लगते हैं. 15 प्रतिशत लोगों को तो बुजुर्ग इतना बड़ा बोझ लगते हैं कि वे उन्हें स्वयं घर से बाहर निकाल देते हैं. यही वजह है कि वृद्धाश्रमों में बूढ़ों की संख्या लगातार बढ़ रही है. ‘टियर वन’ और ‘टियर टू’ वाले 20 शहरों में एनजीओ ने यह सर्वे किया और तीस से पचास आयुवर्ग के लोगों से विस्तृत बातचीत के बाद यह निष्कर्ष निकाला कि करीब पच्चीस फीसदी बुजुर्ग दुर्व्यवहार और अपमान के शिकार हैं. बेटे-बेटियां और नाती-पोते होने के बावजूद वे खुद को बहुत तनावग्रस्त, दुखी और एकाकी पाते हैं.

दरअसल वह जेनेरेशन जो तीस से पचास की उम्र के बीच है, जो अपने बच्चों और माता-पिता दोनों का ख्याल एकसाथ रख रही है, वह अपनी नौकरी-करियर, बच्चों और माता-पिता की जिम्मेदारियों के बीच हर वक्त संतुलन बनाने की कोशिश करती रहती है. कभी-कभी वह इसमें सफल नहीं हो पाती है. ऐसे में खुद को फंसा हुआ पाने पर वह चिड़चिड़ाहट और खीज से भर उठती है. यह खीज घर के सदस्यों पर गुस्से के रूप में प्रकट होता है. आमतौर पर गुस्सा माता-पिता पर ही निकलता है. पहले के वक्त में पुरुष कमाने के लिए बाहर जाता था, तो उसकी पत्नी घर संभालती थी. तब स्त्री के पास काफी वक्त होता था. वह घर के हर सदस्य के इच्छानुसार खाना भी तैयार कर लेती थी, और सबकी देखभाल भी ठीक से कर लेती थी. उसका पति शाम को घर लौटता तो खुद को खुश और हल्का महसूस करता था क्योंकि उसकी पत्नी घर के सभी सदस्यों का ख्याल ठीक से रखती थी. मगर आज जब पति-पत्नी दोनों नौकरीपेशा हो गये हैं तो अब दोनों के पास वक्त की कमी है. वहीं, घर की जिम्मेदारियां दोनों के बीच बराबर बंटने की जगह सिर्फ स्त्री के हिस्से में ही आ गयी हैं. खाना उसको ही बनाना है, घर की साफ-सफाई उसे ही करनी है, बाजार-हाट भी उसे ही करना है, बच्चों और बुजुर्गो की देखभाल भी उसके जिम्मे है, नाते-रिश्तेदारी भी उसे ही निभानी है, बच्चों के स्कूल में पेरेंट-टीचर मीटिंग हो तो उसे ही औफिस से छुट्टी लेकर अटेंड करना है, घर में कोई बीमार है तो डॉक्टर को दिखाने के लिए उसे ही जाना है, ऐसे में स्त्री का नाराज रहना, थकान से चूर रहना लाजिमी है और इसका असर नकारात्मक रूप से घर के दूसरे सदस्यों पर पड़ना है. उसके गुस्से का शिकार कभी बच्चे बनते हैं, तो कभी बुजुर्ग माता-पिता.

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दरअसल, सैंडविच जेनरेशन के समक्ष आज चुनौतियों का पहाड़ खड़ा है. ज्वाइंट फैमिली में खाना बनाते वक्त ध्यान रखो कि जो खाना बड़ों के लिए बना है, उसे बच्चे नहीं खाएंगे, उनके लिए कुछ अलग से बनाओ. ऐसा अक्सर देखने को मिलता है कि बच्चे नित नयी फरमाइशें करते हैं, वहीं बुजुर्गों को उनकी सेहत के हिसाब से खाना देना होता है. एक बुजुर्ग व्यक्ति बच्चे के समान ही जिद्दी भी हो जाता है और इसलिए उसे अतिरिक्त देखभाल और प्यार की जरूरत होती है और सैंडविच जेनरेशन के लोगों के समक्ष ये सबसे बड़ा चैलेंज है. आप न तो नौकरी छोड़कर घर बैठ सकते हैं और न ही बच्चों और बुजुर्ग मां-बाप की अनदेखी कर सकते हैं. दोनों को आपके प्यार और साथ की जरूरत है. बुजुर्ग सोचते हैं कि जैसे हमने अपने बच्चों का ख्याल रखा वैसे ही बच्चे भी उनके बुढ़ापे की लाठी बनें. उनकी यह अपेक्षा इस जेनरेशन के लिए सिरदर्द बनी हुई है.

सैंडविच जेनरेशन के सामने अपनी प्राइवेसी को लेकर भी बड़ा चैलेंज होता है. ज्वाइंट फैमिली में आपको अपने लिए टाइम निकालना मुश्किल हो जाता है और न ही प्राइवेसी मिलती है. पति-पत्नी को साथ में वक्त बिताए महीनों हो जाते हैं. कहते हैं बात कर लेने से मन का बोझ हल्का हो जाता है, मगर जब वक्त ही न बचे तो बात भी कैसे करें? नतीजा, तनाव, चिड़चिड़ापन, खीज और गुस्सा, औफिस, बच्चे, बुजुर्ग और घर के काम उनके समय को बांट लेते हैं. ये सभी कारण मिलकर तनाव पैदा करते हैं और घर में मनमुटाव होता है.

सैंडविच जेनरेशन बच्चों और माता-पिता दोनों के साथ जेनरेशन गैप का सामना करती है. वे बच्चों और बुजुर्गों दोनों के साथ तालमेल नहीं बिठा पाती है. इस वजह से उनके व्यवहार में रूखापन आ जाता है. सर्वे की मानें तो 42.5% लोग अपने बुजुर्ग को घर पर अकेला छोड़ देते हैं और 65% मेड के सहारे उन्हें छोड़कर जाते हैं. कई बार दोनों के बीच अच्छी तरह बैठकर बात भी नहीं हो पाती है. आंकड़े कहते हैं कि 25.7% लोग अपने घर के बुजुर्ग को लेकर गुस्सा और चिड़चिड़ापन महसूस करते हैं. सर्वे बताता है कि 62% बेटे, 26% बहुएं, 23% बेटियां अपने बुजर्गों को वित्तीय बोझ की तरह देखती हैं. औसतन एक परिवार अपने घर के बुजुर्ग पर 4,125 रुपये प्रतिमाह खर्च करता है. घर में रहने वाले सिर्फ 11 प्रतिशत बुजुर्ग ही कमाते हैं और अपने बेटे-बहू की मदद कर पाते हैं. बुढ़ापे की बीमारियां काफी खर्चीली होती हैं. अगर मेडिक्लेम या अन्य सेविंग्स नहीं हैं, तो यह वित्तीय बोझ सैंडविच जेनरेशन को बहुत भारी महसूस होता है. कुछ यही वजहें हैं कि आजकल वृद्धाश्रमों में बुजुर्गों की संख्या लगातार बढ़ती जा रही है. जिन्दगी के आखिरी दिन गिन रहे ये बुजुर्ग वहां हर पल अपने बच्चों और नाती-पोतों की याद में तड़पते रहते हैं. जिस घर की ईंट-ईंट उन्होंने अपने खून-पसीने की कमाई से जोड़ी, उस घर से निकाल दिया जाना उन्हें जीते-जी मार देता है. जिन बच्चों की परवरिश में उन्होंने अपनी जिन्दगी लगा दी, उनकी उपेक्षा सहन नहीं होती है.

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यह ठीक है कि आप खुद को दो पीढ़ियों के बीच फंसा महसूस करते हैं, आपके पास वक्त की कमी है, पैसे की कमी है और इन तमाम कमियों के बीच आप खुद को सैंडविच बना महसूस करते हैं, मगर जहां आप अपने बच्चों से प्यार करते हैं और उनकी हर ख्वाहिश को पूरा करने की कोशिश करते हैं, वहीं अपने बुजुर्गों की भावनाओं और जरूरतों को समझना भी जरूरी है. आखिर आप उन्हीं का अंश हैं. उन्हें खुद से दूर कैसे कर सकते हैं?

सैंडविच जेनरेशन अगर कुछ सावधानियां बरते और कुछ जरूरी बदलाव अपने जीवन में ले आये तो यह मुसीबत काफी हद तक कम हो सकती है. पहले के वक्त में समाज का ढांचा कुछ इस तरह बना था, जिसमें घर के लिए पैसा कमाने की जिम्मेदारी पुरुष पर थी और घर चलाने की जिम्मेदारी स्त्री पर. परन्तु आज जब स्त्री भी घर से बाहर निकल कर पुरुष के समान पैसा कमा रही है तो घर की जिम्मेदारियां भी दोनों के बीच बंटना जरूरी है, जो अभी तक नहीं बंटी हैं. लिहाजा घर की बहू पर दोहरी जिम्मेदारी आन पड़ी है और वह घर-बाहर दो-दो ड्यूटियां कर रही है. दोहरा बोझ उसे खीज और गुस्से से भर देता है, यही वजह है कि बेटे के साथ तो नहीं, लेकिन बहुओं के साथ सास-ससुर का झगड़ा ज्यादा होता है. बुजुर्गों को वृद्धाश्रम भेजने के पीछे बहुओं का हाथ ज्यादा होता है. ऐसे में समस्या की जड़ में झांकने की जरूरत है. बहू में ऐसे गुस्से और चिड़चिड़ेपन की वजह तलाशने और उसका समाधान करने की जरूरत है. आइये देखें वह कौन सी जिम्मेदारियां हैं, जिन्हें आपस में बांट कर सैंडविच जेनरेशन अपनी, अपने बच्चों की और अपने बुजुर्गों की जिन्दगी को खुशहाल बना सकती है –

  • किचेन का काम पति-पत्नी दोनों मिल कर करें. सब्जी काटना, बर्तन धोना, चाय बनाना, टेबल पर नाश्ता लगाना, बच्चों को स्कूल के लिए तैयार करना यह सारे काम कोई भी पुरुष आसानी से कर सकता है. इन कामों में पत्नी की मदद करें तो उसका काफी वक्त बचेगा. घर के छोटे-छोटे कामों में पति की मदद मिल जाए तो पत्नी को खुशी भी होगाी और बच्चों और बूढ़ों के लिए अलग-अलग तरह का नाश्ता-खाना तैयार करने में उसको दिक्कत या खीज नहीं होगी.
  • जब पति-पत्नी दोनों नौकरी कर रहे हों तो घर में बच्चों और बुजुर्गों की देखभाल के लिए एक सर्वेंट या मेड का रखना बहुत जरूरी है, जो घर की साफ-सफाई कर दे, बर्तन धो दे, बुजुर्गों के नहाने-धोने में मदद करे, कपड़े धोए और प्रेस कर दे, बाजार से सब्जी ले आये, शाम के लिए सब्जी काट कर रख दे, आटा गूंथ दे, घर के पौधों को पानी दे दे, बच्चों को ट्यूशन क्लास ले जाये, बुजुर्गों को आसपास घुमा लाए, आदि. पुरुषों को सोचना चाहिए कि जब घर की स्त्री भी घर की आमदनी में बढ़ोत्तरी के लिए पैसा कमा रही है तो फिर कंजूसी करके उसकी शारीरिक और मानसिक सेहत को दांव पर क्यों लगाया जाए? अगर घर के ये तमाम काम मेड या सर्वेंट कर देंगे तो शाम को ऑफिस से घर लौटने के बाद स्त्री के पास अपने सास-ससुर और बच्चों दोनों के लिए वक्त भी होगा और प्यार भी.
  • वीकेंड में पूरे परिवार के साथ कहीं घूमने जाएं. खाना बाहर ही खाएं. इससे आप आने वाले सप्ताह के लिए पूरी तरह फ्रेश हो जाएंगे. कभी-कभी माता-पिता को पास की रिश्तेदारी में भी छोड़ा जा सकता है, जहां एक-दो दिन बिताने के बाद वे भी खुद को फ्रेश महसूस करेंगे और आप दोनों को भी घर में थोड़ी प्राइवेसी मिल जाएगी.
  • अगर घर के बुजुर्गों की सेहत ठीक है और वे बाहर टहलने के लिए जाते हैं तो कुछ जिम्मेदारियां जैसे सब्जी-दूध वगैरह लाने की जिम्मेदारी उन पर भी डाली जा सकती है. वे बच्चों को ट्यूशन क्लास भी छोड़ने जा सकते हैं. इससे वे घर के काम में भी सहयोग करेंगे और बाहर अपने मित्रों से मिल कर खुशी भी महसूस करेंगे.
  • बच्चों को भी अपने दादा-दादी के साथ समय बिताने की आदत डलवाएं. इससे वे आप पर बोझ नहीं बनेंगे. बच्चे दादा-दादी के साथ ईवनिंग वॉक पर जा सकते हैं. उनके साथ बैठ कर अपना होमवर्क पूरा कर सकते हैं. उनके साथ कैरम, लूडो इत्यादि खेल कर अच्छा टाइम पास कर सकते हैं. बच्चों और बूढ़ों की आदतें लगभग एक जैसी होती हैं, ऐसे में दोनों एक साथ बैठ कर टीवी पर मनपसंद कार्यक्रम का लुत्फ उठा सकते हैं. किचेन गार्डन की साफ-सफाई कर सकते हैं, पौधों को पानी दे सकते हैं. इससे आपका काम कुछ हल्का हो जाएगा.
  • मुख्य बात यह है कि हर व्यक्ति को जवानी में ही अपने बुढ़ापे के लिए सेविंग्स कर लेनी चाहिए. बुढ़ापे में तमाम तरह के रोग शरीर को लग जाते हैं. मधुमेह, हार्ट डिजीज, कैंसर तो आज बहुत आम हैं. ये तमाम रोग बहुत खर्च करवाते हैं. ऐसे में यदि आपने मेडिक्लेम या अन्य सेविंग्स नहीं की हैं, तो आपकी बीमारी आपके बच्चों के ऊपर बहुत भारी पड़ेगी. इसलिए अपने बुढ़ापे के बारे में जवानी में ही सोच लीजिए, ताकि बुढ़ापे में ऐसी स्थिति न बने कि आपको अपने घर और बच्चों से दूर किसी वृद्धाश्रम में अपने जीवन की आखिरी सांसें लेनी पड़ें.

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