कोई भी काम करने के लिए व्यक्ति के अंदर दृढ़ इच्छाशक्ति का होना आवश्यक है. यही शक्ति इंसान को ऊंचाई तक पहुंचाती है. हाल में राजस्थान के कोटा शहर से आत्महत्या का एक ऐसा मामला सामने आया जिसे जान कर लोगों की आंखें नम हो गईं. यह आत्महत्या उस छात्रा ने की जो अत्यंत कठिन मानी जाने वाली परीक्षा जेईई में सफल हो गई थी. मगर अगले 4 वर्ष तक जिन विषयों को उसे पढ़ना पड़ता उन में उस की रुचि नहीं थी. वह मैडिकल की पढ़ाई करना चाहती थी. इस से तो यही लगता है कि वह लड़की कोटा किसी और के दबाव में गई और वहां रह कर उस परीक्षा में बैठी जिस में उस की अपनी इच्छा नहीं थी. इस प्रकार उस पर दोहरा दबाव पड़ा जिस के कारण अवसाद में घिर कर उस ने ऐसा गलत कदम उठा लिया.

इस छात्रा के मामले में जो कुछ हुआ उस से कई प्रश्न फिर एक बार शिक्षा व्यवस्था के सामने उभर कर आ गए हैं. इन पर गहराई से विचार होना चाहिए. ऐसे आवश्यक कदम उठाने की जरूरत है कि जिन से इस प्रकार की त्रासदी किसी भी परिवार को न झेलनी पड़े. क्या कभी इस बालिका के अध्यापकों और परिवार के लोगों ने उस की रुचि और अरुचि जानने के प्रयास किए थे? इस प्रश्न का जवाब सभी चाहते हैं. इस के लिए ऐसे प्रावधान करने होंगे कि अध्यापक, स्कूल और अभिभावक मिल कर हर बच्चे को उसी दिशा में आगे बढ़ने दें जिस में उस की रुचि हो. विदेशों में ऐसी व्यवस्था कार्य कर रही है. वहां बच्चों की रुचि जानने की कोशिश की जाती है. फिर उन की रुचि के अनुसार मदद दी जाती है. प्रतिभा के विकास के लिए ऐसा करना आवश्यक है. हमारे देश में समस्या यह है कि शिक्षित मातापिता, जो प्रतिस्पर्धा की भयावहता को जानते हैं, वे भी बच्चों पर अपनी रुचि थोपते हैं.

कोटा बनी कब्रगाह

कभी टौपरों के लिए मशहूर कोटा शहर अब छात्रों की कब्रगाह सा बन गया है. वहां मातापिता के सपने चकनाचूर हो रहे हैं. समाज का दबाव छात्र सह नहीं पा रहे. लालची संस्थानों के जबड़े उन्हें मार रहे हैं. कोटा का कोचिंग उद्योग कभी आईआईटी और एम्स समेत देश के शीर्ष इंजीनियरिंग कालेजों में दाखिले की गारंटी वाला हुआ करता था. लेकिन अब यह मुखौटा उतरने लगा है. बीते कुछ दिनों से यह अपनी कामयाबी के लिए नहीं, बल्कि हताशा में जान देते बच्चों के कारण सुर्खियां बटोर रहा है. इस उद्योग का चरित्र अब बदल गया है. कोटा कोचिंग क्लासेस की राजधानी के तौर पर मशहूर है. देश के हर राज्य से आईआईटी या शीर्ष मैडिकल कालेजों में दाखिला पाने का सपना ले कर यहां छात्र आते हैं. लेकिन अब यह शहर उन के लिए कब्रगाह बनता जा रहा है. उम्मीदों के भारी बोझ यहां छात्रों को आत्महत्या करने के लिए मजबूर कर रहे हैं. आत्महत्या करने के मामले लगातार बढ़ रहे हैं लेकिन सरकार ने इसे रोकने की दिशा में अभी तक कोई ठोस कदम नहीं उठाया है.

हताश क्यों हैं छात्र

सरकारी आंकड़ों के मुताबिक, बीते 5 वर्षों में ऐसे मामलों की तादाद 82 पहुंच गई है. लेकिन सवाल यह है कि आखिर यहां छात्र आत्महत्या क्यों कर रहे हैं? इस के जवाब की तलाश के लिए इस उद्योग के विभिन्न पहलुओं पर गौर करना जरूरी है. वरना निराश छात्र इसी तरह जान देते रहेंगे. इस के लिए कोचिंग छात्रों की जीवनशैली की पड़ताल की जानी जरूरी है. आत्महत्या की 4 वजहें हैं. भारी प्रतिद्वंद्विता, क्षेत्रवाद, उम्मीदों का भारी बोझ और घर से दूर रहने का दर्द. यहां के कोचिंग संस्थान लाखों रुपए फीस लेते हैं. इन कोचिंग संस्थानों में छात्रों के प्रदर्शन और नंबरों के आधार पर भारी भेदभव होता है. कमजोर छात्रों को ओछी निगाह से देखा जाता है. उन के साथ सौतेला व्यवहार होता है. इस कारण उन में धीरेधीरे हीनभावना घर करने लगती है.

यहां के छात्रों को शुरुआत में ही ए, बी, सी, डी ग्रुपों में बांट दिया जाता है. उस में शीर्ष 10-15 छात्रों के लिए बेहतरीन शिक्षक मुहैया कराए जाते हैं. लेकिन बाकी छात्रों को उस स्तर का प्रशिक्षण नहीं दिया जाता. हर छात्र से समान फीस लेने के बावजूद कमजोर छात्रों से सौतेला व्यवहार होता है. तेज छात्र भी उन की मदद नहीं करते जिस के कारण वे हताश हो कर अपनी जान ही दे देते हैं. हालांकि कोचिंग संस्थान यह कहते हैं कि हर छात्र की जरूरत अलगअलग होती है. इसी वजह से उन का वर्गीकरण किया जाता है. लेकिन सचाई कुछ और ही है.

पेइंगगैस्ट का कारोबार

कोटा में पेइंगगैस्ट का कारोबार भी तेजी से पनपा है. मोटी रकम ले कर लोग बच्चों को पेइंगगैस्ट के रूप में रखते हैं. पेइंगगैस्ट के रूप में छोटे से कमरे में 4-4 छात्रों को रखा जाता है और उन से घटिया खाने के एवज में भी काफी पैसे वसूले जाते हैं. इस के साथ ही, कोचिंग संस्थानों में हफ्ते के सातों दिन 12 से 14 घंटे पढ़ने और ऊपर से होमवर्क का दबाव. यह चौतरफा दबाव उन को आत्महत्या करने के लिए उकसा रहा है. उन का जीवन निराशा में डूब रहा है. परिवार, कैरियर और पढ़ाई का दबाव युवाओं को अवसाद में डाल रहा है. ऐसे में छात्रों के सपने 1-2 महीनों में ही बिखरने लगते हैं. कुछ छात्र इस दबाव को नहीं झेल पाने की वजह से घर लौट जाते हैं तो कुछ नशीली दवाओं का सहारा लेते हैं. आखिर में नाकाम होने पर वे आत्महत्या का रास्ता चुन लेते हैं.

दर्द किस से बांटें

यहां हर कोचिंग सैंटरों पर सुबह से ही साइकिलों की लाइन लग जाती है. छात्रों पर पढ़ाई का दबाव इतना ज्यादा होता है कि वे मनोरंजन के बारे में सोच ही नहीं सकते. सुबह से शाम तक बस पढ़ाई ही पढ़ाई. उन के लिए मनोरंजन तो सपने के समान है. ज्यादातर छात्र मध्यवर्गीय परिवार के होते हैं. जिन के मांबाप सपनों को साकार करने के लिए लाखों की फीस भर कर यहां भेजते हैं. कई छात्रों के घर वालों को जमीन व मकान तक बेचना पड़ता है. ऐसे में छात्र सोचते हैं कि वे आखिर किस मुंह से खाली हाथ घर लौटें. यही सोच उन को आत्महत्या करने के लिए प्रेरित करती है लेकिन मनोचिकित्सकों का कहना है कि अवसाद के हर मामले आत्महत्या तक नहीं पहुंचते. दरअसल, छात्र अपना दर्द किसी से बांट नहीं पाते, इसलिए उन का अवसाद बढ़ता जाता है. उन को हर वक्त यही सवाल सताता है कि अगर खाली हाथ घर लौटे तो लोग क्या कहेंगे? उन पर सामाजिक दबाव बहुत ज्यादा होता है. कोचिंग के लिए आने वाले छात्र पहली बार अपने घर से दूर रहते हैं. ऐसे में हालात से सामंजस्य बिठाना सब के लिए संभव नहीं होता.

आखिर जिम्मेदार कौन?

अभिभावक अपने अधूरे सपनों को अपने बेटेबेटियों के जरिए पूरा करना चाहते हैं जिन्हें वे खुद पूरा नहीं कर पाए हैं. उन को यह समझना चाहिए कि हर आदमी डाक्टर या इंजीनियर बन कर ही नहीं जी सकता. रोजगार के कई और क्षेत्र भी हैं. यहां पहुंचने वाला हर छात्र आईआईटी या एम्स जैसे नामी संस्थानों में दाखिला लेने का इच्छुक होता है. लेकिन सब के लिए ऐसा करना संभव नहीं होता. करोड़ों का टर्नओवर वाला कोटा शहर अपने कोचिंग उद्योग के लिए पूरी दुनिया में मशहूर है. हर वर्ष सतरंगी सपनों के साथ सवा लाख छात्र यहां विभिन्न कोचिंग संस्थानों में दाखिला लेते हैं. इन में से उत्तर प्रदेश, बिहार, छत्तीसगढ़, मध्य प्रदेश और हरियाणा के छात्रों की संख्या सब से ज्यादा होती है. ऐसे छात्र करीब 85 फीसदी हैं. यहां के किसी भी संस्थान की सालाना 2 लाख रुपए से कम फीस नहीं है. ऊपर से रहनेखाने का खर्च 15 से 20 हजार रुपए महीना.

अंतर्राष्ट्रीय रेटिंग एजेंसी क्रिसिल ने वर्ष 2011 में अपनी रिपोर्ट में कहा था कि भारत में कोचिंग का सालाना कारोबार 40 हजार करोड़ रुपए का है. इस उद्योग से जुड़े सूत्रों के मुताबिक, अब यह 50 हजार करोड़ रुपए से ऊपर पहुंच गया है. इस के साथ पेइंगगैस्ट, होटल और दूसरे सहायक उद्योगों को जोड़ लें तो यह आंकड़ा 75 हजार करोड़ रुपए के आसपास पहुंच जाएगा.

दृष्टिकोण बदलना होगा

अपने देश में शिक्षा देने की एक विधा हजारों वर्षों में प्रस्फुटित हुई थी जिस में अध्ययन के बाद भी 3 अन्य आयाम थे–मनन, चिंतन और उपयोग. विदेशी शासन के दौरान इसे समाप्त करने के कई प्रयास किए गए. जिस के कारण देश में ही इस की सार्थकता से लोग अनभिज्ञ होते गए. अब हम अन्य को दोष देने की स्थिति में नहीं हैं. स्वतंत्रता के बाद से हमें सुधार करने के लिए काफी समय मिल चुका है. अध्ययन व अध्यापन में आमूलचूल परिवर्तन हो सकता है. यदि हमारे अध्यापक यह समझ लें कि ज्ञान का खजाना तो हर विद्यार्थी में है. बस, इसे निखारने की जरूरत है. यदि स्कूल के किसी छात्र को कोचिंग जाना पड़ता है तो यह उन की कमी और उन के अध्यापकों की अक्षमता मानी जाएगी. इस में सुधार आ सकता है.

स्कूल, अध्यापक और अभिभावक तीनों एकसाथ निर्णय करें कि बच्चों को स्कूल में ही आदर्श वातावरण देना है तो कोचिंग संस्थान भी बंद होंगे और बच्चों की आत्महत्याएं भी. दरअसल, हमारे सरकारी स्कूल स्तरहीन होते गए. अध्यापकों ने विद्यालयों में नियमित जाना और पढ़ाना कम कर दिया. वे स्वयं ट्यूशन के लिए बच्चों पर दबाव बनाने लगे. वे अब स्कूल को कम और कोचिंग को ज्यादा महत्त्व देने लगे. इस का भरपूर फायदा कोचिंग संस्थान उठाने लगे. इस स्थिति को सुधारने के लिए सरकार के साथ समाज के संगठित प्रयास की जरूरत है.

वैसे, कोटा में आत्महत्या के बढ़ते मामलों को देखते हुए केंद्र सरकार ने भारतीय तकनीकी संस्थानों के साथ मिल कर बीते 50 वर्षों के दौरान आयोजित संयुक्त प्रवेश परीक्षाओं के प्रश्नपत्र और उन के जवाब जारी करने का फैसला किया है. इस का मकसद छात्रों की सहायता करना और कोचिंग संस्थानों का असर कम करना है. ये प्रश्नपत्र एक मोबाइल ऐप और एक पोर्टल के जरिए हासिल किए जा सकते हैं. यह कैसी विडंबना है कि हमारे युवा जिन के हाथों में इस देश का भविष्य है, वे ही अपने भविष्य को समाप्त करने पर तुले हैं. कारण कुछ भी हो, इस मानसिकता को रोकना होगा. यह चिंता का विषय है, बहस का नहीं. बंद करना होगा यह सिलसिला. इस के लिए एकजुट हो कर प्रयास करने की जरूरत है.

सब से पहले पेरैंट्स को आगे आना होगा, उन्हें जाननी होगी बच्चों की ख्वाहिश, तोड़नी होगी उन की खामोशी. उन के संस्करों में यह घोल देना होगा कि तुम सिर्फ तुम हो. पूरी तरह से संपूर्ण, पूरी तरह से सुरक्षित. तुम किसी के जैसे नहीं, कोई तुम्हारे जैसा नहीं. रही बात संघर्ष की, असफलता तो जीवनका एक हिस्सा है. साथ ही टीचर्स को भी अपनी जिम्मेदारी निभानी होगी. पेरैंट्स के बाद अगर कोई बच्चों को इतने करीब से देखता है तो वो है टीचर. उन्हें बच्चों की आपस में तुलना न कर के उन के सामूहिक विकास पर बल देना चाहिए.

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