Download App

प्रख्यात वैज्ञानिक स्टीफन विलियम हाकिंग, व्हीलचेयर पर ब्रह्मांड की यात्रा

ईश्वर के अस्तित्व को नकारने वाले मशहूर वैज्ञानिक स्टीफन हाकिंग के चले जाने से दुनिया में विज्ञान पर भरोसा करने वाले लोगों को दुख पहुंचा है जबकि ईश्वर के नाम पर धंधा करने वाले शायद खुश हो रहे होंगे. प्रगतिशील वैज्ञानिक विचारों के पक्षकारों, अनीश्वरवादियों और नास्तिकों के लिए बहुत बड़ा संबल रहे हाकिंग धर्म के धंधेबाजों के लिए सब से बड़े दुश्मन थे. उन के वैज्ञानिक सिद्धांतों ने धर्म और ईश्वर की धज्जियां उड़ा दी थीं. उन के विचार चचर्च के लिए उतने ही घातक रहे जितने कौपरनिक्स और गैलीलियो के थे.

शुरू से ही नास्तिक रहे हाकिंग समयसमय पर धार्मिक विश्वासों के विरोध में बोलते रहते थे. इस के लिए उन्हें ईसाई संगठनों का विरोध भी झेलना पड़ा. 2001 में जब वे भारत आए तो हिंदू धर्म के ठेकेदारों ने उन्हें कोई भाव नहीं दिया. पर वे इन सब के प्रति बेपरवा रहे और अपने विचारों के प्रति दृढ़ रहे.

कौस्मोलौजी, क्वांटम फिजिक्स, ब्लैकहोल और स्पेस टाइम के लिए बड़ा योगदान देने वाले इस वैज्ञानिक का कहना था कि निश्चित ही ब्रह्मांड एक भव्य डिजायन है पर इस का भगवान से कोईर् लेनादेना नहीं है. यानी, उन्होंने भगवान के अस्तित्व को साफतौर पर नकार दिया और खुद को नास्तिक घोषित करार दिया. विश्व के बहुत से लोगों ने उन की बातों पर भरोसा किया, इसीलिए उन की पुस्तक ‘अ ब्रीफ हिस्ट्री औफ टाइम’ बहुत ही लोकप्रिय हुई.

ईसाई धार्मिक परिवार में जन्मे हाकिंग स्कूली समय से ही अपने ईसाई सहपाठियों के साथ धर्म को ले कर तर्क करते थे. कालेज आतेआते वे नास्तिक छात्र के रूप में मशहूर हो चुके थे. इस बात को नकारा नहीं जा सकता कि हाकिंग जैसे वैज्ञानिकों की थ्योरी के बल पर ही दुनिया में नास्तिकों, तर्कवादियों की तादाद बढ़ रही है.

उन्होंने कहा था कि धर्र्म और विज्ञान के बीच एक बुनियादी फर्क है. धर्म आस्था और विश्वास पर टिका है, ईश्वर दिखता नहीं पर विज्ञान साक्षात सुबूत के तौर पर दिखाईर् देता है, इसलिए धर्र्म पर विज्ञान की जीत तय है.

उन्होंने अपनी थ्योरी किसी पर थोपनी नहीं चाही. उन्होंने साफ कहा कि हम सभी जो चाहें, उस पर विश्वास करने के लिए स्वतंत्र हैं पर कोई ईश्वर नहीं है, किसी ने हमारे ब्रह्मांड को नहीं बनाया और न ही हमारे भविष्य को निर्देशित करने वाला कोईर् है.

आमतौर पर अमेरिका, यूरोप जैसे देशों के अधिकतर वैज्ञानिक ईश्वर के वजूद को ठुकराते आए हैं पर भारत के ज्यादातर वैज्ञानिक रौकेट, मिसाइलें छोड़ते समय नारियल फोड़ते, दीपक जलाते, हवन और पूजापाठ करते देखे जा सकते हैं.

एक सर्वे में बताया गया है कि 93 प्रतिशत वैज्ञानिकों ने भगवान के अस्तित्व को नकारा है. केवल 7 प्रतिशत वैज्ञानिक ही ईश्वर में भरोसा करते हैं. शायद, ये वैज्ञानिक भारतीय हों.

प्रसिद्ध वैज्ञानिक स्टीफन हाकिंग ने कहा था कि मैं पिछले 49 सालों से मरने का इंतजार कर रहा हूं, लेकिन मैं यह भी कहना चाहता हूं कि मुझे मरने की कोई जल्दी नहीं है. मेरा जन्म बहुत से काम करने के लिए हुआ है और जब तक मैं सारे काम नहीं कर लूंगा, मैं इस दुनिया को छोड़ नहीं सकता.

ये बातें उन के जीवन की सचाई थीं जिन के साथ वे पिछले 55 वर्षों से जी रहे थे. अपने कहे मुताबिक, स्टीफन ने अपना काम पूरा कर लिया तो हाल ही में दुनिया को अलविदा कह गए.

ब्रिटिश भौतिकशास्त्री स्टीफन हाकिंग ने ब्रह्मांड विज्ञान के क्षेत्र में जो अद्भुत कार्य किया उस के कारण उन की तुलना विश्वप्रसिद्ध वैज्ञानिक अलबर्ट आइंस्टीन और न्यूटन से की जाती है. मगर हाकिंग का जीवन अद्भुत वैज्ञानिक प्रतिभा के साथसाथ मनुष्य की अदम्य जिजीविषा के संघर्ष की सुनहरी दास्तान था.

वे जिंदगीभर एम्योट्रौफिक लैटरल स्लेरोसिस यानी एएलएस बीमारी से पीडि़त थे. इस घातक न्यूरोलौजिकल बीमारी ने उन के शरीर को बेहद कमजोर कर दिया. वे हमेशा व्हीलचेयर पर बैठे रहने के लिए अभिशप्त थे. मगर अपने जीवन को उन्होंने इस प्रकार ढाला था कि उन की बीमारी भी उन्हें नहीं हरा सकी. विकलांगता उन्हें विज्ञान में योगदान करने से नहीं रोक सकी.

बीमारी पर भारी पड़े

इस बीमारी के कारण केवल उन का मस्तिष्क ही काम कर पाता था. व्हीलचेयर पर बैठ कर ही उन्होंने सारे ब्रह्मांड की सैर की, उस के अबूझ रहस्य खोज निकाले, उन के बारे में लिखा भी. तब, दुनिया भौचक्की रह गई. इस असाध्य बीमारी से जूझते हुए स्टीफन हाकिंग ने ब्लैकहोल और बिग बैंग सिद्धांत को समझने में अहम योगदान दिया.

स्टीफन की आयु जब मात्र 21 वर्ष की थी, तब ही उन्हें मोटर न्यूरौन नामक बीमारी हो गई. चिकित्सकों ने स्पष्ट कर दिया कि उन के पास अधिकतम 2 वर्ष हैं, लेकिन स्टीफन की इच्छाशक्ति ने चिकित्सा विज्ञान को झूठा साबित कर एक मिसाल कायम की. बावजूद इस के, हाकिंग कैंब्रिज यूनिवर्सिटी में आगे की पढ़ाई करने गए और एक महान वैज्ञानिक के रूप में सामने आए. महज 32 वर्ष की उम्र में साल 1974 में हाकिंग ब्रिटेन की प्रतिष्ठित रौयल सोसाइटी के सब से कम उम्र के सदस्य बने. 5 वर्षों बाद उन्हें कैंब्रिज यूनिवर्सिटी में गणित के प्रोफैसर के रूप में नियुक्त किया गया. इस पद पर कभी महान वैज्ञानिक अल्बर्ट आइंस्टीन नियुक्त थे.

अकसर पीडि़त इस बीमारी की चपेट में आने के 2 से 3 वर्षों के भीतर दम तोड़ देते हैं, लेकिन हाकिंग एकदो नहीं, बल्कि 50 वर्षों से ज्यादा वक्त तक इस से जूझते रहे. एएलएस का कोई इलाज या उपचार नहीं है जो इसे रोक सके, हालांकि इस के लक्षणों को कुछ हद तक नियंत्रित करने के कुछ विकल्प जरूर मौजूद हैं.

76 साल के जीवन में स्टीफन हाकिंग ने सैद्धांतिक भौतिकी के क्षेत्र में कमोबेश वैसी ही हलचल मचाई है जैसी कि अपने दौर में आइंस्टीन ने सापेक्षता के सिद्धांत से मचाई थी. उन्हें चुनौती देने वालों में अग्रणी हाकिंग ही थे. ‘ईश्वर पासे नहीं खेलता’ कह कर जब आइंस्टीन अपनी खोज में आगे बढ़ने से ठिठक गए थे तो कई वर्षों बाद हाकिंग ने आगे बढ़ कर यह प्रतिपादित किया था कि ईश्वर न सिर्फ पासे खेलता है बल्कि उस के फेंके पासे कहां गिरते हैं, यह तक पता नहीं चल पाता. इस उक्ति से आशय यह था कि ब्रह्मांड के बारे में कुछ भी निश्चित नहीं है और किसी एक शक्ति ने इस की रचना नहीं की है. यह कथन ‘सिंगुलैरिटी’ सिद्धांत की स्थापना की ओर भी इंगित करता था जिसे दिक्काल (स्पेसटाइम) का एक अनिश्चित झुकाव माना जाता है.

स्टीफन विलियम हाकिंग ने ही ब्लैकहोल के बारे में यह नतीजा निकाला था कि उस से भी विकिरण के छूट जाने की संभावना रहती है. इसे हाकिंग रेडिएशन कहा गया. ब्लैकहोल के बारे में वैज्ञानिक मान्यता रही है कि प्रकाश तक उस में जा कर डूब जाता है, लेकिन स्टीफन हाकिंग का कहना था कि ब्लैकहोल से भी बाहर कोई रास्ता जरूर निकलता होगा.

जटिल रहस्यों को भेदते हाकिंग का सब से बड़ा योगदान यह है कि उन्होंने सैद्धांतिक भौतिकी और ब्रह्मांडीय विज्ञान के जटिल रहस्यों को आमफहम बना कर लोगों तक पहुंचाया. उन्होंने अपने निराले अंदाज में भौतिकी की पहेलियां बूझीं. यही कारण था कि वे वैज्ञानिकों, बौद्धिकों में भी उतने ही लोकप्रिय थे जितने छात्रों व बच्चों के बीच. उन्होंने विज्ञान को कथा, कला और कविता बना दिया. हाकिंग की एक बड़ी देन यह भी है कि उन्होंने ब्रह्मांड की रचना में ईश्वरीय प्रताप को खारिज किया, अंधविश्वासों और धार्मिक रूढि़यों को फटकारते रहे और ताउम्र एक संवेदनशील प्रगतिशील दुनिया का सपना संजोए रहे. स्टीफन ने कभी भी ईश्वरीय शक्ति को नहीं माना बल्कि, हमेशा ईश्वर और उस की शक्ति के प्रमाण की बात की. वहीं उन्होंने ब्रह्मांड की रचना के लिए बिग बैंग थ्योरी को दुनिया के सामने रखा बजाय ईश्वरीय चमत्कार के.

हाकिंग ने पर्यावरण की दुर्दशा पर तीखी टिप्पणियां की और ग्लोबल वार्मिंग के खतरे से दुनिया को आगाह किया. उन्होंने इन्हीं संदर्भों में एलियन

की अवधारणा को भी अपने चुटीले व व्यंग्यात्मक अंदाज में हवा दी और बताया कि यह न मानने का कोई कारण नहीं कि आकाशगंगाओं में कहीं कोई एक ऐसी प्राणी व्यवस्था जरूर है जो हमारी धरती के मनुष्यों से हर स्तर पर उच्चतर स्थिति में है.

बिग बैंग थ्योरी

वैज्ञानिक खोजों द्वारा यह तो पता लग गया कि दुनिया की उत्पत्ति 13.8 अरब साल पहले महाविस्फोट से हुई थी लेकिन स्टीफन ने ब्रह्मांड से पहले की दुनिया के बारे में बताया. उन्होंने बताया कि महाविस्फोट से पहले सिर्फ एक अनंत ऊर्जा और तापमान वाला एक बिंदु था. महाविस्फोट सिद्धांत ब्रह्मांड की रचना का एक वैज्ञानिक सिद्धांत है, कोई पौराणिक कथा नहीं.

उस में बताया गया है कि ब्रह्मांड कब और कैसे बना? इस सिद्धांत के अनुसार, करीब 15 अरब साल पहले पूरे भौतिक तत्त्व और ऊर्जा एक बिंदु में सिमटे हुए थे. फिर इस बिंदु ने फैलना शुरू किया. महाविस्फोट, बम विस्फोट जैसा विस्फोट नहीं था, बल्कि इस में प्रारंभिक ब्रह्मांड के कण, सारे अंतरिक्ष में फैल गए और एकदूसरे से दूर भागने लगे. इस तरह ब्रह्मांड का निरंतर विस्तार हो रहा है. हाकिंग ब्रह्मांड की रचना को एक स्वत:स्फूर्त घटना मानते थे, न कि ईश्वरीय.

समकालीन विज्ञान जगत में इतना खिलंदड़ और मस्तमौला वैज्ञानिक नहीं देखा गया. वे अंतिम समय तक गुरुत्वाकर्षण और क्वांटम मैकेनिक्स को एकीकृत करने की गुत्थियों में डूबे हुए थे और आखिर तक यह जानना चाहते थे कि वाष्पीकृत होने के बाद ब्लैकहोल का क्या होता है. इन्हीं गुत्थियों को सुलझाते हुए हो सकता है उन्हें धरती पर एलियन के पदार्पण की बात सूझी हो.

1988 में प्रकाशित ‘समय का संक्षिप्त इतिहास’ (अ ब्रीफ हिस्ट्री औफ टाइम) जैसी किताब ने स्टीफन हाकिंग को विज्ञान दुनिया का चमकता तारा बनाया.

संडे टाइम्स की बैस्टसैलर सूची में यह किताब 237 सप्ताह तक बनी रही और इस की बदौलत गिनीज बुक औफ वर्ल्ड रिकौर्ड्स में इस का नाम दर्ज हुआ. इस की 1 करोड़ से अधिक प्रतियां बिकीं और 40 भाषाओं में अनूदित हुईं. फिर उन की दूसरी किताब ‘ब्लैक होल्स ऐंड बेबी यूनिवर्सेस ऐंड अदर एसेस’ प्रकाशित हुई.

इसी किताब में हाकिंग ने ब्रह्मांड से जुड़े अपने अध्ययनों को दिलचस्प तरीके से पेश किया और इसी में वह लेख भी है जिस में हाकिंग ने आइंस्टीन की दुविधाओं पर उंगली रखी. 2001 में आई उन की किताब ‘द यूनिवर्स इन अ नटशैल’ ने भी प्रकाशन जगत में धूम मचाई.

स्टीफन हाकिंग ने दुनिया का परिचय ब्रह्मांड के जिस सत्य से कराया है वह न सिर्फ विज्ञान के इतिहास में सदैव अमर रहेगा बल्कि यह सकारात्मक सोच और उच्च इच्छाशक्ति की एक मिसाल भी कायम करता है जो हमेशा ही दुनिया को प्रेरित करेगी.

खुशमिजाज और हाजिरजवाब स्टीफन

हाकिंग सिर्फ हमारी सदी के सब से महान वैज्ञानिक ही नहीं थे, बल्कि बेहद मजाकिया भी थे. उन के चुटीले कमैंट्स अकसर सुनने वालों को अचंभे में डाल देते थे. कई बार लोग उन से मिलने पर उन की बीमारी और शारीरिक अवस्था के प्रति सहानुभूति जताते, तो हाकिंग अपने मजेदार अंदाज में उन्हें जीने का तरीका सिखा देते.

मशहूर टौक शो ‘लास्ट वीक दिस टाइम’ के होस्ट जौन ओलिवर अपनी कौमिक टाइमिंग के लिए मशहूर हैं, लेकिन हाकिंग ने उन की भी बोलती बंद कर दी थी. हुआ यह कि एक इंटरव्यू के दौरान ओलिवर ने हाकिंग से पूछा, ‘अगर आप मानते हैं कि इस ब्रह्मांड में अनगिनत पैरेलल यूनिवर्स हैं, तो कोई ऐसी भी समानांतर दुनिया होगी जहां मैं आप से ज्यादा बुद्धिमान हूं?’ हाकिंग ने जवाब दिया, ‘बिलकुल, और मुझ से ज्यादा मजाकिया भी.’ ओलिवर बेचारे खिसिया कर रह गए.

इस वैज्ञानिक के लतीफे बहुत मशहूर रहे हैं. उन के विज्ञान से जुड़े कुछ मजेदार लतीफे इस प्रकार हैं-

एक न्यूट्रौन बार में पहुंचा. बारटैंडर से उस ने पूछा, ‘एक ड्रिंक का कितना?’ बारटैंडर ने न्यूट्रौन को देखा और बोला, ‘आप के लिए नो चार्ज.’

2 एटम सड़क पर घूम रहे थे. पहले ने कहा, ‘लगता है मैं ने अपना एक इलैक्ट्रौन खो दिया है.’ दूसरा बोला, ‘क्या तुम श्योर हो?’ पहले ने कहा, ‘हां, मैं पौजिटिव हूं…’

क्या आप जानते हैं ब्लैकहोल क्या है? यह वह छेद है जो आप के काले मोजे में हो जाता है.

मैं ने 2 शादियां कीं और दोनों टूट गईं, इतना काफी है यह समझने के लिए कि एक आदमी ब्रह्मांड के रहस्य समझ सकता है, लेकिन औरतों को नहीं.

जो लोग कहते हैं कि ब्रह्मांड में सबकुछ पहले से ही तय है, मुझे ताज्जुब होता है जब ऐसे लोग सड़क पार करने से पहले दाएंबाएं देखते हैं.

प्रेरणा देते स्टीफन

दुनिया में हाकिंग के लेखन और खोजों का क्या परिणाम हुआ, इस की मिसाल गीतकार और पटकथा लेखक वरुण ग्रोवर के शब्दों में- ‘अलविदा मेरे पहले (और शायद अंतिम) हीरो. मुझे फिजिक्स से कभी प्यार नहीं होता और मेरा भाई कभी एक फिजिसिस्ट नहीं बनता अगर आप के स्पष्ट व उत्साहित करने वाले लेख हम बच्चों के लिए एक नई दुनिया के दरवाजे न खोलते. हमारे समय की ‘ब्रीफ हिस्ट्री’ आप को हमेशा बहुत प्यार से याद रखेगी.’

स्टीफन हाकिंग के प्रेरक कथन

  • ऊपर सितारों की तरफ देखो अपने पैरों के नीचे नहीं. जो देखते हो उस का मतलब जानने की कोशिश करो और आश्चर्य करो कि क्या है जो ब्रह्मांड का अस्तित्व बनाए हुए है. उत्सुक रहो.
  • चाहे जिंदगी कितनी भी कठिन लगे, आप हमेशा कुछ न कुछ कर सकते हैं और सफल हो सकते हैं.
  • बुद्धिमत्ता बदलाव के अनुरूप ढलने की क्षमता है.
  • विज्ञान केवल तर्क का अनुयायी नहीं है, बल्कि रोमांस और जनून का भी है.
  • अन्य विकलांग लोगों के लिए मेरी सलाह होगी कि उन चीजों पर
  • ध्यान दें जिन्हें अच्छी तरह से करने से आप की विकलांगता नहीं रोकती, और उन चीजों के लिए अफसोस न करें जिन्हें करने में यह बाधा डालती है.
  • मुझे लगता है बह्मांड में और ग्रहों पर जीवन आम है, हालांकि बुद्धिमान जीवन कम ही है. वहीं, कुछ का कहना है इस का अभी भी पृथ्वी पर आना बाकी है.
  • हम एक औसत तारे के छोटे से ग्रह पर रहने वाले बंदरों की एक उन्नत नस्ल हैं. लेकिन हम ब्रह्मांड को समझ सकते हैं, यह हमें कुछ खास बनाता है.
  • मैं चाहूंगा न्यूक्लियर फ्यूजन व्यावहारिक ऊर्जा का स्रोत बने. यह प्रदूषण या ग्लोबल वार्मिंग के बिना, ऊर्जा की अटूट आपूर्ति प्रदान करेगा.
  • लाइफ दुखद होगी अगर यह अजीब न हो.
  • जब किसी की उम्मीद एकदम खत्म हो जाती है, तब वह सचमुच हर उस चीज की महत्ता समझ पाता है जो उस के पास है.
  • मैं, बस एक बच्चा हूं जो कभी बड़ा नहीं हुआ. मैं अभी भी ‘कैसे’ और ‘क्यों’ वाले सवाल पूछता रहता हूं. कभीकभार मुझे जवाब मिल जाता है.
  • काम आप को अर्थ और उद्देश्य देता है और इस के बिना जीवन अधूरा है.
  • मेरा लक्ष्य स्पष्ट है. ये ब्रह्मांड को पूरी तरह समझना है, यह जैसा है वैसा क्यों है और आखिर इस के अस्तित्व का कारण क्या है.
  • विज्ञान लोगों को गरीबी व बीमारी से निकाल सकता है और सामाजिक अशांति खत्म कर सकता है.
  • मैं एक अच्छा छात्र नहीं था, मैं कालेज में ज्यादा समय नहीं बिताता था, मैं मजे करने में बहुत व्यस्त था.
  • कभीकभी मुझे आश्चर्य होता है कि क्या मैं अपनी व्हीलचेयर और विकलांगता के लिए उतना ही प्रसिद्ध हूं जितना अपनी खोजों के लिए.
  • धर्मशास्त्र अनावश्यक है.
  • मुझे नहीं लगता कि मानव जाति अगले हजार साल बची रह पाएगी जब तक कि हम अंतरिक्ष में विस्तार नहीं करते.
  • मेरा विश्वास है कि चीजें खुद को असंभव नहीं बना सकतीं.
  • दिव्य रचना से पहले भगवान क्या कर रहा था ?
  • यदि आप यूनिवर्स को समझते हैं तो एक तरह से आप इसे नियंत्रित करते हैं.
  • वास्तविकता की कोई अनूठी तसवीर नहीं होती.
  • मेरी पहली लोकप्रिय किताब , ‘अ ब्रीफ हिस्ट्री औफ टाइम,’ ने काफी रुचि पैदा की, लेकिन कई लोगों को इसे समझने में कठिनाई हुई.
  • हम यहां क्यों हैं? हम कहां से आते हैं? परंपरागत रूप से, ये फिलौसोफी के सवाल हैं, लेकिन फिलौसोफी मर चुकी है.

VIDEO : करीना कपूर मेकअप लुक फ्रॉम की एंड का मूवी

ऐसे ही वीडियो देखने के लिए यहां क्लिक कर SUBSCRIBE करें गृहशोभा का YouTube चैनल.

मूर्तियों पर महाभारत : जड़ता के दौर में मौज उड़ाते मूर्तिभक्त, पिसते मेहनतकश

मूर्तियों के देश भारत में किसी राज्य की सरकार बदलने पर मूर्तियां उखाड़ने का पहली बार खतरनाक दृश्य उभर कर सामने आया है. यह एक नए खतरे की आहट है.

वैसे तो देश में सत्ता बदलते ही दफ्तरों में तसवीरें बदलने का पुराना रिवाज है पर मूर्ति के बदले मूर्तियां तोड़नेफोड़ने का जो सिलसिला शुरू हुआ, वह किसी सभ्य लोकतांत्रिक युग का नहीं, मध्ययुगीन सोच को जाहिर करता है. देश में तरक्की का नहीं, जड़ता का दौर दिखाईर् दे रहा है जहां मूर्तियों को नफरत की वजह से तोड़ा जा रहा है. मूर्ति तोड़े जाने की पहली घटना त्रिपुरा की राजधानी अगरतला से 90 किलोमीटर दूर बेलोनिया के सैंटर औफ कालेज स्क्वायर में स्थापित व्लादिमीर लेनिन की मूर्ति को जेसीबी मशीन से गिराने से घटी. राज्य में वामपंथ को हरा कर भाजपा को जीत हासिल किए महज 48 घंटे ही बीते थे कि भारत माता की जय का नारा लगाती भीड़ ने इसे ढहा दिया. 2013 में वामपंथी पार्टी ने जब चुनाव जीता था तब इस प्रतिमा को लगाया था.

इस के बाद दक्षिण त्रिपुरा के सबरूम में लेनिन की एक और मूर्ति गिरा दी गई. देखतेदेखते देश के कई हिस्सों से मूर्तियों को तोड़ने, गिराने की खबरें आने लगीं. प्रतिक्रियास्वरूप, पश्चिम बंगाल के कोलकाता में वामपंथी समर्थकों ने जनसंघ के संस्थापक श्यामाप्रसाद मुखर्जी की प्रतिमा पर कालिख पोत दी और उसे तोड़ने का प्रयास किया.

इसी बीच तमिलनाडु में वेल्लूर के तिरुपत्तूर तालुका में द्रविड़ आंदोलन के प्रवर्तक ई वी रामास्वामी पेरियार की प्रतिमा को हथौड़े से तोड़ दिया गया. उत्तर प्रदेश के मेरठ जिले के मवाना क्षेत्र में भीमराव अंबेडकर की मूर्ति नष्ट कर दी गई. फिर केरल से महात्मा गांधी की प्रतिमा का चश्मा और चेन्नई से अंबेडकर की प्रतिमा के तोड़े जाने की खबरें आईं.

जिन नेताओं की प्रतिमाएं तोड़ी गईं उन में एक रूसी क्रांतिकारी लेनिन के आंदोलन ने पूरी दुनिया की तसवीर बदल दी थी. धर्म और पूंजीपतियों के गठजोड़ को तोड़ कर वे समानता के पक्षधर थे. पेरियार दक्षिण भारत के तर्कवादी, जातिविरोधी नेता थे. वे द्रविड़ आंदोलन के प्रवर्तक और मूर्तिपूजा विरोधी थे. वे बराबरी का समाज चाहते थे. इस तरह, परस्पर विरोधी विचारधारा को स्वीकार न कर पाने वाली नफरतभरी विध्वंसक प्रतिक्रियाएं देखी गईं. हालांकि ऊपरी तौर पर दिखावे के लिए प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने इन घटनाओं की निंदा की और गृहमंत्री राजनाथ सिंह को इस पर कड़ी कार्यवाही करने का निर्देश दिया, लेकिन फिर भी एक लोकतांत्रिक देश में विरोधी वैचारिक प्रतीकों को खंडित किए जाने के लिए भाजपा सरकार के अंधभक्तों की जम कर आलोचना की गई और सरकार के विकास के दावों पर सवाल उठने लगे.

समाज में उथलपुथल आज विश्व नई तकनीक, आर्थिक विकास, शिक्षा और नए कौशल प्रबंधन में जुटा दिखाईर् दे रहा है जबकि भारत मूर्तियों में आजादी खोज रहा है. देश के नक्शे को भले ही भाजपा ने तकरीबन भगवा रंग दिया हो और अपने एकछत्र राज पर गर्व कर रही हो पर तरक्की व सुधार के उस के दावे हवाहवाई दिखाई दे रहे हैं.

देशभर में व्यापारी, किसान, बेरोजगार व महिलाएं सड़कों पर आंदोलनरत हैं. कितनी ही समस्याएं मुंहबाए खड़ी हैं. दूसरी ओर, मंदिर निर्माण, गौरक्षा, लवजिहाद, दलितों पर हमले, योग, आयुर्वेद, संस्कृत शिक्षा, पीएनबी घोटाला, बैंकों का कर्ज घोटाला आदि सुर्खियों में छाए हुए हैं. आम लोग हताश व निराश हैं. हिंदू संगठनों की बढ़ती तादाद, उन की धमकियां, सोशल मीडिया और सड़कों पर भगवा झंडे, माथे पर भगवा पट्टी धारण जैसी कट्टरता का सैलाब दिखाई दे रहा है. चारों ओर तर्कहीन, अवैज्ञानिक बातों का स्वरराग सुना जा रहा है. यह कोई और नहीं, खुद सरकार और उस के समर्थक कर रहे हैं.

सचाई पर मिथक थोपना केंद्रीय मानव संसाधन विकास राज्यमंत्री सत्यपाल सिंह ने डार्विन के विकासवाद के सिद्धांत को खारिज करते हुए फरमाया कि यह आधार अवैज्ञानिक है, क्योंकि हमारे पूर्वजों ने यह नहीं कहा अथवा लिखा कि उन्होंने किसी बंदर को मानव बनते देखा है. प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी मुंबई में एक अस्पताल के कार्यक्रम में दावा कर चुके हैं कि हाथी के सिर वाले गणेश का होना इस बात का सुबूत है कि प्राचीन भारत में प्लास्टिक सर्जरी का ज्ञान था. उन्होंने महाभारत के हवाले से कहा था कि तब लोगों को जेनेटिक्स का पता था.

उधर, राजस्थान के शिक्षा मंत्री वासुदेव देवनानी ने दावा किया था कि गाय ही एकमात्र ऐसा प्राणी है जो औक्सीजन लेती है और औक्सीजन छोड़ती है. यह सरकार का विज्ञान पर हमला है. सरकार और भाजपा के लोग बारबार धर्म की किताबों के उदाहरण दे कर, हिंदुत्व की बात कर देश को फिर से प्राचीनकाल में ले जाना चाहते हैं. वे चाहते हैं कि पौराणिक मिथकों को लोग सत्य इतिहास मान लें और तभी के पुरातन नियमकानून आज भी चलें जिन में वर्णवाद मुख्य है. भाजपा सरकार इसी तरह के अवैज्ञानिक विचारों में देश को उलझाए रखना चाहती है. ऐसे पुराने विचारों के साथ भाजपा देशभर के 33 प्रतिशत लोगों के वोटों के बल पर एकछत्र छा गई है और बाकी बहुसंख्यक लोगों पर अपने विचार ही नहीं थोपना चाहती, बल्कि उन्हें डरा कर, धमका कर अपना वर्चस्व स्थापित करना चाहती है.

भाजपा के लिए धर्म व्यक्तिगत आस्था का विषय नहीं है, बल्कि परंपरागत सांस्कृतिक पहचान की राजनीति का प्रमुख तत्त्व है. यह अतीत की सामाजिक व्यवस्था को बनाए रखने और बदलाव को रोकने का साधन है. मूर्तियां इस देश में शासकों के लिए हमेशा से चमत्कारी लाभ देने वाली रही हैं. मूर्तियों से समाज के एक वर्ग को इकट्ठा किया जा सकता है तो दूसरे वर्ग को अलगथलग भी रखा जा सकता है. मूर्तियां प्रेम, शांति, सहिष्णु, एकता की वाहक नहीं बल्कि नफरत, भेदभाव, हिंसा, खूनखराबा की पर्याय हैं. मूर्तियां अंधविश्वास, ढोंग, पाखंड का खेल हैं. भोलीभाली जनता इस खेल की कठपुतली मात्र है. आजादी के बाद मूर्तियों को ले कर हजारों दंगे, मौतें हो चुकी हैं. सब से ज्यादा गांधी और अंबेडकर की मूर्तियां क्षतिग्रस्त की गईं. कट्टर हिंदुत्व का इन नेताओं और इन के समर्थकों के साथ मतभेद कायम रहा है और रहेगा.

मूर्ति युग की शुरुआत ईसापूर्व की पहली शताब्दी में 33 वैदिक और सैकड़ों पौराणिक देवीदेवताओं को पहचान लिया गया था. प्राचीन हिंदू गं्रथों में मूर्तियों का जिक्र नहीं है. चंद्रगुप्त द्वितीय के शासनकाल के दौरान बड़ा सांस्कृतिक विकास हुआ. रामायण और महाभारत जैसे तमाम धार्मिक स्रोतों का इस अवधि के दौरान संग्रहण किया गया. इस दौर में वास्तुकला, मूर्तिकला और चित्रकला में उपलब्धियां हासिल होने लगीं. फिर तो धीरेधीरे देशभर में न सिर्फ मंदिर और मूर्तियों की भरमार हो गई, बल्कि गलीचौराहों पर नेताओं की प्रतिमाएं स्थापित करने का सिलसिला भी चल पड़ा.

धार्मिक मूर्तियों का बड़े पैमाने पर कारोबार शुरू हो गया. मूर्तियों के प्रति लोगों में धार्मिक आस्था उत्पन्न की गई. यह काम यों ही संभव नहीं था. मूर्तियों को चमत्कारी बताया गया. उन की पूजा करने पर मनोकामना पूर्ण होने के दावे प्रचारित किए गए. बिना कुछ किए सबकुछ पाने की भूखी अंधविश्वासी जनता मूर्ख बनती गई और धर्म के धंधेबाजों का कारोबार चल पड़ा.

आजादी के बाद के दशकों में महात्मा गांधी, जवाहरलाल नेहरू, सरदार वल्लभभाई पटेल, भीमराव अंबेडकर जैसे नेताओं की प्रतिमाएं स्थापित करने का दौर चला. साथ ही साथ उन जातियों को भी मूर्तिपूजा की ओर धकेल दिया गया जिन्हें नीच, अछूत, अधम, पापी समझा गया. शूद्र, दलित जातियों को उन्हीं के पौराणिक पात्र पूजने को दे दिए गए. जातियों ने अपनेअपने पूर्वज और महापुरुष बांट लिए और उन की प्रतिमाएं स्थापित करा दीं. ऊंची जातियों ने मनु महाराज, परशुराम जैसे, शूद्रों ने शाहूजी महाराज, शिवाजी, ज्योतिबा फूले और दलितअछूतों ने वाल्मीकि, अंबेडकर को पूजना शुरू कर दिया.

बौद्धों और जैनियों में मूर्तिपूजा निषेद्ध होने के बावजूद बड़े पैमाने पर प्रतिमाएं स्थापित की गईं. इस तरह मूर्तियों के नाम पर धर्म के धंधेबाजों का कारोबार फलनेफूलने लगा.

अभी देश में हजारों करोड़ रुपए खर्च कर मूर्तियां खड़ी की जा रही हैं. अहमदाबाद में ‘स्टैच्यू औफ यूनिटी’ का बजट 3,000 करोड़ रुपए और मुंबई में शिवाजी की प्रतिमा पर 3,600 करोड़ रुपए खर्च किए जा रहे हैं. राममंदिर निर्माण का बजट अभी सामने आया नहीं है पर वह भी निश्चित ही हजारों करोड़ का होगा. उत्तर प्रदेश के मुख्यमंत्री रामसीता की मूर्ति लगाने की बात कर रहे हैं. देश में गरीबों के लिए स्कूलों, अस्पतालों और उन के विकास के लिए फंड नहीं है जबकि मूर्तियों में हजारों करोड़ रुपए बरबाद किए जाते हैं.

मूर्ति विरोधी आंदोलन

जहां तक मूर्तिविरोधी आंदोलन की बात है, हिंदू परंपराओं में नास्तिक चार्वाक ने सब से पहले देवीदेवताओं की मूर्तियों के ढोंग को खारिज किया. बाद में आर्य समाज और ब्रह्म समाज आंदोलन ने मूर्तियों का विरोध किया. आजादी के पहले से ही, लगभग 70 सालों से, ‘सरिता’ मूर्तिपूजा के पाखंड की पोल खोलती आ रही है. पत्रिका का यह आंदोलन जारी है. मौजूदा समय में मूर्तिपूजा विरोधी आंदोलन की सब से अधिक जरूरत है, लेकिन कहीं कोई दूसरी बड़ी आवाज नहीं सुनाई देती. चारों ओर हिंदुत्व के नगाड़ों के शोर में मूर्तिभंजकों की आवाज सुनाई ही नहीं पड़ रही. राजनीतिक पार्टियों के लिए मूर्तियां चमत्कारी साबित होती हैं, वे चाहे नेताओं की हों या देवीदेवताओं कीं. लेकिन मूर्तियां समाज के लिए कभी फायदेमंद रही हों, दिखाई नहीं दिया.

एक प्रतिमा किसी वर्ग के लिए सम्माननीय है तो वही दूसरे के लिए नफरत का कारण. इस तरह के सामाजिक विभाजन का फायदा धर्म के धंधेबाज उठाते आए हैं. सरकार पुरोहितों के आदेशों पर चलने लगती है.

पेशवा राज से समानता

मौजूदा शासन और राजनीतिक व सामाजिक माहौल पेशवा राज से मिलताजुलता दिखाई देता है. 18वीं शताब्दी के प्रारंभ में शाहूजी महाराज ने मराठा की राजधानी सतारा में स्थापित कर ली थी. पर शासन के सारे अधिकार पेशवा बालाजी विश्वनाथ के हाथों में सौंप दिए थे. यहीं से पेशवा राज का प्रारंभ हो गया था. मराठों का शूद्र राजा नाममात्र का प्रमुख था. सत्ता का केंद्र पेशवा बन गए थे और पुणे का महत्त्व बढ़ गया था. पेशवा काल में सामाजिक स्थिति अत्यधिक अव्यवस्थित थी. छुआछूत, ऊंचनीच, रूढि़वादी बुराइयां चरम पर थीं. चारों ओर अज्ञानता, अंधविश्वास, खोखली आस्था का अंधकार व्याप्त था. शूद्रों, अछूतों और स्त्रियों को पढ़ने की इजाजत नहीं थी. स्त्रियों की स्थिति दयनीय थी. समाज भाग्यवादी बन कर छोटे से दायरे में संकुचित हो गया था.

पेशवाओं के समय समाज अस्थिरता और असुरक्षा के दौर से गुजर रहा था. उस में जड़ता आ गई थी. पेशवाओं से पहले सामाजिक विषमता के दुष्परिणाम दलितों को छोड़ कर अन्य शूद्र जातियों को एक सीमा तक ही सहन करने पड़ते थे पर पेशवाकाल में ब्राह्मणों, खासतौर से चितपावन ब्राह्मणों का, समाज के राजनीतिक, सामाजिक, आर्थिक व धार्मिक क्षेत्र में बड़े पैमाने पर आधिपत्य था.

उस समय पेशवा ब्राह्मणों की संख्या कुल आबादी के 5 प्रतिशत से अधिक नहीं थी. फिर भी संख्या में कहीं अधिक दलितों, शूद्रों को किसी भी गलती पर हाथी के पैर से कुचलवा दिया जाता था. शूद्रों को थूकने के लिए गले में मिट्टी की हांडी बांधनी पड़ती थी. वे उसी हांडी में थूक सकते थे. इन लोगों को सूर्योदय से पहले और सूर्यास्त के बाद सड़क पर चलने की इजाजत नहीं थी. शूद्रों, दलितों को तालाबों से पानी भरने से रोका जाता था.

कर्मकांड, तंत्रमंत्र, शकुनअपशकुन का बाजार गरम था. यही कारण था कि शिक्षा, व्यापार और कला के क्षेत्र में पेशवाकाल एकदम खाली रहा. दूसरी ओर यूरोप में पुनर्जागरण और औद्योगिक क्रांति के कारण ज्ञानविज्ञान के क्षेत्र में युगांतकारी बदलाव हो रहे थे.

भारत में कारोबारी संसाधन और संभावनाएं बहुत हैं. इसे भांप कर पुर्तगाली, डच, अंगरेज भारत आए और विकास दिखने लगा. मुगलों के किए कार्य आज भी नजर आ रहे हैं. इन का मुख्य मकसद अपने धर्र्म का विस्तार करना नहीं था, व्यापार और साम्राज्य को नया आधार देना था.

हिंदुत्ववादी विस्तार के प्रयास

आज हमारे देश की हिंदू राष्ट्रवादी सरकार हिंदुत्ववादी विस्तार करना चाहती है. वह पेशवा राज व्यवस्था पर चलती दिख रही है. वैसा ही सबकुछ देखा जा सकता है. हैदराबाद केंद्रीय विश्वविद्यालय में भेदभाव और पढ़ाई में बाधा डालने का विरोध करने के चलते रोहित वेमुला जैसे युवाओं को आत्महत्या करने के लिए मजबूर किया जाता है. गैरबराबरी के खिलाफ आवाज उठाने पर सहारनपुर में दलित युवक चंद्रशेखर को देशद्रोेह के आरोप में जेल में डाल दिया जाता है. जेएनयू में गैरबराबरी और झूठे राष्ट्रवाद के खिलाफ बोलने पर छात्रों को देशद्रोही बताया जाता है और उन पर मुकदमा कायम कर दिया जाता है. गाय की खाल उतारने पर ऊना में दलितों पर अमानुषिक कहर ढाया जाता है. लेकिन कभी किसी ऊंची जाति के ब्राह्मण को अनर्गल बोलने पर जेल में नहीं डाला गया है.

दरअसल, मूर्तियों का यह झगड़ा धर्म के निठल्ले, समाज में गैरबराबरी चाहने वाले धंधेबाजों और मेहनतकश व समानता के पैरोकारों के बीच है, जिन की मूर्तियां तोड़ी गईं उन में लेनिन, पेरियार, अंबेडकर मेहनत और समानता के लिए संघर्ष करने वाले लोग थे और वे समाज में भेदभाव, शोषण का खात्मा कर मेहनतकश व बराबरी वाले समाज की स्थापना का सपना देख रहे थे.

आज इस बात का ध्यान रखा जाता है कि प्राचीन सामाजिक व्यवस्था कायम रहे, पुनर्स्थापित हो. उसे सुधारें नहीं. अगर बदलने का प्रयास हो तो उसे डरा, धमका कर नियंत्रित रखा जाए. दलित मूंछ रखे तो पुराणों के अनुसार वह ऐसा नहीं कर सकता. मुसलमानों को पशुवध से रोका जाए. हिंदू धर्र्म से अलग विचार वालों के महापुरुषों की मूर्तियों को तोड़ा जाए. ऐसा चाहने वाला देश का वह वर्ग है जो सदियों से बिना कामधाम किए लोगों की मेहनत पर मुफ्त में ऐश करता आया है. लेनिन, पेरियार, अंबेडकर की मूर्तियां नष्ट करने वाले ऐसी ही निकम्मी सोच के समर्थक हैं जो देश में दूसरों की कमाई पर पलते आ रहे हैं.

सत्ता में आरएसएस की घुसपैठ सरकार की योजनाएं राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ यानी आरएसएस का थिंकटैंक बना रहा है. भ्रष्ट नेता, नौकरशाह और कौर्पोरेट तथा धर्म की खाने वाले बिना कुछ किए दौलत कूट रहे हैं. वे बेईमानी, चोरी, घोटाले और खालीपीली बातें बना कर मौज कर रहे हैं. दूसरी ओर 65 प्रतिशत मेहनतकश वर्ग दिक्कतें झेल रहा है. वह रोजीरोटी और रोजमर्रा की जरूरतों के लिए जद्दोजेहद कर रहा है.

5 प्रतिशत निकम्मों द्वारा देश, समाज पर वर्चस्व रखने की कोशिश के चलते 65 प्रतिशत मेहनती, हुनर वाले लोगों की उत्पादन क्षमता पर असर पड़ रहा है. इस से देश व समाज को नुकसान हो रहा है. मोदी जब आए थे तब लगा था कि देश में अब उत्पादकता बढे़गी. उन के आते ही मेक इन इंडिया, स्टार्टअप, स्टैंडअप इंडिया, जैसी कई योजनाएं सामने आईं पर अब इन पर कोई बात नहीं हो रही. देश में विकास की कोरी बातें बहुत प्रचारित की जा रही हैं. यह विकास नहीं, जड़ता का दौर है. वैज्ञानिक और सामाजिक विकास धर्म के कारोबार पर चोट पहुंचाता है. आज हर देश में बैठा धर्म का व्यापारी विकासविरोधी है. वह शासकों को और जनता को धर्म के जाल में उलझाए रखने में कामयाब दिख रहा है.

हमारे यहां साफ देखा जा सकता है कि कुछ भगवाधारी हिंदुत्व के विस्तार में जुटे हुए हैं मानो उन्हें सरकार ने नियुक्त कर रखा है. अयोध्या में राममंदिर निर्माण के लिए श्रीश्री रविशंकर बाबरी मसजिद के नेताओं से सुलह के स्वंयभू मध्यस्थ बने नजर आ रहे हैं. सहमति न होने पर देश को सीरिया बनाने की धमकी दे रहे हैं. रामदेव स्वदेशी व्यापार के ऐंबैसेडर की तरह योग, आयुर्वेद को प्रचारित कर रहे हैं. उत्तर प्रदेश में महंत सरकार धर्मनिरपेक्षता को धता बता कर ईद न मनाने पर गर्व कर रही है यानी महंत महोदय गैरहिंदू वर्ग के खिलाफ नफरत का इजहार कर रहे हैं. निकम्मे लोगों की मौज देख कर मेहनती लोगों की उत्पादक क्षमता पर असर पड़ना स्वाभाविक है.

बहुसंख्यक आबादी पर अपना वर्चस्व थोपने, उसे अपने अनुसार चलाने में दिख रही उन की सफलता से देश जिहालत की ओर ही बढे़गा. यह वर्ग कभी नहीं चाहता कि देश में मेहनत, समानता की बात करने वाले नेता और उन के समर्थक शक्तिशाली बनें तभी लेनिन की मूर्ति ढहा कर वे आजाद होने का जश्न मना रहे थे.

भाजपा, संघ देश में एक विचारधारा थोपना चाहते हैं. इस से नफरत व अराजकता का माहौल तैयार हो रहा है. यह खतरनाक है. इस से निश्चिततौर पर देश की उत्पादकता पर बुरा असर पड़ेगा, काम करने वाले लोग हतोत्साहित होंगे. बिना उत्पादन करने वाले लोग भरपूर पैसा बनाते दिखेंगे तो मेहनती लोगों पर बुरा असर होगा ही. इन हालात से निबटना ही होगा. मेहनतकशों के वर्चस्व से ही किसी देश, समाज की तरक्की हो सकती है.

VIDEO : करीना कपूर मेकअप लुक फ्रॉम की एंड का मूवी

ऐसे ही वीडियो देखने के लिए यहां क्लिक कर SUBSCRIBE करें गृहशोभा का YouTube चैनल.

गांव के लड़कों को शादी की परेशानी

गांव में शादियों के मामले में सरकारी नौकरी बनाम पकौड़ा रोजगार के मद्देनजर पकौड़े बेचने वाले युवाओं को लोग कम पसंद कर रहे हैं. ऐसे में खेतीकिसानी और उस से जुड़े रोजगार करने वालों को तो गांव की सही लड़की मिल भी जा रही है पर बेरोजगार और नशेड़ी युवाओं के लिए शादी के रिश्ते ही नहीं आ रहे हैं. गांव में शादी योग्य लड़कों की संख्या बढ़ती जा रही है. लड़कियों की जनसंख्या कम होने से लड़कों के सामने शादी एक समस्या बनती जा रही है. योग्य लड़कों की तलाश की वजह से दहेज भी बढ़ता जा रहा है. अच्छे लड़कों की गिनती में सरकारी नौकरी वाले सब से आगे हैं. गांव में रोजगार करने वाले लड़कों के लिए गांव की लड़कियों के रिश्ते भले ही आ रहे हों पर उन के लिए पढ़ीलिखी व नौकरी करने वाली शहरी लड़कियों के रिश्ते नहीं आ रहे हैं. कानपुर में विवाह का एक कार्यक्रम था. लड़कालड़की वाले सभी रीतिरिवाजों में व्यस्त थे. शादी में शामिल होने आए नातेरिश्तेदार इस चर्चा में मशगूल थे कि गांव में लड़कों की शादियों के लिए बहुत कम रिश्ते आ रहे हैं. इस शादी में कानपुर, रायबरेली, हरदोई, उन्नाव और लखनऊ जैसे करीबी शहरों के तमाम लोग शामिल हुए थे.

हर किसी का कहना था कि उन के गांव में 20 से ले कर 50 तक की संख्या में लड़के शादीयोग्य उम्र के हैं, लेकिन उन की शादी नहीं हो पा रही है. उन की उम्र बढ़ती जा रही है. यह परेशानी केवल कानपुर की शादी में ही चर्चा का विषय नहीं थी बल्कि पूर्वी उत्तर प्रदेश के फैजाबाद जिले में एक शादी समारोह में भी ऐसी ही चर्चा हो रही थी. यहां गोंडा, बलरामपुर, बस्ती, सुल्तानपुर और गोरखपुर के लोग इसी परेशानी की चर्चा में लगे दिखे. सामान्यतौर पर देखें तो ऐसे हालात हर गांव में दिख रहे हैं. अगड़ी और पिछड़ी दोनों ही जातियों में यह समस्या दिख रही है. पिछड़ी जातियों में यह समस्या उन जातियों में सब से अधिक है जो पिछड़ों में अगड़ी जातियां जैसे यादव, कुर्मी, पटेल हैं. अगड़ी और पिछड़ी जातियों के मुकाबले दलितों में ऐसे हालात नहीं हैं.

उत्तर प्रदेश में मुलायम सिंह यादव जब मुख्यमंत्री थे तो उन्होंने कन्या विद्याधन योजना चलाई थी जिस के तहत हाईस्कूल और इंटर पास करने वाली लड़कियों को नकद पैसे मिले. इस के साथ उन्हें साइकिल भी मिली थी. इस योजना के बाद गांवों में लड़कियों के स्कूल जाने की तादाद में तेजी से बढ़ोतरी हुई थी. अब गंवई इलाकों में ग्रेजुएट लड़कियों की संख्या लड़कों से अधिक हो गई है. इन इलाकों में शिक्षक के रूप में नौकरी पाने वालों में भी लड़कों के मुकाबले लड़कियां अधिक हैं.

आगे निकल रही हैं लड़कियां

एक तरफ समाज में यह कहा जा रहा है कि लड़कों की अपेक्षा लड़कियों की संख्या कम होती जा रही है, दूसरी तरफ लड़कों की शादी के लिए लड़कियों के परिवारों से रिश्ते नहीं आ रहे हैं. इस स्थिति को समझने के लिए जब कई ग्रामीणों से बात की गई तो पता चला कि योग्यता के पैमाने पर लड़कियां लड़कों से आगे निकल रही हैं. पूर्वी उत्तर प्रदेश के कुछ जिलों, जैसे देवरिया, बलिया, गोरखपुर में शादियों के रिश्ते ज्यादातर बिहार से आते हैं. बिहार में लड़कियां शिक्षा के मामले में ज्यादा आगे निकल रही हैं. ऐसे में बिहार से शादी के लिए उत्तर प्रदेश के इन जिलों में आने वाले रिश्ते खत्म हो गए हैं. उत्तर प्रदेश के इन जिलों के गांवों में रहने वाले लड़कों के लिए अब रिश्ते नहीं आ रहे हैं. बिहार में यह परेशानी जस की तस उत्तर प्रदेश जैसी ही है.

गांव में रहने वालों में से करीब 50 फीसदी लोग अब दूरदराज के शहरों में रहने लगे हैं. ये लोग अपना परिवार सीमित रखते हैं. लड़की हो या लड़का, दोनों को पढ़ने का समान अवसर देते हैं. ऐसे में ये परिवार अपनी लड़की को शादी के लिए शहर से गांव में नहीं ले जाते हैं. उस का कारण गांव में रहने वालों की संकीर्ण विचारधारा और रूढि़वादी सोच है. गांव में भले ही लड़के के पास जमीन या रोजगार हो, वह शहर में प्राइवेट नौकरी करने वाले से अधिक पैसा कमा रहा हो पर उस की सोच वही होती है, ऐसे में पढ़ीलिखी लड़की खुद को वहां ऐडजस्ट नहीं कर पाती है. परिवारों के सीमित होने से लड़की के परिवार के पास अब लड़की की शादी में खर्च करने के लिए पैसा है और वह बेटी के भविष्य को सुखमय देखना चाहता है. ऐसे में वह नौकरी करने वाले लड़कों को प्राथमिकता देता है.

जाति और गोत्र की परेशानी गांव में रहने वाले परिवार आज भी जाति व गोत्र की ऊंचनीच में फंसे हैं. गैरबिरादरी में शादी तो बड़ी दूर की बात है. सब से पहली इच्छा भी यही होती है कि लड़के की शादी एक गोत्र नीचे और लड़की की शादी एक गोत्र ऊपर की जाए. हालांकि, अब इस प्रथा को छोड़ने के लिए लोग तैयार हो गए हैं.

अब लोगों की इच्छा रहती है कि अपनी ही बिरादरी में शादी हो जाए. गोत्र को ले कर लोग समझौते करने लगे हैं. अभी गैरबिरादरी में वे शादी करने को तैयार नहीं होते हैं. अपनी ही जाति में योग्य लड़कों की संख्या सब से कम मिलती है. अगर मिलती भी है तो वहां दहेज अधिक देना पड़ता है. दहेज की मांग इसलिए भी बढ़ रही है क्योंकि योग्य लड़कों की संख्या बहुत कम है, सो, उन के लिए शादी के औफर ज्यादा हैं. योग्यता के पैमाने के बाद पर्सनैलिटी के हिसाब से देखें तो गांव के लड़केलड़कियों से कमतर दिखते हैं. गांव के लोगों में गैरबिरादरी में शादी का रिवाज नहीं है. ऐसा केवल अगड़ी जाति में ही नहीं है. पिछड़ी और दलित जातियों में भी अपनी जाति से बाहर शादी करने का चलन नहीं है. यही कारण है कि विवाह योग्य कुछ लोग जब अपनी शादी होते नहीं देखते तो वे दूरदराज से शादी कर के लड़की ले आते हैं. उस की जाति के बारे में किसी को कुछ पता नहीं होता है और धीरेधीरे उस को सामाजिक स्वीकृति भी मिल जाती है.

हरियाणा और पंजाब में ऐसे बहुत से उदाहरण मिलते हैं जहां पर बिहार, आंध्र प्रदेश, पश्चिम बंगाल और नेपाल की लड़कियां आ जाती हैं. कई लोग तो ऐसी लड़कियों को खरीद कर लाते हैं.

नशे के शिकार

गांव में खेतीकिसानी ही मुख्य पेशा होता है. हाल के कुछ सालों में किसानी बेहाल होती जा रही है. गांव के आसपास शहरों का विकास होने लगा है. गांव की जमीन महंगी होती जा रही है. गांव के आसपास सड़क बनने से सरकार ग्रामीणों से जमीन खरीद कर उन्हें अच्छाखासा मुआवजा देने लगी है. घर और रिसोर्ट बनाने वाले भी गांवों की जमीन की खरीदारी कर रहे हैं. शहरों में रहने वाले लोग भी गांव की जमीनें खरीदने लगे हैं. ऐसे में गांव के लोगों के पास जमीन बेचने से पैसा आने लगा है. पैसा आने के बाद ये लोग उस का उपयोग अपने ऐशोआराम में करने लगे हैं. ऐसे में नशे की प्रवृत्ति सब से अधिक बढ़ती है. गांव में रहने वाले 90 फीसदी युवा नशे के शिकार हो रहे हैं. ये शराब, भांग और गांजा सहित तंबाकू का सेवन करने लगे हैं. पढ़ाईलिखाई से दूर ऐसे बेरोजगार युवाओं से लोग अपनी लड़की की शादी नहीं करना चाहते हैं.

नशे के आदी इन युवाओं की छवि बेहद खराब है. लड़कियों को लगता है कि ये लोग शादी के बाद मारपीट और गालीगलौज अधिक करते हैं. ऐसे में इन के पास जमीनजायदाद होते हुए भी लड़कियां शादी के लिए तैयार नहीं होतीं. कई बार अगर मातापिता के दबाव में लड़की शादी करने को राजी हो भी जाए तो आखिर में शादी टूट ही जाती है. नशे और स्वभाव के चलते गंवई लड़के लड़कियों को पसंद नहीं आते. गांव के माहौल में ग्रामीण लड़कियां तो किसी तरह से अपने को ढाल भी लें पर शहरी लड़कियां ऐसा नहीं कर पाती हैं. समाजसेवी राकेश कुमार कहते हैं, ‘‘गांव में भी अब परिवार सीमित होने लगे हैं. ऐसे में लड़कियों के मातापिता अपनी लड़की की शादी नौकरी करने वालों से करना चाहते हैं. इस के अलावा, उन की यह चाहत भी रहती है कि लड़की शहर में रहे.’’

रूढि़वादी सोच शहरों के मुकाबले ग्रामीणों की रूढि़वादी सोच भी यहां की शादियों में एक बड़ी परेशानी बन रही है. तमाम तरह के रीतिरिवाज पुराने ढंग से निभाए जा रहे हैं, जिन के बारे में शहरों में रह रही लड़कियां कुछ जानती भी नहीं. ऐसे में उन को वहां सामंजस्य बैठाना सरल नहीं होता. रूढि़वादी सोच के कारण लड़कियों को वहां टीकाटिप्पणी का सामना भी करना पड़ता है, जिस से नई सोच की लड़कियों को परेशानी होने लगती है.

गांव में आज भी परदा प्रथा हावी है. अभी भी वहां घूघंट निकाल कर रहना पड़ता है. किसी काम के लिए बाहर आनेजाने पर मनाही है, जिस की वजह से पढ़ीलिखी लड़कियों को लगता है कि वे गांव में शादी कर के अपने कैरियर को हाशिए पर ले जा रही हैं. अभी भी बहुत सारे गांवों में घरों में शौचालय नहीं हैं. जिन घरों में हैं भी, वहां वे प्रयोग में नहीं हैं. ऐसे में शहरों या कसबों की लड़कियों के लिए वहां शादी करना मुश्किल हो रहा है. अब गांव के लोग भी अपनी लड़कियों की शादी शहरों में करना चाहते हैं. वे उन लड़कों को अधिक महत्त्व देते हैं जो गांव और शहर दोनों जगह रहते हैं.

सब से बड़ी शर्त सरकारी नौकरी की होने लगी है. सरकारी नौकरी वाले लड़के से अपेक्षा की जाती है कि वह गांव में रहने के साथसाथ शहर या कसबे में भी अपना घर जरूर बना लेगा. ऐसे में लड़की को गांव में ही नहीं रहना होगा. आज जिस तरह से महिलाओं के मजबूर होने की बात हो रही है उस से शादी के मामले में लड़कियों की पसंद का भी खयाल रखा जाने लगा है.

बदलती जीवनशैली

लड़कियों की बदलती जीवनशैली, पहनावा और शिक्षा भी इस के लिए एक महत्त्वपूर्ण कारक बन गया है. इस के अलावा लड़कियों की शादी की उम्र भी बढ़ गई है. पहले जहां 18 से 20 साल में लड़की की शादी हो जाती थी वहीं अब 20 से 25 वर्ष तक की उम्र में शादी हो रही है. लड़की कम से कम अब ग्रेजुएशन कर रही है और किसी न किसी रूप में रोजगार या नौकरी से जुड़ रही है.

ऐसे में वह आसानी से समझौते नहीं करती है. उस की पसंद गांव वाली शादी नहीं होती है. वह शहर में शादी कर के रहना चाहती है. इस वजह से भी गांव में शादी करने के लिए लोग रिश्ते ले कर कम आ रहे हैं. गांव में पहले ज्यादातर शादियां आपसी रिश्तों में तय होती थीं. अब आपसी रिश्तेदारियों में लोग शादी कर शादी के बाद होने वाली परेशानियों से बचना चाहते हैं.

ऐसे में जानकारी के बाद भी लोग शादी के बीच में नहीं पड़ना चाहते हैं. गांव के रहने वालों के सामने लड़की को तलाश करने का कोई दूसरा माध्यम नहीं है. गांव के लोगों का अभी भी वैवाहिक विज्ञापनों पर भरोसा नहीं है. ऐसे में शादी लायक युवकों के सामने परेशानी बढ़ती जा रही है. कई बारबार ऐसे गांवों का हाल प्रमुखता से खबरों में आता है जहां पानी या सड़क की परेशानी के चलते शादियां कम होती हैं. ऐसे गांवों की संख्या भी तेजी से बढ़ती जा रही है जहां पर लड़कों की शादियों के लिए रिश्ते कम आ रहे हैं. इस के अपने अलगअलग कारण हैं. परेशानी की बात यह है कि सालदरसाल वह परेशानी बढ़ती जा रही है. इस से गांव में एक अलग किस्म का बदलाव महसूस किया जा रहा है. गंवई युवा पहले से अधिक कुंठित हो कर मानसिक रोगों के शिकार होते जा रहे हैं.

VIDEO : करीना कपूर मेकअप लुक फ्रॉम की एंड का मूवी

ऐसे ही वीडियो देखने के लिए यहां क्लिक कर SUBSCRIBE करें गृहशोभा का YouTube चैनल.

याद आई है

अब तो बस लौट के

आ जाओ कि याद आई है

यूं सनम दिल न दुखाओ

कि याद आई है

 

गम में डूबे हुए

मायूस हैं कंगन मेरे

आओ छू कर इन्हें खनकाओ

कि याद आई है

 

अब तो ये रंग ए हिना

बुझ भी गई हाथों की

बन के सतरंग झमक जाओ

कि याद आई है

 

तनहातनहा सी हर इक शय है

आशियाने की

आओ हर शय में महक जाओ

कि याद आई है

हसरत ए दिल

कहीं टूट कर दम तोड़ न दे

आओ, आ जाओ, आ भी जाओ

कि याद आई है.

– तबस्सुम ‘कशिश’

VIDEO : करीना कपूर मेकअप लुक फ्रॉम की एंड का मूवी

ऐसे ही वीडियो देखने के लिए यहां क्लिक कर SUBSCRIBE करें गृहशोभा का YouTube चैनल.

भारतीय जनता पार्टी को जोर का झटका जोर से

उत्तर प्रदेश और बिहार में भारतीय जनता पार्टी को जोरदार झटका लगा है. यह झटका अखिलेश यादव की समाजवादी पार्टी और मायावती की बहुजन समाज पार्टी के एक मंच पर आने मात्र से नहीं लगा, बल्कि उस की अपनी कलई खुलने से लगा है. भारतीय जनता पार्टी ने अपने पंडिताई मंसूबे पर राष्ट्रवाद, भ्रष्टाचारमुक्त भारत, स्वच्छ भारत, कालेधन की वापसी के जो चमाचम कवरिंग पेपर लगाए थे, वे फट गए हैं और अंदर से पार्टी की पाखंडभरी नीतियां निकल आई हैं.

भाजपा कार्यकर्ता भगवा दुपट्टा डाले देशभर में कानून तोड़ते नजर आ रहे हैं. वे कभी गौरक्षक बन कर, कभी लवजिहाद रोकने का नाम ले कर तो कभी देशभक्ति का नारा लगा कर आम व्यक्ति को धकियाने में लिप्त हैं. भारतीय जनता पार्टी ने स्पष्ट कर दिया है कि यह देश हिंदू वर्णव्यवस्था के अनुसार चलेगा, जहां जन्म से अधिकार तय होंगे और लोगों को पिछले जन्मों के पापों का फल भोगना ही होगा.

भाजपा में शामिल पिछड़ी जातियों के दबंगों को पहले तो लगा कि उन को कुबेर का खजाना मिल गया है और वे अपनी लाठियों के बल पर दलितों व मुसलमानों पर ही नहीं, महिलाओं, व्यापारियों और अफसरों तक को सीधा कर सकेंगे पर धीरेधीरे उन्हें समझ आने लगा किभाजपा की नीति केवल एक पार्टी का वर्चस्व स्थापित करने की नहीं, बल्कि केवल एक जाति का वर्चस्व स्थापित करने की है.

जिस तरह सवर्ण लोग दूसरी पार्टियां छोड़छोड़ कर भाजपा में जा रहे थे और जिस तरह भाजपा में पिछड़े व दलित नेताओं की उपेक्षा हो रही थी उस से साफ था कि पार्टी का उद्देश्य तो कुछ और ही है. वह तो पेशवाई युग की वापसी चाहती है पर अपनी सीमाएं जानते हुए चुनाव जीतने मात्र के लिए किसानों, पिछड़ों, दलितों से समझौते कर रही है. पार्टी ने केंद्रीय मंत्रिमंडल में केवल ब्राह्मणों व बनियों को ऊंचे स्थान दिए हैं. यदि दूसरी जातियों के इक्कादुक्का नेता ऊंचे स्थान पर हैं तो वह रामायणमहाभारत से प्रेरित लगता है कि जरूरत पड़ने पर निचलों को अवतारों के विशेष दास के रूप में स्वीकार कर लिया जाए.

जनता को अब समझ आने लगा है कि भाजपा की नीतियों में व्यापारियों तक को आजादी नहीं है जबकि ये वैश्य ही ब्राह्मण श्रेष्ठों के सब से ज्यादा अंधभक्त हैं. पार्टी ने पहले नोटबंदी और फिर जीएसटी से उन पर वैसा ही हमला किया जैसा मुसलमानों और दलितों पर गौरक्षा और खापों के माध्यम से अपनी जाति के बाहर विवाह करने के नाम पर किया गया. 4 वर्षों में भाजपा की सरकार कालेधन की तो फूटी कौड़ी नहीं निकाल पाई, ऊपर से अपने मूर्खतापूर्ण फैसलों के चलते उस ने वैश्य व्यापारियों के गले में औनलाइन टैक्स कुंडली के फंदे डाल दिए हैं.

सरकार के फैसलों में एक भी फैसला ऐसा नहीं था जिस से आम किसान, कारीगर, मजदूर, गड़रिए, दूधिए, चौकीदार, राजमिस्त्री, सफाई वाले और भूखेनंगे को कोई लाभ मिले बल्कि वे तो भगवा दुपट्टा डाले नएनए रंगदारों के कहर के शिकार ही बन रहे थे. स्वाभाविक है कि गिनती में ज्यादा पर क्षमता में कम लोगों का रोष उभरेगा.

यही रोष 1965 के बाद कांग्रेस के खिलाफ उभरा था जब कम्युनिस्टों और समाजवादियों के सहारे इन वंचित लोगों ने ऊंची सवर्ण जातियों की पार्टी कांग्रेस को नकारना शुरू किया था. आज कांग्रेस अपना चरित्र बदल चुकी है क्योंकि उस के काफी नेता तो भाजपा को अपना चुके हैं. लोगों का यह गुस्सा अब तक कई पार्टियों में बंट रहा था. इस बार उत्तर प्रदेश व बिहार के नेताओं की अक्लमंदी थी कि उन्होंने वोट बंटने नहीं दिए और योगीमोदी के गढ़ पर हमला कर उसे जीत लिया.

भाजपा के पास अब विकल्प कम हैं. व्यापारी वर्ग समझ रहा है कि घंटेघडि़यालों के नाम पर उस को बेवकूफ बना कर भाजपा उन से पैसा और वोट बटोर रही है. उसे इस झटके की बड़ी कीमत चुकानी पड़ सकती है.

गोरखपुर व फूलपुर में पानीपत की तीसरी लड़ाई तो नहीं हुई जहां पेशवा लाखों की भीड़नुमा फौज के बावजूद हार गए थे पर यह उसी परंपरा की पहली मुठभेड़ जरूर है जिस में पेशवाई भाजपा को नुकसान हुआ है.

VIDEO : करीना कपूर मेकअप लुक फ्रॉम की एंड का मूवी

ऐसे ही वीडियो देखने के लिए यहां क्लिक कर SUBSCRIBE करें गृहशोभा का YouTube चैनल.

एससी/एसटी एक्ट पर सुप्रीम कोर्ट का फैसला कानून को कमजोर करने की कवायद

एससी/एसटी एक्ट पर आए सुप्रीम कोर्ट के फैसले पर देश भर का दलित समुदाय उबल रहा है. 2 अप्रैल को भारत बंद के ऐलान के बाद दलित संगठनों द्वारा धरना, प्रदर्शन, तोड़फोड़ और हिंसा की वारदातें हुईं. पंजाब, हरियाणा, उत्तरप्रदेश, राजस्थान, बिहार, उड़ीसा, छत्तीसगढ में रेलगाड़ियां रोकने, गाड़ियों में तोड़फोड़ की खबरें आईं. पुलिस के साथ झड़पें हुईं. मुरैना में एक व्यक्ति की मौत की हो गई और दूसरे हिस्सों में सैंकड़ों लोगों के घायल होने के समाचार हैं.

पंजाब में पहले दिन ही सरकार ने स्कूलें बंद करने की घोषणा कर दी थी और राज्य में इंटरनेट सेवाएं स्थगित कर दी गई. पूरे पंजाब में सुरक्षा बल तैनात कर दिए थे.

भारत बंद का समर्थन कांग्रेस समेत विपक्षी दलों ने तो किया ही, खुद सरकार के सहयोगी दलों के दलित और पिछड़े वर्ग के जनप्रतिनिधियों पुनर्विचार याचिका दाखिल करने की मांग की.

हालांकि विरोध के बाद केंद्र सरकार ने सुप्रीम कोर्ट में पुनर्विचार याचिका दाखिल की.

मालूम हो कि दलित समुदाय के एक व्यक्ति ने महाराष्ट्र के सरकारी अधिकारी सुभाष काशीनाथ महाजन के खिलाफ शिकायत दर्ज कराई थी. शिकायत में महाजन पर अपने ऊपर आपत्तिजनक टिप्पणी के मामले में अपने दो जूनियर कर्मचारियों के खिलाफ कारवाई पर रोक लगाने का आरोप लगाया था. याचिकाकर्ता का कहना था कि उन कर्मचारियों ने उन पर जातिसूचक टिप्पणी की थी.

इन गैर दलित अधिकारियों ने उस व्यक्ति की वार्षिक गोपनीय रिपोर्ट में उस के खिलाफ टिप्पणी की थी. जब मामले की जांच कर रहे पुलिस अधिकारी ने अधिकारियों के खिलाफ कारवाई के लिए उन के वरिष्ठ अधिकारी से इजाजत मांगी तो इजाजत नहीं दी गई. बचाव पक्ष का कहना था कि अगर किसी अनुसूचित जाति के व्यक्ति के खिलाफ ईमानदार टिप्पणी करना अपराध हो जाएगा तो इस से काम करना मुश्किल होगा.

महाजन ने एफआईआर खारिज करने के लिए हाई कोर्ट का रुख किया, पर बोंबे हाई कोर्ट ने इस से इनकार कर दिया. बाद में महाजन ने हाई कोर्ट के फैसले को शीर्ष कोर्ट में चुनौती दी. इस पर शीर्ष कोर्ट ने उन पर एफआईआर हटाने का आदेश देते हुए अनुसूचित जाति/जनजाति एक्ट के तहत तत्काल गिरफ्तारी पर रोक का आदेश दिया था. यही नहीं, सुप्रीम कोर्ट ने ऐसे मामलों में अग्रिम जमानत की भी मंजूरी दे दी थी.

इस फैसले के खिलाफ विरोध प्रदर्शन शुरू हो गए. दलित संगठनों और कई राजनीतिक दलों की ओर से केंद्र सरकार के इस मसले पर अपना रुख स्पष्ट करने की मांग की. इस के बाद सामाजिक न्याय एवं अधिकारिता मंत्रालय की ओर से कहा गया कि इस मामले पर पुनर्विचार याचिका दाखिल की जाएगी. सरकार ने पुनर्विचार याचिका दायर की पर कोर्ट ने तुरंत सुनवाई नहीं की.

इस एक्ट के सेक्शन 18 के तहत ऐसे मामलों में अग्रिम जमानत का प्रावधान नहीं है. ऐसे में यह छूट दी जाती है तो फिर अपराधियों के लिए बच निकलना आसान हो जाएगा. इस के अलावा सरकारी कर्मचारियों के खिलाफ अपांटिंग अथौरिटी की मंजूरी को ले कर भी दलित संगठनों का कहना है कि उस में भेदभाव किया जा सकता है.

साफ है कि इस फैसले से एससी/एसटी एक्ट 1989 के प्रावधान कमजोर हो जाएंगे. अदालत के आदेश से लोगों में कानून का भय खत्म होगा और इस मामले में ज्यादा कानून का उल्लंघन हो सकता है.

अदालत का मुख्य तर्क है कि इस एक्ट का दुरुपयोग हो रहा है. सवाल है कि क्या दूसरे कानूनों का दुरुपयोग नहीं हो रहा? दहेज कानून से ले कर मानहानि, धार्मिक भावनाओं को ठेस पहुंचाने तक अनगिनत मामलों में दुरुपयोग  होता है. अगर ऐसा है तो सभी मामलों में एक समान आदेश होने चाहिए.

यह सही है कि दलितों की इतने व्यापक स्तर पर एकजुटता 1932 के बाद पहली बार दिखाईर् दी है. संविधान ने दलितों को इन दशकों में सामाजिक, आर्थिक और राजनीतिक रूप से मजबूत किया है.

सदियों से चले आ रहे भेदभाव के खिलाफ बने कानूनों को कमजोर करने की कोशिशें की जा रही हैं. सरकार की मंशा पर संदेह है कि अगर वह वास्तव में दलितों के साथ है तो हल्ला मचने से पहले ही क्यों नहीं उस ने पुनर्विचार याचिका दाखिल करने की बात की.

जिस भेदभाव वाली मनुस्मृति की व्यवस्था के खिलाफ बराबरी का संविधान बना है, अदालत का यह फैसला मनुस्मृति की तरफ झुकता दिखता है.

शिक्षा में तो संघ की घुसपैठ हो चुकी है. अब ज्यूडिशियरी में भी संघ केलोगों या समान  विचारधारा वाले निर्णय नजर आने लगे हैं.

शिक्षा व्यवस्था में संघी विचारधारा पूरी तरह से कामयाब दिख रही है. इतिहास से ले कर सिलेबस तक मन मुताबिक बदले जा रहे हैं. अगर बराबरी की व्यवस्था के संविधान पर धर्म के भेदभाव की व्यवस्था थोपी जाती है तो न्याय कहां होगा? इस तरह के फैसले कानून को कमजोर करने की कवायद है.

एसबीआई में हुए तीन बड़े बदलाव, जानिए इसके बारे में

वित्त मंत्री अरुण जेटली ने इस साल आम बजट पेश किया. जिसमें उन्होंने कई नये बदलाव किए हैं. वो सारे बदलाव 1 अप्रैल से लागू हो गए हैं. इसी के साथ देश के सबसे बड़े सरकारी बैंक स्टेट बैंक औफ इंडिया ने भी 3 नए बदलाव किए हैं. एसबीआई के इस बदलाव से 25 करोड़ खाताधारकों पर असर होने वाला है. आइए आपको बताते हैं क्या हुए हैं नये बदलाव और कैसे आपकी जेब पर पढ़ेगा इसका असर.

SBI में मिनिमम बैलेंस चार्ज कम लगेगा

एसबीआई ने मिनिमम बैलेंस पर लगने वाले पेनेल्टी को लेकर बड़ा बदलाव किया है. बैंक ने सेविंग्‍स अकाउंट में मिनिमम बैलेंस नहीं रखने पर लगने वाली पेनल्टी को 75 फीसदी घटा दिया है. शहरों में 50 रुपये की जगह 15 रुपये. अर्धशहरी क्षेत्र में 40 रुपये की जगह 12 रुपये और गांव में 40 रुपये की जगह 10 रुपये लगेगा. यह नया नियम 1 अप्रैल से लागू कर दिया गया है. बैंक के इस फैसले से 25 करोड़ कस्‍टमर्स को फायदा मिलेगा.

पुरानी चेक बुक नहीं चलेगी

भारीतय स्टेट बैंक ने ग्राहकों को 31 मार्च तक चेक बुक बदलने को कहा था. उसने बार-बार उन खाताधारकों को इस बारे में सूचित किया है जो एसबीआई में विलय होने वाले बैंक के हैं. जैसे बैंक औफ बीकानेर एंड जयपुर, स्टेट बैंक औफ हैदराबाद , स्टेट बैंक औफ मैसूर, स्टेट बैंक औफ पटियाला, स्टेट बैंक औफ त्रावणकोर और भारतीय महिला बैंक. बैंक के इन कस्टमर्स को बार-बार सूचना दी गई थी कि वो 31 मार्च तक नई चेकबुक इश्‍यू करा लें वरना उनको समस्या झेलनी पड़ सकती है. ऐसा इसलिए क्योंकि 1 अप्रैल से इन पुराने चेकबुक के जरिए लेनदेन नहीं होगा.

एसबीआई में मिलेंगे इलेक्‍टोरल बौन्‍ड

अप्रैल की शुरूआत के साथ ही एसबीआई के ब्रांच में इलेक्टोरल बौन्ड दिया जा रहा है. एसबीआई को सीरिज को बेचने के लिए अधिकृत किया गया है. आप इन बौन्‍ड को 2 अप्रैल से 10 अप्रैल के बीच बैंक की 11 शाखाओं से ले सकते हैं. आपको बता दें कि इन चुनावी बौन्ड की वैधता 15 दिनों की होती है.

VIDEO : फंकी पाइनएप्पल नेल आर्ट

ऐसे ही वीडियो देखने के लिए यहां क्लिक कर SUBSCRIBE करें गृहशोभा का YouTube चैनल.

वीडियो : भारत आने की इतनी खुशी कि बोट पर ही भांगड़ा करने लगे क्रिस गेल

आईपीएल का रोमांच एक बार फिर शुरू होने जा रहा है. करीब दो माह तक चलने वाले आईपीएल सीजन 11 का पहला मैच 7 अप्रैल को होगा. इस सीजन में एक बार फिर से राजस्थान रौयल्स और चेन्नई सुपर किंग्स की टीम दो साल के बैन के बाद मैदान में उतर रही हैं. सभी टीमों ने आईपीएल के लिए तैयारी शुरू कर दी है.

विदेशी खिलाड़ी भी आईपीएल के लिए भारत आ रहे हैं. इसी कड़ी में वेस्टइंडीज के धुरंधर बल्लेबाज क्रिस गेल भी भारत आने वाले हैं. भारत आने और आईपीएल के लिए क्रिस गेल खासे रोमांचित हैं. हाल ही में क्रिस गेल ने अपने इंस्टाग्राम अकाउंट पर एक वीडियो शेयर किया है, जिसमें वह पंजाबी अवतार में भांगड़ा करते हुए नजर आ रहे हैं.

इस वीडियो में गेल समुद्र के बीच एक बोट पर पंजाबी गाने पर भांगड़ा करते हुए नजर आ रहे हैं. पीछे से एक शख्स किंग्स इलेवन पंजाब बोल रहा है. गेल ने अपने वीडियो पोस्ट के कैप्शन में लिखा, ‘क्रिस गेल इंडिया आ रहा है.’

A post shared by KingGayle ? (@chrisgayle333) on

दरअसल, किंग्स इलेवन पंजाब से जुड़ने के बाद गेल पूरी तरह से पंजाबी रंग में रंग गए हैं. गेल के इस भांगड़ा ने उनके गंगनम डांस को भी फेल कर दिया, जिसके लिए वह जाने जाते हैं. इससे  पहले किंग्स इलेवन पंजाब ने अपने औफिशियल इंस्टाग्राम अकाउंट से गेल की तस्वीर शेयर की थी, जिसमें वह पगड़ी पहनकर सोते दिखे. जिसके कैप्शन में उन्होंने लिखा था- पंजाब आने के लिए वह पहले से ही तैयार हैं.

बता दें कि पिछले साल तक रौयल चैलेंजर्स बेंगलुरु से खेलने वाले क्रिस गेल को आईपीएल 2018 में उनकी टीम ने रिटेन नहीं किया. उनकी जगह सरफराज खान को टीम ने रिटेन किया. इसके बाद जब नीलामी की बारी आई तो भी गेल दो बार नकारे गए. नीलामी के पहले दिन और दूसरे दिन किसी ने उन पर दांव नहीं खेला. इसके बाद किंग्स इलेवन पंजाब की स्पेशल रिक्वेस्ट पर दोबारा बोली लगाई गई और पंजाब ने उन्हें उनके बेस प्राइस दो करोड़ रुपए में खरीद लिया गया. किंग्स इलेवन पंजाब के लिए बिक जाने के बाद गेल के फैंस को काफी राहत मिली. एक समय तो ऐसा लग रहा था कि इस बार गेल के बिना यह आईपीएल फीकी रहेगी.

VIDEO : फंकी पाइनएप्पल नेल आर्ट

ऐसे ही वीडियो देखने के लिए यहां क्लिक कर SUBSCRIBE करें गृहशोभा का YouTube चैनल.

‘परमाणु’ को लेकर जौन अब्राहम ने दिया क्रियाज इंटरटनमेट को करारा जवाब

फिल्म ‘परमाणु’ को लेकर जौन अब्राहम की कंपनी द्वारा ट्रेड पत्रिकाओं में नोटिस छपवाने के बाद ‘क्रियाज इंटरटनेमट’ की तरफ से जौन अब्राहम को दोषी ठहराते हुए बयानबाजी की गयी. ‘क्रियाज इंटरटेनमेंट’ द्वारा जारी बयान के बाद अब जौन अब्राहम की कंपनी ‘जौन अब्राहम इंटरटेनमेट’’ ने अपने प्रवक्ता के माध्यम से हर पत्रकार को ईमेल द्वारा अपना बयान भिजवाया है.

इस बयान में जौन अब्राहम ने कहा है-‘‘क्रियाज इंटरटनमेट के साथ हमारे द्वारा संबंध खत्म किया जाना कानूनी तौर पर वैध व जायज है. क्रियाज इंटरटेनमेंट ने इतनी वादा खिलाफी की है, अनुबंध की शर्तें इतनी तोड़ी हैं कि फिल्म की बेहतरी के लिए हमारे पास उनसे संबंध खत्म करने के अलावा कोई अन्य विकल्प ही नहीं रहा. हम यहां पर स्पष्ट रूप से कहना चाहते हैं कि हमने अपनी तरफ से फिल्म को प्रदर्शित करने के लिए सारी समस्याओं को सुलझाने के लिए क्रियाज इटरटेनमेंट से बात करने की काफी कोशिश की, पर कोई फायदा नहीं हुआ.’’

बयान में आगे कहा गया है-‘‘हमने हर कदम पर अपना वादा पूरा किया और इस बात को हमने समय समय पर लिखित रूप से क्रियाज इंटरटेनमेंट को सूचित भी किया है. कदम कदम पर हम उनसे पैसा मांगते रहे, पर उन्होंने समय से कभी पैसा नहीं दिया. कई बार उन्होंने हमें गलत यूटीआर नंबर भेजा. चेक को कई बार रुकवाया गया. उनकी तरफ से पैसा इतनी देर से दिया गया कि पोस्ट प्रोडक्शन के काम में अवरोध हुआ. हमें काफी आर्थिक नुकसान हुआ. जबकि हमारी शूटिंग समय से पूरी हो गयी थी.

हमने कई बार उन्हे याद दिलाया, मगर उन्होंने कभी भी फिल्म के वितरण की योजना के बारे में नहीं बताया. वह तीसरे पक्ष के साथ पारदर्शिता नहीं रख रहे हैं. हमने अभी तक क्रियाज के साथ किसी तीसरे पक्ष के होने को लेकर कोई अनुबंध नहीं किया है, यदि कोई तीसरा पक्ष है, तो.

जौन अब्राहम इंटरटेनमेंट ने देर से पैसा मिलने के बावजूद तीन तीन बार फिल्म के प्रमोशन व प्रदर्शन की तारीखों का ऐलान किया. मगर क्रियाज इंटरटेनेमट ने हमसे बात किए बगैर, हमें सूचना दिए बगैर बाहर हमारे खिलाफ बयान बाजी की और हम पर गलत आरोप लगाए. उन्होंने हर बार फिल्म का प्रदर्शन टलने के गलत कारण बताए.

हमने जब भी क्रियाज इंटरटेनमेंट से संपर्क किया, हमसे गलत वादे ही किए गए. इस तरह उन्होंने फिल्म के लिए कठिन समय को बर्बाद किया. फिल्म इंडस्ट्री क्रियाज इंटरटेनमेंट की कार्यशैली से पूरी तरह से परिचित है. उन्होंनेग अतीत में इसी तरह से एक अन्य फिल्म के साथ किया था.

उपरोक्त हालातों के चलते अपनी फिल्म के हित में हमने ‘क्रियाज इंटरटेनमेंट प्रा.लिमिटेड’ के साथ अनुबंध खत्म करने की घोषणा की है और बहुत जल्द हम फिल्म के प्रदर्शन की पूरी योजना की घोषणा करेंगे.

यदि अब भविष्य में क्रियाज इंटरटेनमेंट ने फिल्म के प्रदर्शन में विघ्न डालने, हमारे प्रोडक्शन हाउस को बदनाम करने आदि की कोशिश की, जैसा कि वह पिछली बार एक फिल्म के साथ कर चुके हैं, तो हम इनके खिलाफ कानूनी कार्यवाही करने के लिए बाध्य होंगे.

‘‘जौन अब्राहम इंटरटेनमेंट’’ के इस पूरे बयान से एक बात यह भी साफ तौर पर उभरती है कि जौन अब्राहम को पता ही नहीं है कि ‘क्रियाज इंटरटनमेट’ ने जी स्टूडियो को भी तीसरे पक्ष के रूप में इस फिल्म के साथ जोड़ा हुआ है.

‘परमाणु’ के लिए जौन अब्राहम दोषी हैं या वे खुद फंस चुके हैं..??

फिल्म ‘‘परमाणु : द स्टोरी आफ पोखरण’’ को लेकर अभिनेता व निर्माता जौन अब्राहम तथा क्रियाज इंटरटेनमेंट के बीच तलवारे खिंच चुकी हैं. दोनों ने एक दूसरे पर आरोप प्रत्यारोप लगाए हैं. जौन अब्राहम ने ट्रेड पत्रिकाओं में नोटिस छापकर क्रियाज इंटरटेनमेंट पर कई तरह के आरोप लगाते हुए खुद को फंसा हुआ और शोषित बताया है. जिस पर पलटवार करते हुए ‘क्रियाज इंटरटेनमेंट’ की प्रेरणा अरोड़ा ने जौन अब्राहम पर आरोप लगाते हुए उन्हे ही दोषी बताते हुए कटघरे में खड़ा कर दिया है. यह मामला अब और अधिक बिगड़ेगा, ऐसा लग रहा है.

वास्तव में 1998 में पोखरण में हुए सफल न्यूकलियर बम टेस्ट पर जौन अब्राहम ने जब फिल्म ‘‘परमाणु : द स्टोरी आफ पोखरण’’ का निर्माण शुरू किया था, तो इस फिल्म के निर्माण में सह निर्माता के रूप में प्रेरणा अरोड़ा की कंपनी ‘क्रियाज इंटरटेनमेंट’ को जोड़ा था. जौन अब्राहम की प्रोडक्शन कंपनी ‘‘जा इंटरटेनमेंट’’ ने ‘‘क्रियाज इंटरटेनमेट’’ के साथ एक अनुबंध किया था.

फिल्म ‘‘परमाणु’’ को 8 दिसंबर 2017 को प्रदर्शित होना था. सूत्र बताते हैं कि फिल्म पूरी हो चुकी है, मगर इसका प्रदर्शन 8 दिसंबर 2017 की बजाय टालकर फरवरी 2018 और फिर 2 मार्च 2018 किया गया. 2 मार्च 2018 को ‘क्रियाज इंटरटेनमेंट’ और अनुष्का शर्मा की फिल्म ‘परी’ प्रदर्शित हुई, इसलिए ‘परमाणु’ के प्रदर्शन की तारीख 6 अप्रैल की गयी थी. मगर अब यह फिल्म 6 अप्रैल को भी प्रदर्शित नहीं होगी. अब इसे ग्यारह मई को प्रदर्शित करने की बात कही जा रही है.

Parmanu The Story of Pokhran

जब से फिल्म ‘‘परमाणु’’ के प्रदर्शन की तारीखें बदलना शुरू हुई थीं, तभी से बौलीवुड में चर्चाएं गर्म हो गयी थी कि जौन अब्राहम और प्रेरणा अरोड़ा के बीच सब कुछ ठीक ठाक नहीं चल रहा है. पर दोनों इन अफवाहों को गलत बताते रहे. लेकिन अब जौन अब्राहम ने अपनी तरफ से पहल करते हुए ट्रेड पत्रिकाओं में नोटिस छपवाकर ऐलान कर दिया है कि फिल्म ‘‘परमाणु’’ से अब ‘क्रियाज इंटरटेनमेंट’ का कोई लेना देना नहीं है. अब इस फिल्म पर सारा अधिकार उनकी प्रोडक्शन कंपनी ‘जा इंटरटेनमेंट’ का है. अब उनकी कंपनी ही इस फिल्म के प्रदर्शन वगैरह को लेकर सारे निर्णय लेगी.

अपने इस नोटिस में जौन अब्राहम ने ‘क्रियाज इंटरटेनमेंट’ पर वादा खिलाफी के कई आरोप लगाए हैं. जौन अब्राहम का आरोप है कि ‘क्रियाज इंटरटेनमेंट’ ने फिल्म निर्माण के लिए दिया जाने वाला धन भी नहीं दिया है. दोनों के बीच रचनात्मक मतभेद काफी रहे. यहां तक दोनों के बीच इस बात पर सहमति नहीं हो पा रही है कि फिल्म के प्रदर्शन से पहले इसका प्रमोशन किस तरह से किया जाए..वगैरह वगैरह.

जौन अब्राहम की तरफ से ट्रेड पत्रिकाओं में नोटिस छपवाए जाते ही प्रेरणा अरोड़ा आग बबूला हो उठी हैं. अब तक प्रेरणा अरोड़ा ने किसी अभिनेता के खिलाफ कोई कटु बयान नहीं दिया था. फिल्म ‘केदारनाथ’ के विवाद के वक्त भी प्रेरणा अरोड़ा की तरफ से फिल्म के कलाकारों पर कोई आरोप नहीं लगाए गए. प्रेरणा ने फिल्म के निर्देशक अभिषेक कपूर पर ही आरोप लगाए थे. मगर इस बार प्रेरणा अरोड़ा की कंपनी ‘क्रियाज इंटरटेनमेंट’ की तरफ से सीधे जौन अब्राहम पर हमला बोला गया है.

Parmanu The Story of Pokhran

क्रियाज इंटरटेनमेंट की तरफ से कहा गया है कि जौन अब्राहम उनकी कंपनी के साथ कानूनी अनुबंध में बंधे हुए हैं और वह किसी भी सूरत में फिल्म ‘परमाणु’ को ‘क्रियाज इंटरटेनमेंट’ से अलग नहीं कर सकते.

‘‘क्रियाज इंटरटेनमेंट’’ कंपनी से जुड़े अधिकारी ने एक वेब साइट से बात करते हुए कहा हैं-‘‘ट्रेड पत्रिकाओं में जौन अब्राहम ने जो नोटिस छापा है, वह बेमानी है. फिल्म के साथ संयुक्त निर्माता/प्रस्तुत कर्ता सहित हमारे सारे अधिकार सुरक्षित हैं. हमने अपने सारे वादे समय से पूरे किए हैं. ‘जा इंटरटेनमेंट’ को शुरू से ही पता था कि ‘क्रियाज इंटरटेनमेंट’ और ‘जी स्टूडियो’ फिल्म के सह निर्माता हैं. फिल्म को विदेश में वितरण के अधिकार के साथ ही सारे सेटेलाइट, डिजिटल व संगीत के अधिकार हमारे पास हैं.

‘जा इंटरटेनमेंट’ ने अब तक अपने एक भी वायदे पूरे नहीं किए. उन्होंने अब तक हमें नहीं बताया कि फिल्म पूरी हो चुकी है. इतना ही नहीं वह अवैध तरीके से बार बार फिल्म के प्रदर्शन की तारीखें बदलते जा रहे हैं. परिणामतः हमें काफी आर्थिक नुकसान उठाना पड़ा है और हमारी अपनी इज्जत पर भी धब्बा लगा है. फिल्म को बड़े स्तर पर प्रमोट करने के लिए हमने योजना बनायी है, उस पर भी हम काफी धन खर्च कर चुके हैं. हम उन्हे अपेक्षित पैसा दे चुके हैं, फिर भी वह हमसे धन की मांग कर रहे हैं, जो कि अनुबंध के अनुसार भी हमें उन्हें नहीं देना चाहिए. सच यह है कि ‘जा इंटरटेनमेट’ हमें अवैध तरीके से दबाने के साथ साथ हमें आर्थिक नुकसान पहुंचाती आ रही है. पर हम फिल्म की बेहतरी के लिए चुप हैं, किंतु अब उन्होंने गलत नोटिस छपवाकर और अधिक गलत कदम उठाया है.’’

जौन अब्राहम और प्रेरणा अरोड़ा में से कौन कितना सच बोल रहा है, यह तो यही दोनों जानते होंगे. इनके बीच किस तरह के अनुबंध पत्र पर हस्ताक्षर किए गए हैं, यह भी फिलहाल इन्हे ही पता है. मगर बौलीवुड में चर्चा हो रही है कि प्रेरणा अरोड़ा जिस तरह से फिल्मकारों के साथ पेश आ रही हैं, उसे देखते हुए हर फिल्मकार व कलाकार को उनके साथ हाथ मिलाने से पहले दस बार सोचना चाहिए.

ज्ञातब्य है कि कुछ समय पहले फिल्म ‘केदारनाथ’ को लेकर भी प्रेरणा अरोड़ा की अभिषेक कपूर के साथ अनबन हुई थी, पर अंत में अनुबंध पत्र की ही वजह से अभिषेक कपूर को प्रेरणा अरोड़ा के सामने घुटने टेकने पडे़.

अब देखना यह है कि जौन अब्राहम अैर प्रेरणा अरोड़ा के बीच फिल्म ‘‘परमाणु’’ को लेकर जो विवाद छिड़ा है, उसका परिणाम क्या सामने आता है? कौन दोषी और कौन शोषित साबित होता है? पर इस तरह के विवादों के ही चलते भारतीय सिनेमा में स्टूडियो सिस्टम पर से लोगों का विश्वास डगमगा रहा है.

VIDEO : फंकी पाइनएप्पल नेल आर्ट

ऐसे ही वीडियो देखने के लिए यहां क्लिक कर SUBSCRIBE करें गृहशोभा का YouTube चैनल.

सावधान : इस ऐप के जरिए की जा रही है व्हाट्सऐप की जासूसी

स्मार्टफोन का इस्तेमाल करने वालो में ज्यादातर लोग व्हाट्सऐप का इस्तेमाल करते हैं. आज हम जो खबर लेकर आए हैं वो भारत समेत दुनिया भर में व्हाट्सऐप के करोड़ों यूजर्स के लिए जानना काफी जरूरी है. ये खबर काफी चौका देने वाली है. क्योंकि हाल ही में व्हाट्सऐप की जासूसी करने वाले ऐप का पता चला है.

एक अंग्रेजी वेबसाइट के मुताबिक चैटवाच नाम का ऐप व्हाट्सऐप के तमाम सुरक्षा उपायों को तोड़ उसकी जासूसी करता है. इस ऐप के जरिये व्हाट्सऐप के औनलाइन या औफलाइन स्टेटस का पता लगाया जा सकता है. इस ऐप की वेबसाइट www.chatwatch.net पर जानकारी दी गई है- ”अपने दोस्तों, परिवार और कर्मचारियों की व्हाट्सऐप पर औनलाइन और औफलाइन एक्टिविटी को मानीटर करने के लिए चैटवाच का इस्तेमाल करें, तब भी जब उनका लास्ट सीन (आखिरी बार देखा गया) संकेतक छिपा हुआ हो.”

ऐप की वेबसाइट पर आगे जानकारी दी गई है- “पता लगाएं कि वे कब सोते हैं, कितनी देर सोते हैं… यहां तक की उन लोगों के चैट पैटर्न की तुलना करें जिन्हें आप जानते हैं, और हम इसकी कृत्रिम बुद्धि का इस्तेमाल करते हुए आपको उस संभावना के बारे में बताएंगे जब आप दिन के वक्त उनसे बात कर सकते हैं. हां, यह सच है, हमने इसे हकीकत बनाया है.”

अंग्रेजी वेबसाइट के मुताबिक चैटवाच सिर्फ 24 घंटों के भीतर ही अपना काम दिखाने लगता है. अगर यह ऐप स्टोर में बना हुआ है तो भारत में इसके एंड्रायड ऐप के लिए आपको 140 रुपये कीमत चुकानी होगी. वैसे कंपनी ने ऐप मार्केट से इस ऐप को हटा दिया है. चैटवाच इसके बारे में अनभिज्ञ है. कहा जा रहा है कि एप्पल ने ऐप स्टोर से चैटवाट को निलंबित कर दिया है.

बता दें कि व्हाट्सऐप यूजर्स के लिए एक खुशखबरी भी है. व्हाट्सऐप पर एक नया फीचर जुड़ने जा रहा है. इस फीचर के जरिये एंड्रायड, आईओएस और विंडोज का डेटा आसानी से नए नंबर पर ट्रांसफर किया जा सकता है. इस फीचर का नाम है ‘चेंज नंबर.

VIDEO : फंकी पाइनएप्पल नेल आर्ट

ऐसे ही वीडियो देखने के लिए यहां क्लिक कर SUBSCRIBE करें गृहशोभा का YouTube चैनल.

अनलिमिटेड कहानियां-आर्टिकल पढ़ने के लिएसब्सक्राइब करें