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शशिकला की चाल

तमिलनाडु में मुख्यमंत्री की कुरसी के लिए अच्छा तमाशा चला और शायद यह अभी कई महीने चलेगा. महारानी जयराम जयललिता की मृत्यु की खबर सुनते ही कुछ के सपने जाग गए और उन में से एक शशिकला हैं जो वर्षों से अविवाहित जयललिता के साथ साए की तरह रह रही थीं. जयललिता की मृत्यु के बाद उन का सारा पैसा और पार्टी के विधायकों की पोलपट्टी शशिकला के हाथों में आ गई और वे मुख्यमंत्री बनने के सपने देखने लगीं. वे मुख्यमंत्री बन जातीं पर फिर उन पर जयललिता के साथ 65 करोड़ रुपए की बेईमानी के मामले में चल रहे मुकदमे की सुप्रीम कोर्ट में आखिरी फैसले की तारीख आ गई. इसलिए 3 बार कठपुतली बने मुख्यमंत्री पन्नीर सेल्वम ने विद्रोह करना शुरू कर दिया था. अब जब सुप्रीम कोर्ट ने शशिकला को 4 साल की सजा और 10 साल तक चुनाव न लड़ने की शर्त लगा दी है, पन्नीर सेल्वम के इरादे कुछ और हो गए हैं. वे अपना दावा ठोकने लगे हैं जबकि शशिकला के समर्थक अपना.

अम्मा और चिनम्मा के नाम पर चल रही राजनीतिक ड्रामेबाजी देश के लोकतंत्र की असल पोल खोलती है. हमारा चुनाव आयोग खासे निष्पक्ष चुनाव तो करा लेता है पर हमारी जनता अभी भी नहीं जानती कि शासकों के चुनाव में कैसी सावधानी बरतनी चाहिए कि केवल कर्मठ, सेवाभावी, जनहित के बारे में सोचने वाले नेता सत्ता में आएं. लगभग हर राज्य में चुनावों से जो जीतता है वह क.ालिखपुता होता है जिस का उद्देश्य जनता की समस्याएं दूर करना नहीं, अपने लिए व्यक्तिगत साम्राज्य खड़ा करना होता है. शशिकला को राजनीति का कोई अनुभव नहीं, चाहे जयललिता की सहायिका होने के कारण उन्हें बहुतकुछ मालूम हो. जयललिता खुद भी दिखावटी गुडि़या ज्यादा थीं. उन्हें तमिलनाडु की चिंता हो, ऐसा नहीं दिखा. यह तो तमिलनाडु की जनता की अपनी मेहनत थी कि उस का राज्य दूसरों से बेहतर है वरना सरकार और नेता तो वहां भी निकम्मे ही हैं. उस पर यदि सरकार नौसिखियों के हाथों में आ जाए तो यह खतरे की घंटी ही होगी.

शशिकला ने ही पन्नीर सेल्वम को मुख्यमंत्री बनाया था, फिर खुद बनना चाहा और अब जेल जाने से पहले एक विधायक पलनीसामी को नेता बना दिया है. राज्यपाल विद्यासागर राव ने पलनीसामी को मुख्यमंत्री नियुक्त कर दिया. वहीं, पार्टी के एक धड़े का नेतृत्व पन्नीर सेल्वम कर रहे हैं. ऐसे में यह पक्का है कि राज्य की सरकार डांवांडोल ही रहेगी. यह बीमारी लगभग हर राज्य में है और केंद्र भी बीचबीच में इसे भुगत चुका है. सरकार जनता का भला करे या न करे, पर ढुलमुल सरकार हो तो पूरी सरकारी मशीनरी निरंकुश हो जाती है और तब सरकारी फैसले मनमाने होने लगते हैं. गरीबी, बीमारी, बेईमानी, भ्रष्टाचार से बीमार देश को उस अस्पताल में इलाज कराना पड़ रहा है जहां डाक्टर आपस में लड़ते रहते हैं, गलत दवाएं दी जाती रहती हैं और औपरेशन थिएटर खंडहर में तबदील होते रहते हैं. यह देश फिर भी जिंदा है और अराजकता के दलदल में नहीं फंसा हुआ, यही गनीमत है. शशिकला जैसी नेताओं के हाथों में राज्य की बागडोर आ जाए सिर्फ इसलिए कि वे पूर्व मुख्यमंत्री की दोस्त रही हैं, देश को कोढ़ की बीमारी होने की निशानी है.

आ गया पेटीएम का नया ऐप

भारत के ई-वाणिज्य एवं मोबाइल भुगतान सेवा कंपनी पेटीएम ने एंड्रॉइड ऑपेरेटिंग सिस्टम्स पर अपना एक नया ऐप जिसका नाम ‘पेटीएम मॉल’ है, शुरू किया है. अब इस ऐप पर सभी उपभोक्ताओं और ग्राहकों को फैशन, इलेक्ट्रॉनिक्स और घर के सामान व अन्य चीजों को खरीदने की सुविधा मिलने लगेगी.

अभी तक Paytm अपने मोबाइल वॉलेट और ई-कॉमर्स दोनों सेगमेंट्स को एक साथ एक ही ऐप में ही चलाता था. आप खरीददारी करने और मोबाइल से पेमेंट करने के लिए दोनों के लिए एक ही प्लेटफॉर्म का इस्तेमाल करते थे. अब कंपनी दोनों को अलग करने के इरादे से ऐसा कर रही है.

इस Paytm Mall ऐप का लक्ष्य भारतीय ग्राहकों को मॉल और बाजार दोनों का कॉम्बिनेशन उपलब्ध कराना है. अब इसके बाद Paytm का मोबाइल वॉलेट भी हाल ही में लॉन्च हुए Paytm Payments Bank का हिस्सा होने वाला है.

कंपनी का कहना है कि Paytm Mall ऐप में केवल वही विक्रेता मौजूद रहेंगे जो उच्च गुणवत्ता और अच्छी गाइडलाइन्स वाले मानदंडों पर खरा उतर सकेंगे. आपको बता दें कि सभी प्रोडक्ट्स जो इस मॉल ऐप पर उपलब्ध होंगे उन सभी को Paytm के  सर्टिफाइड वेयरहाउस और शिपिंग चैनल्स से गुजरना होगा ताकि लोगों का भरोसा बना रहे.

ग्राहकों को अंतर्राष्ट्रीय और राष्ट्रीय सारे सामान Paytm Bazaar के जरिए मिलते ही रहेंगे. खबरों के अनुसार Paytm Mall के देशभर में करीब 17 फुलफिलमेंट सेंटर्स उपलब्ध रहेंगे, जिससे कि लोगों को ऑनलाइन शॉपिंग का बेहतर और शानदार अनुभव मिले. इसके अलावा Paytm ने 40 कुरियर सर्विसेज कंपनीज से भी हाथ मिलाया है, जिससे कि बड़े नेटवर्क का उपयोग कर सुविधाओं को ज्यादा से ज्यादा लोगों तक पहुंचा सकें. ऐसी संभवनाऐं बताई जा रही हैं कि अब आगे आने वाले दिनों में ये Paytm Mall सात भारतीय भाषाओं में भी उपलब्ध कराया जाएगा.

जिंदगी जीने के लिए रिश्ते को बनाए रखना जरूरी : आलिया भट्ट

‘स्टूडेंट ऑफ द ईअर’ से लेकर ‘उड़ता पंजाब’ तक आलिया भट्ट ने महज चार वर्ष के अंदर काफी यात्रा कर ली है. विविधतापूर्ण किरदार निभाकर उन्होंने खुद को इतना बेहतरीन अदाकारा साबित कर दिखाया है कि शर्मिला टैगोर चाहती हैं कि यदि मंसूर अली खान पटौदी पर फिल्म बने, तो उसमें आलिया भट्ट उनका किरदार निभाएं. फिलहाल आलिया भट्ट दस मार्च को प्रदर्शित होने वाली फिल्म ‘बद्रीनाथ की दुल्हनिया’ को लेकर उत्साहित हैं.

पिछली फिल्म उड़ता पंजाब के प्रदर्शन के बाद किस तरह की प्रतिक्रियाएं मिली?

सबसे पहले तो मुझे सर्वश्रेष्ठ अदाकारा का पुरस्कार मिल गया. तमाम लोगों ने मुझसे कहा कि उन्हें खुद नहीं पता था कि पंजाब में ड्रग्स को लेकर हालात इतने अधिक खराब हैं. कुछ लोगों को यह फिल्म आंख खोल देने वाली लगी. लोगों ने कहा कि उन्हें यह जानकर बड़ा धक्का लगा कि इस तरह की भी दुनिया है. लोग इस तरह का व्यवहार भी कर सकते हैं. तमाम लोगों ने महसूस किया कि यथार्थ ने उनका इस फिल्म में परिचय कराया. हकीकत यह है कि हम लोग अपने अपने घरों में कैद रहकर यह कल्पना भी नहीं कर पाते हैं कि ‘उड़ता पंजाब’ में जिस तरह का संसार दिखाया गया है, उस तरह का संसार हो सकता है. कुछ लोगों ने कहा कि वह इतना अंधकारमय संसार नहीं देख सकते. यानी कि इस फिल्म ने लोगों को भावनात्मक स्तर पर छुआ.

छोटे शहरों की लड़कियों की सोच, समझ, एटीट्यूड सब कुछ अलग होती है. इसे समझने के लिए आपने क्या किया?

जब मैं किसी किरदार को निभाना शुरू करती हूं, तो वह किरदार जिस शहर का होता है, मैं मानकर चलती हूं कि मैं उसी शहर की हूं. ‘बद्रीनाथ की दुल्हनिया’ में मेरा वैदेही का किरदार कोटा जैसे शहर की लड़की है. तो कोटा शहर का अहसास मुझे तब हुआ, जब हम शूटिंग करने कोटा पहुंचे. उससे पहले निर्देशक शशांक खेतान ने जो पटकथा दी थी, उसके आधार पर हमने किरदार को लेकर अपनी तैयारी की थी. पर कोटा पहुंच कर वहां रहते हुए हमने लोंगो को ऑब्जर्व किया कि वह क्या हैं? किस तरह से बातचीत करते हैं? उनकी चालढाल क्या है?

जब हम उन सारी चीजों को ऑब्जर्व कर अहसास करते हैं, तो वह शहर हमें अपना लगने लगता है. मैं तो हमेशा हर निर्देशक से कहती हूं कि हमें हमेशा वास्तविक लोकेशन पर जा कर फिल्म को फिल्माना चाहिए. इससे हमें वास्तविक शहर को अहसास करने का अवसर मिलता है और वह हमारे किरदार में निखार लाता है. फिल्म के किरदार वास्तविक लगने लगते हैं अन्यथा बने बनाए सेट पर शूटिंग करने से फिल्म के सारे किरदारों में बनावटीपन लगता है.

वैदेही छोटे शहर की लड़की है, पर उसकी सोच बड़ी है. महत्वाकांक्षी है. वह जीवन में कत्थक करना चाहती है. आगे बढ़ना चाहती है. वह सिर्फ दुल्हनिया ही नहीं बनना चाहती. ‘हम्टी शर्मा की दुल्हनिया’ आसान दुल्हनिया थी, पर इस फिल्म की दुल्हनिया आसान नहीं है. वह पढ़ने में तेज है. गणित में महारत हासिल है. मुझे लगता है कि इस किरदार के साथ आज की नयी पीढ़ी रिलेट करेगी.

नयी पीढ़ी यानी कि आपकी हम उम्र लड़कियों की जो सोच है, उसमें आपको किस तरह के बदलाव की जरूरत महसूस होती है?

हर लड़की को महत्वाकांक्षी होना चाहिए. आज भी छोटे शहर की लड़कियां यह मानकर चलती हैं कि उन्हें शादी कर घर बसाना है. मेरा अपना मानना है कि शादी करना व घर बसाना भी बहुत जरुरी है. गृहिणी बनना आसान काम नहीं है. पर उससे पहले कुछ करने का प्रयास करने में हर्ज नहीं है. हर लड़की को अपनी इच्छाओं को भी पूरा करना चाहिए. ताकि 80 साल की उम्र में पहुंचने पर आपको इस बात का गम ना हो कि आपने यह काम नहीं किया. मेरी राय में सिर्फ लड़की ही क्यों हर लड़के को भी अपनी एक पहचान, अपना एक अस्तित्व बनाना चाहिए. मगर माता पिता की हर बात को ठुकरा कर नहीं.

वैसे कोटा आईटी सिटी है. जहां तमाम लड़के लड़कियां इंजीनियर व आई टी क्षेत्र में काम करने या कुछ बनने के लिए आते हैं. वह बुद्धिमान भी हैं. उनकी सोच भी सकारात्मक है. इसी वजह से कोटा का आर्किटेक्ट बहुत उम्दा और मॉडर्न है. वहां 7 वंडर्स पार्क है, जहां विश्व के सात अलग अलग प्रसिद्ध चीजों एमीवेचर बनाए गए हैं. इस तरह से अपने शहर को सजाना संवारना आसान भी नहीं होता है. मेरे कहने का अर्थ यह है कि बात छोटे शहर की नहीं, बल्कि बात सोच की है. बात परवरिश की है. आप किस परिवार में पले बढ़े हैं, उसका भी असर होता है. आपके दोस्त किस तरह के हैं, उसका भी असर होता है. लड़का हो या लड़की अपनी सोच के अनुरूप किसकी बातों को ज्यादा महत्व देते हैं, वह भी मायने रखता है.

हमारी फिल्म ‘बद्रीनाथ की दुल्हनिया’ में वैदेही के माता पिता कंजरवेटिब यानी कि दकियानूसी प परंपरागत सोच के हैं. पर वह मानते हैं कि घर की लड़कियों को पढ़ाई करनी चाहिए. जबकि बद्री का परिवार कुछ ज्यादा ही कंजरवेटिव है. उसके परिवार में माना जाता है कि लड़के को पढ़ाई लिखायी की बजाय पारिवारिक व्यवसाय में हाथ बंटाना चाहिए.

आप जिस तरह के किरदार निभा रही हैं, वह किरदार आपकी निजी जिंदगी पर किस तरह से असर डालते हैं?

हर किरदार निजी जिंदगी पर असर डालता है. फिल्म ‘उड़ता पंजाब’ करने के बाद मुझे एहसास हुआ कि जिंदगी इतनी कठोर भी हो सकती है. इंसान के पास जितना जो कुछ हो, उसी में उसे खुश रहने की आदत डाल लेनी चाहिए. परिवार का मूल्य समझो. फिल्म में मेरे माता पिता नहीं थे, तो मुझे एहसास हुआ कि माता पिता की कितनी कद्र की जानी चाहिए. ‘बद्रीनाथ की दुल्हनिया’ करते समय मुझे एहसास हुआ कि आपका स्टेट ऑफ माइंड और दिल बहुत मायने रखता है. पर हर बार इंसान को दिल की सुननी चाहिए. अपने आपको कभी कम मत समझो.

आप निजी जिंदगी में रिश्तों को कितनी अहमियत देती हैं?

मेरी लिए हर रिश्ता बहुत मायने रखता है. फिर चाहे वह पारिवारिक रिश्ता हो या दोस्ती हो या मां, बहन या पिता के साथ रिश्ता हो. या मेरी अपनी बिल्ली के साथ ही मेरा रिश्ता क्यों न हो. मैं इस बात पर यकीन करती हूं कि अपने काम को घर पर ले जाने का अर्थ अपनी जिंदगी खत्म कर लेना है. मैं घर पहुंचकर अपने परिवार के साथ जिंदगी बिताना चाहती हूं. काम और पारिवार के बीच सामंजस्य बैठाना बहुत जरूरी है. मैं महत्वाकांक्षी हूं. काम के प्रति गंभीर हूं. वहीं रिश्तों के प्रति भी गंभीर हूं. पर हमें भी शांत दिमाग चाहिए होता है. एक अच्छी जिंदगी जीने के लिए स्वस्थ रिश्ते को बनाए रखना भी जरूरी है.

आपके करियर पर नजर दौड़ायी जाए, तो पता चलता है कि आप एक गंभीर, तो एक हल्की फुल्की फिल्म करती हैं. यह सब किसी योजना के साथ?

मैं कोई योजना नहीं बनाती. पर हां! अब तक ऐसा होता रहा है. मेरी सोच यही होती है कि मैं अलग अलग तरह की फिल्में करूं. फिर जिंदगी उसी तरह मेरी एडजस्ट होती रहती है. मुझे थ्रिलर करना है. मगर अच्छी कॉमेडी फिल्म का ऑफर आए, तो मना नहीं करूंगी. मैं किसी खास तरह की फिल्म करने को सोच कर खुद को सीमाओं में नहीं बांधना चाहती.

किरदार के अनुसार लुक बदलने व मेकअप से कितना आसान हो जाता है?

मेरा मानना है कि किसी भी किरदार को निभाने में लुक 40 प्रतिशत मदद करता है. ‘उड़ता पंजाब’ में मेरे किरदार के लुक ने आधा काम कर दिया था. बाकी का आधा काम मैंने अपने अभिनय से पूरा किया था. ‘बद्रीनाथ की दुल्हनिया’ में भी वैदेही का लुक बहुत महत्व रखता है. इसमें आपने देखा होगा कि नाक में नथुनी, आंख में काजल लगाया है. कान में झुमका पहना है. क्योंकि वह छोटे शहर की है. आधुनिक सोच के चलते जींस पहनती है. पर मेकअप वैसा ही करेगी.

सिद्धार्थ मल्होत्रा का दावा है कि उनकी मम्मी आपको बहुत पसंद करती हैं?

चेहरे पर अचानक खुशी के भाव आ जाता है और वह हंसते हुए हमसे पूछती हैं कि सिद्धार्थ मल्होत्रा ने क्या क कहा है? फिर वह कहती हैं देखिए, सिद्धार्थ मल्होत्रा की मम्मी से मेरी बहुत मुलाकात हुई है. पहली मुलाकात तब हुई थी, जब वह फिल्म ‘स्टूडेंट ऑफ द ईअर’ के प्रिमियर पर आयी थीं. इसके अलावा जब वह मुंबई आती है या जब मैं दिल्ली जाती हूं, तो हमारी मुलाकात होती है. हमारे बीच बातें भी होती हैं. लेकिन सिद्धार्थ की भाभी ने मेरी सारी फिल्में देखी हैं और वह मेरे संपर्क में ज्यादा रहती हैं. सिद्धार्थ की भाभी ने मेरे घर के लिए एक आर्ट पीस भी बनाकर दिया है.

कई फिल्मों में दुल्हनिया बन गयीं. निजी जिंदगी में कब बन रही हैं?

देखिए,अभी 24 साल की हूं. मैं सोचती हूं कि मुझे दुल्हनिया बनना है. पर अभी नहीं बनना है. मैं दुल्हनिया तब बनूंगी, जब मैं घर बसाने के लिए तैयार हो जाउंगी. मैं चाहती हूं कि ऐसा ही हर लड़की को सोचना चाहिए. कई बार लड़कियां जल्दी शादी कर लेती है. पर बाद में पछताती है. मेरा मानना है कि शादी को गंभीरता से लेना चाहिए, लोग बहुत हल्के में लेते हैं. इसी के चलते बाद में तलाक हो जाते हैं. शादी जिंदगी भर का कमिटमेंट होता है. यह नहीं भूलना चाहिए. मैं तीस साल के पहले शादी करने के बारे में नहीं सोचती.

तो क्या जल्दी शादी करने की वजह से तलाक होते हैं?

तलाक की वजह कुछ भी हो सकती है. यह दस साल या बीस साल बाद भी हो सकता है. मेरी राय में बदलाव जिंदगी का अटूट सत्य है. जिंदगी में बदलाव स्थाई होता है. यानी कि बदलाव आता ही रहेगा. आपको हर बदलाव के साथ एडजस्ट करना आना चाहिए. पर यह भी मानती हूं कि जब लड़के या लड़की बिना समझे, जल्दी में या महज शारीरिक आकर्षण के चलते शादी करती या करते हैं, तो उनकी शादियां जल्दी टूटती हैं.

आप डायरी लिख रही थीं. क्या नया लिखा?

काफी समय से कुछ लिख नही पायी. हां मैं इंस्टाग्राम पर फोटो डाल देती हूं. मैं खुद फोटो खींचती रहती हूं. मैं तो खूबसूरत चेहरा, खूबसूरत तस्वीर देखकर मुस्कुरा देती हूं.

जल्लीकट्टू : पशुओं को सताना इंसानियत नहीं

जल्लीकट्टू खेल का यह नाम सल्ली कासू से बना है. सल्ली का मतलब सिक्का और कासू का मतलब सींगों में बंधा हुआ. सींगों में बंधे सिक्कों को हासिल करना इस खेल का मकसद होता है. धीरेधीरे सल्लीकासू का नाम जल्लीकट्टू हो गया.

इस खेल से जुड़ी एक रोचक बात यह भी सुनी जाती है कि खेल के दौरान जो मर्द बंधन खोल देता था, उस को शादी के लिए दुलहन मिलती थी. लेकिन, अब यह प्रचलन में नहीं है. जल्लीकट्टू की परंपरा कई सालों से चली आ रही है और स्थानीय लोगों का कहना है कि यह खेल तमिलनाडु के कुछ हिस्सों में बड़ा लोकप्रिय है. सुप्रीम कोर्ट ने इस पर प्रतिबंध लगा दिया था, क्योंकि सांड को काबू में करने के लिए उस के साथ कू्ररता बरती जाती थी.

तमिलनाडु के रहने वाले कुतुबुद्दीन कहते हैं, ‘‘लेकिन क्या इस वजह से जल्लीकट्टू पर ही रोक लगा दी जाए? शायद कड़ाई से इतनाभर कहना काफी होता कि पशु के साथ हिंसा का बरताव नहीं होना चाहिए. जानवर को कोई नुकसान न पहुंचे, यह पक्का करने के लिए जिला प्रशासन और पुलिस को निर्देश दिए जा सकते थे. इस से विवाद का दोनों पक्षों के लिए संतोषजनक हल निकलता, अदालत के फैसले और जनभावना के बीच टकराव नहीं होता.’’

चेन्नई के मरीना बीच पर लाखों लोग विरोधप्रदर्शन के लिए जुटे. रजनीकांत,

ए आर रहमान, जग्गी वासुदेव जैसी फिल्मी हस्तियों समेत कई दूसरी शख्सीयतें इस आंदोलन को समर्थन देती दिखीं. मुंबई में भी लोग मानव श्रंखला बना कर जल्लीकट्टू के समर्थन में विरोधप्रदर्शन कर रहे थे.

वोटबैंक की राजनीति

तमिलनाडु में कोई राजनीतिक पार्टी इस खेल पर पूरे बैन का समर्थन नहीं करती. एक अखिल भारतीय औनलाइन जनमत के अनुसार 79.56 प्रतिशत लोग चाहते थे कि यह प्र्रथा बंद हो जाए जबकि सिर्फ 14.53 प्रतिशत चाहते थे कि यह प्रथा चलती रहनी चाहिए. लेकिन सवाल यह है कि क्या वे 14.53 प्रतिशत इतने प्रभावी हैं कि पूरी चेन्नई उन के प्रभाव से ग्रस्त है और सरकार को अपने कदम पीछे खींचने पड़ रहे हैं?

जल्लीकट्टू के आयोजन पर लगी रोक के खिलाफ जारी विरोधप्रदर्शन के बीच केंद्र सरकार ने इस खेल के आयोजन को मंजूरी दे दी और अध्यादेश राज्य सरकार को सौंप दिया. क्यों? क्या आज की सरकार में इतना भी दम नहीं है कि वह 14 प्रतिशत लोगों का सामना कर सके, उन को समझा सके? क्यों हर बार सरकार को कुछ चंद लोगों के आगे झुकना पड़ जाता है? क्यों हर बार किसी प्रदेश, किसी जाति के लोगों से जुड़ी भावनाएं और विश्वास का हवाला दे कर किसी अच्छे विचार को टाल दिया जाता है या दबा दिया जाता है?

रजनीकांत व कमल हासन जैसी चर्चित हस्तियां और कुछ नेतावर्ग क्यों चाहते थे कि यह प्रथा चलती रहे? क्यों वे इस क्रूर प्रथा पर रोक के खिलाफ थे? क्या सदियों से चली आ रही नकारात्मक प्रथा को खत्म करना सही नहीं? असल में ये सब वोटबैंक की राजनीति है. अगर ये सब मुद्दे उठेंगे ही नहीं, तो ये सब लोग प्रसिद्घि कैसे पाएंगे, इन को पूछेगा कौन?

पशुओं के साथ क्रूरता

भोजन के लिए जानवर को मारा जाता है तो वह फिर भी न्यायसंगत है क्योंकि यह प्रकृतिदत्त है. पर अपने शौक के लिए किसी बेगुनाह को मारना या कष्ट देना कहां का न्याय है. कड़वी हकीकत यह है कि कुछ भद्र लोग सिर्फ अपने भय और आशंका को दूर करने के लिए बलि जैसे टोनेटोटके अपनाते हैं. यहां तक कि पाकिस्तान जैसे कई देश हैं, जहां के नेता या नामी लोग उड़ान से पहले रनवे पर एक काले बकरे की बलि देते हैं ताकि यात्रा सुगम व सुरक्षित रहे. क्या यह न्याय है, कतई नहीं.

जानीमानी कुछ जमीनी हस्तियों के मुताबिक, ‘‘जल्लीकट्टू के आयोजन के जरिए वे सांडों की बेहतर नस्ल संरक्षित करते हैं. उन के अनुसार, यह मशीनी युग है. मशीनी खेतीबाड़ी के इस दौर में पशुधन उपयोगी नहीं रह गया है.’’ कई का कहना है कि शायद इस प्रथा के जरिए वे पौरुष यानी मर्दवाद को स्थापित करना चाहते हैं.

आज की तारीख में जितने भी सभ्य माने जाने वाले अभिनेता जल्लीकट्टू का समर्थन करते हैं, उन्हें किसी समय में हम सब ने रुपहले परदे पर सांड के साथ भिड़ते हुए व जीतते हुए देखा है. वे शायद वही वर्चस्व कायम रखना चाहते हैं.

इस खेल में सांड को क्रूरता के साथ पीटा जाता है, कई लोग एकसाथ उस की पीठ पर सवार होते हैं, उसे शराब या नशीला पेय पिला कर हिंसक व उन्मुक्त किया जाता है, उन की आंखों में मिर्च तक डाली जाती है और उन की पूंछों को मरोड़ा भी जाता है, ताकि वे तेज दौड़ सकें. परंपरा के नाम पर बेजबानों को तकलीफ देना आखिर कहां की इंसानियत है?

आफत बनते त्योहार

देश का हर तीजत्योहार अपने साथ कुछ न कुछ सिरदर्दी का मसला ले कर आता है. पूजा के दौरान लाउडस्पीकर गरजते हैं. प्रतिमाविसर्जन के समय ट्रैफिक की हालत खस्ता हो जाती है. लेकिन इन बातों का त्योहार के मूलभाव से कोई रिश्ता नहीं है. त्योहार का मूलभाव अकसर धार्मिक होता है. बहुत से लोगों को परेशानी होती है, परेशानी के मारे कुछ लोग अदालत का दरवाजा खटखटाते हैं.

ज्यादा दिन नहीं हुए जब अदालत का फैसला आया था कि एक खास वक्त के बाद लाउडस्पीकर नहीं बजाया जा सकता. दीवाली के दिन ज्यादा शोर न हो, इसे ले कर भी एक सीमा निर्धारित की गई थी. सिरदर्दी पैदा करने वाली ऐसी बातों पर रोक लगती है, पर इस तरह की रोकथाम हमेशा विवाद पैदा करती है और फिर राजनीतिक विवाद के रूप में सामने आती है.

यह शायद इंसानी प्रवृत्ति ही है कि वह जीव को तकलीफ दे कर खुश होता है. इसलिए ही, वह नहीं चाहता कि ऐसे उत्सव बंद हों.

त्योहार जैसे दशहरा, दीवाली, मकरसंक्रांति, पोंगल तथा होली का उत्साह मनोरंजन के लिए पशुओं पर शामत बन कर आते हैं. इन त्योहारों में सांडों की लड़ाई व बैलगाड़ी दौड़ जैसी प्रतियोगिताओं का आयोजन देश के अनेक हिस्सों में किया जाता है तथा पशुओं के साथ कू्ररतम तरीके से व्यवहार किया जाता है. इस प्रकार के कार्यक्रमों के आयोजन को आयोजक एवं दर्शक बड़े गौरव की बात मानते हैं, जबकि ये कृत्य भारतीय दंड विधान के अनुसार दंडनीय अपराधों की श्रेणी में शामिल हैं.

पशु कू्ररता अधिनियम 1960 एवं भारतीय दंड संहिता के विभिन्न प्रावधानों के अंतर्गत यह कृत्य वर्जित एवं दंडनीय है. इन के आयोजक एवं प्रायोजक सभी अपराधी माने जाते हैं. सांडों की लड़ाई पर सुप्रीम कोर्ट द्वारा भी प्रतिबंध लगाया जा चुका है. बग्घी दौड़ जैसे आयोजनों पर भी विभिन्न राज्यों की न्यायपालिका ने रोक लगाई है.

तमाम रोकों के बाद भी पशुओं की लड़ाई एवं बैलगाड़ी दौड़ का आयोजन लगातार किया जा रहा है. इस प्रकार के आयोजनों के बाकायदा विज्ञापन दिए जाते हैं. प्रिंट व टीवी चैनलों द्वारा ऐसे कार्यक्रमों का कवरेज भी किया जाता है. इसी प्रकार मध्य प्रदेश के महाकौशल एवं महाराष्ट्र के विदर्भ क्षेत्र में बग्घी दौड़ के आयोजनों की खबरें भी मिलती हैं. वास्तव में ये तमाम घटनाएं हमारी परंपरा के खिलाफ तो हैं ही, साथ ही पशु प्रेमियों को परेशान करती हैं कि तमाम कानूनों के बाद भी पशुओं पर इस प्रकार के अत्याचार जारी हैं.

मुंबई में रहने वाले चेतन का कहना है, ‘‘यह एक ऐसी परंपरा है जो सदियों से चली आ रही है. जल्लीकट्टू में वक्त बीतने के साथ कुछ बुराइयां आई हैं, जैसे सांड को चोट पहुंचाना आदि. इन्हें रोकने के लिए कोई नियम बनता है तो लोग

उसे मानेंगे. सांड को चोट पहुंचाना जल्लीकट्टू का असल मकसद नहीं है. यह बहुतकुछ वैसा ही है जैसे कि त्योहार में लाउडस्पीकर बजाना. रोक लगाने की जगह पशुओं के साथ नैतिक व्यवहार के पक्षधर लोग यानी पीपल्स फौर द ऐथिकल ट्रीटमैंट औफ ऐनिमल्स संस्था के कार्यकर्ताओं और कोर्ट को जल्लीकट्टू के इस पहलू पर विचार करना चाहिए था. महाराष्ट्र के दहीहांडी वाले मामले में जैसा आदेश दिया गया था, कुछ वैसा ही जल्लीकट्टू के मामले में कारगर होता.’’

आंकड़े यह भी बताते हैं कि ऐसे आयोजनों में बहुत से लोग घायल होते हैं या मारे जाते हैं. यह हिंसा फिर मानव की, मानव के खिलाफ इस्तेमाल होती है. कुछ लोगों, जो इस प्रथा का समर्थन करते हैं, का मानना है, ‘‘यह स्पेन की बुल फाइट से अलग है. जल्लीकट्टू हजारों वर्षों से खेला जाने वाला खेल है. इस में सांड को मारा नहीं जाता. सारा खेल तीखे सींग वाले सांड पर बांधे गए सोने या पैसे को खोलने का होता है.’’

इस के विपरीत, इस खेल का समर्थन करने वाले बालकुमारन सोमू कहते हैं, ‘‘तमिलनाडु में 6 स्थानीय नस्लें थीं. उन में से एक नस्ल अलामबदी को तो आधिकारिक तौर पर विलुप्त घोषित कर दिया गया है. सरकार का बैन लगा रहा तो बची नस्लें भी खत्म हो जाएंगी.’’ वहीं कार्तिकेयन शिव सेनापति कहते हैं, ‘‘जल्लीकट्टू ने लोगों को उत्साहित किया है कि वे अपने बैलों, सांडों को पालें. चूंकि यह परिवार और समुदाय की इज्जत की बात है, किसान उन का अच्छा खयाल रखते हैं. ये बैन लागू रहा तो लोगों में सांडों को रखने का उत्साह नहीं बचेगा.’’

जल्लीकट्टू का समर्थन करने वालों का कहना है, ‘‘घोड़ों की रेस पर क्यों कोई रोक नहीं लगाई जाती, या मंदिरों में रखे जाने वाले हाथियों पर कोई कुछ क्यों नहीं कहता? अगर कोई सांड को मारता है, उसे चोट पहुंचाता है तो उसे पकड़ें, सजा दें, इस में कोई आपत्ति नहीं है. लेकिन इस के लिए इस खेल पर बैन लगाना सही नहीं.’’

कोलकाता निवासी अमित अंबस्था का मानना है, ‘‘संस्कृति और परंपरा के नाम पर बेजबान जानवरों से हिंसक खेल 21वीं सदी में स्वीकार्य नहीं है. अकसर हम लोगों में से ही कुछ या सरकार कहती है कि ‘सोच बदलो,

तो देश बदलेगा.’ पर क्या, ऐसी सोच के साथ देश बदलेगा? सोच बदलने

के लिए पहले हम को खुद भी तो बदलना होगा.’’

मनुष्य, पशु, धर्म और कानून

मनुष्य पशुपक्षियों पर कितना और किसकिस प्रकार अत्याचार करता है, कितनी बुरी तरह से उन का उत्पीड़न कर रहा है, इस को आएदिन सामान्य जीवन में देखा जा सकता है. यह और भी दुख व खेद की बात है कि मनुष्य का यह अत्याचार उन्हीं पशुपक्षियों पर चल रहा है जो उस के लिए उपयोगी, उस के मित्र, सेवक तथा सुखदुख के साथी व आज्ञाकारी हैं.

पशु अधिकार कार्यकर्ताओं के अनुसार यह सही नहीं है कि एक जानवर को बस अपनी नस्ल बचाने के लिए हिंसाभरी जिंदगी जीनी पड़े.

जल्लीकट्टू के लिए सर्वोच्च न्यायालय की सहमति हासिल करने के तमिलनाडु सरकार के प्रयास नाकाम हो गए. स्थानीय लोगों का कहना है कि यह 3,500 वर्षों पुरानी परंपरा है जो धर्म से जुड़ी है. पर न्यायपीठ ने कहा, ‘‘यह धर्म से मेल या जुड़ाव नहीं है.’’

यहां तक कि वरिष्ठ अधिवक्ता शेखर ने भी कहा, ‘‘यही एक सामाजिक, सांस्कृतिक आयोजन है जो फसलों की कटाई से जुड़ा है. यह धार्मिक प्रचलन नहीं है. इस का धर्म से कोई लेनादेना नहीं है. संविधान के अनुच्छेद 25 के तहत दी गईर् धर्म की स्वतंत्रता की धारणा से यह बाहर है.’’ इसे वर्ष 1964 के पशु अत्याचार निरोध कानून के खिलाफ करार देते हुए अदालत ने 7 मई, 2014 के फैसले में सांड से लड़ाई पर प्रतिबंध लगाया था. उस में कहा गया था, ‘‘सांड को किसी अभिनय में भाग लेने का हिस्सा नहीं बनाया जाए चाहे वह जल्लीकट्टू का कार्यक्रम हो या बैलगाड़ी की दौड़.’’

नेता, अभिनेता या कुछ सभ्रांत लोग अगर कुछ करते हैं तो किसी न किसी राजनीति के तहत ही करते हैं. किसी भी मुद्दे को उठाओ और उस को बीच में ही छोड़ दो, क्योंकि अगर मुद्दा खत्म हो गया तो जिन्हें लाभ होता है उन को पूछेगा कौन? इसलिए हर मुद्दा 2-4 दिनों या कुछ महीनों तक चर्चा में रहता है. बाद में इस मसले को बीच में ही दबा दिया जाता है. यह सब राजनीति का तरीका है.            

खुले में शौच, शिकार कौन

डकैत समस्या के चलते कभी दुनियाभर में कुख्यात रहे ग्वालियर व चंबल संभागों के इलाकों की हालत यह हो गई है कि यहां के लोग अब लाइसैंसी हथियारों का इस्तेमाल डकैती डालने या खुद के बचाव के लिए नहीं, बल्कि इत्मीनान से खुले में शौच करने के लिए करने लगे हैं. इन इलाकों के कई गांवों के लोग सुबह जंगल में जाते वक्त एक हाथ में लोटा या पानी की बोतल और दूसरे हाथ में हथियार ले कर शौच के लिए जाते हैं. इन्हें खतरा दुश्मनों या फिर जंगली जानवरों से नहीं, बल्कि उन सरकारी मुलाजिमों से है जिन्होंने खुले में शौच रोकने का बीड़ा उठाया हुआ है, जिस से कि प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी की 2 साल पहले शुरू की गई स्वच्छ भारत मुहिम को अंजाम तक पहुंचाया जा सके.

ग्वालियर जिला पंचायत के सीईओ नीरज कुमार को अपर जिला दंडाधिकारी शिवराज शर्मा से झक मार कर यह सिफारिश करनी पड़ी थी कि आधा दर्जन गांवों के तकरीबन 55 बंदूकधारियों के लाइसैंस रद्द किए जाएं क्योंकि ये बंदूक के दम पर खुले में शौच जाते हैं और अगर सरकारी मुलाजिम इन्हें रोकते हैं तो ये गोली चला देने की धौंस देते हैं. मजबूरन सरकारी अमले को उलटे पांव वापस लौटना पड़ता है. ये लोग बदस्तूर खुले में शौच करते रहते हैं. 10 जनवरी को ऐसी ही शिकायत एक ग्राम रोजगार सहायक घनश्याम सिंह दांगी ने उकीता गांव के निवासी अजय पाठक के खिलाफ दर्ज कराई थी. इस बारे में जनपद पंचायत मुरार के सीईओ राजीव मिश्रा की मानें तो गांव में स्वच्छ भारत मुहिम के तहत सुबहसुबह निगरानी करने के लिए टीम गठित की गई थी. उकीता गांव में अजय खुले में शौच कर रहा था. जब उसे खुले में शौच न करने की समझाइश दी गई तो उस ने जान से मारने की धमकी दे दी.

कार्यवाही या ज्यादती

खुले में शौच से लोगों को रोकने के लिए सरकारी मुलाजिम किस कदर मनमानी करने पर उतारू हो गए हैं, यह अब आएदिन उजागर होने लगा है. मध्य प्रदेश के ही उज्जैन से एक वीडियो बीते दिनों वायरल हुआ था जिस में सरकारी मुलाजिम खुले में शौच करते एक बेबस, बूढ़े आदमी से उठकबैठक लगवा रहे हैं और उसे अपना मैला हाथ से उठा कर फेंकने को मजबूर भी कर रहे हैं. वायरल हुए इस वीडियो पर खूब बवाल मचा था पर इस बिगड़ैल सरकारी मुलाजिम का कुछ नहीं बिगड़ा था. इस से यह जरूर साबित हुआ था कि स्वच्छ भारत अभियान अब एक ऐसे खतरनाक मोड़ पर जा पहुंचा है जिस के शिकार वे गरीब दलित ज्यादा हो रहे हैं, जिन के यहां शौचालय इसलिए नहीं हैं कि उन का अपना कोई घर ही नहीं है.

जिन गरीबों के पास अपने घर हैं भी, तो उन्हें मजबूर किया जा रहा है कि वे जैसे भी हो, पहले घर में शौचालय बनवाएं जिस के पीछे छिपी मंशा यह है कि जिस से गांवदेहातों के रसूखदार लोगों को बदबू व बीमारियों का सामना न करना पड़े. ग्वालियर और उज्जैन के मामलों में फर्क इतनाभर है कि ग्वालियर के लोग हथियारों के दम पर ही सही, सरकारी मुलाजिमों से जूझ पा रहे हैं लेकिन उज्जैन और देश के दूसरे देहाती व शहरी इलाकों के लोग न तो दबंग हैं और न ही उन के पास शौच करने जाने के लिए हथियार हैं. इसलिए वे खामोशी से ऊंचे वर्गों व सरकारी मुलाजिमों की गुंडागर्दी बरदाश्त करने को मजबूर हैं. उज्जैन का वायरल वीडियो इस की एक उजागर मिसाल थी, जिस में एक गरीब, कमजोर, बूढ़े के साथ जानवरों से भी ज्यादा बदतर बरताव किया गया.

जाहिर है जान पर नहीं बन आती तो ग्वालियर व चंबल संभागों के इलाकों में भी उज्जैन सरीखा शर्मनाक वाकेआ दोहराया जाता. हथियारों से निबटते बीते साल अगस्त में ग्वालियर प्रशासन ने यह फरमान जारी किया था कि जो लोग खुले में शौच करते पाए जाएंगे उन के हथियारों के लाइसैंस रद्द कर दिए जाएंगे. इस पर भी बात न बनी तो प्रशासन ने जुर्माने का रास्ता अख्तियार कर लिया. इस साल जनवरी के दूसरे हफ्ते में ग्वालियर की घाटीगांव जिला पंचायत के 2 गांवों सुलेहला और आंतरी के 21 लोगों पर प्रशासन ने 7 लाख 95 हजार रुपए की भारीभरकम राशि का जुर्माना ठोका था, तो भी खूब बवाल मचा था कि यह तो सरासर ज्यादती है. इतनी भारी रकम गरीब लोग कहां से लाएंगे जो पिछड़े और दलित हैं. यह तो इन पर जुल्म ही है.

प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी की सरकार ने सरकारी अफसरों व मुलाजिमों के हाथ में एक कानूनी डंडा थमा दिया है जिस के आगे दूसरे हथियार ज्यादा दिनों तक टिक पाएंगे, ऐसा लगता नहीं क्योंकि खुले में शौच पर जुर्माने की रकम अब मजिस्ट्रेटों के जरिए वसूली जाएगी. अगर जुर्माने की राशि नकद नहीं भरी गई तो शौच करने वालों की जमीनजायदाद कुर्क करने का हक भी सरकार को है. जिस के पास जमीनजायदाद नहीं होगी, उसे जेल में ठूंस दिया जाएगा. बात अकेले ग्वालियर, चंबल या उज्जैन संभागों की नहीं है, बल्कि देशभर में सरकारी मुलाजिम शौच की आड़ में गरीब, दलित और पिछड़ों पर तरहतरह के जुल्म ढा रहे हैं. दिलचस्प बात यह है कि जिन राज्यों में भाजपा का राज है वहां ऐसा ज्यादा हो रहा है. कुछ पीडि़तों को 1975 वाली इमरजैंसी याद आ रही है जब गरीब नौजवानों को पकड़पकड़ कर उन की नसबंदी कर दी गई थी. इंदिरा गांधी और नरेंद्र मोदी में फर्क नहीं रह गया जिन के मुंह से निकली ख्वाहिश ही कानून बन जाती है.

होना तो यह चाहिए था कि प्रशासन हर जगह लोगों में पल्स पोलियो मुहिम की तरह जागरूकता पैदा कर खुले में शौच के नुकसान गिनाते लोगों को उन की सेहत के बाबत आगाह करता, उन्हें शौचालय में शौच करने के फायदे गिनाता. पर, हो उलटा रहा है. सरकारी तंत्र 1975 की तरह बेलगाम हो कर कार्यवाही कर रहा है जिस की बड़ी गाज गांवदेहातों के गरीबों, दलितों और पिछड़ों पर गिर रही है. खुलेतौर पर खुले में शौच और जाति का कोई सीधा ताल्लुक नहीं है पर यह हर कोई जानता है कि अधिकांश दलित गरीब हैं, उन के पास रहने को पक्के तो दूर, कच्चे घर भी नहीं हैं. इसलिए वे खुले में शौच करने को मजबूर होते हैं. ऐसे में इसे जुर्म मानना, उन के साथ नाइंसाफी नहीं तो क्या है?

शौचालय बनवाने के नाम पर हर जगह हेरफेर और घोटाले सामने आने लगे हैं तो लगता है कि भ्रष्टाचार और मनमानी का लाइसैंस सरकारी मुलाजिमों के साथ उन दबंगों को भी मिल गया है जिन का समाज पर खासा दबदबा है. ये दोनों मिल कर शौच के नाम पर कार्यवाही नहीं, बल्कि गुंडागर्दी कर रहे हैं. दिक्कत यह है कि कोई इन के खिलाफ आवाज नहीं उठा रहा. लोगों का पहला अहम काम जुर्माने और सजा से खुद को बचाना है. हालात नोटबंदी जैसे शौच के मामले में भी हो चले हैं कि अगर नए नोट चाहिए तो बदलने के लिए बैंक की लाइनों मेें खामोशी से खड़े रहो वरना मेहनत से कमाए नोट रद्दी हो जाएंगे. जो भी किया जा रहा है वह तुम्हारे उस भले के लिए है जिसे तुम नहीं जानतेसमझते. यज्ञ, हवन, उपवास, दान, दक्षिणा क्यों कराए जाते हैं? ताकि तुम्हारा यह जन्म व अगला जन्म सुधरे. कैसे सुधारोगे, यह हम कुछ विशेष लोग जानते हैं, आम दलित, गरीब को जानने की जरूरत नहीं. वह पिछले जन्मों के पाप का दंड भोगता रहे. नोटबंदी और खुले में शौच का दिलचस्प कनैक्शन यह है कि अब बैंकों की तरह सार्वजनिक और सुलभ शौचालयों में भीड़ उमड़ने लगी है. कार्यवाही के डर से खुले में शौच करने वाले एक बार पेट हलका करने के लिए 5 रुपए खर्च कर रहे हैं जिस से उन का रोजाना का एक खर्च बढ़ गया है. अगर एक परिवार में 4 सदस्य हैं तो वह 20 रुपए की मार भुगत रहा है जबकि उस की कमाई ज्यों की त्यों है. बल्कि, अब तो नोटबंदी के बाद कमाई और कम हो गई है.

भोपाल के कारोबारी इलाके एमपी नगर में आधा दर्जन सुलभ कौंपलैक्स हैं. इस इलाके में झुग्गीझोंपडि़यों की भी भरमार है. कुछ दिनों पहले तक झुग्गी के लोग 2-4 किलोमीटर दूर जा कर रेल पटरियों के किनारे या सुनसान में मुफ्त में पेट हलका कर आते थे पर अब सरकारी टीमें कभी सीटियां, तो कभी कनस्तर बजा कर उन्हें ढूंढ़ने लगी हैं. ये लोग अब सुलभ और सार्वजनिक शौचालयों की लाइनों में खड़े नजर आने लगे हैं. अगर सहूलियत से और समय पर शौच करना है तो सुलभ कौंपलैक्स में 5 रुपए इन्हें देने पड़ते हैं. मुफ्त वाले शौचालयों में हफ्तों सफाई नहीं होती, गंदगी और बदबू की वजह से इन के आसपास मवेशी भी नहीं फटकते. पर, वे गरीब जरूर कभीकभार हिम्मत कर इन में चले जाते हैं जिन की जेब में 5 रुपए भी नहीं होते.

एमपी नगर इलाके में ही सरगम टाकीज के पास एक झुग्गीझोंपड़ी बस्ती के बाशिंदे गजानंद, जो महाराष्ट्र से मजदूरी करने यहां आए, का कहना है कि उस के परिवार में 6 लोग हैं जो शौच के लिए अब हबीबगंज रेलवे स्टेशन के सुलभ कौंप्लैक्स में जाते हैं जिस से 30 रुपए रोज अलग से खर्च होते हैं. अगर शाम को भी जाना पड़े तो यह खर्च दोगुना हो जाता है. गजानंद बताता है, हम जैसे गरीबों पर यह दोहरी मार है. सरकार हल्ला तो बहुत मचा रही है पर मुफ्त वाले शौचालय बहुत कम हैं.

यहां है गड़बड़झाला

खुले में शौच करने वाले आज स्थानीय निकायों की आमदनी का एक बड़ा जरिया बन गए हैं. पंचायतों से ले कर नगरनिगमों तक ने फरमान जारी कर दिए हैं कि जो भी खुले में शौच करता पाया जाएगा, उस से जुर्माना वसूला जाएगा. यह जुर्माना राशि 50 रुपए से ले कर 5 हजार रुपए तक है. मध्य प्रदेश के तमाम नगरनिगम, नगरपालिकाएं, नगरपंचायतें और ग्रामपंचायतें रोज खुले में शौच करने वालों से जुर्माना वसूलते अपनी आमदनी बढ़ा रहे हैं.

स्थानीय निकायों को ऐसे नियम, कायदे व कानून बनाने के हक होने चाहिए कि नहीं, यह अलग और बड़ी बहस का मुद्दा है पर प्रधानमंत्री को खुश करने की होड़ में यह कोई नहीं सोच रहा कि जिस की जेब में जुर्माना देने लायक राशि होती, वह भला खुले में शौच करने जाता ही क्यों. यह मान भी लिया जाए कि कोई 8-10 फीसदी लोगों की खुले में शौच करने की ही आदत पड़ गई है जबकि उन के घर पर शौचालय हैं तो इस की सजा बाकी 90 फीसदी लोगों को क्यों दी जा रही है?

परेशानियां तरह तरह की

जो लोग जुर्माना नहीं भर पा रहे हैं, उन के खिलाफ तरहतरह की दिलचस्प लेकिन चिंताजनक कार्यवाहियां की जा रही हैं. इन्हें देख लगता है कि देश में लोकतंत्र और उसे ले कर जागरूकता नाम की चीज कहीं है ही नहीं. इन वाकेओं को देख ऐसा लगता है कि खुले में शौच करने वालों को जागरूक नहीं, बल्कि जलील किया जा रहा है.

कुछ दिनों पहले मध्य प्रदेश के ही सागर जिले में बसस्टैंड पर सुबहसुबह एक ड्राइवर और बसकंडक्टर को नगरनिगम के मुलाजिमों अशोक पांडेय व वसीम खान ने मुरगा बनाया. बसकंडक्टर और ड्राइवर का गुनाह इतना भर था कि वे खुले में शौच करते पकड़े गए थे.

इतना ही नहीं, सागर के ही लेहदरा नाके के इलाके में तो बेलगाम हो चले मुलाजिमों ने खुले में शौच करने वालों को पकड़ कर उन्हें राक्षस का मुखौटा पहना कर उन के साथ मोबाइल फोन से सैल्फी ली. महाराष्ट्र के बुलढाना जिले में प्रशासन ने फरमान जारी किया था कि जो भी खुले में शौच करने वालों के साथ सैल्फी खींच कर लाएगा, उसे इनाम में नकद 5 सौ रुपए दिए जाएंगे. इस का नतीजा यह हुआ कि लोग सुबहसुबह अपना मोबाइल फोन हाथ में ले कर झाडि़यों में झांकते फिरे ताकि कोई शौच करता मिल जाए तो उस के साथ सैल्फी ले कर 5 सौ रुपए कमाए जा सकें.

मनमानी और ज्यादती का आलम यह है कि रतलाम के मैदानों में नगरपरिषद हैलोजन लैंप और बल्ब लगा कर रोशनी के इंतजाम कर रही है जिस से खुले में शौच करने वालों पर नकेल डाली जा सके. हैलोजन बल्ब को लगाने का पैसा है पर गांवों, गंदी बस्तियों में सीवर लगाने का पैसा नहीं है ताकि घरों में ढंग के शौचालय बन सकें.

इस से भी एक कदम आगे चलते सागर नगरनिगम के कमिश्नर कौशलेंद्र विक्रम सिंह ने आंगनबाड़ी कार्यकर्ताओं को हुक्म दिया हुआ है कि खुले में शौच को रोकने के लिए वे कलशयात्राएं निकालें, शाम को भजन गाएं और जगहजगह तुलसी के पौधे लगाएं. तुलसी को हिंदू पवित्र पौधा मानते हैं, इसलिए उस के आसपास शौच करने में हिचकिचाएंगे, ऐसा इन साहब का सोचना था.

जाति और धर्म से गहरा नाता

कोई अगर यह सोचे कि भला खुले में शौच से जाति और धर्म से क्या वास्ता, तो यह खयाल नादानी और गलतफहमी ही है. हकीकत यह है कि खुले में शौच का उम्मीद से ज्यादा और गहरा ताल्लुक जाति व धर्म से है जो अधिकांश लोगों की समझ में नहीं आ रहा. 2014 के लोकसभा चुनावप्रचार के दौरान नरेंद्र मोदी ने साफ कहा था कि देवालयों यानी मंदिरों से ज्यादा जरूरी शौचालय हैं.

तब गरीब लोग यह समझ कर खुश हुए थे कि मोदी सरकार जगहजगह पक्के शौचालय बनवाएगी और उन्हें जिल्लत व जलालत से छुटकारा मिल जाएगा.

केंद्र सरकार ने जैसे ही यह फरमान जारी किया कि खुले में शौच करने वालों पर 5 हजार रुपए तक का जुर्माना लगाया जाए तो सब से पहले जैन समुदाय के लोग चौकन्ना हुए. क्योंकि जैन मुनि हिंसा के अपने उसूल का पालन करते खुले में ही शौच करते हैं. जगहजगह से मांग उठी कि जैन मुनियों को खुले में शौच की छूट दी जाए.

ये लाइनें लिखे जाने तक केंद्रीय मंत्री वेंकैया नायडू ने खुलेतौर पर इस बात की  घोषणा नहीं की थी पर चर्चा है कि केंद्र सरकार ने जैन मुनियों को खुले में शौच करने की छूट देने का मन बना लिया है. दरअसल, भाजपा जैन वोटरों को नाराज नहीं करना चाहती. अगर सरकार इस तरह की किसी छूट का ऐलान करेगी तो तय है देशभर में बवाल मच जाएगा क्योंकि फिर गरीब, दलित भी अपने लिए इस तरह की छूट की मांग करते आसमान सिर पर उठा लेंगे.

बात अकेले जैन मुनियों की नहीं है, बल्कि लाखों की तादाद में नदियों के किनारे रह रहे हिंदू साधुसंतों की भी है जिन का कोई घर नहीं होता. ये साधु मंदिरों में रहते हैं और धड़ल्ले से खुले में शौच करते हैं.

अभी तक एक भी मामला ऐसा सामने नहीं आया है जिस में निगरानी टीमों या सरकारी मुलाजिमों ने किसी साधु, संत या मुनि पर खुले में शौच करने के जुर्म के एवज में जुर्माना लगाया हो या समझाइश दी हो.

असल मार इन पर

आजादी के समय देश की 70 फीसदी आबादी खुले में शौच के लिए जाती थी. इस में से अधिकतर लोग दलित, पिछड़े और आदिवासी होते थे. हालात अब और बदतर हैं. अब खुले में शौच जाने वाले 90 फीसदी लोग इन्हीं जातियों के हैं. इन्हें आज कानून के नाम पर तंग किया व हटाया जा रहा है.

दलित, आदिवासी तबके के लोगों को मुद्दत तक शौचालयों से दूर रखा गया क्योंकि खुले में शौच जाना इन की एक अहम पहचान होती थी. ठीक वैसे ही, जैसे गले में लटकता जनेऊ ब्राह्मण की पहचान होती थी, जो आज भी है.

यह कड़वा सच आजादी के बाद आज तक कायम है कि अभी भी 85 फीसदी दलित गरीब ही हैं जो झुग्गीझोंपड़ी बना कर रहते हैं. पढ़ेलिखे होने के बावजूद ये शौचालय की अहमियत नहीं समझते थे. अब आरक्षण के जरिए जो लोग सरकारी नौकरी पा गए हैं, वे घरों में शौचालय बनवा रहे हैं. इस सच का एक दूसरा पहलू यह है कि वे घर बनाने लगे हैं.

अब न केवल सियासी बल्कि सामाजिक तौर पर यह हो रहा है कि पैसे वाले दलितों को सवर्णों के बराबर माना जाने लगा है. वे पूजापाठ कर सकते हैं और दानदक्षिणा भी पंडों को दे सकते हैं. जाहिर है सवर्ण जैसे हो गए इन्हीं दलितों के यहां शौचालय हैं. इन की तादाद तकरीबन 10 फीसदी है. इन्हें देखदेख कर ही ऊंची जाति वाले चिल्लाचिल्ला कर यह जताने की कोशिश करते हैं कि देखो, जातिवाद और छुआछूत खत्म हो गई क्योंकि दलित अब खुलेआम मंदिर में जा रहा है. पूजापाठ भी कर रहा है और तो और, उस के यहां शौचालय भी है जो पहले नहीं हुआ करता था.

दरअसल, हकीकत सामने आ न जाए, इस का नया टोटका खुले में शौच का मुद्दा है. बढ़ते शहरीकरण के चलते अब जंगल और जमीन कम हो चले हैं जिस सेपक्के मकानों में रहने वाले ऊंची जाति वालों को खुले में शौच जाने वालों से परेशानी होने लगी थी. गांवों में भी जमीनें कम हो चली हैं. गरीब, मजदूर और किसान अपनी जमीनें बेच कर शहरों की तरफ भाग रहे हैं. गांवों में पहले सार्वजनिक जमीन बहुत होती थी जो अब न के बराबर हो गई है. कुछ सरकार या ग्राम सभाओं ने बेच खाई तो कुछ पर कब्जा हो गया. आम गरीब, जिन में दलित ज्यादा हैं, के लिए शौचालय न गांव में था और न ही शहर में है. कश्मीर से ले कर कन्याकुमारी तक बिछी रेल की पटरियां इस की गवाह हैं जहां रोज करोड़ों लोग हाथ में पानी की बोतल ले कर उकड़ूं बैठे देखे जा सकते हैं. चूंकि रेल की जमीन सरकारी है, कोई स्थानीय दबंग रेलवे की जमीन पर शौच करते किसी को धमका नहीं सकता.

जिन के पास 5 रुपए शौच के लिए सुलभ कौंप्लैक्स में जाने के नहीं हैं उन की जेब से खुले में शौच के जुर्माने के नाम पर 5 सौ या 5 हजार रुपए निकालना लोकतंत्र तो दूर, इंसानियत की बात भी नहीं कही जा सकती.

धर्म और जाति के नाम पर अत्याचार खत्म हो गए हैं, यह नारा पीटने वालों को एक दफा खुले में शौच के लिए जाने वालों की हालत देख लेनी चाहिए कि वे जस के तस हैं. बस, अत्याचार करने का तरीका बदल गया है. दलित की जगह गरीब शब्द इस्तेमाल किया जाने लगा है जिस से जाति छिपी रहे. भोपाल नगरनिगम के एक मुलाजिम का नाम न छापने की गुजारिश पर कहना है कि यह सच है कि लोग खुले में शौच करते पकड़े जा रहे हैं, इन में 70 फीसदी दलित, 20 फीसदी पिछड़े और 10 फीसदी सवर्ण, मुसलमान व दूसरी जाति के लोग हैं.

दरअसल, सारा खेल वे दबंग लोग खेल रहे हैं जिन के हाथ में समाज और राजनीति की डोर है. उन्होंने अब खुले में शौच को अत्याचार करने का हथियार बना डाला है. मंशा पहले की तरह समाज और राजनीति पर खुद का दबदबा बनाए रखने की है. और अगर कोई भेदभाव नहीं हो रहा, तो यह बताने को कोई तैयार नहीं

कि साधुसंतों और मुनियों के खिलाफ कार्यवाही क्यों नहीं की जाती. साफ है कि सिर्फ इसलिए कि वे धर्म के ठेकेदार हैं. उन्हें कोई रोकेगा तो तथाकथित पाप का भागीदार हो जाएगा.     

गरीबी का सच और शौच

लोगों को साफसफाई की अहमियत कानून के डंडे से सिखाया जाना न तो मुमकिन है और न ही तुक की बात है. इस की जिम्मेदार एक हद तक सरकार की नीतियां भी हैं. ग्वालियर व चंबल संभागों के लोगों के पास हथियार हैं पर शौचालय नहीं, इस का राज क्या है? कुछ लोग घर में शौचालय बनाने की माली हैसियत रखते हैं पर नहीं बनवा रहे, तो इस की वजह क्या है?

राज और वजह यह है कि अधिकतर दलित आदिवासी और अति पिछड़े बीपीएल कार्ड वाले हैं. स्वच्छ भारत मुहिम ने इन के गरीब होने के माने और पैमाने बदल दिए हैं. बीपीएल सूची में शामिल लोगों को काफी सरकारी सहूलियतें और रियायती दामों पर राशन वगैरा खरीदने की छूट मिली हुई है. सरकार गरीब उसे ही मानती है जिस के बीपीएल ग्रेडिंग सिस्टम में 14 या उस से कम नंबर हों. जिस के घर में शौचालय होता है उसे सर्वे में 4 अंक दे दिए जाते हैं. जिन के 10 या 12 अंक हैं, उन में से अधिकतर लोग शौचालय इसलिए नहीं बनवा रहे कि अगर ये 4 अंक भी जुड़ गए तो वे 14 अंक पार कर जाएंगे और गरीब नहीं माने जाएंगे यानी उन से सारी सहूलियतें छिन जाएंगी.

ऐसे में सरकारी इमदाद से ही सही, शौचालय बनवा कर गरीब लोग अगर अपनी गरीबी नहीं छोड़ना चाह रहे हों तो इस में उन की गलती क्या, गलती तो सरकारी योजनाओं की खामियों और पैमाने की है. अभी, खुले में शौच के लिए जाने वालों को जीरो अंक दिया जाता है. जो लोग सामूहिक शौचालय में जाते हैं उन्हें एक या दो अंक पानी मुहैया होने न होने की बिना पर दिए जाते हैं. अब सरकार जबरदस्ती गरीबों को उन के छोटेतंग घरों में शौचालय, जिस की लागत 4-6 हजार रुपए आती है, बनवाने के साथ उन्हें 4 अंक दे कर उन की गरीबी का तमगा छीनना चाह रही है. ऐसा होने से उन से सस्ता राशन, प्रधानमंत्री आवास योजना वगैरा जैसी दर्जनों सहूलियतें छिन जाएंगी. ऐसे में उन का घबराना स्वाभाविक है.

इंटरनेट पर आग लगा रहा है श्रीदेवी की बेटी का ये हॉट वीडियो

मशहूर अदाकारा श्रीदेवी और बोनी कपूर की बेटी जाह्नवी कपूर का सोशल मीडिया पर एक वीडियो खूब वायरल हो रहा है. जाह्नवी कपूर का एक लेटेस्ट वीडियो इन दिनों इंटरनेट पर हंगामा मचा रहा है जिसमें वो अपने बॉयफ्रेंड के साथ दिख रही हैं.

आपको बता दें कि जाह्नवी कपूर ने भले ही कोई बॉलीवुड फिल्म न कि हो, लेकिन उनकी फैन फॉलोविंग किसी बॉलीवुड स्टार से कम नहीं है. जाह्नवी श्रीदेवी की तरह ही बेहद खूबसूरत हैं.

पहले ऐसी खबरें थी जाह्नवी शिखर पहारिया को डेट कर रहीं हैं लेकिन उनके साथ ब्रेक अप हो गया. जाह्नवी अब अक्षत राजन नाम के लड़के को डेट कर रहीं हैं. अक्षत और जाह्नवी की कई तस्वीरें इन्स्टाग्राम पर वायरल हो चुकी हैं. अक्षत को जाह्नवी कपूर के परिवार के साथ भी देखा गया है.

खैर आप देखें श्रीदेवी की बेटी का ये वायरल वीडियो.

वो 7 फिल्में जिसमें अभिनेत्रियों ने सच में किया ‘सेक्स’

अकसर लोग ये मानते हैं कि फिल्मों में जो होता है, वो नकली है. फिर लड़ाई के सीन हों, आंसू बहाने के या फिर सेक्स सीन. सब कैमरे, इफेक्ट्स और मेक-अप के कमाल से हो जाता है. लेकिन सब कुछ नहीं. कुछ ऐसी भी फिल्में हैं जिसमें सच में दो कलाकारों के बीच सेक्स हुआ और उसे शूट किया गया.

1. Love

Love एक फ्रेंच फिल्म है जिसमें कई बोल्ड सीन्स हैं. चौंकाने वाली बात ये है कि इस फिल्म में जितने भी सेक्स सीन्स हैं सब सच में हुए.

2. In The Realm Of Senses

ये एक जापानी आर्ट फिल्म है. फिल्म की कहानी एक साइको किलर पर आधारित है जो अपने पार्टनर के साथ सेक्स करने के बाद गला दबा कर उसकी हत्या कर देता है. इस फिल्म में कई उत्तेजक सीन हैं और सारे असली भी.

3. Shortbus

अमेरिकन कॉमेडी फिल्म में कई कलाकार थे और इस फिल्म को कॉमेडी कहना कुछ हद तक गलत होगा. सेक्स कॉमेडी इस फिल्म के लिए सही शब्द है.

4. Scarlet Diva

इटली की फेमस एक्ट्रेस और फिल्म मेकर Asia Argento की बायोग्राफ़ी पर बनी इस फिल्म में Anna Batista ने प्रमुख किरदार निभाया था.

5. Pink Flamingos

इसके फनी नाम पर मत जाइए. 1972 में बनी इस अमेरिकन फिल्म में इतने बोल्ड सीन्स थे कि उस वक्त इसकी रिलीज पर रोक लगा दी गई थी.

6. Chatrak

ऐसा नहीं है भारत में ऐसे सीन्स नहीं होते. बंगाली फिल्म Chatrak में कई सेक्स सीन हैं. आप ये सुन कर चौंक जाएंगे कि फिल्म की लीड अनुबत्रा बासु ने एक सीन में सच में Oral सेक्स किया है.

7. Gandu

इस फिल्म को सेंसर बोर्ड से हरी झंडी नहीं मिल पाई थी क्‍योंकि फिल्म में कई सेक्स सीन्स थे और अगर फिल्म से उन सीन्स को हटाया जाता तो फिल्म का मतलब खत्म हो रहा था. ये फिल्म रिलीज नहीं हो पाई.

अमेरिका की फर्स्ट लेडीज

दुनिया की आंखें अमेरिका के नए 45वें प्रैसिडैंट डोनाल्ड ट्रंप और फर्स्ट लेडी मेलानिया ट्रंप पर टिकी हैं. भूतपूर्व यूगोस्लाविया में जन्मी 46 वर्षीया मेलानिया ने 2006 में अमेरिकी नागरिकता ग्रहण की. विवाह से पहले वे मौडलिंग करती थीं. वे अपने रईस व आशिकमिजाज पति ट्रंप से 24 वर्ष छोटी हैं. सीक्रेट सर्विस ने मेलानिया ट्रंप को कोड नाम दिया है ‘म्यूज,’ जिस का अर्थ सुबुद्धिदाता. काफी हद तक अक्खड़ स्वभाव के प्रैसिडैंट ट्रंप को ऐसी ही पत्नी चाहिए भी थी.

महिलाओं के प्रति डोनाल्ड ट्रंप के जानेअनजाने अशिष्ट रिमार्क्स को मीडिया खूब उछालता रहा है. मेलानिया ने दबी जबान से उन रिमार्क्स का विरोध किया है और अपेक्षा की है कि भविष्य में वे पति को ऐसी बयानबाजी करने से रोक सकेंगी. तीन बार विवाहित प्रैसिडैंट ट्रंप यों तो अपने बड़े कुनबे को यथासंभव लाइमलाइट में रखते हैं लेकिन उन्हें इस बात का विशेष ध्यान भी रखना होगा कि विशिष्ट दंपती द्वारा औपचारिक स्वागत के समय वे अपनी पत्नी को बगल में ले कर चलेंगे. एक प्रमुख मैगजीन ने ओबामा दंपती द्वारा व्हाइटहाउस में आयोजित स्वागत कार्यक्रम के अवसर पर डोनाल्ड ट्रंप को अकेले आगे बढ़ आते और मेलानिया ट्रंप को कई कदम पीछे छूटते दिखाया भी है.

अपने 11 वर्षीय पुत्र बैरन की शिक्षादीक्षा को समर्पित वर्तमान फर्स्ट लेडी मेलानिया गरमी तक न्यूयौर्क में ही रहेंगी, लेकिन फर्स्ट लेडी की भूमिका निबाहने के लिए व्हाइटहाउस में आती रहेंगी. डोनाल्ड ट्रंप और उन की पूर्व पत्नी इवाना की पुत्री इवांका अपने पति जैरेड कश्नर सहित पिता के बहुत निकट हैं और उन की विश्वासपात्र हैं. जैरेड और इवांका ने वाश्ंिगटन में घर खरीद लिया है और आवश्यकता पड़ने पर वे संभवतया पिता की औफिशियल हौस्टैस का रोल अदा करेंगी. यह असामान्य नहीं. बैचलर 15वें पै्रसिडैंट जेम्स ब्यूकैनन की भतीजी भी हैरियट लेन व्हाइटहाउस में फर्स्ट लेडी के सारे दायित्व पूरे करती थीं.

35वीं फर्स्ट लेडी जैकलीन केनेडी ने पति जौन फिटजेरल्ड केनेडी की प्रैसिडैंसी की शुरुआत में अपने नवजात शिशु पैट्रिक को खो दिया था. जीवनभर वे इस सदमे से पूरी तरह न उबर पाईं. पुत्री कैरोलाइन तथा पुत्र जौन जूनियर के पालनपोषण और व्हाइटहाउस में अपनी गृहस्थी के संचालन में उन्होंने खुद को बिलकुल रमा लिया था. प्रैसिडैंट केनेडी के भाषणों के लिए वे अनेक ऐतिहासिक व साहित्यिक तथ्य जुटाती थीं. जैकलीन केनेडी के अथक प्रयासों से राष्ट्रीय स्तर पर कला व मानविकी के उत्थान के लिए दानकोष की स्थापना हुई. उन का ‘पिल्बौक्स हैट’ लोकप्रिय फैशन प्रतीक था. अभिनेत्री मर्लिन मुनरो के साथ प्रैसिडैंट केनेडी का अफेयर उन दिनों सब की जबान पर था. मर्लिन के अलावा अन्य सुंदरियों के साथ भी उन के अफेयर्स का जिक्र अकसर होता है.

ऐयाशी और रंगीले मिजाज के लिए मशहूर विश्व के सब से बड़े प्राइवेट जहाजी बेड़े के मालिक ग्रीक शिपिंग टायकून ऐरिसटोटल ओनैसिस ऊंचे हलकों में घूमने के शौकीन थे और अपनी दौलत से हाई सोसायटी की महिलाओं को रिझाया करते थे. अमेरिकी फर्स्ट कपल के नजदीक आने की उन की कोशिश से प्रैसिडैंट केनेडी भलीभांति अवगत थे. मशहूर औपेरा सिंगर मारिया कैलस के साथ ओनैसिस की तूफानी मोहब्बत जगजाहिर थी. जौन केनेडी देखते थे कि विधुर ओनैसिस जैकलीन केनेडी को प्रभावित करने की हर संभव कोशिश करते रहते हैं. निजी स्टाफ को उन का आदेश था कि मिसेज केनेडी को ओनैसिस से दूर रखा जाए. पति की असामयिक मृत्यु के कुछ वर्ष बाद जैकलीन केनेडी ने ओनैसिस से विवाह किया जिस के चलते वे न सिर्फ सीक्रेट सर्विस की सुरक्षा से ही वंचित हुईं बल्कि आम जनता ने भी अपनी चहेती फर्स्ट लेडी को दिल से उतार दिया.

ओनैसिस की बेवफाई से दुखी हो कर उन्होंने तलाक ले लिया. उस के बाद वे न्यूयौर्क लौट आईं और जनता ने भी उन्हें फिर दिल से लगा लिया. 1994 में कैंसर से उन की मृत्यु हो गई. केनेडी दंपती के होनहार पुत्र जौन 1999 में अपनी पत्नी सहित हवाई दुर्घटनाग्रस्त हो गए. लेखक, कलाकार और डिजाइनर एडविन श्लौसबर्ग की पत्नी और जौन व जैकलीन केनेडी की एकमात्र वारिस कैरोलाइन 2013 से ले कर 18 जनवरी, 2017 तक जापान में अमेरिकी राजदूत रहीं.

कुछ अन्य फर्स्ट लेडीज ने भी अपने पतियों की आशिकमिजाजी भुगती है: 34वें प्रैसिडैंट ड्वाइट डेविड आयजेन्हौवर की ड्राइवर उन की प्रेमिका रहीं. बिल क्लिंटन के अफेयर्स के कारण उन पर महाभियोग की नौबत आने वाली थी. पत्नी हिलेरी क्लिंटन का सपोर्ट उन्हें महासंकट से उबार सका था. येल यूनिवर्सिटी से डौक्टरेट की डिगरी प्राप्त हिलेरी क्लिंटन बालाधिकार और जनस्वास्थ्य मुद्दों को समर्पित हैं.

36वीं फर्स्ट लेडी क्लौडिया जौनसन सुशिक्षित ही नहीं, कुशल प्रबंधक व चतुर निवेशक भी थीं. अपने पति लिंडन जौनसन की प्रारंभिक राजनीतिक महत्त्वाकांक्षा को बढ़ावा देने के लिए उन्होंने अपना निजी धन लगाया. जिद्दी स्वभाव के प्रैसिडैंट जौनसन संपर्क में आने वाले कई लोगों को नाराज कर देते थे जबकि ‘लेडी बर्ड’ के नाम से लोकप्रिय, व्यवहारकुशल क्लौडिया जौनसन सब की नाराजगी दूर कर देती थीं. प्रैसिडैंट जौनसन से खिन्न एक फोटोग्राफर ने तो यहां तक कहा कि अपनी नाराजगी के बावजूद वह ‘लेडी बर्ड’ के लिए अंगारों पर भी चल लेगा. पत्नियों से बेवफाई करने वाले अन्य प्रैसिडैंट्स से भी आगे प्रैसिडैंट जौनसन ने बजर सिस्टम लगवा रखा था. उन के स्टाफ को मिस्ट्रैसेज की जानकारी गुप्त रखने की हिदायत थी, लेकिन ‘लेडी बर्ड’ उन के ‘हरम’ से भलीभांति अवगत थीं.

29वें प्रैसिडैंट वारेन हार्डिंग की पत्नी फ्लौरेंस ज्यादा सहिष्णु नहीं थीं. एक कोठरी में अपने पति और एक युवती के सैक्स में लिप्त होने की भनक पा कर दरवाजा पीटपीट कर तोड़ डालने पर आमादा फ्लौरेंस को मुश्किल से रोका गया था. 7वें प्रैसिडैंट ऐंड्रू जैकसन दिलफेंक प्रैसिडैंट्स से अलग थे और अफवाहों को काटते थे. अपनी पत्नी रेचल की मर्यादा रक्षा के लिए उन्होंने अनेक द्वंद्व किए और सीने व बांह में गोली भी खाई. अमेरिका में अनेक प्रैसिडैंट्स अपनी पत्नियों को समुचित आदर व मान देते थे. कई फर्स्ट लेडीज पत्नियां प्रशासन से बाहर रह कर भी मानसिक स्वास्थ्य, शिक्षा, साक्षरता, मानवाधिकार और पर्यावरण संरक्षण जैसे गंभीर मुद्दों को आगे बढ़ाती थीं. 39वें प्रैसिडैंट जिमी कार्टर की पत्नी रोजलिन कार्टर को सीक्रेट सर्विस ने कोड नाम दिया था डांसर. व्हाइटहाउस के कुशल संचालन करने के अलावा वे कैबिनेट मीटिंग्स में भी बैठती थीं. वे नीतिगत मामलों में पति की निजी सलाहकार थीं. व्हाइटहाउस की ईस्ट विंग में उन का अपना औफिस था.

32वें राष्ट्रपति फ्रैंकलिन डेलानो रूजवेल्ट की पत्नी ऐन्ना एलिनोर रूजवेल्ट प्रगतिशील विचारों वाली थीं. बहुत लोग उन्हें आज भी आदर्श फर्स्ट लेडी मानते हैं. द्वितीय विश्व युद्ध के बाद संयुक्त राष्ट्र संघ की स्थापना में उन की अहम भूमिका थी. वे संयुक्त राष्ट्र मानवाधिकार आयोग की प्रथम अध्यक्ष थीं. 1933 में उन्होंने विश्व की प्रथम महिला विमानचालक अमीलिया ईयरहार्ट के साथ एक छोटी फ्लाइट ली थी. 41वीं फर्स्ट लेडी बारबरा मानसिक रोगों के निवारण व साक्षरता को समर्पित हैं. 43वें प्रैसीडैंट जौर्ज वौकर बुश की पत्नी लारा बुश टीचर और लाइब्रेरियन रह चुकी हैं और साक्षरता व शिक्षा का प्रबल समर्थन करती रहीं. मिशेल ओबामा से उन की दोस्ती राजनीतिक मतभेदों से परे रही.   

चापलूसी के देवता

कहते हैं आजादी के समय देश में 33 करोड़ देवीदेवता थे और लगभग इतनी ही देश की जनसंख्या थी. आजादी के बाद जनगणना तो हुई मगर देवगणना रुक गई. देवगणना इसलिए रुक गई क्योंकि सभी देवीदेवतागण बिना सिरपैर के थे और मात्र पंडेपुजारियों द्वारा धर्मभीरू जनता को लूटने के लिए बताएसमझाए गए थे.

मगर, इस धर्मभीरू देश में विभिन्न राजनीतिक पार्टियों के कार्यकर्ताओं द्वारा धड़ल्ले से अपने नेताओं को देवता, देवी और दूसरे दल के नेताओं को दानव करार दिया गया. ज्योंज्यों चुनावी खुमार बढ़ता गया त्योंत्यों देवी, देवता और दैत्य बढ़ते गए. देश का सब से बड़ा राज्य उत्तर प्रदेश इस मसले में सब से आगे निकला. सीधी बात है कि पहले अभिनेता अपने ग्लैमर के बूते आसानी से नेता बन जाया करते थे, वहीं अब नेता अपने चापलूस कार्यकर्ताओं के जरिए आसानी से देवी व देवता बन जाते हैं.

राजनीति में हर समय साम, दाम, दंड और भेद से लदे ये नेता अपने को देवता करार दिए जाने वाले छुटभैया नेताओं पर कोई रोकटोक नहीं लगाते हैं और खुद को देवता समझ शान से रहते हैं.

मामला यहीं खत्म नहीं होता है, बल्कि इन नए देवताओं के नाम पर मंदिर बन चुके हैं, चालीसा होती है, आरती होती है, भजन गाए जाते हैं. हालांकि देश का यह रिवाज बहुत ही पुराना है मगर 2014 के संसदीय चुनावों के समय से इस में गति आ चुकी है. इस भेड़चाल में जो कसर रह गई थी, वह मैसेज को इधर से उधर करने वाले व्हाट्सऐप, फेसबुक जैसे सोशल नैटवर्किंग के मैसेंजर्स ने पूरी कर दी है.

चरम पर चापलूसी : भारतीय जनमानस में खुशामद करने के लिए हददरजे की चापलूसी और बिना सिरपैर का पुराणवाद किस तरह से फलफूल रहा है, इस का अंदाजा आप कुछ दिनों पहले उत्तर प्रदेश में छिड़े हाईस्पीड पोस्टर वार से लगा सकते हैं. छुटभैया नेताओं के ऐसा करने पर पार्टियां उन पर कोई कार्यवाही नहीं करती हैं, इसलिए उम्मीद रखिए कि नेता से देवता और डाकू से देवता बना देने की यह गंदी बात भविष्य में भी कायम रहेगी.

कहानी कृष्ण अवतार की : राज्य में भाजपा नेतृत्व ने कुछ महीनों पहले नए प्रदेश अध्यक्ष के रूप में केशव प्रसाद मौर्य की ताजपोशी की. प्रदेश अध्यक्ष के रूप में ताजपोशी होते ही केशव को वाराणसी जाना हुआ, वहां भाजपा के एक कार्यकर्ता द्वारा बड़ा पोस्टर लगाया गया जिस में केशव को सुदर्शनधारी कृष्ण के रूप में दिखाया गया था, उत्तर प्रदेश को द्रौपदी (पौराणिक महाभारत की पात्र) और सभी विपक्षी दलों के नेताओं को द्रौपदी का चीरहरण करते हुए कौरव या दुशासन के तौर पर दिखाया गया था. पोस्टर में सपा सरकार के मंत्री आजम खान, बसपा प्रमुख मायावती, कांग्रेस उपाध्यक्ष राहुल गांधी, मुख्यमंत्री अखिलेश यादव, औल इंडिया मजलिस-ए-इत्तेहादुल मुस्लिमीन (एआईएमआईएम) प्रमुख असदुद्दीन ओवैसी उत्तर प्रदेशरूपी द्रौपदी का चीरहरण कर रहे हैं और वह ‘रक्षमाम केशव:’ का जाप कर रही है.

इस संबंध में पोस्टर लगवाने वाले वाराणसी के स्थानीय भाजपा नेता रूपेश पांडेय ने कुछ इस तरह सफाई दी थी, ‘‘मेरा मानना है कि आज उत्तर प्रदेश का चीरहरण हो रहा है. कांग्रेस की सरकार के दौरान गरीबी, बेरोजगारी बढ़ी. अखिलेश यादव की सरकार के दौरान गुंडाराज बढ़ा और मायावती के राज में भ्रष्टाचार बढ़ा. आजम खान सांप्रदायिकता फैला रहे हैं और ओवैसी राष्ट्रद्रोही बयान देते हैं. ऐसे में भाजपा नेतृत्व ने केशव प्रसाद मौर्य को युद्घभूमि में भेजा है.’’

दूसरा नजारा वाराणसी शहर में ही जेडीयू के राज्यस्तरीय सम्मेलन में देखा गया जिस में बिहार के मुख्यमंत्री नीतीश कुमार को महाभारत के केंद्रीय पात्र अर्जुन के रूप में और शरद यादव को कृष्ण के रूप में दिखाया गया.

इतना सब होने के बाद भला कांग्रेस पार्टी क्यों पीछे रहती. इलाहाबाद में कांग्रेस पार्टी के स्थानीय नेताओं हसीब अहमद, श्रीशचंद्र दुबे और कादिर भाई द्वारा राहुल गांधी के रोड शो ‘किसान यात्रा’ के स्वागत के लिए एक पोस्टर शहर के बीच लगा दिया गया. पोस्टर में राहुल गांधी को युगपुरुष व महाभारत के प्रमुख पात्र अर्जुन के रूप में दिखाया गया.

इसी तरह हाल ही में प्रदेश के मुख्यमंत्री अखिलेश यादव ‘डायल 100’ सेवा शुरू करने के लिए बरेली पहुंचे. राज्य की सरकार के कारागार मंत्री बलवंत सिंह रामूवालिया ने अखिलेश की कुछ इस तरह तारीफ की, ‘‘जिस तरह द्रौपदी ने चीरहरण के समय ‘कृष्ण भइया बचाओ, कृष्ण भइया बचाओ’ की आवाज दी और कृष्ण उन को बचाने दौड़ पड़े, उसी तरह जनता अपनी परेशानी में मन से ‘अखिलेश भइया बचाओ, अखिलेश भइया बचाओ’ की आवाज देगी तो वे वहीं खड़े मिलेंगे.’’

काली और दुर्गा का दंभ : राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ के मुखिया मोहन भागवत के आरक्षण संबंधी बयान के बाद पश्चिमी उत्तर प्रदेश के हाथरस जिले में बहुजन समाज पार्टी के कार्यकर्ताओं ने एक झांकी निकाली जिस में बसपा प्रमुख मायावती को काली के रूप में प्रदर्शित किया गया था. उस झांकी में संघ प्रमुख मोहन भागवत मायावती के पैरों पर लेटे हुए थे. साथ ही, प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी मायावती के सामने हाथजोड़े खड़े थे. पोस्टर में लिखा गया था, ‘बहिनजी, हमें माफ करो, हम आरक्षण बंद नहीं करेंगे. यही नहीं, इस पोस्टर में मायावती को तत्कालीन मानव संसाधन मंत्री स्मृति ईरानी का कटा हुआ सिर थामे दिखाया गया.

इलाहाबाद में इलाहाबाद विश्वविद्यालय के छात्र नेता अनुराग शुक्ला द्वारा लगवाया गया पोस्टर दुर्गा का दंभ भरता नजर आया. पोस्टर में बसपा प्रमुख मायावती के खिलाफ विवादित बयान दे कर चर्चा में आए उत्तर प्रदेश के पूर्व भाजपा उपाध्यक्ष दयाशंकर सिंह की पत्नी स्वाति सिंह को दुर्गा जबकि मायावती को शूर्पणखा के रूप में दिखाया गया. इतना ही नहीं, उत्तर प्रदेश के भाजपा अध्यक्ष केशव प्रसाद मौर्य को भगवान राम और दयाशंकर सिंह को लक्ष्मण के रूप में दिखाया गया. पोस्टर में पूर्व बसपा नेता स्वामी प्रसाद मौर्य को विभीषण, बसपा नेताओं सतीश चंद्र मिश्र और नसीमुद्दीन सिद्दीकी को क्रमश: मारीच व रावण के तौर पर दिखाया गया.

रामायण राग : दंगाभड़काऊ भाषण के आरोपों से घिरे गोरखपुर से भारतीय जनता पार्टी के सांसद महंत योगी आदित्यनाथ के 44वें जन्मदिन पर वहां की भाजपा अल्पसंख्यक मोरचा इकाई द्वारा लगवाया गया पोस्टर भी चापलूसी की चरमसीमा को पार करते दिखा. पोस्टर में योगी को रामरूपी अवतार में पेश किया गया. सपा, बसपा, कांग्रेस, आम आदमी पार्टी व ओवैसी की पार्टी एआईएमआईएम समेत बाकी सभी पार्टियों को रावण के रूप में दिखाया गया. पोस्टर में लिखा गया कि उत्तर प्रदेश के राम 2017 में रावण को पराजित करेंगे. दरअसल, यह योगी समर्थकों की उन को मुख्यमंत्री पद के लिए प्रोजैक्ट करने की चापलूसी थी.

डाकू देवता : उत्तर प्रदेश में नेतागण अपने राजनीतिक स्वार्थ के लिए डाकुओं को भी देवता करार दे कर पूजा करवा सकते हैं. इस का ताजा उदाहरण पिछले दिनों देखने को तब मिला जब सपा विधायक द्वारा मरहूम डकैत ददुआ की पत्नी सहित मूर्ति लगवाई गई.

बता दें कि शिवकुमार पटेल उर्फ ददुआ वही डाकू था जिस के नाम पर कभी उत्तर प्रदेश, मध्य प्रदेश और छत्तीसगढ़ तीनों राज्यों के लोग थरथर कांपते थे. 2007 में राज्य की स्पैशल टास्क फोर्स द्वारा मार गिराए गए दुर्दांत ददुआ के सिर पर 7 लाख रुपए का इनाम सरकार ने घोषित कर रखा था. उस के खिलाफ अकेले उत्तर प्रदेश में विभिन्न मामलों के 241 मुकदमे दर्ज थे.

ददुआ की मूर्ति फतेहपुर जिले के धाता तहसील के अंतर्गत नरसिंहपुर कबरहा

गांव में लगाई गई. राजनीतिक संरक्षण के फलस्वरूप उस के जीजा, भाई और बेटा विधायक से ले कर सांसद तक बन चुके हैं. वर्तमान में उस का लड़का वीर सिंह पटेल सपा से विधायक हैं.

संभवतया समाजवादी पार्टी से खुला संरक्षण मिलने के कारण ही मूर्ति अनावरण के समय प्रदेश के तत्कालीन लोक निर्माण मंत्री शिवपाल सिंह यादव के भी आने की चर्चा गरम थी. कहते हैं कि मूर्ति अनावरण के इस कार्यक्रम में दलीय भिन्नता भुला कर कई कद्दावर सांसद व विधायक शरीक हुए. दावा था कि 251 क्विंटल अन्न का भंडार किया गया था, जिस में उत्तर प्रदेश, मध्य प्रदेश के करीब 1 लाख लोगों ने ददुआ देवता के पूजन का प्रसाद भी चखा. इस से पहले दस्यु सरगना मोहर सिंह की मूर्ति आगरा में स्थापित की जा चुकी है.

इसी क्रम में फतेहपुर जिले के जहानाबाद विधानसभा क्षेत्र से बसपा के पूर्व विधायक आदित्य पांडेय, 90 के दशक में पूर्वांचल और बिहार में आतंक के पर्याय रहे सुपारीकिलर श्रीप्रकाश शुक्ला की मूर्ति फतेहपुर की बिंदकी तहसील के अंतर्गत कौंह गांव में स्थित परशुराम मंदिर में लगवाए जाने की घोषणा कर सुर्खियों में है.

श्रीप्रकाश शुक्ला ने वर्ष 1998 में पटना स्थित इंदिरा गांधी अस्पताल के बाहर बिहार सरकार के तत्कालीन मंत्री बृज बिहारी प्रसाद को गोलियों से छलनी कर मौत के घाट उतार दिया था. बाद में उत्तर प्रदेश के पूर्व मुख्यमंत्री कल्याण सिंह को मारने की सुपारी लेने की सुरागकशी पर सूबे के एसटीएफ द्वारा उसे मार गिराया गया था.

इसी तरह कभी 90 के दशक में उत्तर प्रदेश व मध्य प्रदेश में चंबल के बीहड़ों में आतंक का पर्याय रहे दस्यु सरगना निर्भय गुज्जर की मूर्ति लगवाने की घोषणा गुज्जर के चचेरे भाई सरन सिंह गुज्जर ने कर दी है. मूर्ति स्थापित करने की यह योजना इटावा जनपद के बिठौली इलाके में जाहरपुर गांव के काली मंदिर में की गई है. हालांकि 6-7 वर्ष पहले ही निर्भय गुज्जर की मूर्ति लगवाने की योजना बनाई गई थी मगर तत्कालीन शासन, प्रशासन की मंजूरी न मिल पाने के कारण यह काम लटक गया था. बता दें कि निर्भय गुज्जर के खिलाफ 250 से अधिक संगीन मामलों में अनेक मुकदमें दर्ज थे. साल 2008 में पुलिस मुठभेड़ में हुई मौत से पहले उत्तर प्रदेश और मध्य प्रदेश पुलिस द्वारा निर्भय गुज्जर के सिर पर 2.5 लाख रुपए का इनाम घोषित था.

चापलूसी की चालीसा : इस से पहले देश, विदेश में लालू चालीसा खूब सुर्खियां बटोर चुका है. मगर अब प्रधानमंत्री के चालपूस टाइप के भक्त उन के नाम पर मोदी चालीसा धड़ल्ले से लिखने और पढ़ने लगे हैं. यही नहीं, चालीसा और आरती को पढ़ने के माकूल ठिकाने के लिए मंदिर भी बना डाले गए हैं.

देश के अलगअलग हिस्सों में मंदिर बनाए जाने की खबरें आ चुकी हैं. गुजरात के राजकोट, उत्तर प्रदेश के भगवानपुर (कौशाम्बी) और इलाहाबाद के जलालपुर गांव में मोदी के नाम पर बनाए गए मंदिर पर खुद प्रधानमंत्री कड़ा एतराज जता चुके हैं. मंदिर बनाए जाने के मुद्दे पर प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी कुछ इस तरह ट्वीट कर चुके हैं- ‘‘किसी इंसान का मंदिर बनाना हमारी सभ्यता नहीं है. मंदिर बनाने से मुझे दुख हुआ है. मैं लोगों से ऐसा नहीं करने की अपील करता हूं.’’ फिर भी भक्त हैं कि मानने को तैयार नहीं. वे तो, बस, देवता बनाने पर तुले हैं.

दागदार हैं देवता : जिन छुटभैया नेताओं ने अपने आकाओं को देवता या देवी करार दिया है, वे दागदार भी हैं. केशव प्रसाद मौर्य के लोकसभा चुनाव के समय चुनाव आयोग को दिए हलफनामे के अनुसार, उन पर धारा 302, धारा 153, धारा 420 समेत 10 विभिन्न गंभीर आरोप दर्ज हैं. इसी तरह बसपा मुखिया मायावती भी ताज हैरिटेज कौरिडोर समेत अन्य कई मामलों में दागी हैं. जबकि दुर्गा करार दिए जाने वाली स्वाती सिंह के पति दयाशंकर सिंह मायावती के खिलाफ विवादित बयान दे कर फंस चुके हैं.

पल्ला झाड़ती पार्टियां : जिन पार्टी के नेताओं को देवी या देवता करार दिया गया है उन में से सभी पार्टियों ने अपने को किनारे करते हुए मामले से पल्ला झाड़ लिया है. भाजपा के कार्यकर्ताओं द्वारा इस तरह के सब से ज्यादा पोस्टर लगवाए जाने पर प्रदेश भाजपा नेता दिनेश शर्मा ने कहा कि लगवाए जाने वाले पोस्टरों से पार्टी का कोई नाता नहीं है, अति उत्साहित कार्यकर्ता ऐसा कर बैठते हैं. जबकि भाजपा प्रदेश अध्यक्ष केशव प्रसाद मौर्य ने कहा कि कृष्ण संबंधी पोस्टर से मेरा कोई लेनादेना नहीं है. कांग्रेसी कार्यकर्ताओं द्वारा राहुल गांधी को कृष्ण का अवतार बताने वाले मसले पर प्रदेश कांग्रेस महासचिव मुकुंद तिवारी ने कहा कि ऐसे पोस्टर लगाने वाले पार्टी के जिम्मेदार नेता नहीं हैं.  

कैसे लगेगी रोक?

डा. इंदु प्रकाश सिंह, सहायक प्रोफैसर, दर्शनशास्त्र व संबंद्घ अधिकारी, उच्च शिक्षा निदेशालय, उत्तर प्रदेश के नजरिए से सब से अहम बात ईश्वर का कोई रूप नहीं है. दूसरी बात, ईश्वर किसी भी राग, द्वेष, ईर्ष्या समेत अनेक मानवसुलभ दुर्गुणों से रहित माना गया है. आज के मानव का तो ऐसा बिलकुल नहीं है. ऐसे में भला कौन सा नेता देवतातुल्य हो सकता है. पौराणिक ग्रंथों के हवाले से भी कंस, रावण में जब मानवसुलभ दुर्गुण बढ़ गए तो वे राक्षस माने गए. डाकुओं और नेताओं को देवता करार दिए जाने का प्रकरण हिंदुओं की आस्था पर गहरी चोट जैसा है. इस प्रकार के पोस्टर और मंदिरों से बचने के लिए हिंदू समाज के बुद्घिजीवी वर्ग को उच्च न्यायालय जनहित याचिका जरूर दायर करनी चाहिए.’’

मुकुंद तिवारी, महासचिव, उत्तर प्रदेश कांग्रेस कमेटी, कहते हैं, ‘‘धर्म को कभी भी राजनीति से नहीं जोड़ना चाहिए. यह बिलकुल गलत और आस्था के साथ खुला खिलवाड़ है. इस मसले पर जनता को माफ नहीं करना चाहिए. बीजेपी तो हमेशा धार्मिक उन्माद भड़काने व धर्म के सहारे सत्ता में बरकरार रहना चाहती है.’’

पल्लवी सिंह चंदेल, सामाजिक कार्यकर्ता कहती हैं, ‘‘किसी भी पार्टी के कार्यकर्ताओं को अपने नेताओं को खुश करने के बजाय शहर या कसबे के विकास के एजेंडे को पोस्टर में दिखा कर नेताओं उसे पूरा करवाने की पुरजोर कोशिश करनी चाहिए. आजकल के नेताओं में नैतिक मूल्य जैसी बुनियादी बातें दूर हो चुकी हैं, इसलिए किसी भी नेता की तुलना किसी देवीदेवता से करना अनुचित होगा. इसी तरह व्यंग्यात्मक टिप्पणी के लिए धार्मिक पात्रों का सहारा लेना समाज के लिए शर्मनाक है.’’

जीवन की मुसकान

मैं ताम्बरम एयरफोर्स बेस स्टेशन पर विशेष प्रशिक्षण कोर्स में था. उस दिन सैनिक अस्पताल, चेन्नई में मेरे बेटे का जन्म हुआ था. सोचा, अस्पताल का एक चक्कर लगा आते हैं. पास के ही एक कमरे में कुछ लड़कियां थीं. मैं कमरे में चला गया और बोला, ‘‘हैलो गर्ल्स, आई एम फ्लाइट लैफ्टिनैंट अमित श्रीवास्तव, और आप लोग?’’

वे बोलीं, ‘‘सर, हम लोग सीडीएस के जरिए आ कर आर्मी आफिसर्स ट्रेनिंग सैंटर पर ट्रेनिंग के दौरान फिजिकल ट्रेनिंग में घायल हो कर यहां आए हैं.’’ वहीं अलग बैड पर उदास बैठी  लड़की के पास जा कर मैं ने पूछा, ‘‘यह गुडि़या, यहां अकेले उदास सी क्यों है?’’ वह लड़की मानो रोते हुए धीरे से बोली, ‘‘सर, मैं गरिमा हूं. मेरे पांवों में तेज मोच आ गई है. आज मेरा बर्थडे है. घर का कोई सदस्य पास नहीं.’’ मैं ने कहा, ‘‘उदास नहीं होते, तुम्हारी सहेलियां हैं न.’’ और मैं वहां से चला गया.

बाजार से बर्थडे का सारा सामान ले कर अस्पताल के उस कमरे में एक घंटे बाद घुसा, ‘‘कम औन, गर्ल्स, लेट अस सैलिब्रेट गरिमाज बर्थडे’’ और मैं ने मेज पर बर्थडे केक, मोमबत्तियां, कुछ रसगुल्ले सजा दिए, और गुब्बारे लड़कियों को लगाने के लिए दे दिए. मोमबत्ती जला कर गरिमा को साथ ले कर आया. गरिमा की आंखों में कृतज्ञता और खुशी के आंसू थे. मोमबत्ती बुझा कर, उस से केक कटवाया और ‘हैप्पी बर्थडे, हैप्पी बर्थडे टू गरिमा’ की आवाज से कमरा गूंज उठा.     

अमित श्रीवास्तव

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मैं सुबह जब जागी तो पूरे महल्ले में कुहराम मचा हुआ था. कारण था कि मोदी सरकार ने अकस्मात 1,000 रुपए का नोट व 500 रुपए का नोट निष्क्रिय कर दिए थे. इसी दिन महल्ले के एक व्यक्ति की मृत्यु भी हो गई और घर में अर्थी उठाने के लिए भी पर्याप्त पैसे न थे. परेशानी इसलिए अधिक थी क्योंकि महल्ले में नियम निर्धारित है कि जब कोई मरेगा तो उस की अर्थी कच्चे बांस से, डोम के हाथों बनवाई जाएगी, फिर उस के पार्थिव शरीर को श्मसान घाट ले जाया जाएगा. डोम बांस की अर्थी बनाने के लिए 12 सौ रुपए मांगने लगे. महल्ले के लोगों ने आपस में विचारविमर्श किया, फिर निश्चय हुआ कि जिस खटिए पर बौडी रखी गई है, उसी पर श्मसान घाट तक ले जाया जाए. अंत्येष्टि के लिए रुपए एकत्रित कर लिए. इस तरह रुढि़वादी परंपरा भी टूट गई.     

प्रेमशीला गुप्ता

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