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मेरे काले होंठ हैं. मैं चाहती हूं कि मेरे होंठ गुलाबी हो जाएं. कोई उपाय बताएं.

सवाल
मैं 23 वर्षीय युवती हूं. मेरी समस्या मेरे काले होंठ हैं, जिन पर कोई भी लिपस्टिक सूट नहीं करती. मैं चाहती हूं कि मेरे होंठ प्राकृतिक रूप से गुलाबी हो जाएं. उपाय बताएं?

जवाब
होंठों का कालापन दूर करने के लिए गुलाब की पंखुडि़यों को पीस कर उस में थोड़ी सी ग्लिसरीन मिला कर इस लेप को रोजाना अपने होंठों पर लगाएं. होंठ गुलाबी हो जाएंगे. इस के अतिरिक्त दही के मक्खन में केसर मिला कर होंठों पर लगाने से भी लाभ होगा.

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क्या आप भी चाहती हैं पिंक लिप्स?

होंठों को खूबसूरत बनाने के लिए आप क्‍या नहीं करतीं. लिपस्टिक, लिप बाम, मॉइश्‍चराइजर और ना जाने क्‍या-क्‍या लगाती है. लेकिन होंठो पर लगाये जाने वाले ऐसे कई प्रोडक्ट होते हैं जो कुछ समय बाद होठों को नुकसान पहुंचा सकते हैं. आपकी एक मुस्कान आपके चेहरे की खूबसूरती और बढ़ा देता है और स्माइल पिंक लिप्स से हो तो फिर बात ही क्या है.

गुलाबी होंठ किसी भी चेहरे की खूबसूरती को कई गुना बड़ा देते हैं. वहीं होंठ काले होने पर बहुत आकर्षक चेहरा भी ज्यादा सुंदर नहीं लगता. महिलाएं अपने होंठों के रंग को लेकर पुरुषों से ज्यादा सोचती हैं. अगर आप चाहते हैं कि आपकी लिप्स गुलाब की पंखुडियों की तरह गुलाबी हों तो इन बातों का रखें ध्यान.

होंठों की हटाएं डेड स्किन

होंठों का काला होना डेड स्किन के कारण भी हो सकता है. इससे बचने के लिए रोज सुबह ब्रश करते समय अपने होंठों को हल्के हाथों से रगड़ं. जिससे कि इसकी डेड स्किन निकल जाएं और होंठ पिंक हो जाएं. दरअसल डेड स्किन के कारण लिप्स पर ड्राइनेस हो जाती है जिससे वे खराब दिखते हैं.

मॉइश्चराइज करें

हमारे होंठों को नमी की जरुरत होती है. ड्राई और रूखे लिप्स कालेपन के शिकार हो जाते हैं, इसलिए लिप्स को मॉइश्चराइज रखें. इसके लिए लिप्स पर लिप बाम लगाएं जिससे कि आपके होंठों को मॉइश्चर बना रहें. और आपको लिप्स पिंक रहें.

अपने लिप्स में बार-बार जीभ न लगाएं

कई लोगों की आदतें होती हैं कि वह अपने होंठों पर बार-बार जीभ लगाती है. लेकिन आपको पता है कि आपके होंठों का काले होने का कारण एक ये भी हो सकता है. इसलिए आपको अपनी इस आदत को छोड़ना होगा. माना जाता है. बार-बार जीभ फेरने से आपकी होंठों की रंगत चली जाती है. जिससे आपके होंठों में कालापन बढ़ जाता है.

सनब्लॉक का करें यूज

सूर्य की पराबैंगनी किरणें सिर्फ आपकी स्किन को ही नुकसान नहीं पंहुचाती है, बल्कि आपको होंठों को भी नुकसान पंहुचाता है. इसके कारण आपको होंठ रुखे होने के साथ-साथ काले भी हो जाते है और फटने भी लगते है. अत: इससे बचने के लिए अपने लिप्स पर भी सनब्लॉक लगाएं. सनब्लॉक से सूरज की यूवी किरणों का होंठो पर कम असर पड़ेगा.

गुलाबी होंठ उड़ा दें होश

चेहरे की सुंदरता में होंठों का महत्त्वपूर्ण योगदान होता है. होंठों की खूबसूरती को बढ़ा कर अपने व्यक्तित्व को आप और ज्यादा आकर्षक बना सकती हैं. प्राकृतिक तौर पर किसी के होंठ पतले होते हैं, तो किसी के मोटे, किसी का चेहरा भराभरा होता है, तो उस के होंठ चेहरे के अनुपात में काफी पतले होते हैं. इन कमियों को आप लिपस्टिक के जरीए दूर कर सकती हैं. लेकिन इस के लिए आप को लिपस्टिक के रंगों का चयन अपने व्यक्तित्व के हिसाब से करना आना जरूरी है.

लिपस्टिक के रंग का चुनाव चेहरे और होंठों की बनावट, शरीर और केशों का रंग, उम्र और किस तरह की ड्रैस आप पहन रही हैं, यह देख कर करना चाहिए. अगर आप को लिपस्टिक चुनने की समझ और उसे लगाने के तौरतरीकों के बारे में जानकारी नहीं है, तो लेने के देने पड़ सकते हैं. तब यह आप की सुंदरता को बढ़ाने के बजाय बिगाड़ भी सकती है. जब आप को लिपस्टिक लगानी हो तो उस से कुछ देर पहले थोड़ी सी रुई पर क्लींजिंग मिल्क लगा उस से होंठों को साफ करें. इस के बाद होंठों की आउटलाइन बना कर लिपस्टिक लगाएं.

अगर आप के होंठ पतले हैं और उन्हें सुडौल दिखाना है, तो उन्हें बाहर की तरफ से आउटलाइन करें और अगर आप के लिप्स मोटे हैं, तो अंदर की तरफ से लाइन खींचें. लिपस्टिक लिपब्रश से लगाना ही बेहतर रहता है, क्योंकि इस से उस के फैलने का डर नहीं रहता है और लिपस्टिक लगती भी एकसार है.

होंठों की सुंदरता

लिपस्टिक की मदद से न सिर्फ होंठों की सुंदरता बढ़ाई जा सकती है, बल्कि इस से होंठों को मनपसंद आकार भी दिया जा सकता है. चेहरा छोटा होने पर ऊपर के होंठ पर गहरे रंग की लिपस्टिक तथा नीचे के होंठ पर थोड़े हलके रंग की लिपस्टिक लगानी चाहिए. इसी तरह चेहरा बड़ा होने पर ऊपर के होंठ पर हलके रंग की तथा निचले होंठ पर थोड़ी गहरी लिपस्टिक लगानी चाहिए. हलके और गहरे रंग की लिपस्टिक एकसाथ लगाने से भी चेहरे पर निखार आ जाता है.

होंठों पर हलके रंग की लिपस्टिक लगा कर अतिरिक्त लिपस्टिक को टिशू पेपर से छुड़ा लें और फिर गहरे रंग की लिपस्टिक लगाने के बाद होंठों पर थोड़ी सी वैसलीन या लिपग्लौस लगा लेने से होंठों में चमक आ जाती है. इस के अलावा अगर आप रोजाना लिपस्टिक का इस्तेमाल करती हैं, तो रात को सोने से पहले होंठों पर वैसलीन लगाना न भूलें. इस के बाद सुबह उठने के बाद नियमित रूप से होंठों को अच्छी तरह साफ कर उन की घी, मलाई या जैतून के तेल से मालिश करें.

लिपस्टिक का प्रयोग अवसर के अनुसार करना चाहिए. अगर आप औफिस जा रही हैं, तो हलके रंग की लिपस्टिक तथा किसी पार्टी में जाना हो तो गहरे रंग की लिपस्टिक का प्रयोग करें. दिन के बजाय रात में गहरे रंग की लिपस्टिक अधिक अच्छी लगती है. लेकिन अधिक गहरे रंग की लिपस्टिक लगाने से पूर्व अपनी उम्र को भी ध्यान में रखना चाहिए. गहरे रंग की लिपस्टिक एक उम्र के बाद अच्छी नहीं लगती. इस के चुनाव में पहले परिधान पर भी ध्यान दें.

लिपस्टिक हमेशा अच्छे ब्रैंड की ही इस्तेमाल करें. सौंदर्य विशेषज्ञ पी.के. तलवार कहते हैं कि सस्ते ब्रैंड की लिपस्टिक से होंठ खराब हो जाते हैं. उन पर काले निशान पड़ जाते हैं और वे अपनी प्राकृतिक रंगत खो देते हैं. इस के अलावा रात को सोने से पहले लिपस्टिक को उतारना न भूलें. इस के लिए रुई में थोड़ा सा क्लींजिंग मिल्क लगा कर उस से होंठों को धीरेधीरे साफ करें. फिर थोड़ी सी मलाई में नीबू का रस मिला कर होंठों की धीमेधीमे मालिश करें.

VIDEO : आप भी बना सकती हैं अपने होठों को ज्यूसी

ऐसे ही वीडियो देखने के लिए यहां क्लिक कर SUBSCRIBE करें गृहशोभा का YouTube चैनल.

मेरी समस्या यह है कि मेरे चेहरे पर मुंहासे होते हैं और बाद में निशान रह जाते हैं.

सवाल

मैं 23 वर्षीय युवती हूं. मेरी समस्या यह है कि मेरे चेहरे पर मुंहासे होते हैं और बाद में उन के निशान रह जाते हैं, जिस से चेहरा बहुत भद्दा दिखता है. मैं ने बहुत कुछ ट्राई किया पर कोई फायदा नहीं हुआ. उलटे चेहरा सांवला दिखने लगा है. कृपया कोई घरेलू उपाय बताएं?

जवाब

मुंहासों के बाद चेहरे पर उन के दाग रह जाना एक आम समस्या है. दागों से छुटकारा पाने के लिए खीरे के रस में मिल्क पाउडर और मुलतानी मिट्टी मिला कर मुंहासों के निशानों पर लगाएं. सूखने पर पानी से धो लें. नियमित ऐसा करने से मुंहासों के दाग धीरेधीरे हलके पड़ जाएंगे.

 

अगर आप भी इस समस्या पर अपने सुझाव देना चाहते हैं, तो नीचे दिए गए कमेंट बॉक्स में जाकर कमेंट करें और अपनी राय हमारे पाठकों तक पहुंचाएं.

मैं जानना चाहती हूं कि डेली क्लींजिंग करने से कोई साइड इफैक्ट तो नहीं होगा.

सवाल

मैं स्कूल में पढ़ने वाली छात्रा हूं. मैं ने समाचारपत्रपत्रिकाओं में पढ़ा है कि त्वचा की खूबसूरती बनाए रखने के लिए उस की नियमित क्लींजिंग करनी चाहिए. मैं जानना चाहती हूं कि क्या नियमित क्लींजिंग करने से कोई साइड इफैक्ट तो नहीं होगा? साथ ही यह भी बताएं कि अगर रोजाना क्लींजिंग करनी हो तो किस चीज से करें?

जवाब

त्वचा की खूबसूरती बनाए रखने के लिए रोजाना क्लींजिंग करनी चाहिए, खासकर सोने से पहले अवश्य करनी चाहिए. आप चाहें तो माइल्ड फेसवाश या कच्चे दूध में नीबू का रस मिला कर उस से भी क्लींजिंग कर सकती हैं. इस का कोई साइड इफैक्ट नहीं होता. अगर आप की त्वचा रूखी है तो आप गुलाबजल से भी क्लींजिंग कर सकती हैं.

 

अगर आप भी इस समस्या पर अपने सुझाव देना चाहते हैं, तो नीचे दिए गए कमेंट बॉक्स में जाकर कमेंट करें और अपनी राय हमारे पाठकों तक पहुंचाएं.

सुपरपावर के मुगालते में खोया देश

देशभक्ति और अंधभक्ति में फर्क होता है. हम सुपरपावर के असली माने अपनी छाती फुलाने, दूसरे देशों से लड़ने व अपनी कमजोरियों पर आंख बंद करने को मानेंगे तो कभी भी सुपरपावर नहीं बन सकेंगे. जब तक अपनी कमजोरियों को उजागर करने व उस पर मंथन करने की कोशिश को देशद्रोह, धर्मद्रोह का जामा पहनाया जाता रहेगा तब तक हम कमजोर ही रहेंगे. हम में कूवत है एक विकसित देश बनने की, बशर्ते हम देशभक्ति व अंधभक्ति में फर्क समझें और कट्टरता से नजात पाएं. हमारा देश 1 अरब से भी ज्यादा आबादी और कृषियोग्य उपजाऊ भूमि से संपन्न है जो किसी भी देश की आर्थिक रीढ़ को मजबूत करने के लिए काफी है. हमारे यहां मेहनत, रोजगार, वैचारिक व तकनीकी स्तर पर तेज दिमाग के लोगों व साधनों की कमी नहीं है. ये सब अगर सही दिशा में काम करें तो हमारा देश यकीनन सुपरपावर बन सकता है.

खोखले और जंग लगे हथियारों के बलबूते विश्व विजेता बनने का दावा कर के हम बातबात पर पाकिस्तान पर गुर्राकर खुद को भले ही सुपरपावर मानने की गलतफहमी में खोए रहते हों, जबकि सचाई यह है कि भारत विकासशील देशों की कतार में काफी पीछे है. देश आज भी हथियारों का खुद निर्माण करने की क्षमता विकसित नहीं कर पाया है. विदेशों में काम कर रहे देश के मजदूरों से मिली विदेशी मुद्रा से विदेशी व औसत दरजे के हथियार खरीद कर देश की सैन्य, शस्त्र शक्ति का प्रदर्शन न कर और चीन, पाक, नेपाल व अन्य पड़ोसी देशों पर गुर्राने के बजाय मिल कर चलने की मानसिकता पैदा करनी होगी. सिर्फ धार्मिक कट्टरता और विश्वगुरुपन के वहम के चलते अपने से छोटों पर दावे करना बुद्धिमानी नहीं है. धर्म व पार्टी का झंडा उठाए एक छुटभैया नेता ने हाल ही में अपनी मंडली से पाकिस्तानी कलाकारों के भारत आने से रोकने के लिए अजीबोगरीब व बचकाना तर्क देते हुए कहा था, ‘‘पाकिस्तान से आने वाले अभिनेता व गायक भारत में आ कर काम करते हैं और यहां से कमाई कर उस पैसे से कुछ पैसा बतौर टैक्स पाकिस्तान सरकार को देते हैं. टैक्स के इन्हीं पैसों से वहां हथियार खरीदे जाते हैं और फिर उन्हीं हथियारों से हमारे देश में आतंकवादी घटनाओं को अंजाम दिया जाता है.’’ उस ने आगे कहा, ‘‘भारत जब चाहे पाकिस्तान को एक मिसाइल के जरिए दुनिया के नक्शे से हटा सकता है.’’

सूडो पैट्रियाटिज्म यानी छद्म देशभक्ति से पीडि़त ऐसे ही कई छुटभैए नेता टाइप तत्त्व देशभर में भरे पड़े हैं जिन्हें यह नहीं पता कि भारत व पाकिस्तान का कारोबारी रिश्ता इस तरह का है कि आयातनिर्यात के मसले में भारत ही ज्यादा कमाई करता है पाकिस्तान से. और जो मामूली कमाई पाकिस्तानी कलाकार भारत से ले कर जाते हैं, उस से जिस तरह के मामूली हथियार खरीदे जा सकते हैं, उन से कई गुना बेहतर हथियार पाकिस्तानी आतंकियों के पास हमेशा से ही रहे हैं. यही वजह है कि 26/11 से ले कर पठानकोट की वारदातों समेत सीमा पर मामूली झड़पों में 2-4 आतंकी सैकड़ों सैनिकों को नाकों चने चबवा देते हैं. इसलिए कि उन के पास हम से ज्यादा उन्नत हथियार और जज्बा होता है. हमारे पास घोटालों की स्याही में सने सड़ेगले रूसी हथियार हैं जबकि वहां काले बाजार से खरीदे हाईटैक वैपन हैं. इस पर भी हम खुद को सुपरपावर देश समझने की गलती करते हैं.

सुपरपावर का मुगालता

प्रधानमंत्री मोदी की विदेशी यात्राओं के दौरान जबरन डाली गई गलबहियों के आधार पर सैन्य, शस्त्र व मिलिट्री मोरचे पर भी हम ने खुद को सुपरपावर होने का मुगालता पाल लिया है. वायुसेना के बेड़े में लड़ाकू विमानों-सुखोई, मिराज, मिग-29, मिग-27, मिग-21, जगुआर व सुपरसोनिक क्रूज मिसाइल मसलन, ब्रह्मोस, अग्नि, पृथ्वी, आकाश और नाग का हवाला दे कर अपने को शक्तिशाली समझने लगे हैं. इन शस्त्रों की सुपरपावर देशों के हथियारों से तुलना करने की भी आवश्यकता है. नेवी के क्षेत्र में भारत आईएनएस विक्रमादित्य को इंडियन नेवी का प्राइड मानता है. 40 हजार टन की क्षमता वाले इस एअरक्राफ्ट कैरियर में 30 एअरक्राफ्ट्स आसानी से आ जाते हैं. पर इसे बहुत उम्दा क्षमता का जलपोत न मानें क्योंकि आप अमेरिका के यूएसएस अब्राहम लिंकन सुपरकैरियर के बारे में कुछ भी नहीं जानते. इस अमेरिकी सुपर कैरियर की क्षमता 1 लाख 10 हजार टन है और इस में आसानी से 100 एअरक्राफ्ट्स समा जाते हैं. हमारा आईएनएस इस से बहुत हलका है. अमेरिका के पास इस तरह के 1-2 नहीं, 11 सुपर कैरियर्स हैं.

हम खरीदे गए मिराज 2000 को बहुत जबरदस्त बमवर्षक मानते हैं तो जरा फिर से सोचिए, क्योंकि अमेरिका के खुद के डिजाइन किए व बनाए गए बी-2 स्पिरिट स्टील्थ बमवर्षक की क्षमता इस से कई गुना ज्यादा है. यह इतना महंगा है कि अमेरिका ने भी 20 यूनिट बनाने के बाद इस का प्र्रोडक्शन बंद कर दिया. रही बात सुखोई की, तो 3 सुखोई मिल कर जो काम करते हैं वही काम अमेरिका का एफ-22 रैप्टर अकेले ही निबटा डालता है. यह तो रडार पर आने से पहले ही किसी लड़ाकू विमान या मिसाइल को मार गिरा सकता है. 3 सुखोई की कीमत के बराबर इस रैप्टर की अमेरिका के पास करीब 200 यूनिट हैं. अमेरिकी शस्त्र क्षमता के मुकाबले भारत तो कहीं है ही नहीं. रूस, चीन, जापान, जरमनी व इंगलैंड भी भारत को पीछे छोड़ देते हैं. हथियारों के मामले में भारत से कई देश तकनीकी तौर पर कहीं आगे हैं. जब विश्व रूस को सुपरपावर नहीं मानता तो भारत, जो रूस के जंग लगे हथियारों को खरीद कर उन पर पैसा बरबाद करने में माहिर है, सुपरपावर होने का क्यों मुगालता पालता है?

तकनीकी तौर पर पिछड़े

देशप्रेम की उन्मादी भावना से इतर सोचें, हम 5वीं जैनरेशन के फाइटर्स प्लेन बनाने की योजना ही बना रहे हैं जबकि अमेरिका छठी जैनरेशन के प्लेन एसैंबल कर रहा है. हम 3 एअरक्राफ्ट कैरियर बना कर खुश हो जाते हैं, अमेरिका में 11 सुपर कैरियर्स के फ्लीट बन चुके हैं. यूएसएफ यानी यूनाइटेड स्टेट्स एअर फोर्स के बाद सब से ताकतवर एअरफोर्स यूएस नेवी ही है. फिर रूस, ब्रिटिश, चीन, जापान, जरमनी आते हैं. यहां भारत का तो नामोनिशान नहीं दिखता. सुपरपावर देश भारत को सैन्य शक्ति की श्रेणी में काफी हलका  मानते हैं. भारत को तो शांति प्रयासों के लिए भी कहीं नहीं बुलाया जाता. हां, अगर कहीं जवानों को मरवाना हो तो भारतीय सैनिकों को बुला लिया जाता है.

उच्चवर्ग और अमीर तबका

टीवी पर देश की सुरक्षा को ले कर विशेषज्ञ बन कर आलोचना करने वाले हों या देश की सुरक्षा पर बड़ीबड़ी बातें करने वाले नेता, उद्योगपति व उच्चवर्ग के नुमाइंदे हों, इन के परिवारों से सेना में सब के कम भागीदारी देखी जाती है. सेना में, फ्रंट पर

लड़ने वाली थलसेना में खासतौर पर ज्यादातर सिपाही व सैनिक भारत के दूरदराज गांव, पिछड़े इलाकों व दबेकुचले गरीब वर्ग से आते हैं. जिन के पास न तो खेती के लिए जमीन है और न ही रोजगार का साधन. सीमा में आतंकी झड़पों में शहीद होने वाले जवानों के परिवार जब सामने आते हैं तो पता चलता है कि वे इटावा के किसी बीहड़ गांव या मध्य प्रदेश, बिहार के सुदूर इलाके का सैनिक था.दिल्ली, मुंबई, बैंगलुरु या चेन्नई जैसे महानगरों से ऊंची जातियों के कितने सैनिक जवानों के रूप में भरती होते हैं, कहना मुश्किल है. सेना की रेजीमैंट्स के नाम (जाट, अहीर, महार, डोगरा, सिख, मराठा, राजपूताना राइफल्स, गढ़वाल, असम, गोरखा औ र कुमायूं) देख कर सहज अंदाजा हो जाता है कि भारतीय सेना के सैनिक किस समाज या जातिधर्म से ज्यादा आते हैं. यहां पर सैनिकों की देशभक्ति से जुड़ी भावना या जज्बे पर सवाल नहीं उठाया जा रहा है बल्कि यह समझाने की कोशिश है कि बिना खेती और रोजगार के मारे लोगों की तरह सेना में उच्च जातियों, देश के कौर्पोरेट, उद्योगपति घरानों व राजनेताओं के घरों से सैनिक भरती में आगे क्यों नहीं आते.

समाज से उपेक्षित तबका जब मुख्यधारा में सम्मान व रोजगार नहीं हासिल कर पाता तब ही शायद वह सेना में आने की सोचता है. क्योंकि वहां वेतन अच्छा है, नौकरी पक्की है. सुपरपावर की बात हम तब करें जब हमारी सेना में भी देश, समाज, जाति, धर्म, वर्ग का हर तबका सेना में अपनी खुशी से शामिल हो. वातानुकूलित कमरों, मंचों, रैलियों व  अदालतों की बैंचों पर बैठ कर देशभक्ति की बात करते सैनिकों की तरह सीमा पर लड़ने में बहुत फर्क है.

पाकिस्तान पर गुर्राना क्यों

अमेरिकी शक्ति से तुलना करने के बजाय हम अपने से एकचौथाई छोटे पाकिस्तान पर 2 युद्ध जीतने के बाद खासा गुर्राते हैं. लेकिन छोटा होते हुए भी पाकिस्तान इतना भी कमजोर नहीं है. 1971 की हार के बाद पाकिस्तान ने भी सैन्य ताकत बढ़ाई है. दोनों मुल्क परमाणु हथियारों से न सिर्फ लैस हैं बल्कि दोनों के सैन्य बल में बहुत ज्यादा फर्क नहीं है. थलसेना की बात करें तो भारत के पास करीब 13 लाख सैनिक हैं तो पाक के पास भी लगभग 10 लाख थल सैनिक हैं. भारत का क्षेत्रफल पाकिस्तान से चारगुना ज्यादा है. भारत के पास 50-90 परमाणु हथियार हैं जबकि पाकिस्तान के पास भी लगभग इतने ही हैं और वह शायद ईरान व उत्तरी कोरिया को परमाणु तकनीक चोरीछिपे बेच भी रहा है.

अमेरिकी संस्थान कौर्नेगी एंडोन्मैंट फौर इंटरनैशनल पीस और स्टिम्सन सैंटर की हालिया रिपोर्ट के अनुसार, अगले 10 वर्षों में पाकिस्तान के पास करीब 350 परमाणु हथियार होंगे. रिपोर्ट कहती है कि भारत की तुलना में पाकिस्तान इस क्षेत्र में तेजी दिखा रहा है. फिलहाल, अमेरिका व रूस ऐसे देश हैं जो सब से ज्यादा परमाणु हथियार रखते हैं. ऐसे में पाकिस्तान पर गुर्राना निरर्थक ही लगता है. आंकड़े बताते हैं कि पनडुब्बियों (16-10), युद्धपोत, मिसाइल, लड़ाकू विमान के मामले में दोनों देशों के बीच ज्यादा फर्क नहीं है. पाकिस्तान के पास गौरी, शाहीन, गजनवी, हत्फ व बाबर जैसी मिसाइलें भी हैं.

देशभक्ति बनाम अंधभक्ति

खुद को सुपरपावर बताने की धुन सिर्फ चुनावी सभाओं, संसद में भाषणबाजी और अदालती आदेशों तक सीमित नहीं है बल्कि सोशल मीडिया, वाट्सऐप, फेसबुक में भी आम लोग बिना तथ्य जाने तरहतरह के संदेशों के जरिए भारत की ताकत का दिखावा करते हैं. वाट्सऐप पर कहीं यह संदेश आता है कि अगर भारत जोर से चीख भी दे तो पाकिस्तान बहरा हो जाएगा. कोई कहता है कि अगर भारत ने कुछ लोटा पानी पाकिस्तान की तरफ बहाया तो वह बह जाएगा. ऐसे कोरी लफ्फाजी से भरे संदेश इस तरह प्रचारित किए जाते हैं मानो हम ने पाकिस्तान से 2 युद्ध जीत कर बहुत बड़ी उपलब्धि हासिल कर ली है. सच तो यह है कि पाकिस्तान से हुए हमारे सभी युद्ध हम पर ही भारी पड़े हैं. न सिर्फ हम ने बड़ी संख्या में सैनिक खोए, बल्कि आर्थिक क्षति भी झेली. ऐसे में इस जीत के क्या माने रह जाते हैं? आखिर, हम पाकिस्तान से जीत कर हासिल और साबित क्या करना चाहते हैं? गौर करने वाली बात है कि भारत की ओर से नफरतभरे भावों में ज्यादातर हिंदू बनाम मुसलिम वैमनस्य ही है. सच तो यह है कि हम मुसलमानों से नाहक ही बैर पालते हैं. सिर्फ पाकिस्तान को हरा या दबा देने से तो दुनिया से मुसलमान खत्म हो नहीं जाएंगे. वे तो पूरी दुनिया में फैले हैं. आजादी से पहले भारत में करीब 40 करोड़ मुसलिम हमारे साथ इस देश का निर्माण करते आए हैं और साथ रहने में ही देश का बल मजबूत होता है. वरना न तो हिटलर यहूदियों को खत्म कर सका और न ही दुनिया में कोई किसी धर्म या जाति को खत्म कर सकता है. हम तय करें, आखिर हमारी प्राथमिकता पाकिस्तान से लड़ना है या देश का अंदरूनी विकास करना.

चुनौती चीन की

पड़ोसी मुल्क चीन से न सिर्फ हम युद्ध हार चुके हैं बल्कि विकास, सेना, शस्त्र, तकनीकी मोरचे पर भी उस से कहीं पीछे हैं. सुपरपावर बनने की राह पर चीन है, हम नहीं. अगर सैन्य शक्ति का तुलनात्मक विवेचन करें तो आंकड़े बताते हैं, चीन के पास 22 लाख 85 हजार की सक्रिय सेना है जबकि 23 लाख सैनिक रिजर्व में हैं. जबकि हमारे पास 13 लाख 25 हजार के करीब हैं. चीन के पास 9,218 युद्धक विमान व 500 एअरबेस हैं जबकि भारतीय सेना में 3,382 युद्धक विमान व 334 एअरबेस हैं. परमाणु शक्ति में तो भारत चीन के सामने बेहद कमजोर है. एक रिपोर्ट के अनुसार, चीन के पास करीब 500 परमाणु हथियार हैं. चौंकाने वाली बात तो यह है कि भारतीय परमाणु शस्त्रों की सर्वाधिक क्षमता व ताकत (0.5 मेगाटन) चीन से कई गुना कमतर है. भारत परमाणु हथियारों को बमवर्षक विमानों, बैलिस्टिक मिसाइलों या अग्नि-2, जिस की सर्वाधिक क्षमता 2500 किलोमीटर है, तक पहुंचा सकता है जबकि चीन के पास 12 हजार किलोमीटर तक मार करने वाली आईसीबीएम मिसाइलें हैं. कोई आश्चर्य नहीं कि अमेरिका, चीन से कई मोरचों पर घबराता होगा.

इतना ही नहीं, चीन ने मिसाइल प्रतिरोधक क्षमता व उपग्रहरोधी हथियारों का परीक्षण कर लिया है. जब पड़ोसी से सुरक्षा की बात आती है तो चीन के मुकाबले हम काफी पीछे हैं. चीन ने अपनी सैन्यशक्ति को मजबूती के साथ आधुनिक व तकनीकी पुट भी दिया है. जबकि भारतीय सेना के हथियार कई मौकों पर धोखा दे जाते हैं. बोफोर्स तोप, मिग विमान व बीएसएफ की इटली बंदूक निर्माता कंपनी बरेटा प्रकरण इस बात की तसदीक करते हैं. भारत व चीन की 3,488 किलोमीटर लंबी सीमा जुड़ी है. चीन आधुनिक युद्ध प्रणाली साइबर युद्ध में भी हम से आगे है. सीमा पर चीन द्वारा राजमार्गों, बुनियादी जरूरतों व रेलमार्गों का तेजी से निर्माण किया जा रहा है. जबकि भारत की कई प्रस्तावित योजनाएं अधर में लटकी हैं. यही वजह है कि सीमा पर तनाव बढ़ते ही चीन अपनी मजबूती दर्ज करा देता है और भारत को बयानबाजी से आगे कोई ठोस हल निकालने का मौका नहीं मिलता.

ऐसा सिर्फ इसलिए क्योंकि टैंक, पनडुब्बी, मिसाइल, परमाणु हथियार, आर्थिक ताकत और उन्नत हथियारों के मामले में चीन हम से कहीं आगे है. चीन की एक घुड़क का नमूना तब देखने को मिला था जब मनमोहन सिंह के प्रधानमंत्रित्व काल में देश की पहली इंटरकौंटिनैंटल बैलिस्टिक मिसाइल अग्नि-5 का ओडिशा के बालासोर के पास व्हीलर द्वीप में सफल परीक्षण हुआ. तब चीन के अखबार ‘ग्लोबल टाइम्स’ के हवाले से खबर आई कि अग्नि-5 के प्रक्षेपण से भारत को हथियारों की होड़ के तूल देने के सिवा कुछ नहीं मिलेगा. अखबार की मानें, तो कहा गया कि भारत 5 हजार किलोमीटर तक की मार वाली मिसाइल के बलबूते आईसीबीएम क्लब में शामिल होने की नाकाम कोशिश कर रहा है जबकि आईसीबीएम की सामान्य रेंज 8 हजार किलोमीटर से अधिक होती है.

सैन्य प्रशिक्षण

देश में जब कहीं आंतरिक कलह, हिंसा या झड़प होती है तो आम आदमी इतना निरीह हो जाता है कि उस की सारी निर्भरता पुलिस या सेना पर रहती है. आत्मरक्षा की ट्रेनिंग किसी के पास नहीं है, लिहाजा दंगों में सैकड़ों हत्याएं होती हैं. अगर आम नागरिकों को कमजोर अपराधियों तक से आत्मरक्षा की ट्रेनिंग मिले तो वे भी हिंसक व कट्टर तत्त्वों का सामना कर सकते हैं. जब हम अपने देश में ही कमजोर अपराधियों तक से आत्मरक्षा नहीं कर सकते तो किसी दूसरे देश से युद्ध के समय क्या मुकाबला करेंगे. जब भी पुलिस अपराधियों के फोटो जारी करती है तो क्या आप ने गौर किया है कि उन के चेहरे किस तरह पिचके होते हैं. अमेरिका समेत कई यूरोपीय देशों में लगभग हर नागरिक के लिए सैन्य प्रशिक्षण, मिलिट्री सेवा अनिवार्य मानी जाती रही है. इसराईल में जहां 18 साल या 12वीं ग्रेड के बाद सब को सैन्य प्रशिक्षण दिया जाना जरूरी है वहीं दक्षिण कोरिया में 24-27 महीने की मिलिट्री ट्रेनिंग अनिवार्य है. इसी तरह चिली में 18-45 साल के पुरुषों की 12 महीने की सेना व 24 महीने की नौसेना तथा वायुसेना में सेवा जरूरी है. चीन, डेनमार्क, ईरान, पोलैंड, जरमनी, ब्राजील, आस्ट्रिया, नार्वे, स्वीडन, स्विट्जरलैंड, रूस, मैक्सिको और सिंगापुर जैसे देश अपने नागरिकों को मजबूत बनाने के लिए अनिवार्य सैन्य सेवा देते हैं.

इतना ही नहीं, ब्रिटेन के प्रिंस समेत शाही परिवार के तमाम अहम सदस्य आर्मी कैंप में रह कर न सिर्फ सामान्य सैनिकों की तरह सैन्य सेवा करते हैं बल्कि प्लेन उड़ानें आदि की ट्रेनिंग भी लेते हैं. 1962 में हुए भारत-चीन युद्ध के बाद भारत में सैन्य शिक्षा अनिवार्य करने की मांग उठी थी लेकिन कुछ नहीं हुआ. अगर सभी सैन्य शिक्षा ले लें तो न सिर्फ हमारी सेना पर निर्भरता कम होगी बल्कि हम आत्मनिर्भर भी बन सकेंगे. क्योंकि कई बार तो हालात देश के अंदर ही युद्ध जैसे भीषण हो जाते हैं. हाल में जाट आरक्षण हिंसा हो या 26/11 जैसे मुंबई में हुए आतंकी हमले, इस बात के प्रत्यक्ष उदाहरण हैं. जम्मूकश्मीर के पैंपोर में गिनती के 3-4 नौसिखिए आतंकी सीमित मात्रा में हथियार ले कर सेना के कैप्टन, सैनिकों को शहीद कर देते हैं जबकि हमारे पास सारे आधुनिक हथियारों की आपूर्ति है. बावजूद इस के, 2-3 आतंकियों से निबटने में कई दिन लग जाते हैं. जबकि फ्रांस व अमेरिका में 24 घंटे के अंदर बिना जानमाल के नुकसान के वहां की पुलिस व सेना आतंकियों का सफाया कर देती है.

सेना नहीं, पुलिस हो मजबूत

देश के आंतरिक हालात ठीक नहीं हैं. दंगे, धार्मिक उन्माद, विरोध प्रदर्शन, बिगड़ती कानून व्यवस्था, भ्रष्टाचार से लड़ाई आम हैं. इन से निबटने के लिए सेना की नहीं, बल्कि मजबूत व भ्रष्टाचाररहित पुलिस की दरकार है. सीमा से ज्यादा सुरक्षा देश को अंदरूनी तौर पर है जहां बिगड़े सामाजिक ढांचे को दुरुस्त करने का काम मजबूत व ईमानदार पुलिस कर सकती है. जाट आरक्षण हिंसा में जो काम पुलिस को करना चाहिए था वह सेना को बुला कर करवाना पड़ा.

बढ़ता सैन्य बजट

हम विश्वगुरु व सुपरपावर होने की हांकते रहते हैं लेकिन आजादी के इतने सालों बाद अंतर्राष्ट्रीय स्तर के शस्त्र निर्माण की क्षमता वाले कारखाने स्थापित नहीं कर पाए. चुनाव जीतने से पहले नरेंद्र मोदी भारतीय सेना के आधुनिकीकरण की बात कह चुके हैं और सरकार बनते ही रक्षा बजट 12 फीसदी बढ़ाने का फैसला कर लिया. पर, विश्लेषकों के मुताबिक, दुनिया में हथियारों का सब से बड़ा आयातक बनने के लिए भारत शस्त्र निर्माण उद्योग में अगले दशक तक 250 अरब डौलर का निवेश करने वाला है जबकि चीन हर वर्ष 120 अरब डौलर खर्च करता है. आयात कोई विकल्प या समाधान नहीं है. अंधाधुंध हथियार, वे भी औसत दरजे के खरीदना समझदारी नहीं है. स्टौकहोम इंटरनैशनल पीस रिसर्च इंस्टिट्यूट के मुताबिक, भारत भले ही दुनिया का सब से बड़ा आयातक (भारत ने 2011-15 के बीच विश्व के कुल आयात का 14 प्रतिशत हथियार अकेले आयात किया है, जो दूसरे नंबर के बड़े आयातक सऊदी अरब से भी दोगुना है) मुल्क बन चुका हो लेकिन इस कारण भारत का छोटामोटा घरेलू रक्षा उद्योग कम उत्पादन के संकट से गुजर रहा है. 2009-13 के बीच भारत ने रूस से 75 फीसदी हथियार लिए जबकि आईएचएच के आंकड़े बताते हैं कि भारत ने अमेरिकी हथियारों की खरीद में 1.9 अरब डौलर खर्च किए.

देश के मजदूरों की गाढ़ी कमाई से जमा अरबों रुपयों को हथियारों की खरीद में बहाने के बावजूद हमारी सैन्य व शस्त्र शक्ति कमजोर है तो यह सारी पूंजी बरबाद ही मानी जाएगी. अगर यही पैसा देश के सामाजिक, आर्थिक, शैक्षिक व बुनियादी आवश्यकताओं पर लगाया गया होता तो हम न सिर्फ तरक्की वाले मुल्क की श्रेणी में होते बल्कि हजारोंलाखों टनों के बेकार हथियारों के कबाड़ से भी बच जाते. इतना ही नहीं हम ऐसे कई देशों से हथियार खरीद रहे हैं जो हम से कई गुना छोटे देश हैं. इस सचाई को स्वीकारना होगा कि हम अंदरूनी तौर पर इतने कमजोर देश में रहते हैं कि सुपरपावर बन ही नहीं सकते. हमारे पास ज्यादातर हथियार ऐसे हैं जिन के स्पेयर पार्ट्स विदेशों में ही मिलते हैं. विदित हो कि युद्ध 2-3 सप्ताह नहीं, कई बार महीनों या सालों तक चलता है. और युद्ध के बीच में बाहर से हथियारों की आपूर्ति भी नहीं होती. ऐसे में इन हथियारों के दम पर हम कितने दिनों तक टिक पाएंगे? करीब 40 दिनों तक लड़ने के हथियार और 25 दिनों के करीब चलने वाले सैन्य शस्त्र भंडार के दम पर अगर हम सुपरपावर बनने का सपना देखते हैं तो इसे बुद्धिमानी कतई नहीं कहा जा सकता. अगर सुपरपावर बनना है तो पहले देश में अंदरूनी कलह, सांस्कृतिक आतंकवाद, जातिधर्म के खिलाफ मजबूत बनें. बाद में सीमा व युद्ध की मजबूती पर काम करें. सिर्फ अमेरिका व रूस से खरीदे हथियारों पर निर्भर भारत जैसे किसी भी देश में सुपरपावर बनने की क्षमता न तो पैदा हुई है और न ही होगी.

सुपरपावर के असल माने

1 अरब से भी ज्यादा आबादी वाले देश की औसत प्रतिव्यक्ति घरेलू आय कई अफ्रीकी देशों से कम है. देश के आंतरिक हिस्से नक्सली व धार्मिक झड़पों में जल रहे हैं. धर्म को ले कर कट्टरता में इजाफा हो रहा है. अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता छिन रही है, घोटालों व भ्रष्टाचार का रिकौर्ड रखना मुश्किल है. सामाजिक वर्गभेद इतना बढ़ गया है कि अमीर व गरीब का छोर नहीं मिलता. तकनीकी मोरचे पर हम आयात पर निर्भर हैं. कृषि योग्य जमीन का दुरुपयोग हो रहा है. जलसंकट की तरफ बढ़ते भारत की हवा सांस लेने लायक नहीं रह गई है. जीवनस्तर खराब है, आविष्कार न के बराबर हैं. शिक्षा में गड़बडि़यां हैं. आधुनिक चिकित्सा व दवाओं में हम पिछड़े हैं. वैकल्पिक ऊर्जा, रोबोटिक्स, बायोटैक्नोलौजी, नैटवर्क कम्युनिकेशन आदि आयातित हैं. इन सब के बावजूद हम हवनकुंड में घी की आहुति दे कर, गायों की सुरक्षा व वर्षा के लिए महायज्ञों का आयोजन कर सुपरपावर होने का मुगालता पाल रहे हैं. धर्म व जाति आधारित चुनावों के टीले पर खड़े हो कर लोतांत्रिक देश होने का दावा करने से कोई सुपरपावर नहीं बनता. देश का आम आदमी लापरवाह व आलसी है.  संयोग देखिए कि महायज्ञों का पंडाल और मेक इन इंडिया का फुजूलखर्ची भरा तमाशा दोनों ही भीषण आग में स्वाहा हो गए. हम आग पर भी नियंत्रण नहीं कर पाए.

सरकारें उदासीन हो कर आरोपप्रत्यारोप में सारे संसद सत्र गंवा देती हैं. स्वच्छता अभियान जैसी योजनाओं पर कमेटी बना कर खुश होने वाला देश अपने पड़ोसी देशों का न तो विश्वास जीत पाया है और न ही उन से मधुर संबंध कायम कर पाया है. छोटीमोटी आतंकी घुसपैठों में सारा तंत्र हिल जाता है. पाकिस्तान से हुई दुश्मनी पर आग में घी डालने से अगर सुपरपावर बनना होता तो कब के बन गए होते. अपनी ही चुनौतियों से जूझता भारत महज जनसंख्या की बढ़त से सुपरपावर नहीं बन सकता. जब तक हम सैन्य, शस्त्र, साइबर युद्ध शिक्षा में पश्चिमी देशों के बराबर आने की कोशिश नहीं करेंगे, हथियार प्रणाली, गुप्तचरी, निगरानी, सीमा नियंत्रण, सर्वेक्षण तंत्र, आधुनिक हथियारों का खुद निर्माण नहीं करेंगे, सुपरपावर तो दूर, घरेलू हिंसाओं से निबटने में भी लाचार दिखते रहेंगे. और इन सब से जरूरी देश में उत्कृष्ट शिक्षा, तकनीकी गुणवत्ता, मेहनतकश पीढ़ी व सामाजिक खाई को पाट कर धार्मिक संकीर्णता व जातिगत भेदभाव से ऊपर उठना ही सुपरपावर के असल माने में देश विकास की नई इबारत लिख सकेगा.  

खराब हथियार खस्ता हालत

भारतीय सेना के ज्यादातर हथियार या तो इस्तेमाल नहीं होते या फिर डिफैक्टिव हैं. एक रिपोर्ट की मानें तो 6.97 प्रतिशत हथियार ऐसे हैं जो डिफैक्टिव हैं. उन की कीमत 3,578 करोड़ रुपए है. वहीं 7.48 प्रतिशत हथियारों को मरम्मत की जरूरत है. कैग की रिपोर्ट में खुलासा हुआ था कि भारत शस्त्र के मामले में भारी कमी का सामना कर रहा है. रिपोर्ट कहती है कि भारतीय सेना के पास रिजर्व में 40 दिन तक लड़ने के काबिल हथियार हैं जबकि 20 दिन में 74 प्रतिशत भंडार खत्म हो जाएगा. अगर रिपोर्ट को आधार मानें तो ये निराशाजनक आंकड़े भारत के सुपरपावर बनने के सपने की राह में बड़ा रोड़ा हैं.

हथियार के सब से बड़े सौदागर

हथियार निर्यातक देशों की लिस्ट में अमेरिका अव्वल नंबर पर है. यह दुनिया के29 प्रतिशत हथियार अपने देश से बेचता है जबकि रूस 27 प्रतिशत, जरमनी 7 प्रतिशत, चीन 6 प्रतिशत और फ्रांस 5 प्रतिशत हथियार निर्यात करते हैं. ये 5 देश मिल कर दुनिया के 74 फीसदी हथियारों का निर्यात करते हैं.  उधर, हथियारों के सब से बड़े खरीदारों की फेहरिस्त में भारत अव्वल नंबर पर है. भारत के बाद चीन, पाकिस्तान, संयुक्त अरब अमीरात व सऊदी अरब सब से ज्यादा हथियार खरीदते हैं.

टौप 3 सुपरपावर्स

अमेरिका : अपनी सेनाओं पर 612 बिलियन डौलर खर्चने वाले अमेरिका के पास 19 से ज्यादा एअरक्राफ्ट कैरियर हैं जो पूरी दुनिया के मुकाबले (12 से) डेढ़ गुना अधिक हैं. दुनिया की सब से ज्यादा प्रशिक्षित फौज, तकनीकी हथियार व आर्थिक ढांचे की बदौलत अमेरिका दुनिया का सब से बड़ा सुपरपावर देश है.

रूस : सोवियत संघ के बिखराव के बावजूद रूस के पास 7 लाख 66 हजार सक्रिय सैनिक व 24 लाख 85 हजार रिजर्व सैनिक हैं. करीब 15,500 से ज्यादा टैंकों की दुनिया में सब से बड़ी टैंक सेना के साथ रूस दूसरा सुपरपावर देश है.

चीन : 126 हजार अरब सैन्य बजट के साथ चीन में 22 लाख 85 हजार प्रशिक्षित सैनिक व 23 लाख रिजर्व सैनिक हैं. हाल में सेना में एफ-35 जैसे फाइटर प्लेन में शामिल कर चीन आधुनिक आईबीएम व एअरक्राफ्ट के बलबूते तीसरे नंबर का सुपरपावर देश है. चीन सुरंग व सड़कों के जरिए मजबूत देशों से आगे रहने की जुगत में रहता है.

की एंड काः कमजोर कहानी के चलते असली मुद्दा गायब

‘‘शमिताभ’’ के बाद ‘‘की एंड का’’ देखने के बाद अहसास होता है कि आर बालकी भी अब चुक गए हैं. ‘शमिताभ’ के बाद एक बार फिर वह मात खा गए. फिल्म ‘‘की एंड का’’ में लेखक व निर्देशक आर बालकी ने एक उत्कृष्ट और ज्वलंत मुद्दे को उठाया है, मगर इस मुद्दे पर वह रोचक फिल्म बनाने में बुरी तरह से असफल रहे हैं. काम को लिंगभेद से परे रखने का उनका संदेश भी महज भाषण बाजी बनकर रह गया है. इसके अलावा संवादों व दृश्यों का दोहराव बहुत ज्यादा है. फिल्म की कहानी को जिस समाज यानी कि उच्च मध्यमवर्गीय परिवार के इर्द गिर्द बुना गया है, उससे भी मुद्दा कमजोर हो गया. फिल्म के संवाद भी स्तरीय नहीं है. लेखक निर्देशक आर बालकी इसे रोमांटिक कामेडी फिल्म मानते हैं, मगर अफसोस की बात यह है कि फिल्म में रोमांस व भावनाओं का अभाव है. फिल्म न तो फैंटसी है और न ही वास्तविकता के धरातल पर खरी उतरती है.

फिल्म ‘‘की एंड का’’ के लेखक व निर्देशक आर बालकी खुद विज्ञापन जगत से आए हैं. पिछले कई वर्षों से वह लगातार कई प्रोडक्टों के विज्ञापन बनाते आए हैं. इसीलिए उन्होने इस फिल्म में भी सभोला से लेकर चावल, भवन तक कई चीजें बेचने की कोशिश की है. पर विज्ञापन जगत से जुड़े होने के बावजूद वह कुछ वर्ष पहले आए एक मोबाइल के विज्ञापन को नजरंदाज कर गए. इस तीस सेकंड के विज्ञापन ने पुरूष और औरत की बदलती भूमिकाओं व रिश्तों पर जबरदस्त बहस छेड़ी थी. आर बालकी तो इन दिनों कई टीवी चैनलों पर चल रहे वाशिंग मशीन के विज्ञापन को भी याद नही कर पाए. यदि वह इन दोनों विज्ञापनों का याद करते, तो शायद वह एक अच्छी पटकथा लिख लेते. दूसरी बात यह फिल्म एकता कपूर के सीरियलों की तरह लगती है, जहां कहानी का अभाव है. पुरूष और नारी पर समाज ने काम को लेकर जो दबाव बना रखा है, उस पर यह फिल्म चर्चा करने में पूरी तरह से विफल नजर आती है.

फिल्म की कहानी का मूल मुद्दा यह है कि हर बेटा अपने पिता की तरह बनना चाहता है. पर यदि कोई बेटा कहे कि वह अपनी मां की तरह बनना चाहता है, तो.. इसके अलावा वैवाहिक जिंदगी में पति घर से बाहर जाकर काम करता है और धन कमाता है तथा पत्नी घर के अंदर रहकर घर की जिम्मेदारी संभालती है. यदि इन दोनों के काम  की अदला बदली हो जाए, तो क्या होगा? यह एक बेहतरीन व समसमायिक मुद्दा है. मगर लेखक निर्देशक फिल्म में एक साथ कई संदेश देने के चक्कर में इस मूल मुद्दे को ज्यादा प्रभावशाली तरीके से नही लगा सके. काम को इंसान की काबीलियत से जोड़ने की बजाय अंततः लिंग भेद की वजह पैसा बताते हुए फिल्म समाप्त कर दी गयी.

फिल्म की कहानी के केंद्र में कबीर बंसल (अर्जुन कपूर) और किया (करीना कपूर) हैं. कबीर एक मशहूर भवन निर्माता बंसल (रजत कपूर) का इकलौटा बेटा है. वह आईआईएम से एमबीए कर चुका है. वह अपने पिता का बिजनेस संभालने की बजाय अपनी मां की तरह घर पर रहकर घरेलू काम करना चाहता है. उसकी नजर में उसकी मां यानी कि हर पत्नी एक आर्टिस्ट होती है, जो कि 24 घंटे काम करती है, पर उसे कोई अहमियत नहीं दी जाती. चंडीगढ़ से दिल्ली आते समय हवाई जहाज के अंदर कबीर की मुलाकात किया से होती है. किया को उसकी मां ने ही पाला पोसा है. किया की मां (स्वरूप संपत) एनजीओ से जुड़ी हुई है. महत्वाकांक्षी किया एक कंपनी में मार्केटिंग हेड है. वह शादी महज इसलिए नहीं करना चाहती कि उसका पति उसकी महत्वाकांक्षाओं पर रोक लगा देगा और उसे घर का पिलर यानी कि खंभा मात्र बनाकर रख देगा. कबीर व किया की मुलाकाते व्हिस्की पीने के लिए होती रहती हैं. एक दिन दोनों शादी करने का फैसला करते हैं. कबीर अपने पिता का घर छोड़कर घर जमाई बन किया के साथ रहने लगता है. कबीर खाना पकाने, घर की सफाई करने से लेकर औरतों के हर काम को अंजाम देता रहता है. उधर किया तरक्की करते हुए अपनी कंपनी में उच्च पद पर पहॅुच जाती है. दोनों की गाड़ी अच्छी चलने लगती है. पर जब कबीर के घर काम करने की बात किया के आफिस तक पहुंचती है, तो उसकी कंपनी सफोला का विज्ञापन कबीर से करवाने से लेकर कई चीजे शुरू हो जाती हैं. कबीर को टीवी चैनलों पर पुरूष-नारी समानता पर नारी स्वतंत्रता पर बात करने के लिए बुलाया जाता है. तो धीरे धीरे किया को जलन होने लगती है. उसे लगता है कि कबीर तो ज्यादा ही चालाक है. वह पुरूष होते हुए भी बिना काम किए ही शोहरत पा रहा है. खुद को बेच रहा है. दोनों के बीच मतभेद बढ़ते हैं और लगभग दोनों अलग हो जाते हैं. लेकिन किया की बीमार मां उसे समझाती है कि यह सारा मसला पैसे का है. घर से बाहर जाकर काम करके पैसा कमाने वाला पुरूष इस बात को ग्रांटेड मानकर चलता है कि घर पर बैठी उसकी पत्नी यानी कि औरत की कोई अहमियत नही है. जबकि वह नाचीज पूरे वर्ष 24 घंटे अवैतनिक काम करती है.

फिल्म में एमबीए टापर होने के बावजूद कबीर घर पर रहकर कूकिंग से लेकर सारे काम करता है. इसमें पुरूष व नारी समानता की बात हो सकती है. मगर समानता की बात को चित्रित करने के लिए कबीर का पड़ोस की औरतों के साथ किट्टी पार्टियों का आयोजन करते दिखाए जाने की अहमियत समझ से परे है. महत्वाकांक्षा से ग्रसित किया डरपोक है, पर वह जिस तरह अति संकीर्ण मानसिकता के साथ अपने उस पति के प्रति तीखी व खुद को असुरक्षित भारतीय नारी की तरह पेश आती है, जिसने बिना किसी शर्त उसके काम को खुद करने की बात स्वीकार की हो, उसे बिना शर्त प्यार करता हो और उसके साथ खड़ा हो. यह बात भी हजम नहीं होती.

फिल्म में करीना कपूर खान और अर्जुन कपूर ने अपनी तरफ से बेहतरीन परफार्मेंस देने की पूरी कोशिश की है, पर काश इन्हे एक मजबूत व अच्छी पटकथा मिली होती तथा कैमरामैन ने अपने काम को बेहतर ढंग से अंजाम दिया होता, तो फिल्म में कई जगहों पर थके हुए या नींद में अर्जुन नजर न आते और न ही करीना की उम्र ज्यादा लगती. पर कमजोर पटकथा की वजह से अर्जुन कपूर के अभिनय पर उंगली कम उठेगी. अमिताभ बच्चन और जया बच्चन का कैमियो लोगों को जरुर पसंद आएगा, पर सिर्फ इस कैमियो की वजह से फिल्म सषक्त नहीं बन पाती है.

126 मिनट की अवधि वाली फिल्म ‘की एंड का’ निर्माण ‘होप प्रोडक्शन’ के साथ ईरोज इंटरनेशनल ने किया है. लेखक व निर्देशक आर बालकी, संगीतकार इल्याराजा, कैमरामैन पी सी श्रीराम, तथा कलाकार हैं- करीना कपूर खान, अर्जुन कपूर, रजत कपूर, स्वरुप संपत, अमिताभ बच्चन व जया बच्चन.

विश्व सांस्कृतिक महोत्सव: धर्मगुरु का मार्केटिंग मेला

दुनिया भले ही धर्मयुद्ध के कगार पर खड़ी हो, अरब देशों से ले कर यूरोप तक धर्मों के बीच कलह छिड़ी हो पर धर्मगुरु ऐसे हालात में भी सांस्कृतिक उत्सव के नाम पर अपने प्रचार का नगाड़ा पीटने से बाज नहीं आते हैं. धर्मगुरु धर्म और संस्कृति के नाम पर अपने प्रचार के तरहतरह के हथकंडे आजमाने में पीछे नहीं रहे. प्रचार के बल पर भारत के कई गुरु विश्वभर में विख्यात और कुख्यात हो रहे हैं. फिलहाल सांस्कृतिक एकता के नाम पर विश्व बंधुत्व का डंका पीटा जा रहा है.

दिल्ली के यमुना तट पर चले 3 दिवसीय विश्व सांस्कृतिक महोत्सव में कला और संस्कृति के नाम पर नाचगाने की आड़ में आर्ट औफ लिविंग के संस्थापक श्रीश्री रविशंकर ने नाचगाने के सहारे धर्म और संस्कृति का खूब बखान किया. नृत्य, गायन के नाम पर हजारों साल पुराने वेदों की ऋचाएं पढ़ी गईं, श्लोक गाए गए. राजसत्ता से ले कर धर्मगुरु और आम अंधभक्त धर्म के नशे में खूब लोटपोट होते दिखाई दिए. केंद्रीय सरकार के समूचे मंत्रिमंडल समेत दुनियाभर के भक्तों ने श्रीश्री की बढ़चढ़ कर जयजयकार की.

यह बात और है कि वे अलगअलग धर्मों, जातियों, वर्गों और विचारधाराओं में बंटे भारत में भाईचारा, शांति स्थापित नहीं करा पाए. देशभर में आएदिन कलह, खूनखराब हो रहा हो, फिर भी महानता की माला जपी गई. ‘वसुधैव कुटुंबकम्’ का राग अलापा गया.

11 से 13 मार्च को केंद्र की धार्मिक सरकार के संरक्षण में आर्ट औफ लिविंग के संस्थापक धर्मगुरु श्रीश्री रविशंकर की अगुआई में हुआ विश्व सांस्कृतिक महोत्सव शुरू से ही विवादों में घिरा रहा. शुरुआत यमुना किनारे पर आयोजन के विवाद से हुई. महोत्सव वैसे तो श्रीश्री रविशंकर का एक निजी आयोजन था लेकिन इस के इंतजाम में पूरी सरकारी मशीनरी जुटी रही. देश की सरकार ने सेना तक को श्रीश्री की सेवा में लगा दिया. सेना ने आननफानन मंच स्थल तक पहुंचने के लिए यमुना नदी पर पुल बनाया और कार्यक्रम के दौरान सेना के जवान तैनात रहे.

यमुना जियो अभियान के संचालक एवं पर्यावरणविद मनोज मिश्र की ओर से नैशनल ग्रीन ट्रिब्यूनल यानी एनजीटी में आयोजन को चुनौती दी गई. अपील में कहा गया कि श्रीश्री रविशंकर की संस्था आर्ट औफ लिविंग यमुना के किनारे विश्व सांस्कृतिक महोत्सव का जो आयोजन कर रही है उस से पर्र्यावरण को भारी नुकसान होगा. कार्यक्रम स्थल पर पेड़पौधे काटे जा रहे हैं, जगह को समतल किया जा रहा है और दूषित वस्तुएं यमुना में फेंकी जा रही हैं.

धर्म बनाम कानून

इस पर एनजीटी ने दिल्ली सरकार, दिल्ली विकास प्राधिकरण और आर्ट औफ लिविंग के श्रीश्री रविशंकर को नोटिस जारी किया.

इस के अलावा यमुना के डूब वाले क्षेत्र में इस कार्यक्रम की मंजूरी देने से ले कर लोकनिर्माण विभाग, पुलिस और सेना के इस्तेमाल तक कई सवाल उठाए गए. सब से गंभीर सवाल यमुना के साथ हो रहे खिलवाड़ का था. इस आयोजन से यहां की जैवपारिस्थितिकी को होने वाले नुकसान और किसानों की उजाड़ी गई फसल जैसे अहम सवाल उठे थे.

श्रीश्री ने एनजीटी के आदेश को मानने से स्पष्ट इनकार कर दिया जिस में उन पर 5 करोड़ रुपए का जुर्माना लगाया गया था. यानी धर्म और धर्मगुरु हमेशा से खुद को कानून की किसी सीमा में नहीं मानते. यह सवाल भी उठा कि क्या सुप्रीम कोर्ट के समकक्ष अदालत के आदेश को न मानने वाले शख्स के कार्यक्रम में देश के प्रधानमंत्री को जाना चाहिए? इस मामले में कोई भी देशभक्त अदालत की मानहानि का मामला दर्ज कराने न तो आगे आया, न कोई ऐसी बात ही कर रहा है.

आयोजन को ले कर संसद में भी सरकार को घेरा गया. अच्छा हुआ राष्ट्रपति प्रणब मुखर्जी ने आयोजन का निमंत्रण नामंजूर कर दिया था. मजे की बात थी कि कार्यक्रम के आयोजक, समर्थक और कानूनी पैरोकार इन सवालों के जवाबों और तर्कों को इस तरह पेश कर रहे थे मानो यमुना नदी उन की निजी संपत्ति है और वे कुछ गलत कर ही नहीं सकते. तर्क दिए जा रहे हैं कि अक्षरधाम मंदिर और डीटीसी का मिलेनियम बस डिपो भी यमुना खादर क्षेत्र पर ही बना है, उस से क्या नुकसान हुआ?

एनजीटी ने पिछले 25 वर्षों से बाढ़ क्षेत्र के अंदर किसी भी तरह के आयोजन एवं निर्माण को प्रतिबंधित कर रखा है.

आयोजकों का कहना था कि पर्यावरण को किसी तरह नुकसान नहीं पहुंचाया जा रहा है लेकिन 1 हजार एकड़ जमीन को कार्यक्रम के लायक बनाने के लिए फसल नष्ट कर दी गई है. इस के लिए करीब 200 किसान इस से प्रभावित हुए हैं. उन्हें नुकसान का पर्याप्त मुआवजा नहीं दिया गया. बहुत सारा कचरा डाल कर नदी के किनारे के गड्ढों को भरा गया और जमीन समतल की गई.

दावा किया गया कि दुनिया के 155 देशों के लोग आए. 35 लाख दर्शकों समेत कई अतिविशिष्ट मेहमानों के लिए भव्य मंच, दर्शकदीर्घा का निर्र्माण किया गया. करीब 650 मोबाइल शौचालय आयोजन स्थल पर बनाए गए, जो नदी किनारे पर ही हैं. उन का मल आखिरकार नदी में ही गया. हजारों गाडि़यों की पार्किंग की व्यवस्था की गई. 3 दिन के कार्यक्रम के लिए आसपास के कई इलाकों की यातायात व्यवस्था प्रभावित हुई और इन सब से ध्वनि प्रदूषण हुआ, क्या यह पर्यावरण के लिए घातक नहीं है?

जुर्माने पर आनाकानी

इन्हीं वजहों के चलते नैशनल ग्रीन ट्रिब्यूनल ने आयोजकों पर 5 करोड़ रुपए का जुर्माना लगाया. लेकिन श्रीश्री एनजीओ के कदम से सहमत नहीं थे. पहले तो उन्होंने कहा, ‘जेल चला जाऊंगा पर जुर्माना नहीं दूंगा.’ फिर दूसरे दिन बोले, ‘सुप्रीम कोर्ट जाऊंगा.’ फिर उन्हें ब्रह्मज्ञान हुआ और बोले, अपनी शर्तों के साथ जुर्माना नहीं, हर्जाना दूंगा. जुर्माने का मतलब तो हुआ कि हम ने गलती की है. बाद में कहा गया कि उन की संस्था धार्मिक है और कम समय के कारण वह इतनी बड़ी रकम की व्यवस्था नहीं कर सकती, इसलिए किश्तों में पैसा जमा कराएंगे. अदालत ने मोहलत दे दी. 25 लाख रुपए पहली किस्त के रूप में जमा कराए गए. लेकिन अदालत ने कहा कि शेष रकम 3 हफ्तों में जमा करा दी जानी चाहिए.

श्रीश्री के बयान पर एनजीटी को कहना पड़ा, ‘‘एक प्रभावशाली आध्यात्मिक गुरु से ऐसी टिप्पणी की उम्मीद नहीं थी. जब आप के कद का कोई व्यक्ति ऐसा बयान देता है तो इस से कानून के शासन को चोट पहुंचती है.’’

यानी धर्म और धर्मगुरु हमेशा खुद को कानून से ऊपर समझते हैं. जेल में बंद आसाराम समझता है कि स्त्री को भोगना उस का धार्मिक हक है. यह धर्मगं्रथों में प्रमाणित है. फिर कानून बीच में क्यों? जमीन कब्जाना धर्मगुरु अपना अधिकार मानते हैं. वे किसी कानून को नहीं मानते. कानून भी उन का कुछ नहीं बिगाड़ पाया. देश में न जाने कितने अक्षरधाम मिसाल हैं. इंदिरा गांधी के समय धीरेंद्र ब्रह्मचारी, नरसिंह राव के गुरु चंद्रास्वामी जैसे तथाकथित धर्मगुरुओं ने विशाल, भव्य आश्रम बना लिए थे.

विश्व सांस्कृतिक महोत्सव को ले कर तर्क दिए जा रहे हैं कि इस से दुनिया में देश की सांस्कृतिक छवि का नवनिर्माण होगा, विश्व को भारत की ताकत दिखाने का मौका मिलेगा. श्रीश्री रविशंकर की संस्था आर्ट औफ लिविंग पहले भी ऐसे कार्यक्रम कर चुकी है पर इस बार संस्था ने बड़े पैमाने पर कार्यक्रम का आयोजन इसलिए किया क्योंकि संस्था के 35 वर्ष पूरे हो रहे हैं.

दिल्ली की आम आदमी पार्टी की सरकार भी श्रीश्री के चरणों में नतमस्तक थी. मुख्यमंत्री अरविंद केजरीवाल और उन का मंत्रिमंडल श्रीश्री की जयजयकार कर रहा था.

तीनों दिन एक के बाद एक नाचगाने के कार्यक्रम चले. पहले दिन यानी 11 मार्च को ढोल पखावज, कत्थक नृत्य, भरतनाट्यम्, गरबा, मोहिनीअट्टम, कत्थकली पेश किए गए, साथ ही, बीच में वैदिक पंडितों द्वारा मंत्रोच्चारण का तड़का लगाया गया. फिर हिमाचली नाच, लैटिन संगीत, नादस्वरम् और अंत में बौलीवुड कलाकारों के और्केस्ट्रा परफौर्मेंस से भक्त झूमते देखे गए.

इसी तरह अगले दिन भी नाचगानों से श्रीश्री का मार्केटिंग मेला रात 10 बजे तक चला. इस में चीनी गायन, ओडिसी नृत्य, छत्तीसगढ़ी नाच, पंजाबी भांगड़ा फिर बीच में पंडितों द्वारा वेदों का मंत्रोच्चारण, बाद में रूसी नाच, स्विस एल्पाइन सींग संगीत और अंत में बौलीवुड कलाकारों द्वारा और्केस्ट्रा पेश किए गए. तीसरे दिन भी इसी प्रकार का नाचगाना चला. इस तरह नाचगानों के सहारे गुरुजी की पब्लिसिटी की गई.

प्रचार की चाह

समूची दिल्ली श्रीश्री रविशंकर की प्रचार सामग्रियों से पटी पड़ी रही. जगहजगह पर श्रीश्री के फोटो लगे होर्डिंग्स उन्हें मानवता, विश्वशांति का महान प्रणेता साबित करने की कोशिश कर रहे थे. होर्डिंग्स में कहा गया था कि श्रीश्री द्वारा आयोजित विश्व सांस्कृतिक महोत्सव मानवता का उत्सव है, संस्कृतियों को जोड़ने का उत्सव है, विविधताओं के सम्मान का उत्सव है. श्रीश्री ने कहा था कि यह पृथ्वी को संकट से उबारने के लिए अच्छे लोगों को एकसाथ लाने का उत्सव है. पर प्रश्न है कि गिनीज बुक औफ वर्ल्ड रिकौर्ड्स में हजारों कलाकारों और लाखों दर्शकों के शामिल होने का रिकौर्ड दर्ज कराने और उन के लिए नोबेल प्राइज की सिफारिश की खबरें क्या हैं? यानी वे इस कार्यक्रम के सहारे विश्वभर में अपना प्रचार करना चाह रहे थे. नाचगाने को कैसे संस्कृतियों से जोड़ा जा सकता है जब हर संस्कृति अपना नाचगाना दिखा कर खुद को अलग साबित कर रही हो?

यह ऐसा सांस्कृतिक उत्सव था जिस में दूसरे हिंदू साधु, संत, धर्मगुरु नजर नहीं आए. अकेले श्रीश्री ने ही देश के सांस्कृतिक उत्सव का ठेका ले लिया. उन का नाचगाने का यह उत्सव भारत के आम गरीब आदमी के लिए नहीं था. कार्यक्रम गवाह था कि यहां बगैर जातीय, धार्मिक, अमीरगरीब भेदरहित उपस्थिति दिखाई दी हो? श्रीश्री रविशंकर, देश के प्रधानमंत्री और उन के मंत्री जिस भारतीय संस्कृति का बखान कर रहे हैं वह कैसी है, क्या उस में आमजन के लिए जगह नहीं है? लोग गाडि़यों में ज्यादा आए, पैदल कम. स्वाभाविक है यह अमीरजनों का उत्सव था.

भाजपा की केंद्र सरकार के करीबी बाबाओं में रामदेव और श्रीश्री रविशंकर प्रमुख माने जाते हैं. भाजपा ने साधुओं, बाबाओं के आधार पर एक तरह का सामाजिक गणित कायम किया हुआ है. भाजपा रामदेव और श्रीश्री दोनों को साध रही है. रामदेव पिछड़ा वर्ग से हैं तो श्रीश्री ब्राह्मण. रामदेव के ज्यादातर भक्तों में पिछड़े और उस से थोड़े ऊपर के लोग हैं तो श्रीश्री के अनुयायी ऊंची क्लास से आते हैं. उन के अनुयायी पूरे विश्व में हैं. दोनों में आपसी प्रतिस्पर्धा है, इसलिए रामदेव श्रीश्री के कार्यक्रम में नहीं आए. उन के कार्यक्रम में प्रधानमंत्री को छोड़ कर दलित या पिछड़े नेता नजर नहीं आए. जो आए उन में सुषमा स्वराज, अरुण जेटली, वेंकैया नायडू, राजनाथ सिंह जैसे सवर्ण जातियों को साधने वाले नेता ही थे जिन्होंने श्रीश्री की प्रशंसा में दिल खोल कर कसीदे पढे़.

कार्यक्रम के दौरान तीनों दिन बाहर से आए हुए भक्त जय गुरुदेव, जय गुरुदेव के नारे लगा रहे थे. वे चाहे भारत के विभिन्न राज्यों से आए हुए भक्त हों या विदेशी. इस कार्यक्रम के जरिए श्रीश्री के प्रचार के लिए उन के बैंगलुरु स्थित मुख्यालय में पूरा आईटी विभाग दिनरात जुटा हुआ था. कहा जा रहा है कि दुनियाभर के करीब 200 देशों में श्रीश्री की मार्केटिंग हुई.

प्रदूषण का कीचड़

यमुना में मंच से वेदों की ऋचाएं, पुराणों के श्लोक और शास्त्रीय संगीत के स्वर के बावजूद कीचड़ में तबदील पसरी यमुना की उदासी, खामोशी नहीं टूटी. वह वेदों की ऋचाएं सुन कर शर्र्म से गड़ी जा रही होगी. चाहे कितना ही प्रशंसागान हो, यमुना तो धर्मांधों के ही ‘पापों’ की वजह से कीचड़ बनी है. इस कीचड़  का अब कोई आचमन नहीं करता, इसलिए वह वैधव्य स्त्री जैसे हालात में धर्मगुरुओं, धर्मभक्तों के हाथों दूषित महसूस करती आंसू बहा रही है. दिल्ली से ले कर वृंदावन तक ऐसी ही हालत है.

यमुना ने अपनी प्रशंसा सुन कर कोई करवट नहीं ली. यमुना में कलरव नहीं है, सुमधुर संगीत कब का खत्म हुआ. लहरें, लय, ताल वक्त के साथ स्वाहा हो गए. यमुना में अब रुदन शेष है, क्रंदन बचा है. धर्मगुरु, पंडेपुजारी और भक्तगण मिल कर यमुना का निगमबोध घाट, लोधी रोड श्मशान घाट पर कब का अंतिम संस्कार कर चुके हैं.

प्रचारित किया जा रहा है कि श्रीश्री रविशंकर श्वास की लय, गति व स्थिरता बाबत एक नई खोज ‘सुदर्शन क्रिया’ के लिए जाने जाते हैं. वे अपने भक्तों को यह क्रिया सशुल्क सिखाते हैं लेकिन पूरे कार्यक्रम में इस प्रतिनिधि ने उन के भक्तों के चेहरे पढे़. उन में ज्यादातर के मुंह लटके हुए, माथे पर तनाव, कोई शुगर का मरीज, कोई ब्लडप्रैशर का, कोई हृदय रोगी, कोई श्वास यानी अस्थमा से पीडि़त दिखा. जब गुरुजी के अनुयायियों के चेहरों पर खुशी नहीं है, वे स्वस्थ नहीं हैं, पारिवारिक सुखशांति से समृद्ध नहीं हैं तो फिर ऐसे गुरूकंटाल किस मर्ज की दवा हैं? फिर भी थकेहारे चेलेचेलियां गुरुजी के जयकारे लगा रहे थे. ऐसे में आर्ट औफ लिविंग क्या आर्ट औफ चीटिंग या आर्ट औफ फूलिंग नहीं है? इस व इस जैसी क्रियाओं के सहारे धर्मगुरु केवल अपना प्रचार करते हैं.

आयोजन का टैलीविजन चैनलों, अखबारों से ले कर हर जगह बैनर, पोस्टर, होर्डिंग्स, पैंफलेट्स व नुक्कड़ मनोरंजन प्रोग्रामों के माध्यमों से खूब प्रचार किया गया. इस से श्रीश्री की दुकानदारी खूब चल रही थी. श्रीश्री के नाम से बने कई प्रोडक्ट्स पानी की बोतल, कोल्ड डिंक्स, घी, आयुर्वेदिक दवाएं हर कोने पर बने स्टौलों पर बेची जा रही थीं.

ऐसे उत्सव धर्म का प्रचार हैं. इस प्रचार में पैसा सर्वोपरि है. आज दुनिया धर्म की वजह से गैरबराबरी का सामना कर रही है. असमानता विश्व के सामने सब से बड़ी चुनौती है. धर्म और राजसत्ता दोनों मिल कर लूट, बांट कर खाना चाहती है. अमेरिका की चुनावी राजनीति में धार्मिक कट्टर दावेदार डोनाल्ड ट्रंप का आगे बढ़ना इस ओर संकेत कर रहा है कि अमीर और धर्म मिल कर आम लोगों को लूटें.

यह तय है कि धर्मों के प्रचार से विश्व में शांति स्थापित नहीं हो सकती. विकास के लाभ से आज हर देश का एक बड़ा तबका वंचित है. उस तबके में आक्रोश देखा जा रहा है. सरकारें उस आक्रोश को दबाना चाहती हैं. सरकारें धार्मिक असमानता, भय और संघर्ष को जन्म दे रही हैं.

औचित्य पर सवाल

मोदी सरकार का इस पूरे समारोह में साथ खड़े रहना दिखाता है कि अब यमुना पर पौराणिक कथाएं सुनाई जाएंगी, तरहतरह के धार्मिक कर्मकांड के लिए यह जगह विकसित की जाएगी. केंद्र की भाजपा सरकार का यह स्टैंडअप इंडिया है, नया स्टार्टअप है ताकि पंडों को नया रोजगार मिल सके. यमुना के किनारे ऐसे कई धार्मिक स्टार्टअप शुरू किए जाएंगे. रामदेव के कंज्यूमर प्रोडक्ट्स श्रीश्री के प्रोडक्ट्स बिकने लगेंगे. यह उन की  अपनी मार्केटिंग का फंडा ही तो था.

यहां सवाल नदी की सफाई का नहीं है. कार्यक्रम के निहितार्थ धर्म, नदी, कला, संस्कृति के नाम पर नाचगाने का तमाशा कर के श्रीश्री का प्रचार करना है. संस्कृति और पर्यावरण के नाम पर किए गए इस तमाशे से न यमुना का, न कला और कलाकारों का और न ही इस देश का  कोई कल्याण हो पाएगा. यह धर्मगुरु का दुनियाभर में प्रचार मात्र है. इस प्रचार से श्रीश्री के माथे पर इनामों की कुछ कलगी जरूर लग जाएगी और झोली में विश्वभर से धन की आमद बढ़ जाएगी. धर्मगुरुओं के पास मार्केटिंग की यही तो आर्ट है.

आयोजन के लिए ताक पर नियम कायदे

एनजीटी ने आईआईटी दिल्ली के एक प्रोफैसर के नेतृत्व में डीडीए के प्रतिनिधियों समेत एक टीम को 16 फरवरी को प्रस्तावित स्थल पर हो रहे निर्माणकार्य की स्थिति की जांच कर रिपोर्ट देने को कहा था. 19 फरवरी को एनजीटी को यह रिपोर्ट दे दी गई. बाद में एनजीटी ने एक प्रिंसिपल कमेटी और पर्यावरण व वन मंत्रालय को भी प्रस्तावित आयोजन स्थल की जांच के लिए भेजा. इन की रिपोर्ट्स 23 और 26 फरवरी को एनजीटी के सामने पेश की गईं.सभी रिपोर्ट्स में पाया गया कि कार्यक्रम के आयोजन के लिए हो रहे निर्माण कार्य में नियमों को ताक पर रखा गया जिस से यमुना नदी और उस के प्राकृतिक माहौल को नुकसान पहुंचा है. प्रिंसिपल कमेटी ने आयोजनकर्ताओं से 100-120 करोड़ रुपए का जुर्माना वसूलने की सिफारिश की ताकि वहां डाले गए मलबे और कचरे को हटा कर यमुना तल के पर्यावरण को फिर से जिंदा किया जा सके.

आईआईटी के प्रोफैसर की रिपोर्ट में कहा गया था कि निर्माण का क्षेत्र इतना विशाल और व्यापक है कि एकसाथ कैमरे में कैप्चर करना लगभग असंभव है. इसे सिर्फ वहां जा कर ही देखा जा सकता है. रिपोर्ट में उन्होंने लिखा था कि इस आयोजन की अनुमति देना एक बुरी मिसाल होगी.आयोजकों द्वारा दावा किया गया था कि उन्होंने पूरी तरह अस्थायी निर्माण कराया है और कचरे की डंपिंग नहीं की गई लेकिन कचरे की डंपिंग के बेशुमार निशान निर्माण स्थल पर दिखाई दे रहे थे, जिन का इस्तेमाल यमुना तल के गड्ढों को भरने के लिए किया गया. इस पर बाद में रोड रोलर चला कर समतल करने का प्रयास किया गया.

धर्मशाला: ये हसीं वादियां

घूमने या सैरसपाटे की जब भी बात आती है तो शहरी आपाधापी से दूर पहाड़ों की नैसर्गिक सुंदरता सब को अपनी ओर आकर्षित करती है. इन छुट्टियों को अगर आप भी हिमालय की दिलकश, बर्फ से ढकी चोटियों, चारों ओर हरेभरे खेत, हरियाली और कुदरती सुंदरता के बीच गुजारना चाहते हैं तो हिमाचल प्रदेश के कांगड़ा के उत्तरपूर्व में 17 किलोमीटर की दूरी पर स्थित धर्मशाला पर्यटन की दृष्टि से परफैक्ट डैस्टिनेशन हो सकता है. धर्मशाला की पृष्ठभूमि में बर्फ से ढकी छोलाधार पर्वतशृंखला इस स्थान के नैसर्गिक सौंदर्य को बढ़ाने का काम करती है. हाल के दिनों में धर्मशाला अपने सब से ऊंचे और खूबसूरत क्रिकेट मैदान के लिए भी सुर्खियों में बना हुआ है. हिमाचल प्रदेश के दूसरे शहरों से अधिक ऊंचाई पर बसा धर्मशाला प्रकृति की गोद में शांति और सुकून से कुछ दिन बिताने के लिए बेहतरीन जगह है.

धर्मशाला शहर बहुत छोटा है और आप टहलतेघूमते इस की सैर दिन में कई बार करना चाहेंगे. इस के लिए आप धर्मशाला के ब्लोसम्स विलेज रिजौर्ट को अपने ठहरने का ठिकाना बना सकते हैं. पर्यटकों की पसंद में ऊपरी स्थान रखने वाला यह रिजौर्ट आधुनिक सुविधाओं से लैस है जहां सुसज्जित कमरे हैं जो पर्यटकों की जरूरतों को ध्यान में रख कर बनाए गए हैं. बजट के अनुसार सुपीरियर, प्रीमियम और कोटेजेस के औप्शन मौजूद हैं. यहां के सुविधाजनक कमरों की खिड़की से आप धौलाधार की पहाडि़यों के नजारों का लुत्फ उठा सकते हैं. यहां की साजसजावट व सुविधाएं न केवल पर्यटकों को रिलैक्स करती हैं बल्कि आसपास के स्थानों को देखने का अवसर भी प्रदान करती हैं. इस रिजौर्ट से आप आसपास के म्यूजियम, फोर्ट्स, नदियों, झरनों, वाइल्ड लाइफ पर्यटन और सांस्कृतिक कार्यक्रमों का आनंद ले सकते हैं.

धर्मशाला चंडीगढ़ से 239 किलोमीटर, मनाली से 252 किलोमीटर, शिमला से 322 किलोमीटर और नई दिल्ली से 514 किलोमीटर की दूरी पर स्थित है. इस स्थान को कांगड़ा घाटी का प्रवेशद्वार माना जाता है. ओक और शंकुधारी वृक्षों से भरे जंगलों के बीच बसा यह शहर कांगड़ा घाटी का मनोरम दृश्य प्रस्तुत करता है. अंतर्राष्ट्रीय स्तर पर मान्यताप्राप्त धर्मशाला को ‘भारत का छोटा ल्हासा’ उपनाम से भी जाना जाता है. हिमालय की दिलकश, बर्फ से ढकी चोटियां, देवदार के घने जंगल, सेब के बाग, झीलों व नदियों का यह शहर पर्यटकों को प्रकृति की गोद में होने का एहसास देता है. कांगड़ा कला संग्रहालय: कला और संस्कृति में रुचि रखने वालों के लिए यह संग्रहालय एक बेहतरीन स्थल हो सकता है. धर्मशाला के इस कला संग्रहालय में यहां के कलात्मक और सांस्कृतिक चिह्न मिलते हैं. 5वीं शताब्दी की बहुमूल्य कलाकृतियां और मूर्तियां, पेंटिंग, सिक्के, बरतन, आभूषण, मूर्तियां और शाही वस्त्रों को यहां देखा जा सकता है.

मैकलौडगंज : अगर आप तिब्बती कला व संस्कृति से रूबरू होना चाहते हैं तो मैकलौडगंज एक बेहतरीन जगह हो सकती है. अगर आप शौपिंग का शौक रखते हैं तो यहां से सुंदर तिब्बती हस्तशिल्प, कपड़े, थांगका (एक प्रकार की सिल्क पेंटिंग) और हस्तशिल्प की वस्तुएं खरीद सकते हैं. यहां से आप हिमाचली पशमीना शाल व कारपेट, जो अपनी विशिष्टता के लिए अंतर्राष्ट्रीय स्तर पर प्रचलित हैं, की खरीदारी कर सकते हैं. समुद्रतल से 1,030 मीटर की ऊंचाई पर स्थित मैकलौडगंज एक छोटा सा कसबा है. यहां दुकानें, रेस्तरां, होटल और सड़क किनारे लगने वाले बाजार सबकुछ हैं. गरमी के मौसम में भी यहां आप ठंडक का एहसास कर सकते हैं. यहां पर्यटकों की पसंद के ठंडे पानी के झरने व झील आदि सबकुछ हैं. दूरदूर तक फैली हरियाली और पहाडि़यों के बीच बने ऊंचेनीचे घुमावदार रास्ते पर्यटकों को ट्रैकिंग के लिए प्रेरित करते हैं.

कररी : यह एक खूबसूरत पिकनिक स्थल व रैस्टहाउस है. यह झील अल्पाइन घास के मैदानों और पाइन के जंगलों से घिरी हुई है. कररी 1983 मीटर की ऊंचाई पर स्थित है. हनीमून कपल्स के लिए यह बेहतरीन सैरगाह है.

मछरियल और ततवानी : मछरियल में एक खूबसूरत जलप्रपात है जबकि ततवानी गरम पानी का प्राकृतिक सोता है. ये दोनों स्थान पर्यटकों को पिकनिक मनाने का अवसर देते हैं.  

कैसे जाएं

धर्मशाला जाने के लिए सड़क मार्ग सब से बेहतर रहता है लेकिन अगर आप चाहें तो वायु या रेलमार्ग से भी जा सकते हैं.

वायुमार्ग : कांगड़ा का गगल हवाई अड्डा धर्मशाला का नजदीकी एअरपोर्ट है. यह धर्मशाला से 15 किलोमीटर दूर है. यहां पहुंच कर बस या टैक्सी से धर्मशाला पहुंचा जा सकता है.

रेलमार्ग : नजदीकी रेलवे स्टेशन पठानकोट यहां से 95 किलोमीटर दूर है. पठानकोट और जोगिंदर नगर के बीच गुजरने वाली नैरोगेज रेल लाइन पर स्थित कांगड़ा स्टेशन से धर्मशाला 17 किलोमीटर दूर है.

सड़क मार्ग : चंडीगढ़, दिल्ली, होशियारपुर, मंडी आदि से हिमाचल रोड परिवहन निगम की बसें धर्मशाला के लिए नियमित रूप से चलती हैं. उत्तर भारत के प्रमुख शहरों से यहां के लिए सीधी बससेवा है. दिल्ली के कश्मीरी गेट और कनाट प्लेस से आप धर्मशाला के लिए बस ले सकते हैं.

कब जाएं

धर्मशाला में गरमी का मौसम मार्च से जून के बीच रहता है. इस दौरान यहां का तापमान 22 डिगरी सैल्सियस से 38 डिगरी सैल्सियस के बीच रहता है. इस खुशनुमा मौसम में पर्यटक ट्रैकिंग का आनंद भी ले सकते हैं. मानसून के दौरान यहां भारी वर्षा होती है. सर्दी के मौसम में यहां अत्यधिक ठंड होती है और तापमान -4 डिगरी सैल्सियस के भी नीचे चला जाता है जिस के कारण रास्ते बंद हो जाते हैं और विजिबिलिटी कम हो जाती है. इसलिए धर्मशाला में घूमने के लिए जून से सितंबर के महीने उपयुक्त हैं.

झील झरनों का पर्वतीय आनंद: डलहौजी

हिमाचल प्रदेश का पर्यटन स्थल डलहौजी अंगरेजों की बदौलत बना है. अब वहां नएनए रिजौर्ट खुल रहे हैं जो उसे और ज्यादा लोकप्रिय बना रहे हैं. शहर के बीचोंबीच बना सागरिका रिजौर्ट उन में से एक है.

अंगरेजों ने अपने शासनकाल के दौरान हिल स्टेशन तब बनवाए जब वे देश की भीषण गरमी से उकता गए. गरमी के मौसम में सुकूनभरे पल किसी ठंडी और शांत जगह पर बिता सकें, इस के लिए देश के पहाड़ी इलाकों में खूबसूरत और मनोरम ठिकानों की तफ्तीश कर उन्होंने देश में हिल स्टेशन परंपरा शुरू की. आज भी देश में पर्यटन के सब से मजेदार और मनभावन ठिकाने यही स्टेशन माने जाते हैं. डलहौजी इसी हिल स्टेशन परंपरा का एक हिस्सा है.

डलहौजी में जब सैलानी मनोरम नजारों, झीलझरनों का आनंद और पहाडि़यों के मजेदार सफर से थका हुआ लौटता है तो उस के आराम के लिए यहां के शानदार और लक्जूरियस रिजौर्ट्स उसे फिर से तरोताजा करने में कोई कोरकसर नहीं छोड़ते.

डलहौजी के कोर्ट रोड पर बने द मौल नामक रिजौर्ट के सामने ही मेन मार्केट है. फ्री वाईफाई, बाथरूम शावर व अन्य सुविधाओं से लैस रिजौर्ट पर्यटन स्थल को अब और रमणीय बना रहे हैं.

मनोरंजक नजारों से घिरे सागरिका रिजौर्ट की तरह डलहौजी में कई होटल्स और रिजौर्ट हैं. इन रिजौर्टों से टैक्सी ले कर आप सारे दर्शनीय स्थल घूम सकते हैं.

लाजवाब हिमाचल

डलहौजी का पर्वतीय सौंदर्य सैलानियों के दिल में ऐसी अनोखी छाप छोड़ देता है कि यहां बारबार आने का मन करता है. 19वीं सदी में अंगरेज शासकों द्वारा बसाया गया यह टाउन, अपने ऐतिहासिक महत्त्व और प्राकृतिक रमणीयता के लिए जाना जाता है. यहां मौजूद शानदार गोल्फ कोर्स, प्राकृतिक अभयारण्य और

3 नदियों की जलधाराओं के संगम जैसे अनेक स्थलों के आकर्षण में बंधे हजारों पर्यटक हर वर्ष आते हैं. प्राकृतिक सौंदर्य, मनमोहक आबोहवा, ढेरों दर्शनीय स्थल और देवदार के घने जंगलों से घिरा डलहौजी, हिमाचल प्रदेश के चंपा जिले में स्थित खूबसूरत हिल स्टेशन है. यह स्थल 5 पहाडि़यों कठलौंग, पोट्रेन, तेहरा, बकरोटा और बलून पर बसा है.

समुद्रतल से 2 हजार मीटर की ऊंचाई पर स्थित यह टाउन 13 किलोमीटर के छोटे से क्षेत्रफल में फैला है. एक ओर दूरदूर तक फैली बर्फीली चोटियां तो दूसरी ओर चिनाब, व्यास और रावी नदियों की कलकल करती जलधारा, मनमोहक नजारा पेश करती हैं.

पंचपुला और सतधारा

डलहौजी से केवल 2 किलोमीटर की दूरी पर स्थित है, पंचपुला. इस का नाम यहां पर मौजूद प्राकृतिक कुंड और उस पर बने छोटेछोटे 5 पुलों के आधार पर रखा गया है. यहां से कुछ दूरी पर एक अन्य रमणीय स्थल सतधारा झरना स्थित है. किसी समय तक यहां 7 जलधाराएं बहती थीं. लेकिन अब केवल एक ही धारा बची है. बावजूद इस के, इस झरने का सौंदर्य बरकरार है. माना जाता है कि सतधारा का जल प्राकृतिक औषधीय गुणों से भरपूर और अनेक रोगों का निवारण करने की क्षमता रखता है.

खजियार का सौंदर्य

डलहौजी हिल स्टेशन की यात्रा बगैर खजियार देखे अधूरी ही लगती है. यह स्थल डलहौजी से 27 किलोमीटर की दूरी पर स्थित है. दरअसल, खजियार उस मनमोहक झील के लिए प्रसिद्ध है जिस का आकार तश्तरीनुमा है. यह स्थल देवदार के लंबे और घने जंगलों के बीच स्थित है. गोल्फ खेलने के शौकीन पर्यटकों को यह स्थान विशेषरूप से पसंद आता है क्योंकि यहां एक शानदार गोल्फ कोर्स भी मौजूद है. इस के साथ ही, व्यास, रावी और चिनाब नदियों का अद्भुत संगम यहां से 10 किलोमीटर की दूरी पर स्थित डायनकुंड में देखा जा सकता है. यह डलहौजी का सब से ऊंचा स्थल है.

चंबा का दिल कहे जाने वाले हरियाले चैगान के एक छोर पर बने हरिराय मंदिर में अद्वितीय कलाकौशल की झलक देखने को मिलती है. यहीं पर भूरी सिंह संग्रहालय है, जहां ऐतिहासिक दस्तावेज, पेंटिंग्स, पनघट शिलाएं, अस्त्रशस्त्र और सिक्के संग्रहीत हैं.

आकर्षक है डलहौजी का जीपीओ इलाका

डलहौजी का जीपीओ इलाका भी काफी चहलपहल भरा माना जाता है. जीपीओ से करीब 2 किलोमीटर दूर सुभाष बावली है.

कहा जाता है कि इस जगह पर स्वतंत्रता सेनानी सुभाष चंद्र बोस करीब 5 महीने रुके थे और इस दौरान वे इसी बावली का पानी पीते थे. यहां से बर्फ से ढके ऊंचे पर्वतों का विहंगम नजारा देखते ही बनता है. सुभाष बावली से लगभग आधा किमी दूर स्थित जंध्री घाट में मनोहर पैलेस ऊंचेऊंचे चीड़ के पेड़ों के बीच स्थित है. यह जगह चंबा के पूर्व शासक के पैलेस के लिए भी प्रसिद्ध है. पैलेस के अलावा यहां आप चाहें तो चीड़ के पेड़ से हो कर निकलती सुगंधित मंदमंद हवा में बैठ कर पिकनिक का भी मजा ले सकते हैं.

कब जाएं

डलहौजी का मौसम वैसे तो सालभर सुहाना रहता है लेकिन सब से उपयुक्त समय अप्रैल से जून और अक्तूबर से दिसंबर के बीच का माना जाता है.

क्या खरीदें

डलहौजी की मजेदार यात्रा के दौरान अगर कुछ खरीदना चाहते हैं तो यहां का तिब्बती बाजार उम्दा विकल्प है, जहां कई परंपरागत आकर्षक कपड़े और एंटीक्स सस्ते दामों पर मिल जाते हैं. इस के अलावा तिब्बती हैंडीक्राफ्ट्स जैसे पुलोवर्स, कार्पेट और शौल आदि घर ले जा सकते हैं.

– साथ में अशोक वशिष्ठ

कैसे जाएं

रेलमार्ग : डलहौजी का नजदीकी रेलवेस्टेशन पठानकोट है, जो यहां से 80 किलोमीटर की दूरी पर स्थित है. जम्मूतवी जाने वाली लगभग सभी ट्रेनें पठानकोट हो कर जाती हैं. पठानकोट, दिल्ली के अलावा जालंधर, अमृतसर और जम्मू से भी जुड़ा है.

वायुमार्ग : वायुमार्ग से पहुंचने के लिए यहां का निकटतम एअरपोर्ट गग्गल, कांगड़ा है, जो लगभग 124 किलोमीटर दूर स्थित है.

सड़कमार्ग : पठानकोट और अन्य स्थानों से बस या टैक्सी से डलहौजी पहुंचा जा सकता है.

दिलचस्प तथ्य डलहौजी के

–       1853 में अंगरेजों ने पौर्टिरन, कठलोश, टेहरा, बकरोटा और बलून पहाडि़यों को चंबा के राजाओं से खरीद लिया था.

–       इस के बाद इस स्थान का नाम लौर्ड डलहौजी के नाम पर डलहौजी रख दिया गया.

–       बलून पहाड़ी पर उन्होंने छावनी बसाई, जहां आज भी छावनी क्षेत्र है.

–       डलहौजी शहर मुख्यतया पौर्टिरन पहाड़ी के आसपास बसा है.

–       डलहौजी के पास भूरी सिंह संग्रहालय है जिसे राजा भूरी सिंह ने 1908 में दान किया था.

स्मार्ट पैकिंग भी जरूरी

पर्यटन के लिए आजकल पहले से सारी तैयारी करने का चलन है. मसलन, पहले से ही टिकट कन्फर्म करवाने से ले कर रहने का प्रबंध आदि. हालांकि टिकट जितनी आसानी से कन्फर्म होते हैं उतनी ही मुश्किल से रहने के लिए किसी अच्छे होटल या रिजौर्ट का इंतजाम होता है. ऐसा इसलिए क्योंकि जितना जरूरी किसी पर्यटन स्थल की सैर करना होता है उस से ज्यादा जरूरी होता है वहां रहने की ठीकठाक व्यवस्था. जब सैलानी झीलझरनों का आनंद और पहाडि़यों के मजेदार सफर से थका हुआ लौटता है तो उसे चाहिए कि उस के आराम के लिए वे सारे इंतजाम जो किसी पांचसितारा होटल में या अपने घर में होते हैं.

अगर रहने की मनमाफिक जगह न मिले तो घूमनेफिरने का मजा किरकिरा हो जाता है. इस के अलावा वहां के मौसम के मिजाज को समझते हुए कपड़े और अन्य सामान भी समझदारी से पैक करने की जरूरत होती है.

यह भी खूब रही

मकर संक्रांति पर हम अपने छोटे भाई के यहां अहमदाबाद गए हुए थे. 15 साल के बाद वह वापस आया हुआ था. अब तक भाईभाभी और उन के 2 बच्चे अमेरिका में थे. चायनाश्ते के बाद हम सब फ्लैट की छत पर पतंग उड़ाने पहुंच गए. काफी पतंग उड़ रही थीं. भाई की पतंग थोड़ी सी फट गई. उस पर गोंद पट्टी चिपकानी थी. गोंद पट्टी काटने के लिए उसे कैंची चाहिए थी. उस ने अपने 8 साल के बेटे से भाभी के पास से कैंची लाने को कहा. पर भाभी ने उसे यह कह कर वापस भेजा कि वे थोड़ी ही देर में ऊपर आ रही हैं, कैंची साथ लाएंगी.

उन के फ्लैट में 2 छत हैं और बीच में सीढि़यां. वे जब ऊपर आईं तो हमें बड़ी शान से बताया कि आते समय उन्होंने बाजू वाली छत से गुजरती कई पतंगों को काट डाला. हमें यकीन नहीं हो रहा था क्योंकि उन के हाथ में न पतंग थी न डोर. फिर उन्होंने दूसरों की पतंग काटी तो काटी कैसे.

हमारे पूछने पर उन्होंने कैंची हमारी आंखों के सामने नचाते हुए कहा, ‘‘इस से.’’ जब हम सब के ध्यान में यह बात आई कि वे समझ रही थीं कि इस तरह ही पतंग काटी जाती है और भाई ने इसी के लिए कैंची मंगवाई है तो हम सब इतनी जोर से हंस पड़े कि वे देखती रहीं. हम ने उन्हें समझाया, ‘‘भाभी, पतंग काटने का मतलब है, 2 पतंगों के पेच होते हैं और जब एक डोर से दूसरी पतंग की डोर काटी जाती है तो इसे पतंग को काटना कहते हैं, न कि कैंची से.’’

दरअसल, वे महाराष्ट्र से हैं, उन्हें पतंगबाजी के बारे में ये सब मालूम न था. हमारे कहने पर भोलेपन से वे बोल उठीं, ‘‘ओहो, मुझे क्या पता था. मैं ने कैंची से तो उन बेचारों की पतंग यों ही काट डाली.’’

– प्रतिमा विप्रदास, बड़ौदा (गुज.)

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मेरी 5 वर्षीय भतीजी नटखट और चंचल स्वभाव की है. पढ़ते समय बिलकुल ध्यान नहीं देती थी. इधरउधर घूमती रहती थी. सो, उस के लिए ट्यूशन लगवा दिया गया. ट्यूशन में टीचर उसे लिखने का कोई भी काम दे देते, फिर घर में किसी से पढ़ने के लिए मैगजीन मांगते. और जब 1 घंटा पूरा हो जाता तब होमवर्क दे कर चलते बनते. हम उन का पढ़ाने का तरीका समझ गए थे. अगले दिन जैसे ही टीचर ने पढ़ने के लिए मैगजीन मांगी, हमारी दादी धार्मिक कहानियों की पुस्तक ले आईं. उस के अगले ही दिन से टीचरजी की वह आदत छूट गई.

– शशि कटियार, कानपुर (उ.प्र.)

शिवा थापा को मिला रियो ओलंपिक का टिकट, मैरीकॉम चूकी

पांच बार की वर्ल्ड चैंपियन एम सी मैरी कॉम चीन के किनान में चल रहे एशियन (ओलिंपिक) क्वालिफाइंग टूर्नामेंट में अपने 51 किलोग्राम वर्ग में रेन कैनकैन के हाथों हार गई. इस हार के साथ ही वे रियो ओलंपिक का टिकट पक्का करने से चूक गई. लेकिन भारतीय मुक्केबाज शिवा थापा ने अपने 56 किलोग्राम वर्ग में 2013 वर्ल्ड चैंपियनशिप के कांस्य पदक विजेता कैरात येरालियेव को हराते हुए सेमीफाइनल में जगह बना ली और रियो का टिकट भी हासिल कर लिया.

शिवा को अगला लक्ष्य टूर्नामेंट के फाइनल मुकाबले को जीतना है. इस जीत के बाद वे काफी उत्साहित नजर आए. आपको बता दें कि 22 वर्षीय शिवा ने लंदन ओलंपिक्स में भी भाग लिया था. उस समय वे सबसे कम उम्र में ओलंपिक्स के लिए क्वालीफाई करने वाले खिलाड़ी बने थे. इस बार देश को यही उम्मीदें है कि रियो ओलंपिक में वे देश के लिए कोई पदक हासिल करे.

मैरी कॉम को मिलेगा एक मौका

एशियन (ओलंपिक) क्वालिफाइंग टूर्नामेंट से बाहर होने के बावजूद मैरी कॉम की रियो ओलंपिक में जाने की सारी उम्मीदें अभी खत्म नहीं हुई है. अभी उन्हें एक और मौका मिलेगा. लंदन ओलिंपिक्स की कांस्य पदक विजेता मैरी कॉम को मई में वर्ल्ड चैंपियनशिप के दौरान रियो के लिए क्वालिफाई करने का एक और मौका मिलेगा.

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