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भारत भूमि युगे युगे

वेंकैया बनाम वरुण

अजमल आमिर कसाब की फांसी गुजरे कल की बात हो गई है लेकिन वरुण गांधी का बयान भाजपा के गले की फांस बन गया है जिस में उन्होंने कहा था कि अब तक ज्यादातर फांसियां अल्पसंख्यकों यानी मुसलमानों और दलितों को ही क्यों हुई हैं. इस फांस को बगैर सर्जरी के हटाने की कोशिश वरिष्ठ मंत्री वेंकैया नायडू ने यह कहते की कि क्या फांसी में भी आरक्षण व्यवस्था लागू की जानी चाहिए? हर कोई जानता है कि मुद्दा या लड़ाई कसाब, दलित या फांसी नहीं बल्कि भाजपा के अंदर वर्चस्व की है. वरुण गांधी के कांग्रेसी संस्कार कभीकभी शब्दों और विचारों में प्रकट हो जाते हैं तो मूल भाजपाई तिलमिला उठते हैं. लेकिन वे कर कुछ नहीं पाते. इस की पहली वजह तो यह है कि वरुण मेनका गांधी के बेटे हैं. उन की गंभीरता और परिपक्वता को ले कर संशय बना ही रहता है. और दूसरी, उत्तर प्रदेश के विधानसभा चुनाव की आहट है. ऐसे में कोई उन से पंगा नहीं लेना चाहता.

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मैगी रिटर्न्स

मुंबई उच्च न्यायालय के फैसले से पहले ही केंद्रीय उपभोक्ता मामलों के मंत्री रामविलास पासवान ने अपनी यह उम्मीद सार्वजनिक तौर पर जता दी थी कि मैगी जल्द ही दुकानों पर लौटेगी. इस के बाद अदालत की सी भाषा का इस्तेमाल करते उन्होंने कहा था कि तथ्यपरक निष्कर्ष आने तक अनावश्यक हंगामा नहीं होना चाहिए. पासवान की आवाज में दम इस बात का भी था कि टैक्नोलौजी रिसर्च इंस्टीट्यूट ने अपनी जांच में मैगी को सुरक्षित पाया है. इस विज्ञापन रूपी बयान के कोई खास माने होते अगर योग गुरु बाबा रामदेव देसी मैगी बाजार में लाने का एलान न कर चुके होते. रामदेवरामविलास के संबंधों पर इस बयान का फर्क पड़ना तय है जिस की मध्यस्थता करते नरेंद्र मोदी को तैयार रहना चाहिए क्योंकि बात मैगी की कम मुनाफे की ज्यादा है.

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कोर्ट को बख्शें

तेजतर्रार डी के अरुणा साल 2014 तक आंध्र प्रदेश की जनसंपर्क मंत्री हुआ करती थीं लेकिन जब तेलंगाना राज्य बना तो उन्हें मंत्री नहीं बनाया गया. यह एक साधारण सी सियासी बात है जिसे ले कर अरुणा सीधे सुप्रीम कोर्ट जा पहुंचीं और एक जनहित याचिका खुद के मंत्री न बनाए जाने पर दायर कर दी. उन की वकील मीनाक्षी अरोड़ा ने दलील यह दी कि तेलंगाना सहित उत्तर प्रदेश, दिल्ली, पंजाब, नागालैंड और मिजोरम में सरकारें समानता के अधिकार का पालन नहीं कर रही हैं. इस अद्भुत याचिका और तर्क पर सुप्रीम कोर्ट का हैरान हो जाना स्वाभाविक था. वजह न्यायपालिका, विधायिका और कार्यपालिका के कामों व अधिकारों के बारे में हर कोई जानता है, इसलिए बड़ी शिष्टता व सभ्यता से यह याचिका जनहित में ही खारिज कर दी गई. वहीं, अदालत ने यह कहते मलहम लगा दिया कि अदालत विधायिका पर ऐसे दबाव नहीं डाल सकती. ऐसी मांग उठाने के और भी मंच हैं, अब अरुणा जो चाहें मंच चुन लें.

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किस का बजाज

देश के शीर्ष उद्योगपतियों में शुमार सांसद राहुल बजाज ने बड़ी दिलचस्प बातें बीते दिनों कहीं. वे भाजपा और कांग्रेस दोनों दलों के साथ हैं लेकिन कह वही रहे हैं जो बाकी सभी लोग कह रहे हैं. लाल बुझक्कड़ शैली में एक पहेली का समापन करते राहुल बजाज ने वह रहस्य खोला जो पहले से ही खुला पड़ा था कि पिछले साल ऐतिहासिक जीत हासिल करने वाली सरकार अपनी चमक खो रही है. सरकार यानी नरेंद्र मोदी और राहुल बजाज यानी उद्योग जगत, जिस के इशारों पर सरकारें बनती और गिरती हैं. अब इस उद्योग जगत ने एक चर्चा पर हां की मुहर लगा दी तो धड़ल्ले से कसबाई स्तर तक के सर्वे आने लगे कि नहीं, अभी ऐसा कहना जल्दबाजी होगी. नरेंद्र मोदी को और वक्त दिया जाना चाहिए. तय है इस धुंधलाती चमक के बारे में मध्यवर्गीय राय ज्यादा माने रखती है जो इतनी जल्दी अपने फैसले पर पछताना नहीं चाहता.

अनीता की दूसरी पारी

टीवी की दुनिया टीआरपी के घोड़े पर सवार रहती है. जरा सी टीआरपी क्या लुढ़की, इन के सीरियल्स में उठापटक होने लगती है. कभी किसी किरदार को विवाद की चादर ओढ़ा कर तो कभी गुजरे जमाने के मशहूर व आज रिटायर हो चुके अदाकारों को छोटे परदे पर लाया जाता है ताकि सीरियल्स से दर्शक को चिपकाए रखा जा सके. कई बार यह तरीका कामयाब भी हो जाता है. शेखर सुमन सालों पहले अपना फिल्मी कैरियर डूबता देख रहे थे तभी उन्हें टीवी में बुलावा आया और उन्होंने टीवी की दुनिया में लंबी पारी खेली. इसी तरह फारूख शेख भी टीवी पर आए. छोटे परदे पर इन दिनों 80-90 दशक की अभिनेत्रियों को लाया जा रहा है. पिछले साल सोनाली बेंद्रे ने जहां ‘अजीब दास्तान है ये’ धारावाहिक से टीवी पर कमबैक किया वहीं पूनम ढिल्लन, करिश्मा कपूर, माधुरी दीक्षित और प्रीटी जिंटा भी यह कर चुकी हैं और आज भी कर रही हैं.

जल्द ही अभिनेत्री अनीता राज भी ‘एक था राजा एक थी रानी’ धारावाहिक में महारानी प्रियंवदा के किरदार में नजर आएंगी. वैसे इस से पहले वे अनिल कपूर के साथ धारावाहिक ‘24’ में अहम किरदार निभा चुकी हैं. दरअसल अपने जमाने की मशहूर अभिनेत्रियों को टीवी पर लाने के दोहरे फायदे हैं. पहला तो यह कि रिटायर हो चुकी इन अदाकारों में वापस कैमरे पर आने का उत्साह होता है जिस के चलते ये टीवी पर पहले से स्थापित हो चुके बड़े कलाकारों की तरह नखरे नहीं करते. दूसरा इन अभिनेत्रियों के जमाने से जुड़ा दर्शक वर्ग इन धारावाहिकों को बोनस की तरह मिलता है. यही वजह है कि अमोल पालेकर और रघुवीर यादव भी एक सीरियल से टीवी पर कमबैक कर रहे हैं. अनीता राज की बात करें तो वे अपने जमाने में बहुत कामयाब अभिनेत्री नहीं थी लेकिन कुछ ग्लैमरस स्टाइल और इक्कादुक्का हिट फिल्मों की बदौलत लोग उन्हें जानते हैं. पर उन की लोकप्रियता इस धारावाहिक को बहुत ज्यादा फायदा पहुंचाएगी, लगता नहीं है.

गौरतलब है कि अनीता राज की पहली फिल्म ‘प्रेमगीत’ आज से 33 साल पहले 1982 में बनी थी. इस फिल्म का गाना ‘होंठों से छू लो तुम’ आज भी अपना प्रभाव सुनने वालों पर छोड़ता है. अनीता राज के दौर की ही नहीं, उन के बाद की बहुत सारी अभिनेत्रियां आज गुम सी हो गई हैं. अनीता राज ने आज भी अपने को इस तरह से फिट रखा है कि उन को देख कर उन की उम्र का सही अंदाजा नहीं लगाया जा सकता. अनीता राज का हेयरस्टाइल फैशनेबल महिलाओं के बीच मशहूर था. हाल में जब इस प्रतिनिधि ने उन से आज के दौर की ज्यादातर अभिनेत्रियों की गुमनामी को ले कर सवाल पूछा तो उन का कहना था.’’ ‘‘नहीं ऐसा नहीं है. जिस ने वक्त के हिसाब से रोल निभाए और उम्र के प्रभाव को मैनेज किया वह आज भी फिल्मी परदे पर दिख रहा है. बढ़ती उम्र में अपने हिसाब के रोल कम मिलते हैं. अनीता का इशारा इस बात से है कि जो अभिनेत्रियां आज फिट हैं वही टीवी पर काम पा सकती हैं. लिहाजा उन से पूछने पर वे कहती हैं.

‘‘फिटनैस के लिए ऐक्सरसाइज और अपनी डाइट पर ध्यान देने के साथ ही साथ मानसिक रूप से सुकून का अनुभव भी करना चाहिए. मैं ने सही समय पर फिल्मों में काम किया. इस के बाद शादी और परिवार को समय दिया. जब मैं ने शादी की तो फिल्मों को छोड़ कर परिवार को समय दिया. मेरे पति का मुंबई में बिजनैस है. मैं उस में सहयोग देने लगी. मेरा बेटा बड़ा हो गया तो मैं ने फिर से ऐक्ंिटग की दुनिया में कदम रखा. मैं अपने बेटे और पति को उन के काम में सहयोग देती हूं. बेटा फिल्म एडिटिंग की लाइन में है. ‘अग्निपथ’ और ‘ये जवानी है दीवानी’ इन दोनों फिल्मों को उस ने एडिट किया है. वह फिल्म डायरैक्शन का काम करना चाहता है. और रही बात फिट रहने की तो मेरी फिटनैस का राज मेरा प्रतिदिन दौड़ना है. मैं रनिंग ऐक्सरसाइज करती हूं. मुंबई में समुद्र के किनारे मुझे दौड़ने का बहुत शौक है. सप्ताह में 3 दिन मैं 20 किलोमीटर की रनिंग करती हूं. मैं 42 किलोमीटर लंबी मैराथन रेस में हिस्सा ले चुकी हूं. इस के अलावा मैंटल ऐक्सरसाइज करती हूं. मैं शुरू से ही सुबह जल्दी उठती रही हूं. सुबह हर दिन टलहने और दौड़ने का काम करती रही हूं. इस से मेरे शरीर में इस तरह की ऐक्सरसाइज करने की आदत पड़ी है.’’ हालांकि फिल्मी दुनिया में जहां मौजमस्ती और लेट नाइट पार्टी रोज होती हैं. फिटनैस के लिए टाइम निकालना बेहद मुश्किल है. लिहाजा ज्यादातर कलाकार या तो जिम साथ ले कर चलते हैं या फिर स्टीरौयड पर निर्भर रहते हैं. आप के पिताजी फिल्मों के सफल चरित्र अभिनेता थे, इस के बाद भी आप पार्टियों में नहीं जाती थीं. इस पर अनीता बताती हैं.

‘‘मेरे पिता जगदीश राज फिल्मों में काम करते थे. वे अपने बच्चों को पूरी आजादी देते थे. इस के बाद भी हम लोगों पर फिल्मी माहौल का असर नहीं हुआ. मेरे पति और बेटा भी फिल्मी पार्टियों से दूर ही रहते हैं. पार्टियों में शिरकत करने में समय का सब से अधिक नुकसान होता है.’’ अकसर देखा जाता है कि सीनियर कलाकार अपने से कम अनुभवी कलाकारों के साथ सही से पेश नहीं आते. ऐसे में सीरियल ‘एक था राजा एक थी रानी’ में आप जूनियर आर्टिस्टों के साथ में काम कर रही हैं, उन से तालमेल बैठाने में कोई परेशानी तो नहीं आती है? इस सवाल पर अनीता का रिएक्शन यो है. ‘‘हमारे दौर में फिल्मों के सैट पर शूटिंग के समय अपने शूट का इंतजार करते समय कलाकार एकसाथ पासपास ही बैठते थे. छोटेबडे़ सभी कलाकार ज्यादातर एकदूसरे से बात कर के ही समय पास करते थे. अब कलाकारों को वैनिटी वैन की सुविधा होती है. जहां वे अकेले अपना समय गुजारते हैं. हमें तो एकसाथ कलाकारों के साथ बैठने की आदत है. ऐसे में मुझे छोटेबडे़ कलाकारों के साथ तालमेल बैठाने में कोई परेशानी नहीं होती. कलाकार साथ बैठते हैं तो आपसी रिलेशन बनते हैं. आज के लोग स्मार्टफोन पर ज्यादा वक्त गुजारते हैं.’’ फिल्में भले ही अनीता की सफल नहीं रही हों लेकिन उन का ग्लैमरस लुक उस जमाने में काफी चर्चित था. जब उन से पूछा गया कि.

आप का हेयरस्टाइल बहुत मशहूर था. कैसे बना यह स्टाइल तो अनीता याद करती हैं ‘‘अनीता राज हेयरस्टाइल कैसे मशहूर हो गया, यह तो मुझे भी नहीं पता. जब मेरी फिल्मों को पसंद किया जाने लगा तो लोगों को मेरा हेयरस्टाइल पसंद आने लगा. जब भी शूटिंग पर लोग मिलते तो मेरे हेयरस्टाइल की तारीफ करते. तब मुझे लगा कि मैं भी कुछ स्टाइलिश हो गई हूं. सही बात यह है कि वह कोई स्टाइल नहीं था वह तो मेरा नैचुरल स्टाइल था. मेरे बाल लंबे थे, इस कारण यह स्टाइल मशहूर हो गया.’’

आज के दौर में पसंदीदा अभिनेत्री को ले कर अनीता राज प्रियंका चोपड़ा और कंगना राणावत का नाम लेती हैं. उन के मुताबिक ये दोनों ही अच्छा अभिनय कर रही हैं. इन की फिल्मों में अलगअलग रोल देखने को मिलते हैं. यही नहीं, ये फैशन और स्टाइल आइकौन भी हैं.  इन को दर्शक भी पसंद करते हैं. हमारे समय से आज के समय की फिल्मी दुनिया बदल गई है. पहले सभी कलाकार फैमिली की तरह आपस में रहते थे, अब ऐसा माहौल नहीं दिखता.’’ अकसर अभिनेत्रियां अपने किरदार की लेंथ व उस के शेड्स को ले कर बेहद सतर्क रहती हैं. जब अनीता से पूछा गया कि. इस दौर में आ कर किस तरह के रोल करने चाहिएं तो उन का कहना है कि उम्र के इस दौर में रोल का चुनाव करना ही सब से प्रमुख काम होता है. अब पहले वाले रोल न मिलेंगे और न ही उस तरह के रोल करना अच्छा लगेगा. वे रोल करें जो आप की उम्र और पर्सनैलिटी को अच्छे लगें. सीरियल ‘एक था राजा एक थी रानी’ में मुझे महारानी का रोल अच्छा लगता है. मंहगी ज्वैलरी, राजघराने की पोशाक, वैसे ही बोलने का अंदाज सब अच्छा लगता है. इस रोल को मैं मजे ले कर कर रही हूं. कई बार तो घर आ कर भी उसी अंदाज में बात करती हूं तो मेरे पति हंसते हुए कहते हैं कि अब यहां महारानी मत बनो.

बहरहाल, अनीता राज जो अपने फिल्मी कैरियर में औसत दरजे से कभी उठ नहीं पाईं, टीवी पर भी कुछ ऐसा ही कर रही हैं. हालांकि उन की मजबूरी भी है कि उन्हें जो रोल औफर हो रहे हैं, वही बड़े सीमित हैं. लिहाजा, चुइंगम सरीखे खींचे जा रहे सीरियल में अनीता कुछ यादगार कर पाएंगी, कहना जरा मुश्किल है.

डायरैक्ट सैलिंग, उभरता कैरियर

एक मल्टीनैशनल कंपनी में कार्यरत अनुराधा गोयल, जो नोएडा की एक पौश कालोनी में रहती हैं, ने पिछले 2 सालों से किसी मौल या दुकान से अपने लिए ब्यूटी प्रोडक्ट्स नहीं खरीदे हैं. वे औरीफ्लेम डीलर को फोन कर देती हैं और घर बैठे ही उन्हें अपनी जरूरत के कौस्मैटिक्स उन्हीं दामों में मिल  जाते हैं. सब से अच्छी बात उन्हें यह लगती है कि जाने के झंझट से बचने के साथ कई बार फायदेमंद स्कीम और डिस्काउंट भी उन्हें मिल जाता है. कंपनी की बुकलैट से उन्हें नए प्रोडक्ट्स की जानकारी भी मिल जाती है और दामों को ले कर कोई चिकचिक भी नहीं करनी पड़ती. 

अनुराधा की तरह अन्य कामकाजी और घरेलू महिलाएं हैं जो डायरैक्ट सैलिंग से अपने काम की चीजों को घर बैठे मंगा लेती हैं फिर चाहे वे ब्यूटी प्रोडक्ट्स हों या हैल्थ प्रोडक्ट्स या टपरवेयर के कंटेनर या घर में काम आने वाली अन्य उपयोगी चीजें. यही नहीं, अगर अपने आसपास आप नजर घुमा कर देखेंगी तो पाएंगी कि डायरैक्ट सैलिंग एक फायदेमंद कैरियर की तरह भी अपनी जड़ें जमा चुका है, खासकर महिलाएं किसी न किसी डायरैक्ट सैलिंग नैटवर्क का हिस्सा जरूर होती हैं. केवल शहरों में ही नहीं, कसबों और ग्रामीण इलाकों में भी डायरैक्ट सैलिंग यानी प्रत्यक्ष बिक्री का चलन तेजी पकड़ रहा है.

कई ऐसी भी डायरैक्ट सैलिंग कंपनियां हैं जिन्हें लगता है कि उन के प्रोडक्ट्स को पर्सनल अटैंशन की आवश्यकता है और उस के लिए डायरैक्ट सैलिंग उन्हें सही प्लेटफौर्म लगता है. कुछ ऐसे उत्पाद होते हैं जिन्हें खरीदने से पहले दूसरों की सहमति या आश्वासन की आवश्यकता होती है, जैसे हैल्थ प्रोडक्ट्स. चूंकि अधिकांश हैल्थ सप्लीमैंट्स की कीमत 500 रुपए या अधिक होती है और लोग हैल्थ के मामले में कोई रिस्क नहीं उठाना चाहते हैं. इसलिए वे इन्हें डायरैक्ट सैलिंग कंपनियों से लेना पसंद करते हैं.

क्या है डायरैक्ट सैलिंग

यह एक ऐसा व्यापारिक माध्यम है जिस में उत्पादों और सेवाओं की मार्केटिंग सीधे उपभोक्ताओं के साथ की जाती है. इस में उपभोक्ता और विक्रेता सीधे जुड़े होते हैं और उत्पादों की सप्लाई उपभोक्ता जहां चाहे वहां की जा सकती है. इस में अपने निजी संपर्कों का प्रयोग करते हुए ‘पार्टी प्लान’ द्वारा बिजनैस किया जा सकता है. यानी कि किसी सोशल गैदरिंग के दौरान या फिर किटी पार्टी में अपने उत्पादों का प्रदर्शन किया जाए और साथ ही अपने ग्राहक बना लिए जाएं. यह बिजनैस एक नैटवर्क की तरह चलाया जाता है.

डायरैक्ट सैलिंग करने वाली कंपनियां जैसे एमवे, ओरीफ्लेम, एवोन, टपरवेयर, मोदीकेयर, सामी डायरैक्ट आदि अपने प्रतिनिधि मैंबर बनाती हैं और वे मैंबर आगे अपने और मैंबर बनाते जाते हैं. और इस तरह यह नैटवर्क एक कड़ी की तरह बनता और बढ़ता जाता है. अधिकतर कंपनियां बहुस्तरीय लाभ योजना के तहत अपने एजेंट को उस की निजी बिक्री का लाभ देती हैं और उस एजेंट ने जिन मैंबर्स को जोड़ा होता है, उन्हें भी उस के द्वारा अर्जित लाभ का हिस्सा दिया जाता है. इस की सब से महत्त्वपूर्ण बात यह है कि इस में उपभोक्ता और विक्रेता सीधे जुड़े होते हैं. इस में उत्पादों की सप्लाई उपभोक्ताओं के घर या कहीं पर भी की जा सकती है.

देता है मोटा मुनाफा

अगर इस समय बिक्री पर नजर डालें तो भिन्नभिन्न कारणों की वजह से भारतीय उपभोक्ता एमवे के शैंपू, टपरवेयर के कंटेनर, ओरीफ्लेम की क्रीम, सामी डायरैक्ट के हैल्थ सप्लीमैंट्स व स्किन केयर प्रोडक्ट्स आदि लगातार खरीद रहे हैं. जबकि आम एफएमसीजी कंपनियों की बिक्री दर में कमी आई है. डायरैक्ट सैलिंग बिजनैस को कम इन्वैस्टमैंट और ज्यादा रिटर्न के रूप में जाना जाता है. 

एमवे इंडिया (वेस्ट) के मैनेजर, कौर्पोरेट कम्युनिकेशंस, जिगनेश मेहता के अनुसार, ‘‘एक कंज्यूमर की नजर से देखें तो डायरैक्ट सैलिंग से उन्हें यह फायदा होता है कि चूंकि किसी भी उत्पाद को बहुत सोचसमझ कर, उस की पूरी जानकारी हासिल करने के बाद खरीदा जाता है, इसलिए धोखा खाने का सवाल ही नहीं उठता है. ऐसा रिटेल में संभव नहीं होता है. रिटेल में ज्यादातर कंज्यूमर विज्ञापनों, प्रमोशंस आदि पर निर्भर होता है, जिस से उसे पूरी और सही जानकारी नहीं मिल पाती. साथ ही, इतने सारे प्रोडक्ट बाजार में उपलब्ध होने के कारण कंज्यूमर को निर्णय लेने में कठिनाई होती है.’’

भारत में 16 वैधानिक डायरैक्ट सैलिंग कंपनियां हैं जो इंडियन डायरैक्ट सैलिंग एसोसिएशन का हिस्सा हैं. यह एसोसिएशन इस बिजनैस के मानक तय करता है. डायरैक्ट सैलिंग बिना किसी बड़े निवेश के किसी को भी अपना बिजनैस करने का अवसर देती है.

खुद बनें बौस

इस बिजनैस से हर वर्ग और हर उम्र के लोग जुड़ सकते हैं. इस के लिए किसी विशेष शैक्षिक योग्यता या अनुभव की आवश्यकता नहीं होती है. घरेलू महिलाएं इस बिजनैस में काफी आ रही हैं क्योंकि इस से वे अतिरिक्त कमाई तो कर ही पाती हैं, साथ ही वे रसोई का सामान या सौंदर्य उत्पादों की बिक्री भी आसानी से कर पाती हैं. इस बिजनैस का सब से बड़ा फायदा यह होता है कि आप खुद की अपनी बौस होती हैं और अपने समय व सुविधा के अनुसार काम कर सकती हैं. 

ओरीफ्लेम इंडिया की मार्केटिंग डायरैक्टर शर्मीली राजपूत के अनुसार, ‘‘यह कैरियर महिलाओं के लिए आजकल बहुत ही लोकप्रिय हो रहा है, क्योंकि यह उन्हें काम करने व समय की स्वतंत्रता देता है. साथ ही, कम पढ़ीलिखी महिलाओं को भी आत्मनिर्भर बनने व एक नियमित आय का अवसर प्रदान करता है. यह उन्हें अपने निजी व प्रोफैशनल जीवन में एक उचित बैलेंस भी रखने में सहायता करता है. ऐसी अनेक महिलाएं हैं जिन्होंने डायरैक्ट सैलिंग की कंसल्टैंट बन इसे फुलटाइम कैरियर की तरह अपनाया है. साथ ही ऐसी महिलाएं व पुरुष भी हैं जो इसे साइड बिजनैस की तरह कर रहे हैं.

‘‘चूंकि डायरैक्ट सैलिंग से एक स्थायी आय का जरिया बना रहता है, इसलिए लोग इस में अपना समय व ऊर्जा लगाने से हिचकिचा नहीं रहे हैं. यह बिजनैस महिलाओं को एक आत्मविश्वास देता है ताकि वे भी उत्पादों की बिक्री कर व एक सामाजिक दायरा विकसित कर अपने पैरों पर खड़ी हो सकती हैं. महिलाओं में चूंकि एकदूसरे को समझनेसमझाने की योग्यता सहज रूप से होती है, इसलिए उन के लिए तो यह एक बढि़या और फायदेमंद कैरियर है.’’

तेजी से बढ़ता ट्रैंड

भारत में डायरैक्ट सैलिंग का ट्रैंड बहुत तेज गति से बढ़ रहा है. इंडियन डायरैक्ट सैलिंग एसोसिएशन और पीएचडी चैंबर के अनुमान के अनुसार, 2011-2012 में भारत में डायरैक्ट सैलिंग कंपनियों की बिक्री 5,320 करोड़ रुपए थी और अगले 4 सालों में इस में 20 प्रतिशत बढ़ोत्तरी होने की संभावना है. द वर्ल्ड फैडरेशन औफ डायरैक्ट सैलिंग एसोसिएशन का मानना है कि डायरैक्ट सैलिंग मार्केट लगभग 3 करोड़ लोगों को रोजगार प्रदान करती है जिस में 2.1 करोड़ महिलाएं हैं. यह बिजनैस एक परिवार को अतिरिक्त आय कमाने का मौका देता है और स्वरोजगार में बढ़ोत्तरी करता है. जो लोग इसे करते हैं, यह बिजनैस उन की निपुणताओं को निखार कर उन में आत्मविश्वास पैदा करता है या और बढ़ाता है. एक बड़ा फायदा यह भी है कि यह लौंग टर्म फाइनैंशियल सिक्योरिटी देता है.

पंडितों का भ्रमजाल

किसी भी जंत्री, पंडित या ज्योतिषी द्वारा असूझ विवाह के लिए (जिस में मुहूर्त देखने की जरूरत नहीं होती) कुछ दिन बताए जाते हैं, जिन में ‘देवोत्थान एकादशी’ प्रमुख है. इस दिन भारत में बहुत बड़ी संख्या में विवाह संपन्न होते हैं.

हर वर्ष देवोत्थान एकादशी पर अकेली दिल्ली में ही हजारों विवाह संपन्न होते हैं. पर टैलीविजन चैनलों पर कई पंडितों के मुख से सुनने को मिलता है कि शैलेंद्र मांगलिक कार्य में ग्रहोंनक्षत्रों का रोड़ा है. चूंकि जिस देवोत्थान एकादशी पर शुक्र अस्त हो तो इस दिन विवाह नहीं करना चाहिए. अगर विवाह करेंगे तो सामंजस्य नहीं बनेगा और वैवाहिक जीवन मजबूत नहीं होगा. इसलिए जो लोग विवाह कर चुके हैं उन्हें अपना शुक्र मजबूत करना होगा. इस बारे में और अधिक जानकारी के लिए अन्य ज्योतिषियों या फिर पंडितों से चर्चा कराई जाती है. अन्य ज्योतिषी इस से भी एक कदम आगे बढ़ कर बताते हैं कि देवोत्थान एकादशी के अलावा और भी स्वयंसिद्ध मुहूर्त होते हैं जैसे-चैत्रशुक्ला प्रतिपदा, विजयादशमी, दीपावली का केवल प्रदोषकाल.

इन मुहूर्तों में विवाह करना शुभ होता है. उन के अनुसार, विवाह आदि के लिए पंचांग में दिए गए मुहूर्त या पंडित की सलाह पर ही तारीख निश्चित करनी चाहिए. खराब ग्रहों में किया गया विवाह कभी सफल नहीं होता. इस बात को कभी भी मजाक में नहीं लेना चाहिए.

ग्रहनक्षत्रों का मायाजाल

एक महिला ज्योतिषाचार्य डा. किरन का कहना है, ‘‘शुक्रास्त में विवाह आदि शुभ कार्य निषिद्ध एवं त्याज्य हैं. इन में राहूकाल का भी ध्यान रखना चाहिए.’’ शुक्रअस्त के महत्त्व व अर्थ को स्पष्ट करते हुए उन्होंने कहा, ‘‘शुक्र, पुरुषत्व का प्रतीक होता है और उस के अस्त होने का तात्पर्य है स्त्रीपुरुष संबंधों में कमी का होना.’’ उन्होंने आगे कहा, ‘‘‘गुरु’ विवाह कराता है और ‘शुक्र’ विवाहोपरांत पतिपत्नी संबंध देखता है. सो, ‘शुक्र’ निर्बल हो तो विवाह की आज्ञा न दें.’’ आज के वैज्ञानिक समय में जब नपुंसकता तक का इलाज है तो फिर ‘शुक्र’ की निर्बलता से क्यों डरना? ऐसी शंका व भय अच्छे रिश्तों को हाथ से निकल जाने का मार्ग बना देते हैं. हालांकि कुछ ज्योतिषियों का यह भी कहना है कि प्रेम विवाह तथा स्वयंवर के लिए ऐसे कोई भी मुहूर्त देखने की जरूरत नहीं होती.

यहां प्रश्न उठता है कि क्या ग्रहनक्षत्र भी प्रेम विवाह व स्वयंवर को विशेष रियायत देते हैं या उन से कुछ अधिक ही प्रसन्न हो जाते हैं? विचारणीय तथ्य यह है कि ग्रहों को कैसे पता चलता है कि इस जोड़े ने विवाह से पूर्व प्रेम किया था या प्रेम विवाहोपरांत हुआ? और फिर यह प्रेमप्यार कितना सच्चा है या बनावटी. कुछ ज्योतिषियों का यह भी कहना है कि पहाड़ों व तीर्थों पर भी विवाह के लिए मुहूर्त देखने की जरूरत नहीं होती. कारण, पहाड़ों पर गुरुत्वाकर्षण बल कम होता है. इसलिए वहां ग्रहों का प्रभाव कम होता है.’’ यहां फिर प्रश्न उठता है कि क्या शुभ मुहूर्त पर विवाह करने से मैदानी इलाकों में गुरुत्वाकर्षण बल कम हो जाता है? और जब गुरुत्वाकर्षण बल का ज्ञान नहीं था तब ये ज्योतिषी क्या तर्क देंगे? विवाह संबंधी विचार में गुरुत्वाकर्षण बल को जोड़ना कहां तक तर्कसंगत है? जाहिर है कि अपनी प्रभुता बनाए रखने के लिए और हाथ से शिकार न निकल जाए, इस के लिए नएनए हथकंडे अपनाए जाते हैं. सही बात तो यह है कि प्रेमविवाह लड़का, लड़की की चाहत व इच्छा पर निर्भर होगा, ऐसे में यह तथ्य (पंडितों का) सटीक उतरता है कि ऐसे संबंध में मुहूर्त देखने की जरूरत नहीं क्योंकि मुहूर्त के चक्कर में उस जोड़े के पास वक्त नहीं होगा और ऐसे में वह कोई और मार्ग अपना लेगा. इसलिए पंडित लोग अपने वाक्चातुर्य से ऐसे जोड़े का विवाह करा अपनी जेबें गरम कर लेते हैं. आजकल ऐसे विज्ञापन खूब दिखते हैं जिन में शीघ्र विवाह कराने का आमंत्रण दिया जाता है. वर्ष 2014 में 26 नवंबर से 10 दिसंबर तक ही विवाह संभव बताए गए थे. 10 दिसंबर, 2014 से 14 जनवरी, 2015 तक विवाह निषिद्ध थे क्योंकि इस अवधि में ‘वृहस्पति’, ‘सिंह’ राशि में प्रवेश कर रहा था. अब कोई पूछे कि सिंह राशि में विवाह करने से क्या सिंह प्रकट हो कर दहाड़ेगा?

‘पर्व दीपिका 2014’ से प्रकाशित पंचांग (गणेश शास्त्री) में अप्रैल 2014 से मार्च 2015 के अंत तक केवल 101 दिन, विवाह के लिए शुभ व शुद्ध बताए गए हैं. यह पंचांग दिल्ली के अक्षांश पर आधारित है. दिल्ली की जनसंख्या के हिसाब से केवल 101 दिन कितने पर्याप्त हो सकते हैं, कोई भी सोच सकता है. यही कारण है कि दिल्ली में 1 ही दिन में 20 से 25 हजार विवाह संपन्न होते हैं. इसीलिए बारात स्थल, बैंडबाजा आदि की कमी के साथसाथ ये महंगे भी हो जाते हैं. इस चक्कर में झगड़े, परेशानी, ट्रैफिकजाम की समस्या गंभीर हो जाती है. ‘ज्योतिषतत्त्वांक’ में डा. रामेश्वर प्रसाद गुप्त लिखित एक लेख में बताया गया है कि भारतीय परंपरा में साढे़ 3 मुहूर्त ऐसे सिद्ध व सुकीर्तित हैं जिन में किया गया कार्य अवश्य ही शुभ व फलदायी होता है. ये मुहूर्त हैं-

‘अक्षयतृतीया’, ‘विजयादशमी’, ‘दीपावली के उपरांत प्रतिपदा का अर्धदिन’ तथा ‘बसंतपंचमी’. एक तरफ तो कहा जाता है कि ये सिद्ध व शुभ मुहूर्त हैं फिर समयसमय पर कोई न कोई ग्रह इन में प्रवेश कर इन्हीं को निषिद्ध कर देता है. ऐसी बातें पंडितों व ज्योतिषियों द्वारा अंधविश्वास को फैलाने के साथ उन की वर्चस्वता बढ़ाने में कारगर सिद्ध होती हैं.

विचारणीय तथ्य

भारतवर्ष में सवा सौ करोड़ से ज्यादा आबादी निवास करती है, जिस में युवावर्ग की तादाद ज्यादा है. तो स्पष्ट है कि विवाह भी ज्यादा होंगे. अब अगर मुहूर्तों के हिसाब से चला जाए तो विवाह आदि शुभ कार्यों के लिए बहुत ही कम दिन मिलते हैं. लोग इन मुहूर्तों के चक्कर में न पड़ सुविधानुसार विवाह आदि का कार्य करें. अपने मन में ‘अनिष्ट’ का निर्मूल भय व आशंका निकाल दें. कभी ‘शुक्र’ अस्त तो कभी ‘मंगली’ दोष तो कभी ‘नाड़ी दोष’ के चक्कर में काफी अच्छे रिश्ते जुड़ने से वंचित रह जाते हैं और फिर मजबूरी में इन ग्रहचक्रों के कारण अनमेल विवाह कर पतिपत्नी जीवनभर सामंजस्य बिठाते रहते हैं या अलग होने की त्रासदी सहते हैं. कुछ समुदाय बिना किसी शंका व भय के मुहूर्त नहीं, अपनी सुविधानुसार विवाह आदि करते हैं, जैसे कि सिख, ईसाई, मुसलमान आदि. इन का एक बड़ा प्रतिशत सफल व सुखी जीवनयापन करता देखा जाता है. छोटीमोटी दुर्घटना तो कभी भी, कहीं भी हो सकती है.

अंधविश्वास को हवा देते तथ्य

वैसे तो हर रोज सुबह के समय टैलीविजन खोलते ही अपना प्रवचन देते और लोगों की गृहदशा का निवारण करते नजर आ जाते हैं. ये पंडित भ्रामक धारणा उत्पन्न करते  हैं. एक तरफ, अशुभ मुहूर्त की बात कर फिर उस की पूजापाठ करा, समाधान भी पंडितों द्वारा दे दिया जाता है. फलांफलां पूजा करा लो, अशुभ समाप्त होगा. है न हास्यास्पद बात और एक शातिर तरीका कमाई का. यह स्थिति भारत में ही नहीं, बल्कि विदेशों में भी है. वहां भी जन्मपत्री दिखाई जाती है. बाल्टीमोर मेरीलैंड स्थित ‘जौन हौकिंस यूनिवर्सिटी’ के वैज्ञानिकों ने रिसर्च द्वारा बताया कि 37 फीसदी व्यक्ति अपना कोई भी बड़ा कार्य करने से पूर्व अपनी जन्मपत्री पढ़वाते हैं. यह काम चर्च या किसी और तरह के बिचौलिया का होता है जो पैसा कमाता है. आखिरकार, एक ही बात स्पष्ट होती है कि पंडितों, ज्योतिषियों, ग्रहों के चक्कर में लोग अपने ज्ञान, विवेक, बुद्धि दांव पर लगाते हैं. जन्म से ले कर मृत्यु तक फैलाए इन के जाल में इंसान न जाने कितने वर्षों से चक्करघिन्नी सा घूम रहा है. पंडितों का भ्रम व जाल प्रचार के बल पर फलफूल रहा है. वैज्ञानिक तरीकों को जानें, समझें और अपनाएं.

बिहार विधानसभा चुनाव 2015

चुनाव का माहौल बनते ही हर दल व हर छोटेबड़े नेता को मुसलमानों की फिक्र सताने लगती है. बिहार विधानसभा के चुनाव जैसेजैसे नजदीक आते जा रहे हैं, वैसेवैसे मुसलमानों को रिझाने की कवायद भी परवान चढ़ने लगी है. बिहार में हर चुनाव की तरह इस बार भी मुसलमान कशमकश की हालत में हैं. इस बार लालू और नीतीश के एकसाथ होने से मुसलिम वोटरों की मजबूरी है कि इसी गठबंधन को वोट दें. मुसलमानों ने साल 1990 से ले कर 2005 तक लालू प्रसाद यादव का साथ दिया था. 2005 में मुख्यमंत्री बनने के बाद नीतीश ने लालू के मुसलिम वोटबैंक में सेंध लगाने की पुरजोर कोशिश की पर उस में वे खास कामयाबी नहीं पा सके. मुसलिम संगठनों की यही शिकायत है कि उन के नाम पर हर दल सियासत तो करता रहा है लेकिन आबादी के लिहाज से मुसलमानों को टिकट देने में हर दल कन्नी काटता रहा है. भारतीय जनता पार्टी पर मुसलमानों को टिकट न देने का आरोप लगाने वाले और खुद को मुसलमानों का सब से बड़ा रहनुमा बताने वाले कांगे्रस, राजद, जदयू, लोजपा जैसे दल उन्हें टिकट देने में कंजूसी करते रहे हैं.

बिहार में मुसलमानों की आबादी 1 करोड़ 67 लाख 22 हजार 48 है. सूबे के किशनगंज में 78, कटिहार में 43, अररिया में 41, पूर्णियां में 37, दरभंगा में 23, पश्चिम चंपारण में 21, पूर्वी चंपारण में 19, भागलपुर और मधुबनी में 18-18 व सिवान में 17 फीसदी मुसलिम आबादी है. इस के बाद भी उन की अनदेखी की जाती रही है. चुनावी डुगडुगी बजते ही सारे दल मुसलिम वोट, मुलिम वोट का खेल खेलना शुरू कर देते हैं. चुनाव के खत्म होने के बाद वे सभी मुसलमानों को भूल जाते हैं. राजनीतिक दल मुसलमानों के कितने बड़े पैरोकार हैं, इस का नमूना यही है कि राज्य में 33.6 फीसदी मुसलमान बच्चे ही हायर सैकंडरी तक की पढ़ाई कर पाते हैं. बीए, एमए, ऊंची पढ़ाई, तकनीकी पढ़ाई आदि 2.4 फीसदी ही मुसलमान बच्चे कर पाते हैं. शहरी स्कूलों में 3.2 फीसदी और ग्रामीण स्कूलों में 4.1 फीसदी ही मुसलिम बच्चे हैं. ग्रामीण मदरसों में 24.1 फीसदी और शहरी मदरसों में कुल 9 फीसदी मुसलमान बच्चे पढ़ाई कर रहे हैं.

सामाजिक कार्यकर्ता असलम परवेज कहते हैं कि पढ़ाईलिखाई में इस कदर पिछड़े रहने वाले मुसलमानों की तरक्की का ढोल हर पार्टी किस बूते पीटती रहती है? तालीम के बगैर कोई भी कौम या जाति तरक्की नहीं कर सकती है. सभी सियासी दलों की यही साजिश है कि मुसलमानों को जाहिल व पिछड़ा बना कर रखा जाए ताकि उन्हें वोटबैंक के रूप में हमेशा इस्तेमाल किया जाता रहे. बिहार में मुसलमानों की आबादी 16.5 फीसदी है और कुल 243 विधानसभा क्षेत्रों में से 60 में वे निर्णायक भूमिका में हैं. इस के बाद भी पिछले विधानसभा चुनाव में जदयू के 7, राजद के 6, कांगे्रस के 3, लोजपा के 2 और भाजपा के 1 मुसलिम उम्मीदवार यानी कुल 19 मुसलिम उम्मीदवार ही जीत कर विधानसभा पहुंच पाए थे.

दरकिनार मुसलमान

उस के पहले 2005 के विधानसभा चुनाव में 16 मुसलमान ही विधायक बन सके. यह आजादी के बाद हुए चुनावों में बिहार में मुसलमानों का सब से कम नुमाइंदगी का रिकौर्ड है. 2005 के चुनाव में जदयू ने 9 और भाजपा ने 1 मुसलमान को टिकट दिया. राजद, कांगे्रस और राकांपा गठबंधन ने 46 एवं लोजपा ने 47 मुसलमानों को चुनावी मैदान में उतारा था. उन में कांगे्रस के 5, जदयू और राजद के 4-4, लोजपा के 1 एवं 1 निर्दलीय उम्मीदवार को जीत हासिल हो सकी थी. राजद सुप्रीमो लालू यादव खुद को मुसलमानों का सब से बड़ा खैरख्वाह बताते रहे हैं और मुसलिम यादव समीकरण के बूते ही साल 1990 से 2005 तक बिहार की सत्ता पर काबिज भी रहे. इस बार बिहार विधान परिषद की 24 सीटों के लिए हुए चुनाव में ही लालू ने मुसलमानों को दरकिनार कर दिया. उन की पार्टी राजद ने 10 उम्मीदवार मैदान में उतारे, जिन में एक भी मुसलमान नहीं था.

चुनावी सियासत

जदयू सांसद अली अनवर कहते हैं कि हर चुनाव से पहले मुसलमानों को ले कर सियासत शुरू हो जाती है पर उन्हें टिकट देने की बात उठते ही सब बगलें झांकने लगते हैं. 1952 से 2014 तक के लोकसभा चुनाव में बिहार से 58 मुसलमान ही लोकसभा का मुंह देख सके हैं. इन में से 14 पिछड़े मुसलमान हैं. साल 2014 के लोकसभा चुनाव में 4 मुसलमान ही चुनाव जीत सके. राजद के तसलीमुद्दीन अररिया से, राकांपा के तारिक अनवर कटिहार से, कांगे्रस के महबूब अली कैसर खगडि़या से और कांगे्रस के ही मोहम्मद असरारुल हक किशनगंज से चुनाव जीत सके थे. इस से पहले 2009 के लोकसभा चुनाव में

3 मुसलमान ही लोकसभा पहुंच सके, जबकि आबादी के हिसाब से यह संख्या कम से कम 7 होनी चाहिए. यही हाल बिहार विधानसभा में भी है. आजादी के बाद से 2010 तक हुए विधानसभा चुनावों में मुसलमानों की नुमाइंदगी 7 से 10 फीसदी के बीच ही रह सकी है. मुसलिम लीडर मानते हैं कि 243 विधानसभा सीटों में से 60 सीटों में मुसलमानों का वोट किसी भी उम्मीदवार को जिता सकता है. उन क्षेत्रों में मुसलमानों का वोट 18 से 74 प्रतिशत तक है. इस के अलावा, 50 सीटें ऐसी हैं जहां 10 से 17 प्रतिशत मुसलिम वोट हैं. इस के बाद भी सियासी दल मुसलमानों को टिकट देने में आनाकानी करते रहे हैं. सब से ज्यादा 74 प्रतिशत आबादी वाला कोचाधामन विधानसभा क्षेत्र है. जोकीहाट में 69, बलरामपुर में 65, मनिहारी में 41, सिकटा में 30, नरकटियागंज में 29, बेतिया में 27, चनपटिया में 21 फीसदी मुसलिम आबादी है. इस के अलावा, किशनगंज, अररिया, बहादुरगंज, ठाकुरगंज, कदवा, प्राणपुर, कोढ़ा, बरारी में मुसलिम आबादी काफी ज्यादा है. मुसलमानों के पैरोकार और सांसद एजाज अली कहते हैं कि हर दल मुसलमानों की तरक्की की बात तो करता है पर हरेक की कोशिश यही रही है कि मुसलमान की तरक्की न हो. वह पढे़लिखे नहीं. पढ़लिख जाने पर उसे समझदारी आ जाएगी और फिर वह अपने दिमाग से वोट डालेगा. सियासी दलों का मकसद बस मुसलमानों को वोटबैंक बना कर रखना है न कि उन की तरक्की करना. मुसलिमों को टिकट देने में हर दल आनाकानी करता रहा है.

आजादी के बाद से 2010 तक के 14 बिहार विधानसभा चुनावों में कुल 4,262 विधायक बने जिन में से सिर्फ 313 ही मुसलमान हैं. यह आंकड़ा बता देता है कि मुसलमानों को समाज की मुख्यधारा में लाने, उन्हें टिकट देने और उन की तरक्की के सवाल पर हर दल एक ही थैली के चट्टेबट्टे साबित हुए हैं.

पौर्न साइट तो बहाना

एक वकील कमलेश वासवानी की याचिका पर सुप्रीम कोर्ट में उत्तर देते हुए निर्णय से पहले ही नरेंद्र मोदी की सरकार ने 857 वैबसाइटों को बंद करवा कर अश्लील सामग्री पर चाहे पूरा प्रतिबंध लगाया हो या न हो, अपने लिए अपने मतलब के वैबसंचार पर पहरेदार नियुक्त करने का रास्ता खोल लिया है. जब भी जो सरकार किसी तरह का नियंत्रण थोपना चाहती है तो वह नैतिकता, स?चरित्रता, विकास की बात करती है जैसे इंदिरा गांधी ने 1975 में आपात स्थिति घोषित करते हुए की थी कि वे अनुशासन काल ला रही हैं, देश को विघटन व विनाश से बचा रही हैं. भजभज मंडली इस याचिका से खुश है हालांकि यह 2013 में मोदी सरकार से पहले सुप्रीम कोर्ट में प्रस्तुत की गई थी. सरकार स्वयं बहुत सी पुस्तकों, फिल्मों, मंचित नाटकों, पेंटिंगों पर प्रतिबंध लगाना चाहती है और इस प्रकार पौर्न साइटों का बहाना बना कर बहुतकुछ किया जा सकता है. पौर्न फिल्में मानसिक स्वास्थ्य के लिए बुरी हैं या नहीं, यह अब तक साबित नहीं हो पाया है. दुनिया के जिन देशों में इन पर न के बराबर नियंत्रण है वहां भी अपराध होते हैं और इसलामी देशों में जहां पूर्ण प्रतिबंध हैं, वहां भी सैक्स अपराध उतने ही, बल्कि उस से ज्यादा होते हैं. पौर्न फिल्मों के निर्माण में कोई जोरजबरदस्ती होती है, इस के प्रमाण कहीं नहीं मिलते. उस से ज्यादा जोरजबरदस्ती तो वेश्यावृत्ति में होती है जिस में लड़कियों को अगवा कर के देहव्यापार में झोंक दिया जाता है.पौर्न सदियों से चला आ रहा है. लगभग सभी धर्मग्रंथों में यौन क्रिया का खुला विवरण है और कई में तो अति विस्तृत विवरण है. धर्म के दुकानदारों ने प्रौढ़ व वृद्ध औरतों को पटाने के नाम पर युवा औरतों पर पाबंदियां भले लगा दी हों पर वे भी औरत के शरीर के दुरुपयोग को रुकवा नहीं पाए. यौन संबंधों को परदे में रखने के कारण पौर्न एक व्यापार बन गया और इंटरनैट की तो जान ही यह है. जो पैसा इंटरनैट को पौर्न के कारण मिलता है, न मिले तो इंटरनैट शायद उसी तरह ठप हो जाए जैसे आज पुस्तक व्यापार ठप हो रहा है क्योंकि उस का पौर्न हिस्सा इंटरनैट खा गया.

मोदी सरकार ने जल्दबाजी में अपने दूर के लक्ष्य के कारण फैसला लिया है पर इस से उस ने विचारों व व्यक्तिक स्वतंत्रता के सवाल खड़े कर दिए हैं. बंद कमरों में लोग क्या पढ़ें, क्या सुनें, क्या देखें, यह फैसला सरकार ले, यह मान्य नहीं हो सकता, कम से कम लोकतंत्र में तो नहीं. हां, इसे छद्म धर्मतंत्र बनाना हो, जैसा विश्व हिंदू परिषद कहती रहती है, तो बात दूसरी.

कोख पर कानूनी पहरा क्यों?

क्या आप का बेबी बंप तरबूज की तरह फूला है?

आप को खट्टे से ज्यादा मीठा खाने का मन है?

आप का वजन तेजी से बढ़ रहा है पर पेट का आकार ज्यादा नहीं बढ़ा है?

आप का बेबी बंप ऊंचाई पर है?

नाभि का मुंह बंद होने के कगार पर है?

नाभि के निचले हिस्से व ऊपरी ब्रा लाइन तक डार्क बालों की धारी बन गई है?

ये सब लक्षण अगर आप के शरीर में दिखाई दे रहे हैं तो शर्तिया आप के लड़की होगी. कुछ ऐसे ही टोटके शीना को उस की सास ने बताए थे. शीना बहुत खुश थी क्योंकि कुछ ऐसे ही लक्षण उस के शरीर में भी दिखाई दे रहे थे. घर में खुशियों का माहौल था क्योंकि एक बेटे के बाद बेटी ही चाहिए थी. इस घर में परिवार तभी पूरा होता है जब लड़का और लड़की दोनों हों. परिवार की खुशी इन टोटकों को सुन डबल हो गई थी. युहान की भी खुशी का ठिकाना न था क्योंकि उसे अपनी पत्नी शीना जैसी क्यूट बेबीगर्ल चाहिए थी. शीना की डिलीवरी का वक्त नजदीक आ पहुंचा. डिलीवरी तो हुई पर यह क्या… लड़की नहीं, वह नवजात तो लड़का था. यह देख परिवार को हलका धक्का पहुंचा. इस परिवार में पिछली 2 पीढि़यों से कोई लड़की नहीं जन्मी थी. लड़का देख एकबारगी सब का मुंह उतर गया. केवल अनुमान के आधार पर ही उन्होंने मान लिया था कि लड़की होगी. वैसे भी उन के पास अनुमान लगाने के अलावा दूसरा रास्ता न था क्योंकि सरकार भू्रण का लिंग परीक्षण कराने नहीं देती. अपने परिवार को पूरा करना चाह रहे शीना और युहान को निराशा हाथ लगी थी.

आज की तारीख में कोई भी प्रोडक्ट लेने से पहले हम उस की सारी रिसर्च कर लेते हैं. उस की खासीयत से ले कर कमी तक की सारी चीजों पर सोचविचार कर उसे लेने या न लेने का फैसला करते हैं. ऐसा इसलिए कि हम उस समय (काल) में आ चुके हैं कि बिना सोचेसमझे कुछ लेना बेवकूफी समझते हैं. लेकिन बच्चे के मामले में पिक ऐंड चूज का कोई सवाल ही नहीं उठता. आप को ऐडजस्ट करना पड़ेगा. क्योंकि देश का कानून आप को कभी भी मां के गर्भ में बढ़ रहे भ्रूण की लिंग जानकारी हासिल नहीं करने देगा. हम अपने देश को विकसित देशों की श्रेणी में रखते हैं पर आज भी बच्चा लड़का हो या लड़की हो, यानी उस के लिंग का फैसला परिवार के लोग नहीं, बल्कि सरकार करती है क्योंकि आप को अपने बच्चे का लिंगनिर्धारण करने की अनुमति नहीं है. हमारे देश की महिलाएं भले ही विकसित देशों की महिलाओं से कदमताल कर रही हों लेकिन उन्हें अपनी कोख पर हक हासिल नहीं है. यह हक उन्हें चिकित्सा विज्ञान दे रहा है लेकिन सरकार और समाज ने उन से इसे छीन रखा है. महिलाओं की कोख में सरकार का दखल बना हुआ है. महिलाओं को आखिरी समय तक यह पता नहीं रहता कि उन के घर में आने वाला मेहमान कौन है? वे किस के स्वागत की तैयारी करें, बेटे की या बेटी की? हम शायद खुद को सभ्य कहलाना पसंद करते हैं, पर अब भी कानून हमें हर वक्त यह याद दिलाते हैं कि हमें डंडे से हांका जा रहा है और हांके जाने की जरूरत भी है.

क्या है कानून

भारत की संसद द्वारा 1996 में पारित किया गया पूर्व गर्भाधान और प्रसव पूर्व निदान तकनीक यानी पीसीपीएनडीटी कानून देश में बालिकाभू्रण हत्या रोकने के लिए गर्भस्थ शिशु के लिंग परीक्षण पर प्रतिबंध लगा कर लिंग अनुपात में अंतर को समाप्त करने के लिए लागू किया गया था. प्री कंसैप्शन ऐंड प्री नेटल डायग्नौस्टिक टैक्निक्स यानी पीसीपीएनडीटी ऐक्ट के तहत जन्म से पूर्व शिशु के लिंग की जांच पर पाबंदी है. ऐसे में अल्ट्रासाउंड या अल्ट्रासोनोग्राफी करवाने वाले जोड़े या करने वाले डाक्टर, लैबकर्मी को 3 से 5 साल तक की कैद और 10 से 50 हजार रुपए जुर्माने की सजा का प्रावधान है. आज लोगों को सूचना का अधिकार व जानकारी प्राप्त करने का अधिकार है और सभी इन अधिकारों को जोरशोर से बढ़ावा भी दे रहे हैं. इसी के साथ हमें अपने देश, समाज, परिवार, अपने व अपने शरीर के बारे में भी जानने का अधिकार मिलना चाहिए. जब हमें ये सभी अधिकार मिलने चाहिए तो गर्भवती स्त्री को अपने गर्भ में बढ़ रहे अपने भू्रण की लिंग जानकारी हासिल करने का अधिकार क्यों नहीं है?

भू्रण हत्या के डर से महिला को इस अधिकार से वंचित किया गया है जो उचित नहीं है. भू्रण हत्या को रोकना, भू्रण हत्या में लिप्त लोगों को कठोर सजा देना सरकार का काम है, जो सही है पर आज के समय में महिलाओं को उस की कोख में पलबढ़ रहे भू्रण के लिंग जानने के अधिकार से वंचित करना गलत है. भारत और पूर्व व दक्षिणपूर्व यूरोप में परिवारों के रूढि़वादी तबके की सोच है कि लड़के खानदान का नाम आगे बढ़ाते हैं जबकि लड़कियां शादी कर पराए घर चली जाती हैं. 

स्त्री का अधिकार पर कानून : मौजूदा कानून की नजर में गर्भपात कराना अपराध की श्रेणी में आता है. गर्भ की वजह से यदि किसी महिला के स्वास्थ्य को खतरा हो तो वह गर्भपात करा सकती है, ऐसी स्थिति में उस का गर्भपात वैध माना जाएगा. कोई व्यक्ति महिला की सहमति के बिना उसे गर्भपात कराने के लिए बाध्य नहीं कर सकता. यदि पुरुष ऐसा करता है तो महिला को अधिकार है कि वह कानून का दरवाजा खटखटा सकती है. दोषी पाए जाने पर पुरुष को उम्रकैद तक की सजा हो सकती है.

लोग समझदार, डंडे से न चलाए सरकार

भारत में सरकार लोगों के घरों तक कानून के जरिए दस्तक दे कर उन्हें अपने होने वाले बच्चे का पता लगाने से रोकना चाहती है. आज, भले ही हम विदेशों में पढ़ लें, वहां नौकरी कर लें या अपने देश में विदेशी कंपनी के मुलाजिम हों, पर घर में अगर नया मेहमान आएगा तो उस का फैसला या तो प्रकृति पर निर्भर है या फिर कानून पर. इंसान ने इतनी तरक्की कर ली है कि वह चांद पर घर बनाने की सोच रहा है लेकिन आज भी नए मेहमान के घर में आने तक उस के बारे में वह जान नहीं सकता क्योंकि सरकार का डंडा उस के सिर पर तैनात है. वह इस बारे में सिर्फ कयास ही लगा सकता है. आज की पीढ़ी को देखें तो नया मेहमान आने से पहले ही परिवार में सारी तैयारियां कर ली जाती हैं. बच्चे के जन्म से ले कर, उस की पढ़ाई, उस के बडे़ होने और उस की हायर एजुकेशन तक की तैयारियां कर ली जाती हैं. इस के अलावा परिवार में कितने बच्चे चाहिए, इस की भी काफी सोचसमझ कर प्लानिंग की जाती है. ऐसे में जब कोई पेरैंट्स नई पीढ़ी के लिए हर कदम सोचसमझ कर उठा रहे हैं, तो उन्हें कम से कम यह तय करने का हक तो होना चाहिए कि वे किस के लिए ये तैयारियां कर रहे हैं या फिर उन्हें अपने घर में कौन सा मेहमान चाहिए?

कोख पर अधिकार मां का…

किसी बच्चे को 9 महीने तक अपने अंदर जगह देने वाली संतान पर पहला हक किस का होता है? जवाब बहुत आसान है – मां का. पर असल में ऐसा होता नहीं है. जब हम कोख पर अधिकार की बात करते हैं तो उस में यह भी शामिल होता है कि उस की कोख में कौन आए, या वह अपनी कोख में किसे जगह दे या वह कितनी संतानें पैदा करे? लेकिन भारत में हमें ऐसा देखने को नहीं मिलता. औरत की कोख हो या उस का शरीर, उस का खुद का इन पर हक नहीं है. कहीं समाज के ठेकेदार तो कहीं कानून के ठेकेदार उसे कठपुतली की तरह नचाते रहते हैं. औरत क्या पहने, कैसे रहे, कहां जाए, क्या खाए, किसे पैदा करे, इन सब के लिए लिखित या अलिखित नियम या कानून पहले से ही तय हो गए हैं. कई दशकों बाद भी इन में कोई बदलाव नहीं आया है और न ही पुरुषप्रधान समाज को इस में बदलाव की कोई जरूरत महसूस होती है. अपनी संतान के रूप में औरत की पहली पसंद भी कोई माने नहीं रखती. कभी उसे पति की सुननी पड़ती है, कभी ससुराल वालों की तो कभी अपनी कोख के भीतर बच्चे का लिंग तय करने वाली सरकार के कानूनों की.

इन्हीं कानूनों से हमें देखने को मिलता है कि कईर्बार स्कूली बच्चियों के गर्भवती हो जाने पर उन्हें अपना अबौर्शन करवाने की इजाजत नहीं मिल पाती. ऐसे में 10वीं और 12वीं में पढ़ने वाली बच्चियों के मां बनने की खबरें आती रहती हैं. मार्च 2015 में मध्य प्रदेश की एक छात्रा मां बन गई थी, 13 साल में मां. ऐसे में वह अपनी पढ़ाई जारी रखे या बचपन में ही बच्चा पालने लग जाए. इस कानून में जरूरी बदलाव का समय आ गया है.

कानून व तकनीक का कैसा तालमेल?

किसी महिला के प्रैग्नैंट होने पर पहले महीने से ही उस की कई जांचें और इलाज शुरू कर दिया जाता है. इस में गर्भ में पल रहे बच्चे के एचआईवी पौजिटिव होने से ले कर उस के कौंप्लिकेशन, उस की पोजीशन, उस के बढ़ने और हिलनेडुलने तक की जांचें की जाती हैं. इस के लिए उसे अल्ट्रासाउंड से ले कर सोनोग्राफी जैसी जांचों से गुजरना पड़ता है. ऐसे में लिंग का पता तो प्रैग्नैंसी की शुरुआती स्टेज में ही चल जाता है. लेकिन कानून यह है कि डाक्टर अपने मरीजों को उन के बच्चे के लिंग के बारे में नहीं बता सकते. आज मशीनें इतनी आधुनिक हैं कि बच्चे के लिंग धारण करने के समय से ही वे उस का पता लगा लेती हैं. ऐसे में इस बात को छिपा कर रखना वैसे भी संभव नहीं है. कई बार तो ऐसी कोशिश विकास की टांग खींचने जैसी लगती है. लेकिन कानून के जरिए उसे रोकना किस हद तक संभव है, यह डाक्टर और पेशेंट के बीच की अंडरस्टैंडिंग होती है कि कई बार डाक्टर उन्हें उन के बच्चे के बारे में बता देते हैं. कई बार बच्चे में कौंप्लिकेशन होने पर भी उस के लिंग का राज खोलना पड़ता है. ऐसे में अकसर यह कानून धरा का धरा रह जाता है.

कानून सिर्फ गरीबों के लिए

हमारे देश में हर कानून की तरह गर्भ में लिंग की जांच पर रोक लगाने वाला कानून भी सिर्फ गरीबों के लिए है. अमीर अपने पैसों के दम पर इस कानून का तोड़ निकालने में सफल रहते हैं. गरीबों पर 400-500 रुपए में अल्ट्रासाउंड के जरिए अपने घर में आने वाले बच्चे का पता लगाने पर रोक है लेकिन यही काम आईवीएफ तकनीक के जरिए अमीर आसानी से कर सकते हैं. उन्हें ऐसा करने से देश का कानून भी नहीं रोकता. मैडिकल टूरिज्म का गढ़ बन चुके भारत में विदेशों से भी कपल्स अपने भावी बच्चे का लिंग पता करने और अपनी इच्छानुसार बच्चे पैदा करने यहां आते रहते हैं. नामी अस्पतालों में 1 से 2 लाख रुपए दे कर ये कपल्स अपने भावी बच्चे के लिंग का निर्धारण अपनी सहूलियत से गर्भ में फर्टिलाइज्ड एग को प्रतिरोपित करने से पहले करते हैं और यह काम गैरकानूनी भी नहीं कहलाता है. इस से तो यही लगता है कि सरकार पैसे देने वालों को अपने हिसाब से बच्चे चुनने का हक देती है. वैसे भी, लिंग जांच कानून आईवीएफ को अपने दायरे से बाहर छोड़ देता है. इस तरह एक ही देश के अलगअलग स्तर के लोगों के लिए अलगअलग कानूनी प्रावधान बन गए हैं.

बौलीवुड स्टार शाहरुख खान का मामला ही देख लें. उन्होंने सैरोगेसी के जरिए हुई अपनी तीसरी संतान का लिंग पहले ही जान लिया था. इस मामले में उन के खिलाफ शिकायत भी की गई थी. इस से फिर साबित हो गया कि पैसे के दम पर उच्च परीक्षण और तकनीक के नाम पर अमीरों को अपने भावी बच्चों के लिंग की जांच की छूट दी गई है.

गलत रिवाजों की सजा क्यों झेले सभ्य समाज

पुराने समय में बेटी को बोझ मानने की सोच को आज के जमाने के लोग क्यों झेलें. अब बेटियां जिंदगी के कई मोरचों पर खुद को बेहतर साबित कर रही हैं. पुरानी सोच के मुताबिक बेटियों को पराया धन माना जाता था और उन की परवरिश में कमी भी की जाती थी. यही नहीं, उन के पैदा होते ही उन की शादी में होने वाले खर्च या दहेज के बारे में चिंता की जाने लगती थी. तब बेटियों का पैदा होना, घरपरिवार को दुख से भर देता था. आज स्थिति पहले से अलग है. दुनिया बदली है, तो भारत में भी लोगों ने अपनी सोच बदली है. बेटियां खुद के पैरों पर खड़़़़ी हैं और ‘दुलहन ही दहेज है’ को सही साबित कर रही हैं. ऐसे में कुछ लोगों की नासमझी को पूरे समाज की गलती क्यों मान लिया जाए? आज कई लोग ऐसे भी हैं जो बेटी को बेटे पर वरीयता देते हैं. मान लीजिए, किसी कपल को बेटी चाहिए पर उसे बेटा हो जाए और वह खुद को दूसरी संतान की जिम्मेदारी उठाने लायक न समझता हो तो ऐसे में उसे जिंदगीभर मन मसोस कर नहीं रहना होगा? दरअसल, आजकल बेटा हो या बेटी, दोनों ही कमाऊपूत साबित हो रहे हैं, दोनों किसी पर निर्भर नहीं होते.

मेरा परिवार, मेरा फैसला

परिवार चलाने वाली मां को उस के गर्भ में पलबढ़ रहे बच्चे का लिंग जानने/निर्धारित करने का अधिकार देने की मांग कुछ नारीवादी संगठन पहले भी करते रहे हैं. यह मांग ठोस तौर पर कभी साकार रूप नहीं ले सकी और न ही इस पर नीति नियंताओं का ध्यान गया. एक महिला को अपने परिवार में कौन सी संतान पहले चाहिए, इस का हक उसे होना चाहिए. इस के साथ ही, महिलाओं को सामाजिक बुराइयों के प्रति जागरूक करने की जरूरत भी है. वैसे तो समाज में लैंगिक भेदभाव से सब से ज्यादा महिलाएं ही जूझती हैं. जो महिलाएं इस भेदभाव को झेल कर भी जिंदा रह जाती हैं वे इस का दर्द समझती हैं और अपनी बिरादरी के प्रति हमदर्द भी होती हैं. हमारे समाज में ज्यादातर बुराइयां तो पुरुषप्रधान होने के नाते हैं. कानून को महिलाओं की कोख तय करने का अधिकार देने के बजाय महिलाओं को ही यह अधिकार मिले तो इस के ज्यादा यथार्थ होने की संभावना रहेगी. लेकिन इस के लिए महिलाओं को जागरूक, शिक्षित और सशक्त करना होगा.

समाज की सोच बदलने की जरूरत

भारतीय समाज में दहेजप्रथा जैसे रिवाजों के होने के चलते यहां के पुरुष सत्तात्मक रवैए और पुरुषों की सोच को बदलने की जरूरत है. पुरुषप्रधान समाज की पुरुष सत्तात्मक सोच के चलते ही लड़कियों को गर्भ में मारा जाने लगा. इस के चलते ही ऐसा कानून लाया गया कि जिस से महिलाओं के पास अपनी कोख को तय करने का अधिकार नहीं रह गया. पूरा घर चलाने के अलावा घर के बाहर के मामलों में भी महिलाओं की पुरुषों से ज्यादा समझ होती है. ऐसे में अगर महिलाओं को कोख का फैसला करने को मिलता तो वे ज्यादा तार्किक तरीके से इस बारे में फैसला ले सकती थीं. होना तो यह चाहिए था कि समाज की सोच बदली जाती और अपनी कोख में किसे जगह दी जानी है, इस बारे में महिला का ही फैसला अंतिम माना जाता. समाज को इस बारे में शिक्षित और जागरूक करने के बजाय सरकार ने कानून के डंडे के बल से लोगों को हांकने का आसान और कामचलाऊ तरीका निकाला. महिलाओं से हक छीन लिए गए. दरअसल, समाज को भू्रण हत्या के खतरों के प्रति आगाह करना और भविष्य की तसवीर दिखाने की दीर्घजीवी मगर टिकाऊ प्रक्रिया हो सकती थी, पर इस से कन्नी काट ली गई. लोगों पर खासतौर से महिलाओं पर कानूनरूपी तलवार चला दी गई.

वे करें, हम क्यों नहीं?

अमेरिका में लिंग की जन्मपूर्व जांच में कोई रोकटोक नहीं है. इस के बावजूद वहां पर सैक्स रेशियो भारत से कहीं बेहतर है. भारत में 1 महिला के मुकाबले 1.12 पुरुष हैं तो वहीं अमेरिका में 1 महिला के मुकाबले 1.05 पुरुष हैं. इस से यह तर्क तो गलत साबित होता है कि सैक्स रेशियो और भू्रण के लिंग की जांच का आपस में संबंध है. मान लीजिए, अगर भारतीय संदर्भ में इन का आपस में संबंध है भी, तो उसे दूर करने की कोशिश की जानी चाहिए थी. यह तो बांध बना कर बरसात में नदी के प्रवाह को रोकने जैसी कोशिश हो गई. ऐसे में बांध टूटने पर ज्यादा तबाही का खतरा होगा. बेहतर तो यह होता कि बारिश से पहले नदी और बारिश के पानी के प्रबंधन की योजना बनाई जाती, जिस से नदी और बारिश दोनों के पानी का बेहतर इस्तेमाल हो सकता है. यह भले ही समय लेने वाली प्रक्रिया होती, लेकिन समाज को लंबे समय तक फायदा देती.

बेटियों को प्रोत्साहन दे सरकार

लिंग निर्धारण पर सख्त कानून बनाने के बजाय सरकार को समाज को जागरूक करने पर ध्यान देना चाहिए. सरकारें इस मसले पर अगर वाकई गंभीर रहतीं तो वे बेटियों को प्रोत्साहित करने की जमीनी कार्यवाही करतीं. देशभर में सैक्स रेशियो सुधारने के लिए बेटियों की पालने, पढ़ाने, हायर और प्रोफैशनल एजुकेशन देने व बीमारी में मुफ्त इलाज और सरकारी के साथ ही प्राइवेट नौकरियों में प्राथमिकता देने व उन्हें उचित सुरक्षा देने की व्यवस्था की जानी चाहिए थी. ये सब सुविधाएं समाज में जमीनी स्तर पर बदलाव लाने का काम करतीं  बेटियों को बोझ या मनहूस माने जाने वाले भारत जैसे समाज में ऐसे कदम निश्चित तौर पर बेटियों के जन्म को प्रोत्साहित करते. इस के बाद यह कपल्स पर निर्भर करता कि वे बेटा चाहते हैं या बेटी. जिन देशों में सामाजिक सुरक्षा के बेहतर इंतजाम हैं, वहां के समाज को लिंगानुपात में बड़े अंतर जैसी गंभीर समस्या से दोचार नहीं होना पड़ता है. ऐसे में भारत को कम से कम उन देशों से ही यह सीख ले लेनी चाहिए थी.

अबौर्शन टूरिज्म

भारत और दक्षिणपूर्व यूरोपीय देशों में कन्याभू्रण हत्या के मामले बढ़ते जा रहे हैं. अल्ट्रासाउंड की मदद से डाक्टर गर्भावस्था के 14वें हफ्ते से भू्रण के लिंग का पता लगा सकते हैं. भारत की ही तरह यूरोप के कई देशों में भू्रण के लिंग की जांच करना व कराना अवैध है. कई देशों में तो गर्भपात की ही मनाही है, हालांकि ऐसा धार्मिक कारणों से भी है. जरमनी में पहले 3 महीनों तक गर्भपात की अनुमति है. इस के बाद आप चाहें तो भ्रूण के लिंग की जांच करा सकते हैं लेकिन इस के बाद गर्भपात नहीं कराया जा सकता, जबकि अमेरिका में ऐसा किया जा सकता है. अल्बानिया और मैसेडोनिया की जन्मदर पर ध्यान दें तो वहां भी कानून का उल्लंघन किया जा रहा है. वहां अवैध रूप से कन्याभू्रण हत्या की जा रही है. वहीं, स्वीडन का नाम ‘अबौर्शन टूरिज्म’ से जुड़ गया है. स्वीडन में 18वें हफ्ते तक गर्भपात कराया जा सकता है. यूरोपीय संघ के अलगअलग देशों में अलगअलग कानून होने से भी लोग उन का फायदा उठा रहे हैं. एक देश में लिंग जांच कराने के बाद वे दूसरे देश में जा कर गर्भपात करा लेते हैं.

आंकड़े बताते हैं कि नौर्वे और ब्रिटेन में रह रहे एशियाई मूल के लोगों के लिंग अनुपात की अगर दूसरे लोगों से तुलना की जाए तो भारी फर्क देखने को मिलेगा. आईवीएफ जैसी तकनीक में भी भू्रण का लिंग निर्धारित किया जा सकता है. इसे प्रीइम्प्लांटेशन जैनेटिक डायग्नोसिस या पीजीडी कहा जाता है.

सिर्फ दिखावे की राजनीति

भारत में महिलाओं की कोख में बेटा हो या बेटी, यह जिम्मेदारी सरकार के बनाए कानून से निर्धारित होती है. सरकारें सैक्स रेशियो के बिगड़ने का तर्क दे कर कोख में पलबढ़ रहे भ्रूण के लिंग की पहचान जानने पर रोक लगाती हैं. यही सरकारें महिलाओं को ले कर कितनी संवेदनशील हैं, इस का पता इस बात से चल जाता है कि लगभग सभी दल सत्ता में किसी न किसी तरह रह चुके हैं, लेकिन उन्होंने आज तक महिलाओं को संसद में 33 फीसदी आरक्षण देने वाला विधेयक पारित नहीं कराया है. भारतीय राजनेता या पुरुष राजनेता किसी भी मुद्दे पर सिर्फ दिखावे की राजनीति करते हैं. इन की राजनीति गंभीर होती तो ये सब से पहले अपने बीच में महिलाओं के लिए बराबरी की जगह बनाते. उन्हें उन का 50 फीसदी संख्या में निर्वाचित होने का हक देते, थोड़ा सहिष्णु होते. दरअसल, वे 33 फीसदी महिलाओं को झेलने लायक संयम तक अपने भीतर नहीं ला सके हैं. इस के अलावा, इन नेताओं के बनाए गए कानूनों से स्त्रीपुरुष के अनुपात को बराबरी पर लाने की कोशिशों के परिणाम किस हद तक सफल रहे हैं, यह भी सब के सामने है.

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