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अरुणा केस पर फिल्म

वास्तविक घटनाओं पर आधारित फिल्मों की श्रेणी में अरुणा शानबाग मामला भी जुड़ गया है. खबर है कि एक मराठी फिल्म में अरुणा के साथ हुए हादसे से मिलताजुलता मामला दिखाया जाएगा. इसलिए इसे पूरी तरह से इस केस पर बनी फिल्म नहीं कह सकते पर घटनाक्रम की समानता जरूर है. बहरहाल, मराठी में बनी इस फिल्म का नाम ‘जाणिवा’ है. इस फिल्म में असावरी नाम के किरदार के साथ भी कुछ ऐसा ही देखने को मिलेगा और वह भी अरुणा की तरह ही किसी की दरिंदगी का शिकार हो कर बिस्तर पर सजा काटेगी. असावरी के किरदार में गौरी कोंगे हैं. महेश मांजरेकर और रेणुका शहाणे के अलावा महेश मांजरेकर के सुपुत्र सत्या मांजरेकर भी इस फिल्म से डेब्यू कर रहे हैं.

एक और फिरंगी बाला

कैटरीना कैफ, जैकलीन फर्नांडीज से ले कर लौरेन गोबलिएट जैसी अभिनेत्रियों में जो बात कौमन है, वह है इन का फिरंगी कनैक्शन. सालों पहले बौलीवुड में फिरंगी बालाओं के हिस्से सिर्फ आइटम गीत आते थे. हेलन के अलावा किसी ऐसे नाम को याद करना भी मुश्किल है. बहरहाल, अब फिल्म लव गेम से नतालिया भी इस फेहरिस्त में शामिल हो गई हैं. धनंजय गलानी और बाबा खान के निर्माण में बनी इस फिल्म में विनीत कक्कड़ भी दिखेंगे. विदेशी मूल की अदाकाराओं के लिए बौलीवुड में रास्ते खुलने से बाहर के देशों में संघर्षरत कलाकार यहां सफलता की आस में न सिर्फ लगातार आ रहे हैं बल्कि ग्लैमर वर्ल्ड में सफलता भी हासिल कर रहे हैं.

बाहुबली के सबक

दक्षिण भारतीय फिल्में वैसे तो अपने चालू मसाला और बेसिरपैर के मनोरंजन के लिए मशहूर हैं लेकिन बदलते वक्त के साथ तमिल, तेलुगू, कन्नड़ और मलयालम भाषा में बनने वाली फिल्में अपने कथ्य और तकनीक के चलते हिंदी फिल्मों को भी जोरदार टक्कर देने लगी हैं. यही वजह है कि नैशनल अवार्ड के दौरान भी यहां की फिल्मों का जलवा रहता है. बहरहाल, इन दिनों एसएस राजमौली की तेलुगू फंतासी फिल्म बाहुबली अपने बड़े कैनवास, जबरदस्त स्पैशल इफैक्ट और भव्यता के चलते न सिर्फ चर्चा बटोर रही है बल्कि जम कर कमाई भी कर रही है. बाहुबली की सफलता इस बात की ओर इशारा करती है कि अगर नकल के भरोसे रहने के बजाय अच्छी कहानी पर मेहनत और तकनीक का तड़का लगाया जाए तो भारतीय दर्शकों को हर बार हौलीवुड का मुंह नहीं ताकना पड़ेगा.

अब पंजाब क्रिकेट लीग

क्रिकेट जब से कमाई का जुआघर बना है तब से क्रिकेट में हर कोई जम कर पैसा लगा रहा है. कुछ साल पहले आईपीएल की देखादेखी फिल्मी कलाकारों ने सैलिब्रिटी क्रिकेट लीग बनाया. अब छोटे परदे के कलाकारों और निर्माताओं ने बौक्स क्रिकेट लीग में उत्साह दिखाया है. पिछले साल लौंच हुई इस लीग के साथ 150 से भी ज्यादा भारतीय टैलीविजन के कलाकारों के अलावा क्रिकेट और अन्य सैलिब्रिटी जुड़े थे. इस साल इस में पंजाबी तड़का डाला गया है. इस लीग के तहत भारत, यूके, यूएसए और कनाडा में रहने वाले बड़े पंजाबी सैलिब्रिटी, फिल्म और म्यूजिक कलाकार एकसाथ आएंगे. बौक्स क्रिकेट लीग पंजाब में 5 अलगअलग टीमें खेलेंगी. इन टीमों के सदस्य पंजाब के खास चेहरे होंगे और ईशा देओल व गीता बसरा जैसे पंजाबी इन के मालिक होंगे.

सब के बस का नहीं है टैनिस

भारतीय हैदराबाद की रहने वाली 28 वर्षीय सानिया मिर्जा और स्विट्जरलैंड की 34 वर्षीय मार्टिना हिंगिस की जोड़ी ने विंबलडन में रूस की येकातेरिना मकारोवा और एलेना वेजिन्ना को हरा कर महिलाओं का डबल्स खिताब जीत लिया. अमेरिका की 33 वर्षीय विश्व की नंबर एक टैनिस स्टार सेरेना विलियम्स ने साल के तीसरे ग्रैंड स्लैम टूर्नामैंट विंबलडन में वीमंस सिंगल्स का खिताब जीत कर साबित कर दिया कि अगर हौसला और आत्मविश्वास बुलंद हो तो उम्र माने नहीं रखती. सेरेना का मानना था कि अब उन्हें मुकाबलों में तनाव नहीं होता. नए खिलाडि़यों को सेरेना से सीख लेनी चाहिए.

विंबलडन का महिला युगल खिताब जीतने वाली पहली भारतीय बनने के बाद उत्साह से लबरेज सानिया मिर्जा ने कहा, ‘‘मैं उम्मीद करती हूं इस से अन्य भारतीय लड़कियां जीतने के लिए प्रेरित होंगी.’’ हालांकि सवाल उठता है कि सानिया के बाद कौन? डबल्स में तो किसी भारतीय महिला खिलाड़ी का नामोनिशान तक नहीं है. एकल मुकाबले में भी इक्कादुक्का ही हैं. एकल मुकाबले में अंकिता रैना का नाम जरूर है पर उन की रैंकिंग 228 है. उस के बाद नताशा पल्हा हैं जिन की रैंकिंग 546वें नंबर पर है. ऐसे और भी नाम हैं पर उन के लिए अभी दिल्ली दूर है. टैनिस खेलना आसान नहीं है. यह काफी महंगा खेल माना जाता है और अगर कोई कंपनी खिलाडि़यों को स्पौंसर न करे तो शायद ही खिलाड़ी के मातापिता टैनिस के खर्च को वहन कर सकें. मध्यवर्गीय मातापिता तो सोच भी नहीं सकते. हां, अपवाद को छोड़ कर. शहरों में ट्रेनिंग की सुविधा तो है पर बहुत ही महंगी है. कसबों या छोटे शहरों की बात करें तो वहां टैनिस से दूरदूर तक नाता नजर नहीं आता. ऐसे में दूसरी सानिया को ढूंढ़ना दुष्कर कार्य जरूर है पर नामुमकिन नहीं.

ओलिंपिक ने बनाया कंगाल

एक समय था जब ओलिंपिक खेल को यूरोपीय देश यूनान ने पूरी दुनिया से परिचित कराया था. लेकिन आज इसी ओलिंपिक खेल के कारण यूनानवासी कंगाल हो चुके हैं. बेरोजगारी और मंदी से यूनान बरबाद हो चुका है. वह अंतर्राष्ट्रीय मुद्रा कोष यानी आईएमएफ का तकरीबन 114 अरब रुपए का कर्ज नहीं चुका पाया है. आखिर ऐसा क्या हुआ यूनान के साथ? दरअसल, यूनान चाहता था कि वर्ष 1996 में ओलिंपिक के 100 वर्ष पूरे होने पर उसे मेजबानी मिल जाए और इस से देश को भारी आमदनी हो, पर ऐसा हुआ नहीं. 4 वर्ष बाद जब 2004 में यूनान को ओलिंपिक की मेजबानी मिली तो इस के आयोजन के लिए उसे भारी कर्ज लेना पड़ा. यूनान ने इस खेल के आयोजन के लिए तकरीबन 11 अरब डौलर खर्च कर डाले. इन खेलों में 201 देशों के 10 हजार से अधिक खिलाडि़यों ने 28 खेलों की 301 प्रतिस्पर्धाओं में हिस्सा लिया. उस समय तो यूनानवासियों का खुशी का ठिकाना नहीं था पर धीरेधीरे देश की आर्थिक स्थिति खस्ता होने लगी. करोड़ोंअरबों की लागत से बना स्टेडियम सफेद हाथी साबित होने लगा  वर्ष 2004 खेलों की मेजबानी यूनान को वर्ष 1997 में ही मिल चुकी थी लेकिन खेल अधिकारी व प्रशासन 3 साल तक तो यों ही सोते रहे. इस के लिए अंतर्राष्ट्रीय ओलिंपिक संघ के अधिकारियों ने उन्हें चेताया भी था कि अगर यही स्थिति रही तो यूनान को मेजबानी से हाथ धोना पड़ सकता है. बावजूद इस के, यूनान को यह बात समझ नहीं आई और पैसा पानी की तरह बहाया गया. ठीक वैसा ही जैसा कि दिल्ली में हुए कौमनवैल्थ गेम्स में बहाया गया था और भ्रष्ट राजनेता व नौकरशाह मालामाल हो गए. यूनान में भी ऐसा ही हुआ. ठेकेदारों और भ्रष्ट अधिकारियों की जेबें तो भर गईं लेकिन पूरा देश कंगाल हो गया. विडंबना देखिए कि जिस ओलिंपिक का यूनान ने पूरी दुनिया से परिचय कराया, आज उसी ओलिंपिक ने यूनान को दुनिया के सामने कंगाली की स्थिति में ला कर खड़ा कर दिया है.

फिल्म समीक्षा

बाहुबली

हौलीवुड और बौलीवुड दोनों जगह फिल्मों की नई तकनीक के जरिए अविश्वसनीय, अंधविश्वासी, धर्मस्थापना, चमत्कारों में विश्वास जगाने वाली सामग्री बहुत ही कुशल तरीके से परोसी जा रही है. हैरी पौटर, लौर्ड औफ रिंग्स, मम्मीज आदि फिल्मों के जरिए हौलीवुड में और बाहुबली जैसी फिल्मों से हमारे यहां कंप्यूटर तकनीक के जरिए दिमाग में यह बैठाने की कोशिश हो रही है. चमत्कारी ईश्वर चाहे तो क्या नहीं हो सकता, नायक पहाड़ उठा सकता है, समुद्र पार कर सकता है, अनजान जंगलों में रास्ता खोज सकता है, आंधीतूफान ला सकता है. दर्शकों को भव्यता के नाम पर एक ऐसे काल्पनिक माहौल का गुलाम बनाया जा रहा है जो अतार्किक और असंभव है. सदियों से ऐसी बहुत सी कहानियां सुनीसुनाई जा रही हैं कि किसी राज्य में एक धूर्त सेनापति हुआ करता था जो राजा या रानी को मार कर या फिर जेल में डाल कर खुद शासक बन बैठता था और फिर वह प्रजा पर जुल्म करता था. लेकिन उसी राजा या रानी का बेटा बड़ा हो कर उस जुल्मी शासक का अंत करता था कोई भगवान या देवता उस का साथ देता था. ऐसी कहानियां सुनने में बहुत अच्छी लगती हैं. इसी तरह की 18वीं सदी की एक कहानी पर दक्षिण भारत की फिल्मों के निर्देशक एस एस राजमौली ने नई तकनीक से ‘बाहुबली’ फिल्म बनाई है, जिस का कैनवास काफी बड़ा है और मेकिंग इतनी बढि़या है कि दर्शक दम साधे फिल्म को देखते रह जाते हैं. पर अंत में दर्शक विवेकशून्य बने रह जाते हैं. तकनीकी दृष्टि से यह फिल्म हौलीवुड की फिल्मों को टक्कर देती प्रतीत होती है. पर विचारों की दृष्टि से यह फिल्म कहीं भी नहीं ठहरती क्योंकि हर दृश्य पुराना घिसापिटा है, हर घटना कितनी ही बार देखी गई है. पीरियोडिकल फिल्में बनाने वाला यह पहला निर्देशक नहीं है, इस से पहले दक्षिण भारत के ही सुपरस्टार रजनीकांत ने ‘कोचदयान’ जैसी पीरियोडिकल फिल्म बनाई थी.

‘बाहुबली’ को भारत की सब से महंगी फिल्म बताया जा रहा है. फिल्म में असंभव को दिखाने वाली कला है, शानदार झरने हैं, पौराणिक नगर हैं, सैनिक हैं, वैसी ही सैनिकों की पोशाकें और अस्त्रशस्त्र हैं, भव्य महल हैं. हां, इन सब में दर्शक खो से जाते हैं जैसे कंप्यूटर गेम्स में खोते हैं. फिल्म में ऐक्शन और स्टंट सीन गजब के हैं. नायक का ऊंचीऊंची चट्टानों से कूदने के दृश्य सिहरन पैदा करते हैं पर हैं वे बचकाने. फिल्म के स्पैशल इफैक्ट्स, ऐनिमेशन, प्राकृतिक सौंदर्य, एवलांच का सीन तारीफ के लायक हैं. ‘बाहुबली’ को तमिल और तेलुगू भाषा में बनाया गया है. हिंदी में इसे डब किया गया है जो खलती तो नहीं पर दिल को छूती भी नहीं है. इस फिल्म ने सफलता के रिकौर्ड तोड़ दिए हैं. ‘बाहुबली’ की कहानी शिवा (प्रभास) की है जो बचपन से ही अपनी मां से पौराणिक कहानियां सुन कर बड़ा हुआ है. उस के मातापिता उस के जन्मदाता नहीं हैं. उन्हें तो नदी में डूबते हुए नवजात शिशु मिला था जिसे पालपोस कर उन्होंने बड़ा किया था.

एक दिन शिवा को गांव के झरने से एक मुखौटा मिलता है. यह मुखौटा किस का है, यह जानने के लिए शिवा झरने के पार जाता है, जहां उस की मुलाकात अवंतिका (तमन्ना भाटिया) से होती है, जो एक वफादार योद्धा है. उस से शिवा को पता चलता है कि माहिष्मती राज्य की महारानी देवसेना (अनुष्का शेट्टी) को कू्रर शासक भल्लाल देव (राणा डुग्गूबाती) ने बंदी बना रखा है और उस का मकसद महारानी को आजाद कराना है. शिवा उसे मदद का आश्वासन देता है और अकेला कू्रर राजा भल्लालदेव से मुकाबला करने को चल पड़ता है. महल में शिवा का सामना सेनापति कटप्पा (सत्यराज) और भल्लाल के धूर्त पिता बजाला देव (नासर) से होता है. शिवा को देख कर राजा की प्रजा बाहुबलीबाहुबली के जयकारे लगाने लगती है. वह महारानी देवसेना को कैद से मुक्त कराता है. सेनापति कटप्पा उसे बताता है कि वह महाराज अमरेंद्र का बेटा है और कटप्पा ने ही षड्यंत्र रच कर उस के पिता को मार डाला था. फिल्म की यह कहानी अभी पूरी नहीं है. बाकी की कहानी फिल्म के पार्ट टू में देखने को मिलेगी जो संभवतया अगले साल देखने को मिलेगी. मध्यांतर से पहले फिल्म पात्रों का परिचय कराती हुई धीरेधीरे आगे बढ़ती है. मध्यांतर के बाद फिल्म गति पकड़ती है और कहानी फ्लैशबैक में चलती है. जिस में शिवा अपने पिता का रोल करता है, मध्यांतर के बाद का हिस्सा बहुत लंबा हो गया है. इसे छोटा किया जा सकता था. महाराजा अमरेंद्र सिंह और उस के चचेरे भाई भल्लाल द्वारा पड़ोसी आदिवासी राज्य से युद्ध करने वाले दृश्य बहुत लंबे हो गए हैं. इस हिस्से में फिल्म का पूरा कैनवास युद्ध का मैदान नजर आता है.

प्रभास ने पिता और पुत्र की दोहरी भूमिका निभाई है. दोनों ही भूमिकाओं में वह जमा है. तमन्ना भाटिया सुंदर लगी है और उस ने जम कर तलवारबाजी की है. उस ने चुस्ती और फुरती गजब की दिखाई है. फिल्म में महलों के सैट सुंदर लगाए गए हैं. ऐनिमेशन के द्वारा सांड की लड़ाई और हाथियों का इस्तेमाल अच्छा किया गया है. भल्लाल की भूमिका में राणा डुग्गूबाती ने अच्छी खलनायकी की है. फिल्म का निर्देशन बहुत अच्छा है. संवादों में डब किए गए संस्कृत शब्दों जैसे ‘जयघोष’, ‘प्रतिघात’, ‘अविरल’ का प्रयोग किया गया है वहीं उर्दू के शब्द, ‘इन लाशों को दफना दो’ भी सुनने को मिलते हैं. फिल्म का पार्श्व संगीत तो ठीक है परंतु गीत चलने वाले नहीं हैं. छायांकन बहुत अच्छा है. ऊंचाई से लिए गए युद्ध के दृश्य फिल्म की विशालता का आभास कराते हैं.

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गुड्डू रंगीला

फिल्म ‘शोले’ की जय और वीरू की जोड़ी आज भी याद की जाती है. फिल्म गुड्डू रंगीला में गुड्डू और रंगीला की जोड़ी ने दर्शकों को खूब हंसाया है. हालांकि इस जोड़ी का हंसाने का तरीका थोड़ा घटिया है. दोनों ने द्विअर्थी चुटकुले सुना कर और अबेतबे कह कर माहौल को रंगीन बनाए रखने की कोशिश की है, फिर भी यह जोड़ी जमी है. इस फिल्म के निर्देशक सुभाष कपूर को ‘फंस गए रे ओबामा’ और अरशद वारसी के साथ ‘जौली एलएलबी’ जैसी हलकीफुलकी कौमेडी वाली और समाज को हकीकत से रूबरू कराने वाली फिल्मों के बनाने के लिए जाना जाता है. निर्देशक ने खाप और औनर किलिंग को बैकग्राउंड में रख कर एक चटपटी, मसालेदार फिल्म बनाई है, जिस में न सिर्फ खाप के नाम पर प्रेमियों को कत्ल करने वाला दबंग नेता है, बल्कि रिश्वतखोर पुलिस भी है, साधुओं के भेष में डकैत हैं. पुजारी मुखबरी करा कर लोगों के घर में डकैती कराता है. साधु और उस के चेले शराब पीते हैं और लोगों को जान से मारने में भी गुरेज नहीं करते. निर्देशक ने सांकेतिक रूप से कई बातों का समावेश किया है. हरियाणा के एक गांव में रहने वाले गुड्डू (अमित साध) और रंगीला (अरशद वारसी) चचेरे भाई हैं. दोनों एक लोकल और्केस्ट्रा ग्रुप चलाते हैं, जो माता के जागरण से ले कर नंबरदार के बेटे को केन्या का वीजा मिलने के सैलिब्रेशन पर गातेबजाते हैं. और्केस्ट्रा पार्टी चलाने के अलावा दोनों डकैत गिरोहों के लिए मुखबरी भी करते हैं. रंगीला पिछले कई सालों से लोकल एमएलए और खाप पंचायत के लीडर बिल्लू पहलवान (रोनित राय) के खिलाफ मुकदमा लड़ रहा है. रंगीला ने कुछ साल पहले गांव में प्रेमविवाह किया था तो बिल्लू ने उस के चाचा को जिंदा जला दिया था और उस की पत्नी बबली की हत्या कर दी थी. उस वक्त बिल्लू बच कर भाग गया था.

इस बीच, गांव में ट्रांसफर हो कर आया नया पुलिस इंस्पैक्टर उन्हें जेल में डाल देने की धमकी दे कर 10 लाख रुपए की डिमांड करता है. एक बंगाली मुखबिर (दिव्येंदु भट्टाचार्य) उन्हें 10 लाख रुपए जल्दी कमाने का प्लान बताता है. इस के लिए उन दोनों को बेबी (अदिति राव हैदरी) का अपहरण करना है. दोनों बेबी का अपहरण करते हैं. तभी उन्हें पता चलता है कि बेबी तो बिल्लू पहलवान की साली है. अब बिल्लू पहलवान से बदला लेने का मौका है, यह जान कर वे दोनों उस से भिड़ जाते हैं. तभी रंगीला को पता चलता है कि उस की बीवी मरी नहीं थी, जिंदा है. वह गुड्डू के साथ मिल कर बिल्लू पहलवान को मौत के घाट उतार देता है. मध्यांतर से पहले का भाग बांधे रखता है लेकिन मध्यांतर से बाद वाला हिस्सा खींचा गया लगता है. इस भाग में कहानी सिर्फ बदले की हो कर रह जाती है. फिल्म का क्लाइमैक्स 80-90 के दशक की मसाला फिल्मों जैसा है. बिल्लू पहलवान की भूमिका में रोनित राय पूरी फिल्म में छाया हुआ है. उस का खौफ जबरदस्त है. दिव्येंदु भट्टाचार्य ने फिल्म में ह्यूमर का टच दिया है. अदिति राव हैदरी साधारण है. उस के करने लायक कुछ था ही नहीं. गीतसंगीत साधारण है. ‘कल रात माता का मुझे ईमेल आया है, माता ने मुझे फेसबुक पर बुलाया है…’ गाना सुन कर हंसी आती है. छायांकन बढि़या है.

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बेजबान इश्क

प्रेम के त्रिकोण पर बनी फिल्म ‘बेजबान इश्क’ काफी बोझिल है. इश्क में गरमाहट की कमी खलती है. फिल्म में इतनी ज्यादा सादगी है कि दर्शक इस बेजबान इश्क को एंजौय नहीं कर पाते. आधी से ज्यादा फिल्म राजस्थान में शूट की गई है और लगता है जैसे निर्देशक राजस्थान पर्यटन विभाग का प्रचार कर रहा है. फिल्म की कहानी 3 दोस्तों की है. मनसुख पटेल (सचिन खेडेकर) लंदन में बिजनैस करता है. उस का भाई रश्मिकांत (दर्शन जरीवाला) मुंबई में रहता है. सुहानी (मुग्धा गोडसे) रश्मिकांत की बेटी है. वह पर्सनैलिटी डिसऔर्डर की शिकार है. वह जराजरा सी बात पर घर में तोड़फोड़ करती है. विपुल (मुनि झा) रश्मिकांत का बचपन का दोस्त है. स्वागत (निशांत) उस का बेटा है. रश्मिकांत अपनी बेटी की सगाई विपुल के बेटे के साथ करना चाहता है. इस मौके पर रश्मिकांत का भाई मनसुख पटेल अपनी बेटी रुमझुम (स्नेहा उल्लाल) के साथ मुंबई आता है. रुमझुम की सादगी और सुंदरता पर स्वागत फिदा हो जाता है. दोनों मन ही मन एकदूसरे को चाहने लगते हैं. उन दोनों के इश्क की भनक सुहानी को लग जाती है. वह बहुत पजैसिव है. स्वागत के साथ उस की मंगनी हो चुकी है. चाह कर भी वह खुद को रोक नहीं पाती और स्वागत व रुमझुम के रास्ते से हटने का फैसला कर लेती है. वह दोनों को मिलाने के लिए एक पत्र लिख कर सुसाइड कर लेती है.

फिल्म की यह कहानी बहुत ही धीमी है. कहानी एक तरफ प्यार में अपनी जान कुरबान करने की है तो वहीं मन ही मन अपने प्रेमी को टूट कर चाहने की भी है. सुहानी की भूमिका में मुग्धा गोडसे को जहां एग्रैसिव दिखाया गया है वहीं रुमझुम की भूमिका में स्नेहा उल्लाल को गंभीर और कैची पर्सनैलिटी वाला दिखाया गया है. स्वागत की भूमिका में निशांत 2 पाटों के बीच पिसा नजर आता है. चाहता तो वह रुमझुम को है परंतु सुहानी के पर्सनैलिटी डिसऔर्डर की वजह से अपने बेजबान इश्क को जाहिर नहीं होने देता. निर्देशक ने उस के अंतर्द्वंद्व को दिखाया है. फिल्म का निर्देशन बहुत ज्यादा बढि़या तो नहीं है, चलताऊ है. निर्देशक ने थोड़ाबहुत अच्छा गीतसंगीत दे कर फिल्म को चमकाने की कोशिश की है. अभिनय की दृष्टि से स्नेहा उल्लाल को छोड़ कर कोई कलाकार प्रभावित नहीं करता. स्नेहा की 2-3 फिल्में आ चुकी हैं. उस के अभिनय में अब परिपक्वता आ गई है. छायांकन अच्छा है.

विज्ञान कोना

ऐप्स के खतरे

आजकल स्मार्टफोन्स पर तरहतरह के ऐप्स प्रकट हो रहे हैं. इन में से एक ब्लडप्रैशर नापने का दावा करता है. अलबत्ता हाल में किए गए एक अध्ययन से पता चला है कि ब्लडप्रैशर नापने के ये ऐप्स अनजांचे हैं, त्रुटिपूर्ण परिणाम देते हैं और खतरनाक हो सकते हैं. मैसाचुसेट्स स्थित कैम्ब्रिज हैल्थकेयर एलायंस के चिकित्सक डा. निलय कुमार और उन की टीम ने 107 ऐसे ऐप्स का विश्लेषण किया जो उच्च रक्तचाप के लिए बनाए गए हैं. ये सारे गूगल प्ले स्टोर तथा एप्पल आई ट्यून्स से डाउनलोड किए जा सकते हैं. शोधकर्ताओं को 7 एंड्रौएड ऐप्स मिले जिन में दावा किया गया था कि आप को सिर्फ इतना करना है कि अपनी उंगलियों को फोन के स्क्रीन या कैमरे पर दबा कर रखें और वह आप का ब्लडप्रैशर बता देगा. शोधकर्ताओं के मुताबिक, ये दावे बोगस हैं. डा. निलय कुमार व उन की टीम को यह देख कर हैरत हुई कि स्मार्टफोन आधारित ब्लडप्रैशर मापी ऐप्स अत्यंत लोकप्रिय हो चले हैं. इन्हें कम से कम 24 लाख बार डाउनलोड किया गया है. डा. निलय को यह स्पष्ट नहीं था कि यह टैक्नोलौजी ठीकठीक किस तरह काम करती है. शायद फोन का कैमरा उंगली की नब्ज को पढ़ता होगा. मगर वे इतना जानते हैं कि यह टैक्नोलौजी अभी अनुसंधान व विकास के चरण में है और उपयोग के लिए तैयार नहीं है. बहुत संभावना इस बात की है कि यह आप को गलत ब्लडप्रैशर बताएगी और आप बेकार में परेशान होते रहेंगे. उस से भी ज्यादा परेशानी तो तब हो सकती है जब यह अनपरखी टैक्नोलौजी आप को बताती रहेगी कि सबकुछ ठीकठाक है जबकि हो सकता है कि आप को डाक्टरी मदद की जरूरत हो. जर्नल औफ दी अमेरिकन सोसायटी औफ हाइपरटैंशन में प्रकाशित इस अध्ययन में बताया गया है कि आज काफी सारे लोग अपने मैडिकल आंकड़े प्राप्त करने के लिए मोबाइल ऐप्स का उपयोग कर रहे हैं. कम से कम 72 प्रतिशत ऐप्स, व्यक्ति को अपनी मैडिकल जानकारी हासिल करने की गुंजाइश प्रदान करते हैं. कई ऐप्स में तो यहां तक व्यवस्था है कि यह जानकारी सीधे आप के डाक्टर के पास पहुंच जाएगी. इस के अलावा कुछ ऐप्स में दवा लेने वगैरह की याद दिलाने की व्यवस्था भी है. मगर इन ऐप्स में मात्र 2.8 प्रतिशत का विकास ही किसी स्वास्थ्य एजेंसी द्वारा किया गया है. यूएस खाद्य व औषधि प्रशासन ने ब्लडप्रैशर नापने के एक भी ऐप्स को अनुमति नहीं दी है. लिहाजा, अध्ययन का निष्कर्ष है कि ये ऐप्स मरीजों की सुरक्षा संबंधी चिंता को बढ़ा रहे हैं.

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कार्बन मापी उपग्रह

अमेरिकी अंतरिक्ष एजेंसी नासा का कार्बन मापी उपग्रह कई हिचकोले खाने के बाद अब सही ढंग से काम कर आंकड़े भेजने लगा है. और्बिटिंग कार्बन औब्जर्वेटरी-2 (ओसीओ-2) नामक यह उपग्रह पिछले वर्ष जुलाई में प्रक्षेपित किया गया था और यह धरती के चक्कर लगाते हुए अलगअलग स्थानों पर वातावरण में कार्बन डाईऔक्साइड की मात्रा का आकलन करेगा. शुरुआत में पता चला था कि इस में डिजाइन संबंधी कुछ त्रुटियां हैं जो किसी वजह से अनदेखी रह गई थीं. इस का मुख्य यंत्र 3 वर्णक्रममापी है जो किसी स्थान पर धरती की सतह से टकरा कर लौटने वाली धूप का मापन करता है. जब इस यंत्र को चालू किया गया तो इस से प्राप्त आंकड़ों में कुछ दिक्कतें थीं. वजह यह थी कि डिजाइन की एक त्रुटि के चलते इस यंत्र में कम धूप पहुंचती थी. उपग्रह को थोड़ा झुका कर इस त्रुटि की मरम्मत करने के बाद अब यह ठीक तरह से काम करने लगा है. ओसीओ-2 वातावरण में कार्बन डाईऔक्साइड का सतत मापन करेगा. गौरतलब है कि कार्बन डाईऔक्साइड एक प्रमुख ग्रीनहाउस गैस है जो धरती का तापमान बढ़ने के लिए जिम्मेदार है. ओसीओ-2 से प्राप्त आंकड़ों से यह समझने में मदद मिलेगी कि इंसानी क्रियाकलाप और कुदरती तंत्र किस तरह से कार्बन डाईऔक्साइड की मात्रा को प्रभावित कर रहे हैं. अभी नासा के वैज्ञानिक ओसीओ-2 से प्राप्त आंकड़ों का मूल्यांकन कर रहे हैं और शीघ्र ही ये आंकड़े सार्वजनिक कर दिए जाएंगे. बहरहाल, पहलीपहली वैश्विक तसवीरों से पता चलता है कि कार्बन डाईऔक्साइड का सर्वोच्च मान उत्तरी आस्ट्रेलिया, दक्षिण अफ्रीका और पूर्वी ब्राजील के वातावरण में है. ओसीओ-2 टीम की राय है कि अफ्रीका के ऊपर कार्बन डाईऔक्साइड का उच्च स्तर घास के मैदानों और जंगलों के जलने की वजह से हो सकता है जबकि उत्तरी अमेरिका, यूरोप और चीन के वातावरण में उच्च कार्बन डाईऔक्साइड स्तर इंसानी क्रियाकलापों की वजह से है, जिस में बिजलीघरों में जीवाश्म ईंधन का दहन शामिल है. गौरतलब है कि ऐसे इंसानी क्रियाकलापों की वजह से वातावरण में प्रति वर्ष 40 अरब टन कार्बन डाईऔक्साइड छोड़ी जाती है. ओसीओ-2 से प्राप्त आंकड़ों से यह अनुमान लगाने में मदद मिलेगी कि कुदरती तंत्रों की सीमा कब समाप्त हो जाएगी या हो चुकी है. 

१८५७ का गदर : मंशा पर सवाल

वर्ष 1857 में अंगरेज हुकूमत के खिलाफ सैनिक बगावत को इतिहासकारों ने ‘सैनिक गदर’ कहा है. वीर सावरकर ने अपनी पुस्तक ‘1857 का स्वतंत्रता समर’ में इस गदर को प्रथम स्वतंत्रता संग्राम कहा है. मैं ने जब एक इतिहासकार की जिज्ञासाभरी नजरों से उस घटना का अध्ययन शुरू किया तो मुझे उस ‘1857 के गदर’ में स्वतंत्रता के युद्ध के दर्शन हुए. भारत के इस कथित प्रथम स्वतंत्रता संग्राम के क्रांतिकारियों ने अंगरेजों द्वारा सिंहासन से हटाए गए बूढ़े बहादुरशाह जफर को 11 मई, 1857 के दिन अपना सम्राट चुना था. इसी कारण 11 मई, 2007 को सरकार की ओर से दिल्ली के लालकिले पर स्वतंत्रता संग्राम की 150वीं वर्षगांठ धूमधाम से मनाई गई. प्रधानमंत्री की घोषणा के अनुसार उस जश्न को देश में वर्षभर मनाया गया. पर अंगरेजों के खिलाफ इस बगावत को कार्ल मार्क्स महज सैनिक विद्रोह मानते हैं, जैसा कि उन्होंने लिखा है :

‘‘सन 1857 का भारतीय विद्रोह अंगरेजों द्वारा पीडि़त, अपमानित, नंगी जनता ने नहीं किया, बल्कि वेतनभोगी सिपाहियों ने किया था.’’ वे भारतीय जनता में राष्ट्रीयता का अभाव देखते हैं, जिस कारण वह सत्ता की तरफ से सदैव उदासीन रही है :

‘‘राज्य के छिन्नभिन्न हो जाने के बारे में देश के आम लोगों ने कभी कोई चिंता नहीं की. जब तक गांव पूरा का पूरा बना रहता है, वे इस बात की परवा नहीं करते कि वह किस सत्ता के हाथ में चला जाता है या उस पर किस बादशाह की हुकूमत कायम होती है.’’ कार्ल मार्क्स आगे सैनिक बगावत का कारण लिखते हैं :

‘‘सिपाहियों में जो कारतूस बांटे गए थे उन के कागजों (रैपर) पर गाय और सूअर की चरबी लगी थी. इस कारण कलकत्ता, बैरकपुर, इलाहाबाद, आगरा, अंबाला, लाहौर की छावनियों के सैनिक बागी हो गए और उन्होंने विद्रोह कर दिया. पूरे उत्तर भारत में सैनिक विद्रोह फैल गया.’’ वीर सावरकर इस प्रथम स्वतंत्रता संग्राम के 2 कारण मानते हैं. एक, ‘स्वधर्म’ रक्षा. दूसरा, ‘स्वराज्य’ प्राप्ति. ‘‘वस्तुत: 1857 के क्रांतिदूतों ने ‘स्वधर्म’ व ‘स्वराज्य’ की स्थापना के लिए ही अपने हाथों में शस्त्र धारण किए थे.’’

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इस विद्रोह में हिंदू और मुसलमान दोनों ने भाग लिया था. ‘स्वधर्म’ रक्षा का जहां तक प्रश्न है, मुगलों ने तो कई मंदिर तोड़े थे पर अंगरेजों ने एक भी मंदिर या मसजिद तोड़ कर चर्च में नहीं बदला. अपवादों को छोड़ कर मुसलमानों ने ईसाई धर्म नहीं अपनाया. दलितों ने जरूर हिंदुओं के अत्याचारों से मुक्ति पाने के लिए मुगलकाल में इसलाम और अंगरेजों के समय में ईसाई धर्म अपनाए थे. दलितों का यह धर्मांतरण आजादी के 68 साल होने पर भी जारी है. सैनिक बगावत की शुरुआत बैरकपुर छावनी के ब्राह्मण सैनिक मंगलपांडे ने की थी. दरअसल, मंगल पांडे को एक शूद्र छू लेता है. वे अपने को ‘अपवित्र’ करने का दोष उस पर लगा देते हैं. इस पर वह शूद्र ताना मारता है कि तुम गाय और सूअर की चरबी के कारतूसों से तो ‘पवित्र’ रहते हो और मेरे छूने से ‘अपवित्र’ हो जाते हो. बस, फिर क्या था, मंगल पांडे अंगरेज अफसर पर गोली दाग देता है. यहां शूद्र स्पर्श व चरबी से बचने को ही शायद सावरकर ‘स्वधर्म’ रक्षा मानते हैं.

सावरकर आगे लिखते हैं :

‘‘अंगरेज सतीप्रथा, विधवा विवाह और दत्तक पुत्र अधिकार संबंधी नियमों में हस्तक्षेप करते थे.’’ स्पष्ट है कि सावरकर अंगरेजों द्वारा सतीप्रथा पर रोक व विधवा पुनर्विवाह जैसे प्रगतिशील नियम बनाने को भी हिंदू धर्म विरोधी कदम मानते हैं. यहां ‘स्वराज्य’ का अर्थ जनता राज्य से नहीं है. असल में कंपनी के अंगरेजी अफसर डलहौजी ने देशी राजानवाबों पर ‘सहायक संधि’ को जबरन थोप कर पूरे भारत के शासकों को ईस्ट इंडिया कंपनी के अधीन कर लिया था. इधर ईस्ट इंडिया कंपनी की आर्थिक हालत खराब हो गई थी. इसलिए डलहौजी ने ‘समतल भारत’ की स्थापना के लिए गोद लेने की प्रथा को अवैध घोषित कर दिया था, जिसे इतिहासकारों ने ‘हड़प नीति’ कहा है.

कार्ल मार्क्स का कहना है :

‘‘1848 के बाद ईस्ट इंडिया कंपनी की आर्थिक स्थिति खराब हो गई थी, इसलिए देशी राजाओंनवाबों को कंपनी के अधीन कर आय का तरीका खोजा गया. यही कारण था कि गोद लिए गए वारिस को अंगरेजों ने मान्यता नहीं दी.’’ जिन देशी राजाओं के कोई औलाद नहीं होती थी, डलहौजी की ‘हड़प नीति’ के तहत उन के राज्य को अंगरेजी राज्य में मिला लिया जाता था. ऐसे राजाओं के दिलों में कंपनी के खिलाफ ज्वाला धधक उठी और वे आजाद होने का प्रयत्न करने लगे. इसी को वीर सावरकर ने ‘स्वतंत्रता’ प्राप्त करना कहा है. अंगरेजों द्वारा गोदप्रथा अमान्य करने को ले कर कमलनारायण झा ‘कमलेश’ अपनी पुस्तक ‘सन 1857 की कहानी’ में लिखते हैं :

‘‘आप इस बात से परिचित हैं कि बहुत से भारतीय राजाओं को अनावश्यक रूप से पद से हटाया गया और उन के राज्य हड़पे गए. भारतीय जनता पराधीनता की बेड़ी तोड़ने के लिए बेचैन हो उठी. इसलिए स्वतंत्र युद्ध का सूत्रपात हुआ.’’ यहां ‘भारतीय जनता’ का अर्थ देशी शासकों से है न कि आम जनता से. वे ही राज्य छिन जाने से पराधीन हो गए थे. आम जनता को तो किसी न किसी के अधीन रहना ही था. फिर देशी निरंकुश नरेश अंगरेजों की तुलना में आम जनता के लिए किसी भी प्रकार उदार नहीं थे, खासकर दलितों के लिए तो कतई नहीं. कुल मिला कर देखें तो 1857 का कथित ‘स्वतंत्रता संग्राम’ शासन से हटाए गए देशी नरेशों की आजादी के लिए लड़ा गया. चरबी के कारतूसों को ले कर हुए सैनिक विद्रोह को उन्हीं देशी शासकों ने सहयोग दिया था जिन की अंगरेजों द्वारा सत्ता छीन ली गई थी. अंगरेजों ने गोद लेने की प्रथा के खिलाफ कानून न बनाया होता और संतानहीन नरेशों के राज्य न हड़पे होते तो ये नरेश विद्रोही सैनिकों को किसी भी कीमत पर सहयोग नहीं देते. फिर सैनिक विद्रोह भी टांयटांय फिस हो कर रह जाता.

अगर निसंतान बाजीराव पेशवा(द्वितीय) द्वारा नाना साहब को गोद लेने को अंगरेज अवैध घोषित न करते तो क्या नाना साहब और उन का सेनापति तांत्या टोपे विद्रोही सैनिकों को सहयोग देते? झांसी की विधवा रानी लक्ष्मीबाई के दत्तक पुत्र (दामोदर) को मान्य मान लिया होता तो क्या वह अंगरेजों के खिलाफ हथियार उठाती? कुशासन के नाम पर अवध के नवाब वाजिद अली शाह को गद्दी से हटा कर कैद न किया होता तो क्या उन की बेगमें इस संग्राम में भाग लेतीं? ऐसा भी नहीं है कि सब देशी नरेशों ने विद्रोहियों का साथ दिया हो. ग्वालियर के शिंदे, इंदौर के होल्कर, टौंक, निजाम हैदराबाद, बड़ौदा नवाब, पटियाला-जींद-नाभा, जोधपुर, भरतपुर के राजाओं ने या तो अंगरेजों का साथ दिया या तटस्थ रहे. नेपाल के राणा जंगबहादुर ने तो विद्रोहियों को अपने राज्य की सीमा से बाहर कर दिया था. गोरखा और सिख सैनिक पूरी तरह अंगरेजों के साथ थे.

दलित भी इस ‘स्वतंत्रता संग्राम’ के विरोधी थे क्योंकि अंगरेजी हुकूमत में वर्ण व्यवस्था के कुचक्र को तोड़ कर उन्हें शिक्षा, सैनिक, असैनिक अधिकार मिल गए थे जबकि देशी नरेशों के शासन में वर्ण व्यवस्था लागू थी. स्वतंत्रता आंदोलन के दौरान डा. भीमराव अंबेडकर ने भी आजादी की अपेक्षा दलित मुक्ति पर अधिक जोर दिया था.

कार्ल मार्क्स के अनुसार :

‘‘इस क्रांति के पीछे कोई राष्ट्रीय सोच नहीं थी और न इस का कोई एक नेता था. गद्दी से हटाए गए देशी नरेश जहांतहां (खासकर उत्तर भारत में) विद्रोह कर रहे थे.’’ अगर उस समय अंगरेजों को देश छोड़ना पड़ता तो यह निश्चय था कि ये देशी नरेश अपनेअपने राज्यों के निरंकुश शासक होते. फिर क्या 562 निरंकुश देशी शासक, हजारों जागीरदार, जमींदार और इन के टुकड़ों पर पलने वाले पंडेपुजारी, साधुसंत, मुल्लामौलवी जनता के स्वतंत्रता आंदोलन को पनपने देते? वे तो निरंकुश शासकों से ‘धर्मगं्रथों’ का पालन कराते. याज्ञवल्क्य स्मृति, अध्याय 302 में लिखा है कि राजा का विरोध करने वालों की जीभ काट कर देशनिकाला कर देना चाहिए. जिस सावरकर को ‘स्वतंत्र वीर’ कहा जाता है वह भी जनतंत्र के विरोधी और निरंकुश राजतंत्र के पक्षधर थे.

‘‘जिस समय विद्रोह की यह धारा पुन: मर्यादित होगी और अपनेआप को सीमाओं में कैद कर लेगी तो राष्ट्रभक्त भारत विदेशी शासकों से अपने को आजाद कर लेगा तथा वह देशी राजाओं के स्वतंत्र राज्य दंड के सामने नतमस्तक होगा.’’ यहां ‘राष्ट्रभक्त भारत’ का अर्थ भारत की आम जनता से है. सावरकर चाहते थे कि अंगरेजों के जाने के बाद आम जनता राज्यभक्ति का पालन करते हुए देशी राजाओं के अधीन रहे यानी सदैव गुलामी की चक्की में पिसती रहने को ही अपनी नियति माने. वीर सावरकर के समय कांगे्रस के नेतृत्व में आजादी का आंदोलन चरम पर था. पर आश्चर्य है कि वे लोकतंत्र के बजाय निरंकुश राजतंत्र की हिमायत कर रहे हैं. क्या यहां वीर सावरकर लोकतंत्र विरोधी साबित नहीं होते? इस पर अवश्य विचार होना चाहिए कि 1857 का कथित प्रथम स्वतंत्रता संग्राम यदि सफल हो जाता और उस समय अंगरेज भारत से चले जाते तो क्या 1947 में भारत में लोकतंत्र की स्थापना होती?

हमारी बेडि़यां

कुंजवाटिका में 2015 की पहली जनवरी की रात में न्यू ईयर की पार्टी चल रही थी. राजपूत घराने के कई बाहुबली जम कर शराब पी रहे थे. डीजे चल रहा था. राजपूतों के यहां जब कोई जश्न या खुशी का मौका होता है तो वे रिवौल्वर से हवाई फायर कर के अपनी खुशी का इजहार करते हैं. उस रात भी दारू के नशे में चूर हो कर एक रसूखदार बाहुबली ने अपनी बंदूक से हवाई फायर किया तो गोली ऊपर न जा कर सामने बिल्ंिडग के एक फ्लोर के फ्लैट की बालकनी में खड़े 5 वर्षीय बच्चे, जो और्केस्ट्रा की धूमधड़ाक व लाइटिंग देखने के लिए खड़ा हुआ था, के माथे में घुस गई. आननफानन उसे नर्सिंगहोम ले जाया गया. मासूम बच्चे की सर्जरी कर के गोली तो निकाल दी गई पर दूसरे दिन दोपहर को उस मासूम ने दम तोड़ दिया. बच्चे की मां तो जैसे पत्थर की हो गई. उसे तो विश्वास भी नहीं हो रहा कि उस का बच्चा दुनिया में नहीं रहा. एक दकियानूसी परंपरा को पूरा करने के चलते बेवजह मासूम की बलि चढ़ गई. 

अंजु सिंगड़ोदिया, हावड़ा (प.बं.)

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मेरी पड़ोसिन बहुत अंधविश्वासी व छुआछूत को मानने वाली महिला है. उस की एक आदत थी कि वह घर से कूड़ा ले जाने वाले स्वीपर को कूड़ा दूर से ही फेंक कर देती थी. इस से आधा कूड़ा नीचे ही गिर जाता था, जिसे वह दोबारा साफ करती थी. मुझे यह बिलकुल अच्छा नहीं लगता था. एक दिन उस के बाथरूम में कचरा फंस जाने से पानी की निकासी बंद हो गई थी. पूरे घर में गंदा बदबूदार पानी फैल गया था. घर के लोगों ने साफ करने का बहुत प्रयत्न किया लेकिन कुछ न हुआ. आखिरकार स्वीपर को ही घर में बुला कर सफाई करवानी पड़ी. स्वीपर के जाते ही उस ने पूरे घर को धो कर साफ किया, गंगाजल छिड़क कर घर को शुद्ध किया. यह देख मुझ से रहा नहीं गया और मैं बोल पड़ी, ‘‘भाभीजी, जरा सोचिए, आज अगर ये नहीं होते तो हमारे आसपास कितनी गंदगी फैल जाती. इन्हें अछूत कह कर इन का अपमान नहीं करना चाहिए. इन के काम का भी उतना ही महत्त्व है जितना कि किसी और के. हमें तो इन का एहसान मानना चाहिए कि इन की वजह से हम साफसुथरे माहौल में सांस ले पा रहे हैं.’’ पता नहीं उसे मेरी बात अच्छी लगी या नहीं, लेकिन उस दिन के बाद उस ने कूड़ा फेंक कर देना बंद कर दिया. 

ज्योति सराफ, भोपाल (म.प्र.)

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