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जरूरी है हैल्थ इंश्योरैंस

आज किसी भी बीमारी का इलाज कराना बेहद महंगा है. बीमारी का शिकार होने पर लोगों को उतना तनाव नहीं होता जितना उस के इलाज पर होने वाले खर्चे के बारे में सोच कर होता है. इस तनाव से निबटने का सर्वोत्तम तरीका है हैल्थ इंश्योरैंस कराना. स्वास्थ्य बीमा बेहद जरूरी है क्योंकि बीमारियां आप को कभी भी घेर सकती हैं और आप को आर्थिक परेशानियों का सामना करना पड़ सकता है. यदि आप ने हैल्थ इंश्योरैंस कराया हुआ है तो आप बीमारियों का इलाज बिना किसी खर्च के करवा सकेंगे.

कैसेकैसे हैल्थ इंश्योरैंस

विभिन्न सरकारी और गैरसरकारी कंपनियों ने कई तरह के हैल्थ इंश्योरैंस प्लान पेश किए हैं, जिन में प्रमुख हैं :

कैशलैस प्लान : इस प्लान के तहत बीमाकृत व्यक्ति को अस्पताल में भरती होने पर एक पैसा खर्च करने की आवश्यकता नहीं. इलाज के दौरान आने वाला सारा खर्च बीमा कंपनी उठाती है. इस के लिए कंपनी ने कई अस्पतालों के साथ करार किया होता है. आप को वहां जा कर सिर्फ अपना मैडिकल कार्ड दिखाना होता है.

कुछ कंपनियां प्रीहौस्पिटलाइजेशन और पोस्टहौस्पिटलाइजेशन का खर्च भी उठाती हैं. एक बात का ध्यान जरूर रखना चाहिए, वह यह कि पौलिसी के नियमानुसार अस्पतालों में कमरे के किराए की एक लिमिट होती है. अगर आप उस लिमिट को पार करेंगे तो अतिरिक्त किराया आप को वहन करना होगा.

रीइंबर्समैंट प्लान : इस प्लान में बीमाकृत व्यक्ति इलाज के लिए अपने पास से पैसे खर्च करते हैं, जो बाद में बिल प्रस्तुत करने पर पौलिसी के नियमानुसार कुछ कटौतियों के साथ उन्हें वापस मिल जाते हैं.

हैल्थ इंश्योरैंस प्लान में सभी गंभीर बीमारियों का इलाज अस्पताल में भरती होने पर, वहां के खर्च आदि कवर किए जाते हैं. लेकिन अधिकांश हैल्थ प्लान में डिलीवरी के दौरान आने वाला खर्च, दांतों का उपचार, वे बीमारियां जिन से आप प्लान लेने से पहले ग्रस्त थे, चश्मा या कांटैक्ट लैंस बनवाने का खर्चा, डे केयर ट्रीटमैंट या ऐसे उपचार जिन के लिए अस्पताल में भरती होने की आवश्यकता नहीं होती आदि कवर नहीं किए जाते.

इस संदर्भ में हर कंपनी के अलगअलग नियम होते हैं. गंभीर बीमारियों के बारे में जो नियम हैं उन्हें अच्छी तरह से समझ लें क्योंकि कई हैल्थ इंश्योरैंस कंपनियां कुछ वर्षों तक गंभीर बीमारियों को कवर नहीं करतीं और कुछ वर्षों के बाद कवर करती हैं. इन बारीकियों को पहले ही समझ लें. कुछ कंपनियां डे केयर ट्रीटमैंट, यहां तक कि डाक्टर के फ्री कंसल्टेशन प्रदान करने वाले प्लान भी औफर कर रही हैं. इसी प्रकार एक निर्धारित समयावधि के बाद कुछ प्लान डिलीवरी का भी कुछ प्रतिशत तक का खर्च उठाते हैं.

प्रीएग्जिस्ंिटग डिजीज भी कुछ कंपनियां अपने प्लान में कवर कर रही हैं पर यदि कोई कंपनी इतनी सुविधाएं प्रदान कर रही है तो वह अपना भी कुछ फायदा देख रही होगी. अकसर ऐसे प्लान के साथ या तो कुछ नियम व शर्तें जोड़ दी जाती हैं या फिर उन का प्रीमियम ज्यादा होता है.

कैशलैस प्लान की स्थिति में यदि आप को आपातस्थिति में किसी ऐसे अस्पताल में भरती होना पड़ जाता है जो आप के प्लान में वर्णित सूची में नहीं है तो भी आप को आप का पैसा वापस मिलेगा बशर्ते कि आप कंपनी को इस बारे में तुरंत सूचना दें और कंपनी द्वारा निर्धारित समयावधि के भीतर क्लेम दाखिल कर दें.

क्या है कूलिंग पीरियड

कूलिंग पीरियड वह समय है जिस दौरान आप का बीमा लागू नहीं होता. यह हैल्थ प्लान लेने के 30 दिन से 6 महीने तक का होता है. मान लीजिए कि आज आप ने हैल्थ इंश्योरैंस करवाया है और अगले ही दिन आप अस्पताल में भरती हो गए तो ऐसी स्थिति में बीमा आप पर लागू नहीं होगा. एक निश्चित समय के बाद ही आप इंश्योरैंस क्लेम कर सकते हैं. हां, कुछ गंभीर बीमारियों, ऐक्सिडैंट आदि की स्थिति में यह कूलिंग पीरियड लागू नहीं होता. इसी प्रकार कूलिंग पीरियड खत्म होने के तुरंत बाद यदि आप ने कोई सर्जरी कराई है तो उस का क्लेम देने से पहले कंपनी के विशेषज्ञों की टीम इस बात की पूरी जांच करती है कि कहीं यह बीमारी पहले से तो नहीं थी.

क्यों जरूरी है हैल्थ इंश्योरैंस

यदि आप सामान्य जीवन बीमा पौलिसी लेते हैं तो उस में ‘ऐड औन राइडर्स’ द्वारा आप को हैल्थ इंश्योरैंस का लाभ मिलता तो है पर उस के लिए आप को न सिर्फ अतिरिक्त प्रीमियम देना होता है बल्कि ऐसे प्लान में सिर्फ 6-7 गंभीर बीमारियां ही कवर की जाती हैं. ऐक्सिडैंट भी कवर नहीं होता. जबकि अलग से हैल्थ प्लान लेने में छोटीबड़ी कई बीमारियां उस में कवर होती हैं. साथ ही इन प्लान में दी गई आप की राशि को विभिन्न फंड्स में इन्वैस्ट कर के फंड बिल्ंिडग की जाती है ताकि आप की राशि में इजाफा हो. मान लीजिए आप ने 10 साल के लिए 5 लाख का हैल्थ इंश्योरैंस कराया है. हो सकता है कि ये

5 लाख 10 साल तक आप के इलाज के लिए काफी हों पर समय के साथ चिकित्सा खर्च महंगा होने के कारण आप को 7 लाख रुपए खर्च करने पड़ गए तो ऐसी स्थिति में आप के प्लान में से इन्वैस्ट की गई राशि पर मिले मुनाफे और ब्याज से आप का यह खर्च पूरा हो सकता है. अलगअलग व्यक्तिगत हैल्थ प्लान लेने से बेहतर होता है सामूहिक पारिवारिक प्लान लेना. इस तरह के प्लान में आप को कम प्रीमियम में ज्यादा लाभ मिलते हैं.

जब हो विकल्प, क्यों करें जोखिम भरा निवेश

आप के पोर्टफोलियो का झुकाव इक्विटी की ओर है तो एक बात तय है कि शेयर बाजार में उतारचढ़ाव से आप की नींद उड़ी रहती होगी. निवेश के पोर्टफोलियो में इक्विटी का शामिल होना अहम तो है लेकिन इस की हिस्सेदारी निवेशक के जोखिम लेने की क्षमता, उम्र और निवेश के लक्ष्य के आधार पर तय होनी चाहिए. इस के साथ ही आप के पोर्टफोलियो में फिक्स्ड इन्कम वाले इंस्ट्रूमैंट का शामिल होना भी बहुत जरूरी है. फिलहाल डेट इंस्ट्रूमैंट में निवेश करना आप के लिए फायदेमंद साबित हो सकता है क्योंकि बाजार में कई सारे ऐसे प्रोडक्ट उपलब्ध हैं. इन में निवेश से आप अच्छा रिटर्न हासिल कर सकते हैं.

इक्विटी में निवेश से अच्छा रिटर्न मिलता है लेकिन उस में जोखिम भी होता है. अगर आप की उम्र ज्यादा है और आप रिटायरमैंट की ओर बढ़ रहे हैं तो ज्यादा जोखिम लेना आप के लिए ठीक नहीं है. ऐसी स्थिति में फिक्स्ड इन्कम वाले इंस्ट्रूमैंट का चुनाव करना ठीक रहता है. सर्टिफाइड फाइनैंशियल प्लानर अजय बजाज के मुताबिक, बाजार में फिक्स्ड इन्कम वाले कई निवेश विकल्प मौजूद हैं जिन में निवेश कर के निवेशक जहां अच्छा रिटर्न कमा पाएंगे वहीं वे टैक्स बचत भी कर सकते हैं.

बैंक और कौर्पोरेट एफडी

भारतीय निवेशकों के लिए फिक्स्ड डिपौजिट हमेशा से ही निवेश का बेहतरीन विकल्प रहा है. इस में सब से खास बात यह है कि आप को निश्चित दर पर रिटर्न मिलेगा और जोखिम बिलकुल नहीं है. हालांकि इस निवेश से मिलने वाले ब्याज पर निवेशकों को टैक्स चुकाना पड़ता है. ऐसे में जो लोग निचले टैक्स स्लैब में आते हैं उन के लिए यह निवेश का बेहतरीन विकल्प है. जो लोग रिटायरमैंट के नजदीक हैं वे भी इस में निवेश कर सकते हैं.

बैंक की जिन एफडी का लौकइन पीरियड 5 साल का होता है उन पर आयकर अधिनियम की धारा 80सी के तहत टैक्स छूट का फायदा भी मिलता है. इस के बावजूद बैंक के फिक्स्ड डिपौजिट में निवेशकों को उतना रिटर्न नहीं मिलता जितना कौर्पोरेट एफडी में मिलता है. कौर्पोरेट एफडी की बात करें तो इस की ब्याज दरें बैंक एफडी से 1 से 2 फीसदी ज्यादा होती हैं. इस के बावजूद निवेशकों को उन कौर्पोरेट एफडी में निवेश से बचना चाहिए जिन की रेटिंग अच्छी न हो फिर चाहे उन पर आप को 15 फीसदी तक रिटर्न क्यों न दिया जा रहा हो. जिस एफडी की रेटिंग अच्छी है पर रिटर्न थोड़ा कम हो, उस में निवेश करने में समझदारी है.

फिक्स्ड इन्कम म्यूचुअल फंड

डेट इंस्ट्रूमैंट के बीच फिक्स्ड इन्कम म्यूचुअल फंड सब से ज्यादा डाइवर्सिफाइड फंड हैं. इन में मौजूदा ब्याज दरों और शेयर बाजार की अनिश्चितता को देखते हुए आमतौर पर निवेशकों को फिक्स्ड मैच्योरिटी प्लान, शौर्ट टर्म डेट फंड और गिल्ट फंड में निवेश करने की सलाह दी जाती है. निवेशकों के लिए ये योजनाएं बेहतर मानी जाती हैं क्योंकि इन में एफडी से ज्यादा ब्याज मिलता है और मैच्योरिटी पीरियड के लिए 3 महीने से 3 साल का विकल्प मौजूद होता है. फंड हाउस ने कुछ ऐसी स्कीमें भी लौंच की हैं जिन का मैच्योरिटी पीरियड 370 से 390 दिन के बीच है. इन में निवेश करने से टैक्स के साथ महंगाई को भी समायोजित करने का मौका मिलता है.

हाइब्रिड या स्ट्रक्चर्ड प्रोडक्ट

कई फंड हाउस और प्राइवेट ऐसे हाइब्रिड प्रोडक्ट औफर कर रहे हैं जिन में डेट इंस्ट्रूमैंट की ज्यादा हिस्सेदारी होती है और इक्विटी का हिस्सा कम होता है. इन में कर्ज पर आधारित हाइब्रिड फंड स्कीम शामिल हैं. कैपिटल प्रोटैक्शन फंड और मंथली इन्कम प्लान इसी श्रेणी में आते हैं. इस तरह का निवेश करने में एक ओर जहां आप का निवेश डेट इंस्ट्रूमैंट के जरिए सुरक्षित रहता है वहीं दूसरी ओर इक्विटी में निवेश से आप का रिटर्न भी बढ़ता है. इस पर भले ही ज्यादा रिटर्न न मिलता हो पर इस से होने वाले टैक्स फायदे और कम जोखिम के चलते यह छोटे निवेशकों के लिए पसंदीदा विकल्प है. विशेषज्ञों की मानें तो निवेशकों को अपने निवेश का कम से कम 20 से 40 फीसदी, फिक्स्ड इंस्ट्रूमैंट में लगाना चाहिए.

कौर्पोरेट बौंड और नौनकनवर्टिबल डिबैंचर्स

बड़ी कंपनियां अपने फंड की जरूरत को पूरा करने के लिए बौंड जारी करती हैं. आमतौर पर इन बौंड के रिटर्न पर निवेशक को टैक्स चुकाना पड़ता है. हालांकि कई बार सरकार कुछ कंपनियों को छोटे निवेशकों के लिए टैक्सफ्री बौंड जारी करने की अनुमति भी देती है. बौंड द्वारा कमाए गए मुनाफे पर निवेशक को आय के स्लैब के हिसाब से टैक्स चुकाना पड़ता है.

फायदे

फिक्स्ड इन्कम इंस्ट्रूमैंट में निवेश करने से सब से बड़ा फायदा यह है कि आप को हर दिन रिटर्न मिलता है, जबकि इक्विटी लिंक्ड प्लान में रिटर्न शेयर बाजार पर निर्भर करता है.

शेयर बाजार का रुख अगर नीचे हो, तो हो सकता है कि आप को अपने निवेश पर भारी नुकसान भी उठाना पड़े, जबकि फिक्स्ड इन्कम इंस्ट्रूमैंट में आप को पहले ही दिन से यह स्पष्ट होता है कि साल के अंत में कितना रिटर्न मिलेगा.

घर की फाइनैंशियल प्लानिंग

नई चीजें खरीदने की जरूरत व शौक सभी को होता है पर बढ़ती महंगाई के इस दौर में हर तरफ सामंजस्य रखना थोड़ा मुश्किल हो जाता है. ऐसे में साल की शुरुआत में ही यदि वित्तीय प्रबंधन कर लिया जाए तो कई मुश्किलें सुलझ जाती हैं. हर परिवार की अपनी आवश्यकताएं व खर्चे होते हैं पर सामान्य नियम सभी पर लागू होते हैं.

लक्ष्य तय करें

आप को आने वाले वर्ष में जरूरत के मुताबिक कहां और कितना निवेश करना है और घर के लिए क्या खरीदना है, तय कर लें. एलसीडी लेना है या फ्रिज, बच्चे के लिए मोटरसाइकिल लेनी है या पत्नी के लिए स्मार्टफोन. सभी के लिए एक निश्चित राशि की जरूरत होती है, इतना पैसा अलग से निकाल कर रख लें. अच्छा होगा यदि आप दीवाली पर मिले बोनस या सालाना इन्क्रीमैंट से ये चीजें खरीदें. इस से आप का बजट नहीं गड़बड़ाएगा.

आमदनी बढ़ाएं

मौजूदा दौर में पतिपत्नी दोनों कामकाजी हों तो घर के खर्चे अच्छी तरह पूरे हो सकते हैं. पत्नी में छोटामोटा हुनर हो और घरपरिवार की जिम्मेदारियों से मुक्त हो तो वह पार्टटाइम जौब तलाश सकती है.गृहिणियां स्वरोजगार से या टाइमपास नौकरी से आमदनी बढ़ा सकती हैं. घर के पास कोई स्कूल हो या हौबी सैंटर, जौइन कर सकती हैं. टाइपिंग आती हो तो घर बैठे कंप्यूटर पर काम कर के पैसे कमा सकती हैं. ट्यूशन ले सकती हैं. इन सब से टाइमपास के साथसाथ कमाई भी होगी.
 

डिगरी का उपयोग करें

शादी से पहले की कोई डिगरी, जो व्यस्तता के चलते आप के काम नहीं आ सकी, अब आप उस का उपयोग करें. इस के अलावा कार्ड बनाना, कागज के फूल बनाना, अचार डालना और केक बनाना जैसे छोटे काम भी कई बार आप को पहचान दिला सकते हैं. इन से आप मुनाफा भी कमा सकती हैं.

हुनर पहचानें

हाथों में कोई हुनर हो, जैसे सौस, जैम, अचार आदि बनाना या स्वैटर बुनना, क्रोशिए से आइटम बनाना, सौफ्ट टौय बनाना वगैरह तो उन्हें बना कर बाजार में बेच सकती हैं. इस अतिरिक्त आमदनी से आप पति का घर चलाने में हाथ बंटा सकती हैं या खुद के खर्चे निकाल सकती हैं.

खर्चे कम करें

फाइनैंशियल मैनेजमैंट सिर्फ पैसा कमाना ही नहीं, खर्चे कम करना भी होता है. देखें व परखें कि आप की कौन सी आदत फुजूलखर्ची करवाती है. उसे हमेशा के लिए बदल डालें. महीनेभर का राशन आप एकसाथ किसी थोक की दुकान से खरीद सकती हैं. एकसाथ सामान लाने पर पैसे के अलावा पैट्रोल की भी बचत होती है. बच्चे को आप पुरानी किताबें दिलवा सकते हैं. सीनियर स्टूडैंट्स की किताबें यदि अच्छी अवस्था में हों या सैकंडहैंड किताबें ठीक हों तो ले कर पढ़ाई की जा सकती है. नल, बिजली, टैलिफोन व अन्य सभी बिल टाइम पर भरें. अनावश्यक रूप से पैनल्टी देने से आप बचेंगे. सौंदर्य प्रसाधनों के सब्स्टीट्यूट घर पर बना सकें तो बनाएं. गुणवत्ता का भरोसा भी रहेगा और पैसे भी बचेंगे. गैस बचाने के लिए सब्जियां, दालें, अनाज, चावल भिगो कर रखें. गैस पर काम करते वक्त अनावश्यक न बतियाएं. चाहें तो बिजली से चलने वाला इंडक्शन कुकर भी खरीद सकती हैं. रात में गैस सिलैंडर बंद कर दें. पैट्रोल की खपत पर भी ध्यान दें. कम सवारी हो तो टूव्हीलर इस्तेमाल करें. अधिक सवारी में फोरव्हीलर इस्तेमाल करें.

शौपिंग सोच कर करें

विंडो शौपिंग करते वक्त ‘काम आ जाएगी’ की मानसिकता से बचें. शौपिंग करते वक्त दिमाग से काम लें, दिल से नहीं. अकसर महिलाएं कपड़े या कौस्मेटिक्स पसंद आने पर बिना आवश्यकता के खरीद लेती हैं, जो बाद में आउटडेटेड होने पर नौकरों के ही काम आते हैं.

अनावश्यक शगल न पालें

जिम जौइन करने के बजाय घर के काम खुद करने की कोशिश करें. लिफ्ट का उपयोग न कर के सीढि़यां चढ़ें, बाई के न आने पर झाड़ूपोछा खुद ही करने का प्रयास करें. अकसर देखने में आता है कि ‘टे्रडमिल’ खरीदने के बाद वह घर में ड्राइंगरूम की शोभा बढ़ाती है. गिफ्ट में आए सामान, यदि आप उपयोग में न लेना चाहें तो उन्हें  आवश्यकतानुसार मित्रों व रिश्तेदारों को दे सकते हैं. सभी उपहारों को खोलें नहीं, उन्हें संभाल कर रखें. आड़े वक्त आप उन्हें काम में ले सकते हैं.

इंटीरियर संवारें

घर के इंटीरियर को महंगी साजसज्जा के बजाय अपने आइडियाज से संवारें. कम पैसों में आप लोगों की तारीफ पाएंगी. पुरानी हैवी साडि़यों से आप ड्राइंगरूम के परदे बना सकती हैं अथवा डैकोरेटिव वाल पीस बना कर दीवार को सजा सकती हैं.

बीमा अवश्य करवाएं

फाइनैंशियल मैनेजमैंट का एक पहलू आड़े वक्त के लिए पैसा बचाना भी है. इस के लिए बीमा करवाएं. आजकल मैडिक्लेम, दुर्घटना बीमा, प्रौपर्टी इंश्योरैंस और लाइफ इंश्योरैंस सभी प्रचलित हैं. आपात स्थिति में ये पौलिसियां बहुत काम आती हैं. इन्कम टैक्स की धाराओं में छूट मिलने से इन का वैसे भी काफी फायदा रहता है.

विदेश घूमें पर…

देशविदेश घूमने का यदि प्रोग्राम हो तो औफ सीजन में जाएं. ग्रुप में जाने पर यात्रा काफी सस्ती पड़ती है. ग्रुप डिस्काउंट के साथ सीजन डिस्काउंट भी मिलता है. जांचपड़ताल कर के अपना ट्रैवल एजेंट चुनें और देखपरख कर पेमेंट करें.

क्रैडिट कार्ड

क्रैडिट एवं डेबिट कार्ड से शौपिंग का आइडिया लुभावना तो है पर लिक्विड कैश न होने पर भी खरीदारी करने पर पैसा अनावश्यक खर्च हो जाता है. इंटरनैट शौपिंग पर भी यही बात लागू होती है. अपनी परिस्थितियों के अनुसार खुद आकलन करें कि अनावश्यक खर्च कम से कम हो और बचत ज्यादा से ज्यादा हो. पैसा कमाना ही नहीं, उसे खर्च करना भी एक कला है. सोचसमझ कर किया गया खर्च भविष्य के लिए काफी मददगार सिद्ध होता है.

सदा याद आएंगे सदाशिव

पिछले साल जब लोग होली के त्योहार के बहाने पानी की बरबादी में मसरूफ थे तब हिंदी व मराठी फिल्म अभिनेता सदाशिव अमरापुरकर त्योहारों के नाम पर पानी की बरबादी के विरोध में प्रदर्शन कर रहे थे. आमजन की उदासीनता देखिए कि बजाय इस विरोध में उन का साथ देने के, लोगों ने उन की पिटाई कर डाली. रुपहले परदे पर अपने अभिनय से लोगों के दिल जीतने वाले इस अभिनेता के साथ आखिरी दिनों में इस तरह का सुलूक चिंताजनक है. न तो उन के पास बहुत काम था और न ही लोगों की तवज्जुह.

इस तरह एक शानदार अभिनेता एक उपेक्षा भरा अंत ले कर 3 नवंबर को इस दुनिया से चला गया. फेफड़े में संक्रमण की वजह से वे लंबे समय से अस्वस्थ थे. उन्होंने मुंबई में अंतिम सांस ली. सदाशिव ऐसे अभिनेता थे जो समानांतर फिल्मों में भी उतने सक्रिय थे जितने कमर्शियल फिल्मों में. मराठी और हिंदी फिल्मों के साथ ही रंगमंच में उन के अभिनय की तूती बोलती थी. एक दौर में उन के पास काम की कमी नहीं थी लेकिन आखिरी समय वह न के बराबर काम कर रहे थे. अगर उन की आखिरी हिंदी फिल्म की बात करें तो वह 2012 में आई ‘बौंबे टाकीज’ थी.

वे सिर्फ अभिनेता नहीं, बल्कि समाजसेवा को ले कर भी सक्रिय थे. उस के बावजूद आज की पीढ़ी उन से लगभग अनजान ही थी. हिंदी, मराठी, बंगाली, उडि़या और हरियाणवी भाषा की 300 से भी ज्यादा फिल्म करने वाले सदाशिव ऐसे अभिनेता थे जो समानांतर और मुख्यधारा की फिल्मों यानी कमर्शियल सिनेमा के अंतर को अपनी बहुमुखी प्रतिभा से आसानी से पाट देते थे. आज हिंदी फिल्म जगत 100-200 करोड़ रुपए के क्लब बना रहा है. वह साल में सैकड़ों फिल्में रिलीज करता है लेकिन इस बेहतरीन कलाकार को न तो इस उद्योग ने पूरी तरह समझा, न उस की अभिनय प्रतिभा का सही इस्तेमाल किया.

आटो चालक से अभिनेता तक

सदाशिव की अभिनय यात्रा किसी हिंदी फिल्म की पटकथा सरीखी लगती है. वरना कौन जानता था कि एक आम घर का आटो चलाने वाला लड़का हिंदी फिल्मों में छा जाएगा. लेकिन सदाशिव को अभिनेता बनना था, इसलिए वे यहां तक पहुंचे. महाराष्ट्र के अहमदनगर में 11 मई, 1950 को जन्मे सदाशिव नासिक की गलियों में आटो चलाया करते थे. ब्राह्मण परिवार में जन्मे सदाशिव तब अमरापुरकर के नाम से नहीं बल्कि गणेश कुमार नोरवाड़े के नाम से जाने जाते थे. 1974 में उन्होंने अपना नाम सदाशिव रख लिया.

उन की शादी सुनंदा करमाकर के साथ हुई. दोनों के बीच हाईस्कूल की पढ़ाई करने के दौरान प्रेम की शुरुआत हो गई थी. रंगमंच का शौक भी उन्हें उसी दौरान लगा था. लिहाजा, वे अपने स्कूलकालेज में विभिन्न नाटकों में हिस्सा लेते रहे. वैसे बनना वे गायक चाहते थे लेकिन किसी की सलाह पर उन्होंने गायन छोड़ अभिनय का रुख किया. इस तरह वे मराठी नाटकों में व्यस्त हो गए. उन दिनों उन का हास्य मराठी नाटक ‘हैंड्स अप’ बड़ा चर्चित था.

इसी नाटक ने उन के फिल्मों में आने की राह दिखाई. हुआ यों कि इस नाटक के मंचन के दौरान मशहूर निर्देशक गोविंद निहलानी की उन पर नजर पड़ी. उन दिनों निहलानी अपनी फिल्म अर्द्धसत्य बनाने की योजना पर काम कर रहे थे और उन्हें इस फिल्म के लिए मंझे हुए अभिनेता की दरकार थी. नाटक के बाद निहलानी ने न सिर्फ सदाशिव से मुलाकात कर उन के अभिनय की तारीफ की बल्कि उन्हें अपनी फिल्म में नाटक के हास्य के किरदार के उलट एक कू्रर डौन का किरदार औफर किया. उस के बाद की कहानी सब जानते हैं. फिल्म अर्द्धसत्य में सदाशिव अमरापुरकर ने डौन रामा शेट्टी का किरदार निभाया. इस फिल्म के लिए उन्हें 1984 में सर्वश्रेष्ठ सह कलाकार का अवार्ड मिला. इस तरह शुरू हुई उन की फिल्मी यात्रा 300 से ज्यादा फिल्मों तक चली. अर्द्धसत्य, सड़क, हुकूमत, आंखें, हम हैं कमाल के और इश्क जैसी फिल्मों में उन्हें काफी सुर्खियां मिलीं. फिल्म सड़क के लिए उन्हें बेस्ट विलेन की कैटेगरी में फिल्मफेयर अवार्ड मिला.

विलेन का दौर

सदाशिव वैसे तो हर तरह की भूमिकाओं में खुद को ढाल लेते थे लेकिन उन के द्वारा निभाई गई नकारात्मक भूमिकाओं ने उन्हें खास पहचान दी. खासतौर से महेश भट्ट की फिल्म सड़क में एक निर्मम हिजड़े महारानी के किरदार ने उन्हें सब से बड़ा विलेन बना दिया. 1991 में रिलीज हुई फिल्म सड़क के लिए उन्हें सर्वश्रेष्ठ खलनायक का फिल्मफेयर अवार्ड मिला. बहुत कम लोग इस बात को जानते है ं कि फिल्मफेयर की ओर से बेस्ट विलेन का यह सब खिताब जीतने वाले सदाशिव पहले अभिनेता थे. इस फिल्म को याद करते हुए महेश भट्ट कहते हैं कि जब सदाशिव को उन्होंने महारानी के किरदार के बारे में बताया तो उन्होंने साथ में यह भी कहा था कि यह किरदार बुरी तरह से मजाक का पात्र बन सकता है और नाकाम भी हो सकता है. इस के बावजूद सदाशिव को अपने अभिनय पर पूरा भरोसा था, इसलिए उन्होंने न सिर्फ यह किरदार अपनाया बल्कि उम्मीद से कहीं बेहतर कर के दिखाया. उन दिनों रिलीज हो रही हर दूसरी फिल्म में सदाशिव अहम किरदार में होते थे. फिर चाहे वह अनिल शर्मा की सफल फिल्म हुकूमत हो या इंद्र कुमार की इश्क.

अमरापुरकर ने हिंदी और मराठी के अलावा कुछ बंगाली और उडि़या फिल्मों में भी काम किया. अमरापुरकर ने अपने 3 दशकों से भी लंबे कैरियर में चाहे खलनायक की भूमिका की हो या हास्य की, दोनों में ही वे दर्शकों को भाए.

धर्मेंद्र से जुगलबंदी

नब्बे का दौर था. हिंदी फिल्म इंडस्ट्री में ज्यादातर ऐक्शन प्रधान फिल्में बन रही थीं. उसी दौर में धर्मेंद्र, शत्रुघ्न सिन्हा जैसे पुराने स्टार ऐक्शन कर रहे थे तो वहीं अपेक्षाकृत युवा अभिनेता अक्षय कुमार, सुनील शेट्टी, अजय देवगन अपनी ऐक्शन हीरो की छवि गढ़ रहे थे. इस दरम्यान विलेन के तौर पर सदाशिव सब की पसंद थे लेकिन अभिनेता धर्मेंद्र के साथ उन की जोड़ी कुछ खास ही जमती थी. 1987 में आई फिल्म हुकूमत में उन्होंने धर्मेंद्र के साथ काम किया. इस फिल्म में सदाशिव ने मुख्य खलनायक का किरदार निभाया और यह फिल्म ब्लौकबस्टर रही. इस के बाद इस जोड़ी ने एक के बाद एक 11 फिल्में दे डालीं. दोनों ने साथसाथ जो फिल्में कीं उन में शामिल हैं : रिटर्न औफ ज्वैलथीफ (1996), फूलन हसीना रामकली (1993), कोहराम (1991), दुश्मन देवता (1991), फरिश्ते (1991), वीरू दादा (1990), नाकाबंदी (1990), ऐलान-ए-जंग (1989), पाप को जला कर राख कर दूंगा (1988), खतरों के खिलाड़ी (1988), हुकूमत (1987).

रंगमंच और सामाजिक सरोकार

पुणे कालेज से इतिहास में एमए करने वाले अमरापुरकर ने कालेज के दिनों में ही थिएटर और फिल्मों के लिए काम करना शुरू कर दिया था. 21 साल की उम्र में सदाशिव ने थिएटर और मंच का रुख कर लिया था. इस दौरान उन्होंने 50 से ज्यादा नाटकों में अभिनय किया. कहते हैं रंगमंच एक अभिनेता को मांझ कर बेहतरीन कलाकार बनाने के साथसाथ एक नेक इंसान भी बना देता है. यही वजह है कि रंगमंच से जुड़ने के बाद सदाशिव का अभिनय से जितना वास्ता रहा उतना ही वे सामाजिक मसलों पर भी सक्रिय रहे.

परदे पर अपने नकारात्मक किरदारों के जरिए लोगों में खौफ पैदा करने वाला यह अभिनेता असल जिंदगी में एक बेहद सज्जन किस्म का इंसान रहा, जिस का झुकाव समाज के वंचित तबके की ओर रहा. यही वजह रही कि सदाशिव कई सामाजिक संगठनों के साथ जुड़े. अंधश्रद्धा निर्मूलन समिति, स्नेहालय, लोकशाही प्रबोधन व्यासपीठ, अहमदनगर ऐतिहासिक वास्तु संग्रहालय जैसे संगठनों से वे प्रमुखता से जुड़े हुए थे.

गुमनामी का दौर

इतने सालों तक रंगमंच और फिल्मों में यादगार भूमिका निभाने वाले सदाशिव किसी खास माध्यम से नहीं बंधे. उन्होंने छोटे परदे पर भी काम किया. टीवी शो ‘शोभा सोमनाथ की’ में उन के काम को खूब सराहा गया. उन की बेटी भी टीवी के लिए एक शो प्रोड्यूस करने की तैयारी कर रही है. इस के अलावा धारावाहिक सीआईडी में भी उन के काम को सराहा गया. लेकिन इन सब के बावजूद उन के पास न जाने क्यों काम की कमी होती गई. अब इसे नए फिल्मकारों की उदासीनता कहें या अभिनय को ले कर छोटी सोच, उन्हें फिल्मों में न के बराबर काम दिया गया. हालांकि वे इस दौरान रंगमंच कर रहे थे लेकिन अपनी प्रतिभा के हिसाब से जो काम उन्हें मिलना चाहिए था, नहीं मिला.

एक समय जब हिंदी फिल्मों के विलेन बूढ़े होते जा रहे थे तब सदाशिव ने इस कमी को पूरा किया. नब्बे के दशक के आखिरी वक्त में उन्होंने हास्य भूमिकाएं भी कीं. मोहरा, इश्क, हम साथसाथ हैं, आंखें, कुली नंबर 1, जयहिंद और मास्टर जैसी फिल्मों में कई सहायक और हास्य भूमिकाएं निभाईं. 2000 आतेआते वे कम ही दिखे. और दिखे तो सालों बाद साल 2012 में दिबाकर बनर्जी की फिल्म ‘बौंबे टाकीज’ में. इस फिल्म में उन का किरदार बहुत बड़ा नहीं था लेकिन फिर भी उन के काम की तारीफ सब ने की. लेकिन तब तक शायद सदाशिव निराश हो चुके थे. कुछ काम की कमी, कुछ सामाजिक कामों में लोगों की उदासीनता ने उन को अंदर से तोड़ दिया था.

पैसा, शोहरत और ग्लैमर से भरी फिल्मी दुनिया में तेज चकाचौंध के बीच गुमनाम की अंधेरी खाई निकल ही आती है और लील जाती है रुपहले परदे पर यादगार किरदारों को जीवंत करने वाले बेहतरीन कलाकारों को. मराठी रंगमंच के प्रतिष्ठित और हिंदी फिल्मों में पौपुलर अभिनेता सदाशिव अमरापुरकर को भी गुमनामी के अंधेरों में अपना आखिरी वक्त काटना पड़ा और इस दुनिया से गए भी तो गुमनाम से.

कुछ आंखों देखी कुछ कानों सुनी

सियासी बुके

तीसरा मोरचा एक परिकल्पना या अवधारणा भर बन इसलिए रह जाता है कि इस में कोई सर्वमान्य नेता नहीं होता. बीते दिनों दिल्ली में मुलायम सिंह यादव के घर नीतीश कुमार, शरद यादव, लालू प्रसाद यादव और एच डी देवगौड़ा सरीखे कल के दिग्गज इकट्ठा हो कर हल्ला मचाते रहे कि भाजपा और नरेंद्र मोदी देश के लिए खतरा हैं, इन्हें हटाओ वरना बहुत अहित होगा. ये सब के सब बूढ़े हो चले हैं और महज इत्तफाक से चल रहे हैं. कांग्रेस की पतली हालत देख सभी सकते में हैं कि जब देश की सब से बड़ी पार्टी औंधे मुंह लुढ़की पड़ी है तो हमारा क्या होगा. ठंडे तंदूर में रोटियां नहीं सिंकतीं, यह इन्हें भी मालूम है. बहरहाल, मुलायम खुश हैं, खुशफहमी यह है कि शायद उन्हें नेता मान लिया गया है. दल मिलाने की संभावनाएं जता रहे इन नेताओं के दिल में एकदूसरे के लिए कितना बैर है, यह बात किसी सुबूत की मुहताज नहीं है.

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गोआ टू दिल्ली

मनोहर पर्रिकर को नरेंद्र मोदी ने अपने मंत्रिमंडल में ले कर मौका दे दिया है कि अब वे दिल्ली संस्कृति को भी देखें व समझें. गोआ का सीएम रहते उन केकार्यकाल में कैसीनो, वाइन, बिकिनी आदि पर बवाल मचता रहा. अब रेसकोर्स, जनपथ, संसद वगैरह पर मनोहर शोध करेंगे. देशभर के लोग खासतौर से नवंबर-दिसंबर में गोआ जाते हैं. गोआ से दिल्ली कोई नहीं आता. लेकिन जब दिल्ली पर्यटन को बढ़ावा देने नरेंद्र मोदी ने मनोहर को बुला ही लिया है तो उन्हें साबित भी करना पड़ेगा कि वे पर्यटक नहीं रक्षा मंत्री हैं और सरहदों की जिम्मेदारी को बखूबी संभाल सकते हैं.

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नहीं दिया न्योता

दिल्ली की जामा मसजिद के शाही इमाम अहमद बुखारी ने अपने बेटे की दस्तारबंदी के मौके पर आयोजित होने वाले जलसे में पाकिस्तानी प्रधानमंत्री नवाज शरीफ को तो न्योता दिया पर प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी को नहीं बुलाया, इस खबर या बात के कोई माने नहीं होते अगर इस का प्रचारप्रसार नहीं किया जाता. न्यूज चैनल्स ने इस पर जोरशोर से बहस की पर दर्शकों ने इसे मुद्दा ही मानने से इनकार कर दिया. लिहाजा, खबर ने 3-4 घंटे में दम तोड़ दिया. शाही इमाम ने वही किया जो पुराने जमाने के मध्यवर्गीय परिवारों के मुखिया करते थे. जिस रिश्तेदार को अपमानित करना होता था उसे वे अपनी संतान की शादी में निमंत्रणपत्र नहीं भेजते थे. और शादी वाले दिन मंडप के नीचे दूसरे रिश्तेदारों को बताते थे कि देखो, फलां फूफाजी नहीं आए. इस तरह शादी की आड़ में किसी संपन्न रिश्तेदार को अपमानित कर जो हार्दिक सुख मिलता था, वह अब शाही इमाम को भी मिला. नरेंद्र मोदी की सेहत पर तो इस से कोई फर्क पड़ने से रहा.

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बेवफाई का इनाम

मुगल और ब्रिटिश काल में भी यही होता था कि लालच, असंतोष या स्वार्थ के चलते छोटीमोटी रियासतों के सिपहसालार अपने मुखिया से नाराज हो कर सीधे शासक के दरबार में जा कर गुहार लगाते थे, ‘हुजूर की जय हो, अब मैं आ गया हूं. फलां रियासत के दुर्दिन आप ही खत्म कर सकते हैं.’ आम बोलचाल की भाषा में इसे गद्दारी कहा जाता था. लोकतंत्र आया तो परिभाषाएं, मापदंड और पैमाने बदल गए. रामकृपाल यादव अब मंत्री हैं जिन के ज्ञानचक्षु वक्त रहते ही खुल गए थे कि अगर लालू यादव से बंधे रहे तो भांजेभांजियों की झिड़कियों के सिवा कुछ नहीं मिलना. नरेंद्र मोदी बिहार को ले कर परेशान से हैं और रहेंगे भी लेकिन हालफिलहाल तो यह ‘भरत मिलाप’ उन्हें सुकून देने वाला है.

आर्थिक खबरें

शेयर बाजार में धूम, सूचकांक का नया रिकौर्ड

शेयर बाजार नई ऊंचाई पर पहुंच गया है. बौंबे स्टौक एक्सचेंज यानी बीएसई के इतिहास में सूचकांक 5 नवंबर को पहली बार 28 हजार अंक को पार कर गया. नैशनल स्टौक ऐक्सचेंज यानी निफ्टी भी सारे रिकौर्ड तोड़ कर ऊंचाई पर पहुंच गया. बाजार में एक साल से लगातार तेजी का माहौल बना हुआ है. नई सरकार के केंद्र में गठन के बाद से बाजार लंबी छलांग लगा रहा है और नित नई ऊंचाई हासिल कर रहा है. विदेशी संस्थागत निवेशकों में उत्साह का माहौल है.

बाजार विशेषज्ञों का कहना है कि सरकार की उत्साहवर्द्धक नीतियों के कारण निवेशकों में उत्साह है. इस की वजहें सरकार द्वारा वित्तीय घाटे को कम करने के लिए उपाय करने, तेल के दाम घटाने, विदेशी अर्थव्यवस्था में सुधार तथा आर्थिक स्तर पर सरकार द्वारा सुधार के लिए उठाए जा रहे कदम हैं. तेल की कीमतें 4 साल के निचले स्तर पर पहुंच गई हैं जिन का फायदा देशी तेल कंपनियों को हो रहा है. बाजार में तेजी किस स्तर पर है, इस का अनुमान इसी से लगाया जा सकता है कि सितंबर के अंत तक 6 माह की अवधि में सूचकांक 19 फीसदी बढ़ा है जबकि निफ्टी 20 फीसदी चढ़ा है. इक्विटी बाजार में भी इस की वजह से उत्साह है. नवंबर के पहले सप्ताह में बाजार में भारी उत्साह रहा है और सरकार की सकारात्मक नीतियों के कारण यह उत्साह लगातार बना रह सकता है.

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बंजर भूमि उगलेगी तेल

सरकार की बंजर भूमि को लहलहाने की योजना है. इस महत्त्वाकांक्षी योजना के तहत देश के विभिन्न हिस्सों में बेकार पड़ी हजारों हैक्टेअर भूमि पर रतनजोत, करंज, साल, पाम व अन्य ऐसे पौधे लगाए जाएंगे जो हमारी बायो डीजल और खाद्य तेल उत्पादन की जरूरत को पूरा करने में मदद कर सकेंगे. केंद्रीय ग्रामीण विकास मंत्री नितिन गडकरी के अनुसार, सरकार इस नीति पर गंभीरता और तेजी से काम कर रही है. इस के लिए बाकायदा कैबिनेट नोट भी तैयार कर लिया गया है.

रतनजोत का इस्तेमाल बायो डीजल के लिए किया जाएगा. बायो डीजल का मिश्रण डीजल के साथ किया जा सकता है. इस का मतलब यह हुआ कि बायो डीजल का उत्पादन बढ़ेगा तो डीजल के आयात पर हमारी निर्भरता घट जाएगी. इस से कच्चे तेल का आयात कम करना पड़ेगा और अंतर्राष्ट्रीय बाजार में कच्चे तेल की कीमत का बढ़ना हमारी अर्थव्यवस्था को ज्यादा प्रभावित नहीं कर सकेगा. इसी तरह से पाम औयल के उत्पादन के लिए समुद्रतटों पर खाली पड़ी जमीन का इस्तेमाल किया जाएगा. समुद्रतटों की आबोहवा पाम की खेती के लिए अत्यधिक उपयुक्त है. इस के सफल इस्तेमाल से हर साल करीब 80 हजार करोड़ रुपए के खाद्य तेल के आयात पर निर्भरता घटेगी और देश में विदेशी मुद्रा का भंडार बढ़ेगा.

सरकार की यह महत्त्वाकांक्षी योजना कब शुरू होगी, इस पर फिलहाल कुछ नहीं कहा जा सकता है लेकिन बंजर भूमि का इस्तेमाल कर के अपने सारे संसाधनों का प्रयोग देश की प्रगति में करने की योजना का स्वागत किया जाना चाहिए और इस काम में सभी को सहयोग भी करना चाहिए. इस से दूर ग्रामीण क्षेत्रों में रोजगार के अवसर बढ़ेंगे. लेकिन इस योजना पर दबंगों की अथवा भूमाफियाओं की तूती नहीं बोले, इस के लिए प्रशासन को योजना के आरंभ में ही सख्त कदम उठाने होंगे.

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डाकखानों में फिर बढ़ेगी चहलपहल

बदलते दौर की संचार व्यवस्था ने परंपरागत संचार व्यवस्था यानी डाक विभाग को सफेद हाथी बना दिया है. डाकखानों का विशाल नैटवर्क देश के हर गांव को जोड़ने वाली कड़ी रही है लेकिन चिट्ठी की व्यवस्था लगभग खत्म होने से डाकखाने पर लटकी पत्रपेटी अब बेकार सी हो गई हैं. हर दिन 2 बार खुलने वाली ये पत्रपेटियां अब माह में 1-2 बार ही खुलती होंगी. डाकखानों में काम भी नहीं रह गया है लेकिन सरकार ने डाकखानों को बचत का अच्छा तंत्र मान लिया है और इस वजह से वहां चहलपहल रहती है. डाकखाने की बचत योजनाओं को भी सरल बना दिया गया है और वहां बैंकों की तरह कामकाज होने लगा है डाकखानों को आएदिन नई जिम्मेदारी भी दी जा रही है. उन का आधुनिकीकरण किया जा रहा है. डाकघर के खाताधारकों को अब देशभर में कहीं भी किसी डाकघर से पैसा निकालने की सुविधा उपलब्ध कराई जा रही है. इस के लिए डाकघरों को आपस में जोड़ा जा रहा है.

पहले चरण में देश के प्रमुख डाकघरों को जोड़ा जा रहा है और दूसरे चरण में सभी डाकघरों को परस्पर जोड़ दिया जाएगा. सभी डाकघर आपस में जुड़ जाएंगे तो फिर डाकघर अपने ग्राहकों की सुविधा के लिए एटीएम व्यवस्था भी लागू कर देगा. बचत का यह तरीका बैंकों का अच्छा विकल्प बन सकेगा और बेकार पड़े गांव के डाकघरों में ग्रामीण भी आसानी से डाक विभाग के विशाल नैटवर्क का फिर से लाभ उठा सकेंगे. दरअसल, बैंक अभी हर गांव में नहीं पहुंचे हैं जबकि डाकघर हर गांव से बहुत पहले जुड़ गया था, इसलिए इस का इस्तेमाल ग्रामीणों के लिए आसान है और इस तरह सूने पड़े डाकखानों में चहलपहल बढ़ जाएगी.

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क्या पहुंच पाएगी घरघर बिजली?

बिजली मंत्री पीयूष गोयल का दावा है कि 2019 तक देश का हर घर रोशन हो जाएगा. वे यह भी कहते हैं कि बिजली उत्पादन में पश्चिमी जगत द्वारा रिजैक्ट यानी छोड़ी गई तकनीक का इस्तेमाल भी नहीं किया जाएगा. यह बात सुनने में बहुत अच्छी लगती है लेकिन वास्तविकता क्या है, यह सब को पता है. वे स्वयं कहते हैं कि परमाणु ऊर्जा की हमारी वर्तमान क्षमता 5780 मेगावाट है जिसे 2023-24 तक तीनगुना किया जाएगा. मतलब कि परमाणु ऊर्जा केंद्र और अधिक बनेंगे और परमाणु ऊर्जा ही हमारी बिजली की आवश्यकता को पूरा करने का महत्त्वपूर्ण जरिया होगी. परमाणु ऊर्जा पश्चिमी तकनीक है और पश्चिम के कई देश इसे छोड़ चुके हैं. फ्रांस ने तो इस तकनीक से नाता तोड़ने की नीति बना ली है. जापान इस से पहले ही अलग हो चुका है. जरमनी भी इस दिशा में कदम बढ़ा रहा है. माहौल इस तकनीक के खिलाफ है. मानव स्वास्थ्य के लिहाज से यह खतरनाक तकनीक है लेकिन भारत इस तकनीक को तब अपना रहा है जब पश्चिमी जगत इसे छोड़ने की नीति तैयार कर चुका है. हमारे करीब 20 परमाणु ऊर्जा केंद्र निर्माणाधीन हैं. आस्ट्रेलिया से यूरेनियम की आपूर्ति के लिए सरकार उसे भुनाने के वास्ते रातदिन एक किए हुए है. तब आप कैसे कह सकते हैं कि पश्चिम की छोड़ी तकनीक का इस्तेमाल नहीं किया जाएगा.

सरकार को निश्चित रूप से गैरपरंपरागत ऊर्जा को बढ़ावा देने के लिए कदम उठाने चाहिए.  इस में शोध प्रक्रिया को विकसित किया जाना चाहिए ताकि स्वच्छ रोशनी हमारे जीवन को रोशन कर सके और क्षति पहुंचाने वाली रोशनी से हमें छुटकारा मिल सके. सौर ऊर्जा, पवन ऊर्जा अथवा अन्य तरह की ऊर्जा को बढ़ावा देने के लिए तेज कदम बढ़ेंगे, तभी पश्चिम की त्यागी बिजली उत्पादन तकनीक से मुक्ति मिल सकेगी.

चंचल छाया

हैप्पी न्यू ईयर

बौलीवुड में अब एक के बाद एक बिग बजट की फिल्में बनने लगी हैं. हाल ही में रिलीज हुई फिल्म ‘बैंगबैंग’ का बजट भी सवा सौ करोड़ का था. अब शाहरुख खान की रिलीज हुई नई फिल्म हैप्पी न्यू इयर का बजट भी 150 करोड़ का माना जा रहा है. इस से पहले सलमान खान की कई फिल्मों का बजट भी 100 करोड़ से अधिक था. ‘हैप्पी न्यू ईयर’ का बजट भले ही 150 करोड़ का हो परंतु फिल्म की कहानी सवा रुपए वाली है. इस सस्ती सा कहानी पर शाहरुख खान ने 150 करोड़ रुपए लगा कर फिल्म को भव्य बनाया है. कोई और फिल्म निर्माता अगर इस फिल्म को बनाता तो फिल्म की कहानी की धज्जियां उड़ जातीं.

‘हैप्पी न्यू ईयर’ को दीवाली के मौके पर रिलीज किया गया है. पिछले कई महीनों से शाहरुख खान इस फिल्म का प्रमोशन कर रहा था. टीवी पर फिल्म के प्रोमोज बारबार दिखाए जा रहे थे जिन में एक ही डायलौग दोहराया जा रहा था, ‘इस दुनिया में 2 तरह के लोग होते हैं – विनर्स और लूजर्स’. जाहिर है शाहरुख खान खुद को विनर साबित करना चाह रहा था. शाहरुख खान ने इस से पहले रोहित शेट्टी के निर्देशन में ‘चेन्नई ऐक्सप्रैस’ फिल्म बनाई, जो खूब चली. ‘चेन्नई ऐक्सप्रैस’ फुल एंटरटेनमैंट फिल्म थी. ‘हैप्पी न्यू ईयर’ में भी एंटरटेनमैंट का मसाला है. परंतु ‘चेन्नई एक्सप्रैस’ जैसा नहीं है. ‘हैप्पी न्यू ईयर’ में शाहरुख खान अपनी बांहें फैलाता है तो उस के फैंस खुश हो जाते हैं. लेकिन जब वह फाइटिंग करता है तो लगता है उस का दमखम अब टूटने की कगार पर है. इसी लिए उस ने बारबार अपने 8 पैक ऐब्स दिखाए हैं. हम तो यही कहेंगे कि ‘बौलीवुड में 2 तरह की फिल्में बनती हैं – अच्छी और खराब.’ तो जनाब, हैप्पी न्यू ईयर न तो बहुत अच्छी है, न खराब. फिल्म की लंबाई बहुत ज्यादा है. फिल्म का फर्स्ट हाफ आप को कुछकुछ इरिटेट करता है, सैकंड हाफ दिलचस्प है.

फिल्म का कैनवास काफी बड़ा है. फिल्म चमचमाती और कलरफुल है. आंखों को चुंधियाती है. किरदारों के कौस्ट्यूम्स शानदार हैं. सैकंड हाफ में दुबई में शूट की गई फिल्म की सिनेमेटोग्राफी भव्य है. डांस सीक्वैंस बढि़या हैं. फिल्म में कौमेडी भी है. देशभक्ति भी है. यह अच्छा है कि करोड़ों डौलर के हीरों की चोरी वाली इस फिल्म में गोलीबारी नहीं है.

कहानी है चार्ली (शाहरुख खान) की, जो बोस्टन से पढ़ कर आया है. उसे अपने पिता की मौत का बदला एक डायमंड किंग चरण ग्रोवर (जैकी श्रोफ) से लेना है. इस के लिए उसे चरण ग्रोवर के करोड़ों डौलर के हीरे चुरा कर उसे फंसाना है. वह एक टीम बनाता है. इस टीम में वह टैमी (बोमन ईरानी), नंदू (अभिषेक बच्चन) जग (सोनू सूद), राहन (विवान शाह) और मोहिनी (दीपिका पादुकोण) को शामिल करता है. चरण ग्रोवर ने हीरों को एक जबरदस्त तिजोरी में बंद कर रखा है और वह तिजोरी उस के बेटे विकी ग्रोवर (अभिषेक बच्चन की दूसरी भूमिका) के अंगूठे को टच करने से खुलती है. इन हीरों को चुराने के लिए चार्ली की यह टीम दुबई में होने वाली एक वर्ल्ड डांस कंपीटिशन में हिस्सा लेती है. पूरी टीम योजनाबद्ध तरीके से हीरों को चुराती है और वर्ल्ड डांस चैपियनशिप भी जीतती है. दुबई पुलिस चरण ग्रोवर और उस के बेटे को गिरफ्तार कर जेल भेज देती है.

फिल्म की बदले की यह कहानी मध्यांतर से पहले काफी धीमी गति से चलती है. मध्यांतर के बाद भी फिल्म में सभी किरदारों को चोरी का प्लान बनाते हुए ही दिखाया गया है. सिर्फ क्लाइमैक्स में ही हीरों को चुराने का सीन रोमांचक बन पड़ा है. फिल्म का निर्देशन कुछ हद तक अच्छा है. उस ने अभिषेक बच्चन से अच्छी कौमेडी कराई है. फिल्म की लोकेशंस, गीतसंगीत सब कुछ अच्छा है. शाहरुख खान अपने किरदार में पहले की फिल्मों की अपेक्षा कमजोर रहा है. उस के चेहरे पर उम्र अपना प्रभाव दिखाती है.

सोनू सूद ने अपने गुस्सैल स्वभाव से दर्शकों को हंसाया है. उस के कानों से निकलते धुएं को देख कर दर्शक जम कर हंसते हैं. बोमन ईरानी भी ठीकठाक है. विवान को अभी बहुत कुछ सीखना पड़ेगा. एक बंद हो चुके डांस बार में काम करने वाली डांस गर्ल के किरदार में दीपिका पादुकोण ने अपने डांस का जलवा बिखेरा है. दुबई के होटल अटलांटिक और उस के आसपास की लोकेशनें मन मोह लेती हैं. इस फिल्म को बना कर शाहरुख खान भले ही लूजर नहीं विनर बन जाए, नए साल की शुरुआत में ‘हैप्पी न्यू ईयर’ सेलिबे्रट करे परंतु अगर वह यह सोचे कि उस ने दर्शकों को कोई तोहफा दिया है तो यह उस की भूल होगी.

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चारफुटिया छोकरे

जब कोई हर्ष मामर जैसा बाल कलाकार ‘आई एम कलाम’ और ‘जलपरी’ जैसी फिल्मों में काम करता है तो उसे जरूर वाहवाही मिलती है. वही बाल कलाकार जब हाथ में पिस्तौल लहराते हुए किसी का मर्डर करता दिखता है तो यह सोचने पर विवश हो जाना पड़ता है कि क्या यही हमारे देश का भविष्य है? क्या यह भारत का ‘कलाम’ बनने लायक है? ‘चारफुटिया छोकरे’ बाल शोषण और बच्चियों के ट्रैफिकिंग पर बनी फिल्म है. फिल्म का विषय गंभीर है परंतु इस का ट्रीटमैंट गंभीर नहीं है.  मसालों में लिपटी यह फिल्म जायके को बिगाड़ देती है. इस फिल्म की कहानी में बहुत सारी बातें हैं. गांव में किसान के कर्जा न चुका पाने पर उस के बैल खोल कर ले जाने का जिक्र है तो किसान के बेटे द्वारा साहूकार के आदमी का मर्डर भी है. गांव में एक दबंग की दबंगई है तो किशोरियों को जबरन उठा कर उन से देह शोषण कराने की कहानी भी है. इस के अलावा एक एनजीओ द्वारा गांव में स्कूल बनवाने की बात भी है, साथ ही दबंगों द्वारा नायिका की अस्मत लूटने की कोशिश भी है.

दरअसल यह फिल्म कहना तो बहुत कुछ चाहती है परंतु ढंग से अपनी बात कह नहीं पाती. फिल्म की कहानी एक गांव से शुरू होती है. गांव के लठैत एक किसान द्वारा कर्ज न चुका पाने पर उस की हत्या कर देते हैं. किसान का बेटा अवधेश (हर्ष मायर) 4 फुट लंबा है. वह अपने बाप के कातिल को मार डालता है और अपने 2 दोस्तों गोरख (शंकर मंडल) और हरि (आदित्य जीतू) के साथ भाग जाता है. तीनों को गांव का एक दबंग नेता लखन (जाकिर हुसैन) संरक्षण देता है. तीनों चारफुटिए छोकरे के नाम से मशहूर हो जाते हैं.

गांव में एक युवती नेहा (सोहा अली खान) एक स्कूल खोलना चाहती है. वह एनआरआई है. उस का सामना भ्रष्ट दबंग लखन से होता है. उसे लखन द्वारा किशोरियों के देह शोषण की बात पता चलती है. वह न सिर्फ इन चारफुटिए छोकरों को सही राह पर लाती है, लखन जैसे गुंडे का खात्मा भी करती है. फिल्म की यह कहानी कहींकहीं डौक्यूमैंटरी सरीखी लगती है.  फिल्म की सब से बड़ी खामी कलाकारों के अभिनय की है.

सोहा अली खान बहुत सी फिल्में करने के बावजूद फिल्मों में चल नहीं पाई है. अन्य कलाकारों ने भी ढीलाढाला अभिनय किया है. एक अकेला जाकिर हुसैन ऐसा कलाकार है जिस ने कुछ कर दिखाया है. फिल्म का निर्देशन कमजोर है. हालांकि फिल्म बाल अपराधियों को सही रास्ते पर लाती दिखती है लेकिन साथ ही पुलिस की बर्बरता को भी दिखाती है कि वह गांव के दबंगों के इशारे पर 12-13 साल के किशोरों का भी एनकाउंटर करने से भी नहीं चूकती. विदेशों में इस तरह की फिल्म भले ही वाहवाही बटोर ले हमारे यहां ऐसी फिल्म ज्यादा नहीं चलने वाली. ‘बच्चों को स्कूल में शिक्षा मिले, प्यार मिले, संरक्षण मिले’ रवींद्रनाथ टैगोर की इस उक्ति को हवा में उड़ते दिखा दिया गया है.

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देसी कट्टे

आजकल मुंबइया फिल्मों में बाल कलाकारों को हाथों में पिस्तौल, रिवौल्वर या देसी कट्टे ले कर धांयधांय करते हुए खूब दिखाया जा रहा है. इस से समाज में अपराध तो बढ़ ही रहे हैं, साथ ही कच्ची उम्र के किशोरों पर भी इस का दुष्प्रभाव पड़ रहा है. सरकार को फिल्मों में बाल कलाकारों पर फिल्माए गए ऐसे सीनों पर रोक लगानी चाहिए. ‘देसी कट्टे’ भी इसी तरह की फिल्म है जिस में 2 किशोरों को देसी रिवौल्वर हाथों में लहराते हुए धांयधांय करते दिखाया गया है. 70-80 के दशक से ले कर आज तक सैकड़ों इस तरह की फिल्में बन चुकी हैं. कुछ समय पहले रणवीर सिंह और अर्जुन कपूर की फिल्म ‘गुंडे’ भी इसी तरह की थी.

देसी कट्टे के ये दोनों किशोर गुंडे ज्ञानी सिंह (जय भानुशाली) और पाली (अखिल कपूर) कानपुर के एक गांव मुंगेरा के हैं. बचपन से दोनों का एक ही मकसद है – अपराध की दुनिया में नाम कमाना. दोनों देसी कट्टे बनाने में माहिर हैं. देखते ही देखते दोनों टौप के निशानेबाज बन जाते हैं. वे चाहते हैं कि दोनों एक बहुत बड़े क्रिमिनल जज साहब (आशुतोष राणा) के लिए काम करें.

एक दिन वे जज साहब के खास आदमी को मार कर उन के दिल में जगह बना लेते हैं. एक दिन मेजर सूर्यकांत राठौड़ (सुनील शेट्टी) की नजर उन पर पड़ती है. मेजर साहब चाहते हैं कि वे पेशेवर निशानेबाज बनें और देश का नाम रोशन करें. इसी बात पर पाली और ज्ञानी में मतभेद हो जाता है. पाली अपराध की दुनिया नहीं छोड़ पाता और ज्ञानी नैशनल राइफल शूटिंग में भाग ले कर भारत का नाम रोशन करता है. इस कहानी में ज्ञानी और मेजर साहब की बहन परिधि (साशा आगा) की प्रेम कहानी भी है, साथ ही पाली और गुड्डी की प्रेम कहानी भी है. ये दोनों प्रेम कहानियां कमजोर हैं. फिल्म की यह कहानी बचकानी सी है. निर्देशक आनंद कुमार ने इस फिल्म में बहुत ढीलाढाला ट्रीटमैंट दिया है. फिल्म किसी भी एंगल से प्रभावित नहीं करती. क्लाइमैक्स जरूर कुछ अच्छा है. सुनील शेट्टी अब बूढ़ा हो चला है. उस के चेहरे पर झुर्रियां साफ नजर आती हैं. वह निराश करता है. जय भानुशाली मिसफिट नजर आया है. अखिल कपूर को ऐक्टिंग सीखनी पड़ेगी. आशुतोष राणा बेबस लगा है. सलमा आगा की बेटी साशा आगा और टिया वाजपेयी दोनों ने निराश किया है. फिल्म का निर्देशन कमजोर है. गीतसंगीत में भी दम नहीं है. फिल्म में एक सस्ते किस्म का आइटम सौंग भी है. छायांकन अच्छा है.

बिंब प्रतिबिंब

निर्माता बनीं अनुष्का

बौलीवुड में फिल्में 100 करोड़ रुपए से 200 करोड़ तक का क्लब बना रही हैं. इन करोड़ों के मुनाफे में फिल्म निर्माता के साथसाथ अभिनेता भी हिस्सेदार बन रहे हैं. कारण, वे भी फिल्म में बतौर सहनिर्माता जुड़ जाते हैं. देखादेखी अभिनेत्रियां भी भला कहां पीछे रहतीं. वे भी फिल्म निर्माण में उतर रही हैं. शिल्पा शेट्टी व प्रीति जिंटा तो फिल्म निर्माता बन चुकी हैं. अब अनुष्का शर्मा भी निर्माता बन कर काफी उत्साहित हैं. पहले उन्होंने फिल्म ‘एनएच10’ का निर्माण किया. खबर है कि उन्होंने अपने प्रोडक्शन हाउस में बनने वाली दूसरी फिल्म का ऐलान कर दिया है. जाहिर है फिल्म ‘एनएच10’ की तरह इस में भी वही ऐक्ंिटग करेंगी. लेकिन जरा संभल कर अनुष्का, फिल्म निर्माण में आप भी शिल्पा, प्रीति व दिया मिर्जा की तरह हाथ मत जला बैठना

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खलनायक या नायक

अभिनेता गोविंदा काफी अरसे से फिल्मों से गायब हैं. पिछली बार उन्हें अक्षय कुमार की फिल्म ‘हौलीडे’ में कैमियो करते देखा गया था. हालांकि उन के अपने प्रोडक्शन में बनी फिल्म रिलीज की राह तक रही है लेकिन वे जल्द ही यशराज बैनर्स की फिल्म ‘किल दिल’ में पहली बार खलनायक की भूमिका में नजर आएंगे. गोविंदा के मुताबिक, वे भले ही फिल्म में विलेन बन रहे हों लेकिन यशराज की फिल्मों में खलनायक को भी नायक की तरह पेश किया जाता है. इसलिए उन्हें इस बात की कोई चिंता नहीं है. वे कहते हैं कि पहले उन्होंने फिल्मों में साइड रोल करने से इनकार कर दिया था लेकिन अब वे बदल चुके हैं और आने वाली फिल्मों में छोटी व महत्त्वपूर्ण भूमिकाएं निभाते दिखेंगे. खैर, देर आए दुरुस्त आए गोविंदा.

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रोम में छाई हैदर

निर्देशक विशाल भारद्वाज की फिल्म ‘हैदर’ भारतीय सिनेमाघरों में जबरदस्त प्रशंसा बटोरने के बाद रोम में झंडे गाड़ रही है. दरअसल, फिल्म का इटली में प्रीमियर रखा गया था, जहां इस फिल्म को उत्साहजनक रिस्पौंस मिला. और तो और, इस फिल्म ने एक इतिहास भी रच दिया. शेक्सपियर के मशहूर उपन्यास ‘हैमलेट’ पर आधारित इस फिल्म को 9वें रोम फिल्म फैस्टिवल में ‘पीपल्स चौइस अवार्ड’ दिया गया है. गौरतलब है कि यह अवार्ड इस से पहले किसी भी भारतीय फिल्म को नहीं मिला. जैसे ही अवार्ड मिलने की बात फिल्म की स्टारकास्ट को पता चली, वे फूले नहीं समाए. शाहिद कपूर ने जहां ट्विटर पर अपनी खुशी का इजहार किया, वहीं श्रद्धा ने भी इस जीत पर खुशी जाहिर की.

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जेल में पीके

संजय दत्त भले ही जेल में सजा काट रहे हों लेकिन उन की फिल्में धड़ाधड़ रिलीज हो रही हैं. जल्द ही उन की आमिर खान के साथ फिल्म ‘पीके’ और इमरान हाशमी के साथ ‘उंगली’ रिलीज होगी. दिलचस्प बात तो यह है कि ‘पीके’ के टे्रलर रिलीजके मौके पर फिल्म के निर्माता विधु विनोद चोपड़ा ने इच्छा जताई कि यह फिल्म संजय दत्त को जेल में दिखाई जाए. गौरतलब है कि संजय दत्त पुणे के यरवदा जेल में हैं. वैसे संजय दत्त इस फिल्म में एक महत्त्वपूर्ण भूमिका निभा रहे हैं जबकि आमिर खान प्रमुख भूमिका में हैं. देखना होगा कि विधु की संजय को फिल्म दिखाने की कोशिश क्या रंग लाती है.

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सैफ शर्मिला को नोटिस

दीवाली पर आतिशबाजी करना, तेज आवाज में संगीत बजाना और पार्टी करना सब को पसंद है. लेकिन यह पसंद कभीकभी भारी पड़ जाती है, जैसा कि सैफ अली खान और शर्मिला टैगोर के साथ हुआ. हुआ यों कि सैफ, शर्मिला अपने परिवार के साथ पटौदी पैलेस में पार्टी कर रहे थे. यह पार्टी पैलेस के आसपास रहने वालों को कुछ खास रास नहीं आई. लिहाजा, उन्होंने शिकायत कर दी. शिकायत मिलते ही प्रशासन ऐक्शन में आया और आननफानन नोटिस जारी कर दिया. उम्मीद है कि भविष्य में सैफ और उन का परिवार पार्टी करते समय आसपास वालों का भी ध्यान रखेंगे.

मजहब के नाम पर ज्यादती गलत है

अमीना शेख पाकिस्तान की मशहूर अदाकारा हैं और धारावाहिकों  में अपने बेहतरीन अभिनय के चलते भारत में भी खासी लोकप्रिय हैं. पिछले दिनों सोमा घोष ने उन से टीवी सीरियल, महिला स्वतंत्रता जैसे कई मामलों पर खुल कर बातचीत की. पेश हैं मुख्य अंश.

32 वर्षीया अमीना शेख पाकिस्तान की जानीमानी मौडल और अभिनेत्री हैं. उन्होंने टीवी और कई पाकिस्तानी फिल्मों में काफी नाम कमाया है. बचपन से ही अमीना को कुछ अलग काम करने की इच्छा थी जिस में साथ दिया उन के मातापिता ने. उन्होंने हर वक्त उन के काम को सराहा और आगे बढ़ने की प्रेरणा दी.

न्यूयार्क में जन्मी अमीना का बचपन कराची और सऊदी अरब की राजधानी रियाद में गुजरा. बचपन में उन्हें अभिनय का कोई शौक नहीं था. बड़ी होने के साथसाथ उन की इच्छा बदली और वे थिएटर से जुड़ गईं. काम की तलाश में जब वे अपना प्रोफाइल जमा कर रही थीं तभी उन्हें पाकिस्तान टीवी से औफर आया. उन की टैलीफिल्म ‘आसमान छू लें’, ‘पच्चीस कदम पे मौत’ और ‘बारिश में दीवार’ आदि काफी चर्चित रहीं. उन्होंने अपनी पढ़ाई रियाद और अमेरिका में पूरी की. अमीना का एक चैनल पर ‘आईना’ सीरियल प्रसारित होने जा रहा है, जिस में वे लीड रोल कर रही हैं. इस के पहले धारावाहिक ‘मात’ से भारत में उन को बड़ी पहचान मिली है.

आप को अभिनय क्षेत्र में आने की प्रेरणा कहां से मिली?

मेरे पिता फार्मेसी से जुड़े हैं, इसलिए वे हमेशा घूमते रहते थे. उस दौरान मुझे अभिनय का शौक पैदा हुआ और मैं थिएटर से जुड़ गई. मैं मिमिक्री, फैशन मौडलिंग आदि में काम करती रही. जबकि मेरे परिवार का कोई भी सदस्य इस क्षेत्र से नहीं है. पर मेरे शौक को देख कर परिवार के सभी लोगों ने सहयोग दिया और अब मैं पूरी तरह से इस क्षेत्र में काम कर रही हूं.

क्या बौलीवुड में काम करने की इच्छा हुई है?

कुछ समय पहले मैं अपनी फिल्म ‘जोश’ की स्क्रीनिंग के लिए मुंबई आई थी. मुंबई सिटी मुझे बहुत पसंद आई. यहां काम करने का तरीका बहुत अलग है. मुझे औफर तो मिल रहे हैं पर अभी तक फाइनल नहीं हुआ. हर तरह की भूमिका निभाना मैं पसंद करती हूं. मैं ने ‘हाइवे’ और ‘क्वीन’ फिल्में देखी हैं जो काफी अच्छी हैं. ऐक्टर तभी ग्रो करता है जब उसे हर जगह काम करने का मौका मिले, उसे हर कोई देखना चाहे. मणिरत्नम, फरहान अख्तर, इम्तियाज अली, संजय लीला भंसाली जैसे निर्देशकों, फिल्मकारों के साथ काम करना चाहती हूं.

पाकिस्तानी फिल्म इंडस्ट्री और बौलीवुड में क्या अंतर पाती हैं?

देखा जाए तो पाकिस्तान की फिल्म इंडस्ट्री अभी अपेक्षाकृत विकसित नहीं हुई है. हमारी फिल्मों का वितरण बाहर मुल्कों में अधिक नहीं है. तकनीक भी ज्यादा अच्छी नहीं है. जबकि बौलीवुड काफी पुराना है. इन का प्रोडक्शन सिस्टम काफी बड़ा है. यहां हर तरह की फिल्में बनती हैं. यहां के कलाकार पूरे विश्व में मशहूर हैं. हमारे यहां बौलीवुड की फिल्में अधिक देखी जाती हैं.

पाकिस्तान में महिलाओं को कितनी आजादी मिलती है?

हिंदुस्तान जैसी आजादी पाकिस्तान में नहीं है. इस की वजह शिक्षा का अभाव है. महिलाओं को सड़कों पर घूमने की आजादी कम है. हमेशा वे अपने को ढक कर रखती हैं. ऐसी स्थिति को सुधारने में परिवार और समाज का हाथ होता है. परिवार के सदस्यों की सोच अगर बदलेगी तभी लड़कियों की दशा में सुधार होगा. तकनीक के साथसाथ थोड़ा परिवर्तन अवश्य हुआ है पर अभी बहुतकुछ बदलने की आवश्यकता है. मां की भूमिका इस में सब से अहम होती है. बेटों की तरह बेटियों की शिक्षा, उन्हें आगे बढ़ने की प्रेरणा सबकुछ देना पड़ेगा.

धर्म या मजहब के नाम पर महिलाओं के साथ होने वाले अत्याचार को आप कैसे लेती हैं?

किसी पर कुछ भी जबरदस्ती थोपना जानलेवा हो सकता है. यह अपराध है जिसे सभी को समझना होगा. क्योंकि लोग ऊपरी तौर पर जबरदस्ती थोपी गई बातें डर से अपना लेंगे, पर अंदर से उन का भाव अच्छा नहीं होगा. शिक्षा ही एक ऐसा महत्त्वपूर्ण साधन है जो अच्छे व बुरे के भेद को समझा सकती है.

आप कितनी फैशनेबल हैं और किस तरह की ड्रैसेज पहनना पसंद करती हैं?

मैं सादगी पसंद करती हूं. ग्लैमर वर्ल्ड में जो पहनना पड़े वह पहन लेती हूं. घर पर सादगीपूर्ण जीवन बिताने में मजा आता है. वैसे साडि़यां अधिक पसंद हैं.

कितनी फूडी हैं? कुछ खास व्यंजन जिन्हें आप बनाती हों?

हर तरह के फूड मुझे पसंद हैं. लेकिन मैं सेहत को ध्यान में रख कर खाना बनाती और खाती हूं ताकि शरीर को कोई नुकसान न हो. अधिकतर मैं नाश्ता या सलाद बनाती हूं, जो सभी को पसंद आता है. मुंबई की कौर्नकरी मुझे बहुत पसंद आई.

जीवन में खुश रहने का मंत्र क्या है?

सभी रिश्तों में, चाहे निजी जीवन हो या पारिवारिक या कैरियर, सामंजस्य बिठाने की कोशिश करते रहना चाहिए. इसी से आप को संतुष्टि मिलेगी और वर्तमान में खुश रह पाएंगे.

खेल खिलाड़ी

खेल संघों की उदासीनता

राष्ट्रमंडल खेलों के बाद ओलिंपिक जैसे प्रमुख खेलों में भी भारतीय खिलाडि़यों के स्तर में सुधार हो रहा है. 16 वर्षों के बाद एशियाई खेलों में हौकी टीम ने स्वर्ण पदक जीत कर प्रशंसकों को खुश कर दिया लेकिन भारतीय मुक्केबाज एल सरिता प्रकरण ने सब को निराश कर दिया. कई बार खेलसंघों की उदासीनता के कारण खिलाडि़यों का मनोबल टूट जाता है. ओलिंपिक में स्वर्ण पदक विजेता अभिनव बिंद्रा भी खेलसंघों के रवैये से खुश नहीं हैं और वे सार्वजनिक तौर पर असंतोष भी जता चुके हैं. भारतीय खिलाडि़यों के साथ जो अधिकारी जाते हैं वही अधिकारी अपने खिलाडि़यों का समर्थन नहीं करते.

अगर ऐसा नहीं होता तो एल सरिता देवी के साथ यह नौबत नहीं आती. अंतर्राष्ट्रीय मुक्केबाजी संघ यानी एआईबीए एल सरिता को निलंबित नहीं करता. एल सरिता ने इंचियोन में एशियाई खेलों के दौरान कांस्य पदक लेने से मना कर दिया था जिस के चलते एआईबीए ने अनियमितताओं के कारण उन्हें अस्थायी तौर पर निलंबित कर दिया था. निलंबन से एल सरिता अगले महीने होने वाली विश्व चैंपियनशिप में भाग नहीं ले सकती थीं, इसलिए उन्हें एआईबीए से माफी मांगनी पड़ी. उन्होंने कहा है कि मैं मानती हूं कि जो हुआ वह नहीं होना चाहिए था, इस पर मुझे बेहद खेद है. उन्होंने अस्थायी निलंबन को हटाने की अपील करते हुए आश्वासन दिलाया है कि ऐसा दोबारा नहीं होगा. सरिता देवी के पति थोइबा सिंह की मानें तो सरिता ने इंचियोन में ही माफी मांग ली थी और कांस्य पदक भी स्वीकार कर लिया था और आगे के लिए तैयारी में जुट भी गई थीं लेकिन अचानक प्रतिबंध की खबर आ गई. उम्मीद है कि एआईबीए  सरिता को माफ कर देगा और प्रतिबंध हटा लेगा.

बहरहाल, सरिता के साथ जो हुआ, उस से खिलाडि़यों का हौसला डगमगाता ही है और वे अपने खेल के प्रति ध्यान कम दे पाते हैं व उन का ध्यान भटकता है.  होना तो यह चाहिए था कि सरिता के साथ न सिर्फ भारतीय मुक्केबाजी के संगठन व वरिष्ठ अधिकारी खडे़ होते बल्कि उन के साथ हुई नाइंसाफी के खिलाफ आवाज भी उठाते. इस से न सिर्फ सरिता का मनोबल बढ़ता बल्कि भारत की भी अंतर्राष्ट्रीय छवि निखरती.

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सानिया और कारा को खिताब

पिछले महीने भारतीय टैनिस स्टार सानिया मिर्जा और जिंबाब्वे की कारा ब्लैक ने यह घोषणा की थी कि डब्लूटीए टूर्नामैंट जोड़ी के रूप में उन का यह आखिरी मैच होगा. दोनों के लिए यह अंतिम मैच काफी सुखद रहा क्योंकि सानिया और कारा ने सिंगापुर इंडोर स्टेडियम में महिला युगल वर्ग के डब्लूटीए फाइनल्स का खिताब अपने नाम कर लिया. इस जोड़ी ने चीन की पेंग शुआई और चीनी ताइपे की हशे शु वी को 6-1 व 6-0 से हरा कर एकतरफा जीत दर्ज की सानिया व कारा के फाइनल के सफर की बात करें तो इस से पहले सेमीफाइनल में इन दोनों की जोड़ी ने चेक गणराज्य की क्वेता पेश्के और स्लोवेनिया की कैटरीना स्त्रेबोट्रिनक को 4-6, 7-5, 11-9 से हराया था. इस के अलावा मौजूदा सीजन में इन दोनों की जोड़ी शानदार फौर्म में रही. इस से पहले वह अमेरिकी ओपन के सेमीफाइनल तक पहुंचने में सफल रही थी.

कारा 2 साल के बच्चे की मां हैं और ज्यादा से ज्यादा समय वे अपने परिवार को देना चाहती हैं इसलिए कारा ने वर्ष 2015 में किसी भी टूर्नामैंट में हिस्सा न लेने का फैसला लिया है. वहीं, सानिया पिछले कुछ वर्षों से ऐसा कोई बड़ा कारनामा नहीं दिखा पाई थीं लेकिन इस जीत के बाद उन्होंने यह साबित कर दिया है कि अभी सनसनी बाकी है.

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