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कालाधन : इंदिरा गांधी के ‘विदेशी हाथ’ की तरह जुमला?

70 के दशक में ‘विदेशी हाथ’ का जुमला बहुत प्रसिद्ध हुआ था. हर समस्या के पीछे इंदिरा गांधी विदेशी हाथ बताती थीं और विपक्षी दल उन का खूब मजाक उड़ाया करते थे. पिछले कुछ समय से देश में छाया ‘कालाधन’ का मुद्दा भी अब ‘विदेशी हाथ’ की तरह का जुमला बनता जा रहा है.

नरेंद्र मोदी के प्रधानमंत्री पद संभालने से पहले जनता महंगाई, भ्रष्टाचार, सुरक्षा जैसी समस्याओं के चलते आक्रोशित थी. कुछ इसी तरह इंदिरा गांधी के उस वक्त के कार्यकाल के दौरान देश में विभिन्न स्तरों पर देशवासियों में असंतोष व्याप्त था. इंदिरा गांधी के प्रधानमंत्री बनने से पहले भी लोगों में कई स्तरों पर गुस्सा भरा था. महंगाई, बेरोजगारी, अशिक्षा की समस्याएं थीं. ऊपर से कामराज, मोरारजी देसाई, राम मनोहर लोहिया जैसे नेता इंदिरा गांधी के लिए समस्या खड़ी कर रहे थे. कांग्रेस में गुटबाजी होने लगी थी. देश में अमीरी और गरीबी के बीच खाई पैदा होती जा रही थी. धर्म, जाति, प्रांत, भाषा और आर्थिक विषमता के कारण लोग तबकों में बंट गए थे. आंदोलनों में हिंसा बढ़ने लगी थी.

1967 के आम चुनाव होने वाले थे. विपक्ष ने आंदोलन की शुरुआत कर दी थी और चुनाव के वक्त कांग्रेस में अंतर्कलह चरम पर थी. ऐसे में इंदिरा गांधी ने ‘विदेशी हाथ’ का नया जुमला उछाला जो काफी वक्त तक चला. आज कालेधन को ले कर वैसी ही स्थिति देखी जा रही है. पिछले दिनों आंदोलन, यात्राएं, धरने, प्रदर्शन हुए और दिल्ली सरकार के खिलाफ जनाक्रोश देखा गया. बढ़ते दबाव के चलते पहले संप्रग सरकार और अब राजग सरकार ने कालेधन के खिलाफ जो कार्यवाही शुरू की है उस से  यह साफ दिखाईर् दे रहा है कि यह एकदम धीमी रफ्तार व दिखावटी है.

जो कुछ कार्यवाही हो रही है, वह सुप्रीम कोर्ट के डंडे  के डर की वजह से है. दोनों प्रमुख राजनीतिक दलों के बीच आरोपप्रत्यारोप चल रहे हैं. जो भाजपा, आज केंद्र की सत्ता में है, वह पहले वाली संप्रग सरकार को कालेधन के मामले में आएदिन कोसती रहती थी. वही अब सत्ता में आने के बाद खामोश हो गई और कांग्रेस सरकार की तरह कालाधन रखने वालों की रक्षक बनी दिख रही है. फिर भी मोदी कालेधन की वापसी का राग छेड़े हुए हैं. भाजपा कालेधन के प्रति गंभीर नहीं है और न ही ईमानदारी से कालेधन की रोकथाम करने में उस की रुचि है. यह उस के लिए जनता को बरगलाने का महज सियासी मुद्दा है, जिसे जबतब उठा कर सरकार मजा ले रही है.

पुराना है मामला

कालेधन का मामला नया नहीं है. देश में ब्रिटिश शासन के दौरान ‘अंडरग्राउंड इकोनौमी’ और ‘ब्लैकमनी’ को रोकने व टैक्स संग्रह में वृद्धि करने के लिए ब्रिटिश सरकार द्वारा किए गए कई प्रयासों और 1936 में बनी आइरस कमेटी का जिक्र है. आजादी के बाद भारत से कालाधन बाहर जमा कराने का सिलसिला खुल कर शुरू हुआ और आर्थिक उदारीकरण नीतियों के लागू होने के बाद तो कालेधन का प्रवाह बढ़ता ही चला गया. पिछले 2 दशकों में सरकारों, कौर्पोरेट, नौकरशाही और बिचौलियों के गठजोड़ से भ्रष्टाचार, दलाली, रिश्वत और टैक्स चोरी के धन में बढ़ोतरी हुई. कालेधन की गंगोत्तरी उफनने लगी. रिपोर्टें बताती हैं कि कालेधन के मामले में भारत दुनिया के शीर्ष 5 देशों में है.

भारत का कितना कालाधन विदेशी बैंकों में जमा है, किसी के पास आधिकारिक आंकड़ा नहीं है, अलगअलग सर्वे, जांच और आकलन के अलगअलग दावे हैं.

आंकड़ों की उलझन

लोकसभा चुनावों के दौरान प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने कालेधन के जुमले को खूब उछाला. वे चुनावी सभाओं में कहते थे कि यह राशि इतनी है कि हर भारतीय के हिस्से में 15 से 20 लाख रुपए आ सकते हैं. ‘फाइनैंशियल फ्लोज फ्रौम डैवलपिंग कंट्रीज : 2002-2011’ रिपोर्ट के अनुसार, भारत 343.04 बिलियन डौलर के साथ साल 2002-2011 के बीच अवैध पूंजी का 5वां सब से बड़ा निर्यातक देश रहा है. 2011 में यह तीसरे स्थान पर आ गया. इस वर्ष 84.93 बिलियन डौलर धन और विदेश गया. वाशिंगटन स्थित थिंक टैंक ‘ग्लोबल फाइनैंशियल इंटिग्रिटी’ के अनुसार, भारतीयों ने 1948-2008 के बीच करीब 213 अरब डौलर टैक्सहैवन देशों में छिपाए.

स्विस बैंकिंग एसोसिएशन की 2006 की रिपोर्ट के अनुसार, भारत का 1,456 बिलियन डौलर जमा है. एसआईटी के मुताबिक, 2002 से 2011 के बीच भारत में 3,43,922 मिलियन डौलर कालाधन था. एसआईटी की रिपोर्ट के अनुसार, 2006 से 2011 के  बीच कालेधन के लेनदेन में बड़े पैमाने पर तेजी आई. फरवरी 2012 में तब के सीबीआई निदेशक ए के सिंह ने संपत्ति रिकवरी और भ्रष्टाचार के खिलाफ पहले इंटरपोल ग्लोबल प्रोग्राम में बोलते हुए कहा था कि विदेशी बैंकों में भारतीयों का 500 बिलियन डौलर कालाधन जमा है. मार्च 2012 में सरकार ने संसद में कहा था कि सीबीआई का यह बयान एक अनुमान के आधार पर था. कोई तो यह कह रहा है यह धन विदेशी कर्ज से 13 गुना ज्यादा है.

चुनावी मुद्दा

जनता में इस के प्रति आक्रोश बढ़ने लगा तो भाजपा ने इसे अपना चुनावी मुद्दा बना लिया. लोकसभा चुनावों में भ्रष्टाचार के साथसाथ कालेधन को देश में वापस लाना भाजपा का बड़ा चुनावी मुद्दा था. इस से पहले रामदेव और अन्ना हजारे आंदोलन के जरिए कालाधन वापस लाने की मांग कर चुके थे.  2009 में पूर्व कानून मंत्री एवं नामी वकील राम जेठमलानी व कुछ दूसरे लोग सुप्रीम कोर्ट के समक्ष याचिका दे कर कालेधन की जांच करने और इसे रोकने के उपाय करने की गुहार लगा चुके थे. इस पर सुप्रीम कोर्ट ने विशेष जांच टीम (एसआईटी) के गठन का आदेश दिया और सुप्रीम कोर्ट के पूर्व जज बी पी जीवन रेड्डी की अध्यक्षता में कालेधन की जांच के लिए एसआईटी बनाई गई. तय हुआ कि यह टीम सीधे सुप्रीम कोर्ट को रिपोर्ट करेगी, बीच में कोई एजेंसी शामिल नहीं होगी.

लेकिन संप्रग सरकार ने इस का विरोध किया और कहा कि इस पर उच्च स्तरीय समिति काम कर रही है. इस दौरान ब्लैकमनी की जांच का काम धीरेधीरे चलता रहा. मई 2012 में संप्रग सरकार ने कालेधन पर श्वेतपत्र प्रकाशित किया था और

इसमें रोकथाम के प्रयासों की बात कही गई थी लेकिन कुछ नहीं हुआ. बाद में मोदी सरकार ने पदभार संभालते ही कालेधन का पता लगाने के लिए विशेष जांच टीम (एसआईटी) के गठन का ऐलान किया. मोदी की अध्यक्षता में केंद्रीय मंत्रिमंडल की बैठक में उच्चतम न्यायालय के सेवानिवृत्त जज एम बी शाह की अध्यक्षता में एसआईटी बना दी गई.

ढीली पड़ी सरकार

लेकिन पहले संप्रग और अब राजग सरकार का ढीलाढाला, टालू रवैया स्पष्ट दिखाई देने लगा. इस रवैए पर सरकार को सुप्रीम कोर्ट की लताड़ सुननी पड़ी. सुप्रीम कोर्ट ने कालेधन पर सख्त रुख अपनाते हुए केंद्र सरकार से विदेशी बैंकों में खाता रखने वाले सभी लोगों के नाम बताने को कहा. मुख्य न्यायाधीश एच एल दत्तू, रंजना प्रकाश देसाई और मदन बी लाकुर की विशेष बैंच ने कहा कि हम अपने 4 जुलाई के आदेश में एक शब्द भी नहीं बदलेंगे. केंद्र को सभी नाम बताने होंगे. कोर्ट ने कहा, ‘‘मई में जब आप ने सरकार बनाई थी तो हमें अच्छा लगा था कि तुरंत एसआईटी गठित कर दी गई. मगर अब आप नाम न खोलने की अर्जी दायर कर रहे हैं तो 2 या 3 नाम, ऐसा नहीं चलेगा.’’ सरकार ने अन्य नाम छिपाने का प्रयास करते हुए डाबर कंपनी के पूर्र्व निदेशक प्रदीप बर्मन, पंकज लोढिया और गोआ की खनन कंपनी टिंब्लो प्राइवेट लिमिटेड की राधा टिंब्लो, रोशन टिंब्लो, अन्ना टिंब्लो व मल्लिका आर टिंब्लो के नाम ही बताए थे.

गोआ की खनन कंपनी पर आरोप है कि इस की मालकिन राधा टिंब्लो ने कांग्रेस और भाजपा दोनों पार्टियों को लाखों रुपए का चंदा दिया था. सरकार ने फ्रांस से मिली 627 नामों की सूची को दबाने और नाम उजागर करने के लिए भी टालमटोल की कोशिश की. वर्ष 2011 में संप्रग सरकार को फ्रांस सरकार से 627 लोगों की एक सूची मिली थी. यह सूची एचएसबीसी बैंक के एक कर्मचारी ने 2006 में जेनेवा स्थित ब्रांच से चुराई थी. कहा गया कि ये नाम फ्रांस से एक संधि के तहत भारत के पास आए, जिस के मुताबिक जानकारी सिर्फ एजेंसियों और अदालत तक ही सीमित रहनी चाहिए.

नाम पर सस्पैंस

लिहाजा, एनडीए सरकार के वित्तमंत्री अरुण जेटली ने भी कहा कि सरकार उन लोगों के नाम उजागर नहीं कर सकती जिन के नाम सूची में हैं क्योंकि इस से उन देशों के साथ हुई संधि का उल्लंघन होगा. इस पर लोगों में तो गुस्सा फैला ही, सुप्रीम कोर्ट की भौंहें भी तन गईं. सुप्रीम कोर्ट ने सरकार के अटौर्नी जनरल मुकुल रोहतगी से नाम बताने को कहा तो अटौर्नी जनरल ने भी यही कहा कि नाम बताने से उन देशों के साथ हुई संधि का उल्लंघन होगा. लेकिन कोर्ट ने सरकार का हर तर्क खारिज करते हुए कहा कि सरकार नामों के ऊपर सुरक्षा की छतरी क्यों ताने हुए हैं. इस में उस का क्या हित है? इस पर सरकार की ओर से कहा गया कि सरकार को नाम छिपाने में कोई दिलचस्पी नहीं है पर अंतर्राष्ट्रीय संधियों का खयाल रखना पड़़ता है. यदि नाम खोल दिए गए तो भविष्य में सूचनाएं नहीं आ पाएंगी. इस पर कोर्ट ने कहा कि राम जेठमलानी ने तो जरमन सरकार का पत्र दिखाया है, जिस में चांसलर ने कहा है कि भारत को सूचनाएं देने में कोई संधि आड़े नहीं आएगी लेकिन आप कुछ और ही कहानी कह रहे हैं. अटौर्नी जनरल ने फिर बचाव करते हुए कहा कि नाम बताए तो विदेशों के साथ इस मामले में गोपनीयता बरतने के समझौते भंग होंगे. तो कोर्ट ने कहा कि आप चिंता न करें, हम देख लेंगे. वे नाम भी बताएं जिन के खातों को गैरकानूनी नहीं पाया गया है.

अदालती दखल

सरकार ने कहा कि प्राप्त खातों की जांच चल रही है, जैसे ही पता लगेगा कि खाते गैरकानूनी हैं, नाम बता देंगे. इस पर कोर्ट ने फिर कहा कि जांच करना आप का काम नहीं है. आखिर हम ने एसआईटी बनाई है और जांच का काम वही करेगी. वही तय करेगी कि नोटिस दिया जाए या नहीं. अब कालेधन से निबटने वाले कानून की बात करें : सरकार के पास कालेधन के मामले से निबटने के लिए 2 कानून हैं. एक, मनी लौंड्रिंग और दूसरा, विदेशी मुद्रा प्रबंधन कानून (फेमा). अब तक ज्यादातर कार्यवाही जुर्माने के तौर पर हुई है. बहुत कम मामले चले और बहुत कम गिरफ्तारियां हुईं. मनी लौंडिं्रग के तहत 22 गिरफ्तारी हुई हैं. कालेधन को वैध बनाने से रोकने के लिए जुलाई 2005 में मनी लौंडिं्रग निरोध अधिनियम-2002 प्रभाव में आया था.

कालेधन का बड़ा हिस्सा हवाला के जरिए देश के बाहर गया. दोबारा दूसरे मार्ग से प्रत्यक्ष विदेशी निवेश के जरिए भारत में आ गया. केंद्रीय वित्त मंत्रालय द्वारा 2012 में प्रकाशित कालेधन पर श्वेतपत्र में कहा गया है कि एफडीआई का प्रवाह कालेधन के वापसी का कारण बना है. एफडीआई के आंकड़े भी इस तथ्य को उजागर करते हैं. जनकारों का मानना है कि भारत में कालेधन को वैध बनाने की हाल की गतिविधियां राजनीतिक दलों, कौर्पोरेट कंपनियों और शेयर बाजार के माध्यम से हुई हैं.

अस्पष्ट माध्यम

1996 में अंतर्राष्ट्र्रीय मुद्रा कोष ने अनुमान लगाया था कि दुनियाभर में वैश्विक अर्थव्यवस्था के 2 से 5 प्रतिशत हिस्से में कालेधन को वैध बनाने का मामला शामिल था. हालांकि कालेधन को वैध बनाने की प्रक्रिया का मुकाबला करने के लिए सरकारी निकाय (एफएटीएफ) का गठन किया गया था जिस ने स्वीकार किया कि कुल मिला कर वैध बनाए गए कालेधन की मात्रा का एक विश्वसनीय अनुमान करना पूरी तरह से असंभव है और इसलिए एफएटीएफ द्वारा इस बारे में कोई आंकड़ा प्रकाशित नहीं किया जाता है.

      

यह पता नहीं चल पाया है कि कितना धन घूस का बाहर जा रहा है और कितना टैक्स चोरी का. यह धन 2 तरह का माना जाता है. इसे नशीली दवाओं की सौदेबाजी, भ्रष्टाचार, खातों व अन्य प्रकार की धोखाधड़ी और टैक्स चोरी समेत कई तरह की आपराधिक गतिविधियों के माध्यम से प्राप्त किया जाता है.       जाहिर है काले धन का मामला एक सियासी मुद्दा है जिस की तुलना  ‘विदेशी हाथ’ से की जा सकती है. सरकारें कालेधन को न तो ईमानदारी से रोकने का प्रयास करेंगी और न ही यह बेशुमार दौलत वापस आ पाएगी क्योंकि यह पैसा भ्रष्ट राजनीतिबाजों, नौकरशाहों, बेईमान कौर्पोरेट कंपनियों व दलालों का है. इस में बड़े राजनीतिक दलों और सरकारों की हिस्सेदारी रही है. कालाधन जमा करने वाले अपना प्रभाव बनाए रखने के लिए राजनीतिक दलों को मोटा चंदा देते रहे हैं.

मंशा पर सवाल

असल में कालाधन जमाखोरों का रसूख उन के खिलाफ कार्यवाही में देरी की बड़ी वजह है. कुछ मामलों में जांच की रफ्तार तेज होने के बावजूद कार्यवाही सुस्त होने की बड़ी वजह यह है कि ऐसे लोगों का व्यवस्था में पूरा दखल है. सरकारी समितियों ने ही जो सवाल उठाए थे, उन पर कार्यवाही नहीं हुई. मेजर्स टू टैकल ब्लैकमनी इन इंडिया ऐंड अब्रौड (भारत व विदेश में स्थित कालाधन से निबटने के उपाय) नाम की इस रिपोर्ट में कहा गया था कि विदेशों में 9,920 भारतीयों का कालाधन होने की अलगअलग सूचनाएं मिली हैं. देश में कालाधन छिपाने वालों की संख्या 40 हजार के करीब बताई गई थी.    

सुप्रीम कोर्ट के रवैए से जाहिर होता है कि उसे सरकार पर भरोसा नहीं है कि वह ईमानदारी और मेहनत से विदेशों में जमा कालाधन निकालने की कोशिश करेगी, इसीलिए कोर्ट ने अपनी देखरेख में स्वतंत्र जांच एजेंसी यानी एसआईटी से जांच कराने का फैसला किया है. राम जेठमलानी ने कहा था कि सरकार कालाधन रखने वालों को बचा रही है. लोकसभा चुनावों में कहा गया था कि मोदी के चुनाव प्रचार में कालाधन खर्च हो रहा है. लगभग 30 हजार करोड़ रुपए का अनुमान लगाया गया था. इसी तरह कांग्रेस पर भी कालेधन के खर्च के आरोप लगते रहे. एनडीए सरकार ने 100 दिन में कालाधन वापस लाने का वादा किया था. कालेधन पर इतना शोर मचा दिया गया कि माल पकड़ में आने से पहले ही चोर सतर्क हो गए और उन्होंने माल ठिकाने लगा दिया है. सरकार को मिली एचएसबीसी की सूची में से 289 खातों में एक पैसा भी नहीं है.

एसआईटी ने यह भी पाया कि सूची में करीब 122 नाम 2 बार लिए गए हैं. यह धन निकाल लिया गया. यानी सरकार और राजनीतिक दल तो खुद नहीं चाहते कि इस धन का पता चले, इसलिए मिलीभगत से यह धन पार करा दिया गया. यह सोचना भी बेवकूफी है कि इतने होहल्ले के बाद कालाधन बैंकों में मिल पाएगा. एसआईटी को यह भी पता चला है कि इस सूची में इस का कोई ब्योरा नहीं है कि ये खाते कब खोले गए और इन में कबकब, कितनाकितना लेनदेन हुआ. ऐसे में इन लोगों के खिलाफ कार्यवाही में यह सब से बड़ी बाधा आएगी.

स्पष्ट है कालाधन सरकारों के लिए मजा है, राजनीतिक दलों के लिए जनता को बहलाने का एक नया झुनझुना बन गया है. कांग्रेस के गरीबी हटाओ, विदेशी हाथ, धर्मनिरपेक्षता, गरीब के साथ जैसे नारों की तरह ही कालाधन वोट बटोरने का साधन बन गया है. सुप्रीम कोर्ट में अटौर्नी जनरल की दलील और वित्तमंत्री के बयान से भी साफ है कि कालेधन को देश में वापस लाना इतना आसान नहीं है. एनडीए सरकार भी वही बात कह रही है जो पहले यूपीए सरकार कह रही थी. मई के बाद एसआईटी की देखरेख में आयकर विभाग ने करीब 150 सर्वे किए हैं. ये सर्वे उन लोगों के खिलाफ हैं जिन के नाम एचएसबीसी की सूची में है. लेकिन इन के खिलाफ मुकदमा शुरू नहीं किया जा सका है. सरकार की अपनी ओर से पहल करने में कोईर् रुचि नहीं है.

जांच में रुकावट

इस के अलावा गैरकानूनी धन को रोकने के लिए काम करने वाले कई विभाग हैं. इन में प्रमुख सैंट्रल बोर्ड औफ डाइरैक्ट टैक्सेस, एन्फोर्समैंट निदेशालय, फाइनैंशियल इंटैलीजैंस यूनिट, सैंट्रल बोर्ड औफ एक्साइज ऐंड कस्टम, रेवेन्यू इंटैलीजैंस निदेशालय, सैंट्रल इकोनौमिक्स इंटैलीजैंस ब्यूरो हैं. इन्हें काम करने से कौन रोक रहा है, ये विभाग ही दम साधे बैठे रहते हैं.

कालाधन रखने वालों को बचाने का बड़ा उदाहरण पिछले दिनों हसन अली मामले में देखा गया. एन्फोर्समैंट निदेशालय और आयकर विभाग ने हसन अली को गिरफ्तार किया था. उस पर 360 बिलियन डौलर से ज्यादा कालाधन विदेशी बैंकों में जमा करने का आरोप है. हसन अली के बारे में कहा गया है कि उसे अंतर्राष्ट्रीय हथियार डीलर अदनान खशोगी से कई बार धन मिलने का आरोप है. उस के साथ कई राजनीतिबाजों और कौर्पोरेट कंपनियों के नाम भी हैं लेकिन हसन अली समेत उन नामों को बचाने के आरोप लगते रहे हैं. साफ है कि राजनीतिक पार्टियां नहीं चाहतीं कि कालेधन पर कार्यवाही हो. जून 2011 में कालेधन पर प्रदर्शन, धरनों से दबाव बढ़ा तो सरकार ने तब के सीबीडीटी के चेयरमैन एम सी जोशी की अध्यक्षता में एक उच्च स्तरीय समिति का गठन किया था.

जनवरी 2012 में समिति ने अपनी जांच सिफारिश में कहा कि देश की 2 प्रमुख पार्टियां कांग्रेस और भाजपा धन खर्र्च पर अपने आप जो दावे करती हैं, वह गलत है. कांग्रेस 80 मिलियन डौलर बताती है जबकि भाजपा 32 मिलियन डौलर. पर यह सही नहीं है. उन के खर्च इस से कहीं ज्यादा हैं. ये पार्टियां 100 बिलियन और 150 बिलियन डौलर अकेले सालाना खर्च करती हैं. जाहिर है राजनीतिक दल और सरकारें नहीं चाहतीं कि कालेधन का सच उजागर हो. लिहाजा, कालाधन इन दलों के लिए महज वोटलुभाऊ जुमला बन गया है. ऐसे में विदेशों में जमा कालेधन की वापसी की उम्मीद करना बेकार है. हां, सुप्रीम कोर्ट और जनता की सक्रियता से चोर आगे के लिए सतर्क हो गए हैं और ऐसा धन बाहर जाने से अब रोका जा सकेगा.

मेक इन इंडिया पर कितना टिकेगा अच्छे दिनों का भविष्य

देश के बहुत सारे राजनीतिक पंडित और अर्थशास्त्री चुनाव होने से पहले ही नरेंद्र मोदी के बारे में कह रहे थे कि वे भारत के लिए मार्गेट थैचर या तेंग सियाओ पिंग साबित हो सकते हैं. इन दोनों नेताओं की खासीयत यह थी कि इन्होंने अपने देशों को समाजवादी मकड़जाल से मुक्त किया और पूंजीवादी या बाजारोन्मुख विकास के रास्ते पर आगे बढ़ा कर संपन्न बनाया. गुजरात मौडल की सफलता के बाद नरेंद्र मोदी से भी यह उम्मीद की जाने लगी कि वे आर्थिक सुधारों के रास्ते पर चल कर भारत को तरक्की के रास्ते पर ले जाएंगे. उन के नेतृत्व में भारत भी एक महाशक्ति बन कर उभरेगा.

कहना न होगा कि नरेंद्र मोदी ने स्वयं लोगों के विकास को ले कर उम्मीदों को जगाया और बहुत विश्वासपूर्वक कहा कि यदि भारतीय जनता पार्टी जीती तो देश के अच्छे दिन आएंगे. अच्छे दिन लाने की बात मतदाताओं को इतनी अच्छी लगी कि उन्होंने अच्छे दिन लाने के लिए भाजपा और मोदी को बहुमत दिया ताकि भाजपा और मोदी के पास अच्छे दिन न लाने का कोई बहाना न रह जाए.

लेकिन देश में अच्छे दिन तब आएंगे जब ऐसा विकास हो जिस से समृद्धि पैदा हो, लोगों को उत्पादक रोजगार मिले. इस लक्ष्य को पूरा करने के लिए ही नरेंद्र मोदी ने ‘मेक इन इंडिया’ की योजना शुरू की है. इस का मकसद भारत को मैन्युफैक्चरिंग हब बनाना है. अपने चुनावी भाषणों के दौरान प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने अगले कुछ वर्षों में 10 करोड़ लोगों को रोजगार देने का वादा किया था. तब उन्होंने कहा था–इस के लिए जरूरी है कि सामान भारत में बने, भले ही हम उसे बेचें कहीं भी. उन्होंने इस बात पर अचरज जताया कि बहुत सी सामान्य चीजें भी हम अपने देश में नहीं बना पाते. यह कह कर मोदी ने देश की आर्थिक समस्या पर उंगली रख दी. देश में अच्छे दिन तब तक आ ही नहीं सकते जब तक कि इस का मैन्युफैक्चरिंग सैक्टर तेजी से नहीं फलेफूलेगा क्योंकि यही सैक्टर है जो लोगों को बड़े पैमाने पर रोजगार दे सकता है.

विडंबना यह है कि इस मामले में ही हम सब से अनाड़ी रहे हैं. इस का अंदाजा इस बात से लगाया जा सकता है कि चीन ने मैन्युफैक्चर्ड सामान के मामले में भारतीय बाजार पर कब्जा किया हुआ है. हमारी कई बड़ी कंपनियों की हालत यह है कि वे सामान चीन में बनाती हैं, यहां अपने ब्रैंड का ठप्पा लगा कर बेचती हैं. यहां तक कि गणेश और लक्ष्मी की मूर्तियां और पिचकारी व मोबाइल भी चीन से आ कर यहां बिकते हैं. यदि ये सारी चीजें भारत में बनतीं तो करोड़ों लोगों को रोजगार मिलता.

इंस्पैक्टर राज और बाबूगीरी

नरेंद्र मोदी केवल ‘मेक इन इंडिया’ की योजना बना कर ही संतुष्ट नहीं हो गए बल्कि हरियाणा और महाराष्ट्र विधानसभा चुनाव खत्म होते ही उन्होंने उस पर तेजी से अमल भी शुरू कर दिया है. इस के तहत उन्होंने हाल ही में फैक्टरी मालिकों को इंस्पैक्टर राज से निजात दिलाने का रोडमैप रखा. 16 तरह के फौर्म को एक फौर्म में बदला गया.

फैक्टरी मालिकों और उद्यमियों के लिए काम करना आसान बनाने के लिए जो हुआ है, यदि उस पर सचमुच अमल हुआ तो गजब होगा. इस से मेक इन इंडिया की कोशिश को बहुत बल मिलेगा. दुनिया में भारत की सर्वाधिक बदनामी यदि किसी बात पर है तो वह यह कि भारत में काम करना आसान नहीं है. इंस्पैक्टर राज और बाबुओंअफसरों की परेशानियों व भ्रष्टाचार के चलते दरदर की ठोकरें खानी पड़ती हैं.

दरअसल, बाकी दुनिया कृषि युग से औद्योगिक युग में और फिर सर्विस युग में पहुंची. लेकिन हमारे मामले में बीच की मैन्युफैक्चरिंग की कड़ी कमजोर है. हमारे देश में सकल घरेलू उत्पाद में कृषि और औद्योगिक क्षेत्र की तुलना में सर्विस क्षेत्र का योगदान कहीं ज्यादा है. जिस मैन्युफैक्चरिंग क्षेत्र का विकास पहले होना चाहिए वह काफी पिछड़ा हुआ है. जबकि सर्विस क्षेत्र बहुत तेजी से पनपा.

देश के अर्थशास्त्रियों का मानना है यदि देश की बेरोजगारी की समस्या को हल करना है तो मैन्युफैक्चरिंग क्षेत्र का फलनाफूलना जरूरी है. औद्योगिक क्षेत्र में हमारी ताकत उच्च तकनीक और उच्च कौशल वाले उत्पादन हैं. हमारी सरकार अकसर समवेत विकास की बात करती है लेकिन जब तक उस में बड़े पैमाने पर श्रमोन्मुख औद्योगिक क्रांति नहीं जुड़ती, विकास को समवेत विकास नहीं कहा जा सकता. लेकिन यदि उद्योगपति भारत में उद्योग नहीं लगाना चाहते तो उस की एक वजह यह है कि यहां उद्योग लगाने के लिए उपयुक्त माहौल, बुनियादी ढांचा और संसाधन नहीं हैं.

अब मोदी सरकार इस मैन्युफैक्चरिंग सैक्टर को मजबूत बनाने की जीतोड़ कोशिश कर रही है ताकि करोड़ों लोगों को रोजगार देने का सपना पूरा हो सके, जो हमारी अर्थव्यवस्था की सब से बड़ी जरूरत है. देश की अर्थव्यवस्था करीब 2 खरब डौलर की है. इस में मैन्युफैक्चरिंग का योगदान महज 15 प्रतिशत है. केंद्र सरकार एक दशक के अंदर इसे 25 प्रतिशत के स्तर पर ले जाना चाहती है. ऐसा कर के 10 करोड़ लोगों के लिए नौकरियां पैदा की जा सकती हैं. लेकिन यह काम आसान नहीं है.

सिंगल विंडो सिस्टम

यह बात किसी से छिपी नहीं कि भारत में उद्योग लगाना बहुत मुश्किल काम है. कई उद्योग तो किसी न किसी बाधा के कारण कई सालों से शुरू ही नहीं हो पा रहे. कभी जमीन नहीं मिल पाती तो कहीं पर्यावरण की क्लीयरैंस अटक जाती है. यूपीए सरकार के कार्यकाल में जो पौलिसी पैरालिसिस रहा है उस की वजह कानूनों का जाल है जो पूरी प्रक्रिया को सुस्त कर देता है. लिहाजा, मोदी सरकार की ओर से वे तमाम उपाय किए जा रहे हैं जिन से विकास की प्रक्रिया बाधित न हो.

इसीलिए सिंगल विंडो सिस्टम बनाए जाने की बात हो रही है तो वहीं एग्जीक्यूशन लेवल पर सरकार की भागीदारी बढ़ाने की भी बात हो रही है. इसी कोशिश में प्रोजैक्ट मौनिटरिंग ग्रुप को यह काम दिया गया है कि वह न केवल योजनाओं को क्लीयरैंस दिलाए बल्कि यह भी देखे कि निर्धारित वक्त में इंडस्ट्री ने काम शुरू किया है या नहीं.

भूमि अधिग्रहण कानून

उद्योग के विकास के लिए इन दिनों जमीन अधिग्रहण सब से बड़ी समस्या बना हुआ है. भूमिअधिग्रहण कानून को बदले बगैर तो मैन्युफैक्चरिंग क्षेत्र को बढ़ावा देने की कल्पना भी नहीं की जा सकती. मोदी सरकार बहुत जल्द भूमि अधिग्रहण कानून से सोशल असैस्मैंट रिपोर्ट को बंद कर सकती है. इस के तहत अधिग्रहण के पहले यह देखा जाता है कि इस से वहां के रहने वाले लोगों, उन के पीने के पानी की व्यवस्था कैसी है.

दरअसल, भूमि अधिग्रहण कानून में यूपीए की सरकार ने कई बदलाव किए थे. जो नया कानून बना उस के तहत यह जरूरी कर दिया गया कि जमीन अधिग्रहण के एवज में प्रभावित होने वाले 80 फीसदी लोगों की मंजूरी होनी चाहिए. इस कानून के बाद जमीन अधिग्रहण पूरी प्रक्रिया मुश्किल हो गई. इसलिए उसे बदले बिना विकास की रफ्तार बढ़ना संभव नहीं है. सो, मोदी सरकार इसे बदलने में लगी है.

देश में औद्योगिक विकास के रास्ते में सब से बड़ी बाधा इंस्पैक्टर राज है जिस से उद्योगपति बेहद परेशान रहते हैं. नई सरकार इंस्पैक्टर राज को खत्म करने की तैयारी कर रही है. केंद्रीय श्रम मंत्रालय ने 1 सितंबर से उदार निरीक्षण योजना शुरू की. वहीं, 2 अक्तूबर को इस के लिए एकीकृत वैब पोर्टल शुरू किया गया. इस कदम का मकसद निरीक्षकों (इंस्पैक्टर) के विवेकाधीन अधिकार को खत्म करना है. यह कदम देश में कारोबार करने को आसान बनाएगा. इस के जरिए निरीक्षकों के हस्तक्षेप को भी कम से कम किया जाएगा.

जटिल श्रम कानून

आर्थिक नीतियों की सफलता के लिए केवल आर्थिक विकास दर का बढ़ना काफी नहीं, बल्कि लोगों को बड़े पैमाने पर रोजगार भी मिलना चाहिए. आज के मशीनीकरण के दौर में यह आसान काम नहीं है. इस के लिए जरूरी है कि श्रम कानूनों में सुधार किया जाए. ये कानून काफी पुराने पड़ चुके हैं. इन में लंबे समय से कोई बदलाव नहीं किया गया. वैसे ज्यादातर सरकारें श्रम कानून में सुधार के पक्ष में रही हैं लेकिन टे्रड यूनियनों के विरोध के चलते इस दिशा में कोई कदम नहीं उठ पाया. यदि हम ने व्यापक श्रम सुधार नहीं किए तो बेरोजगारी गंभीर समस्या बन जाएगी. करीब 20 करोड़ लोगों की उम्र काम करने लायक हो जाएगी, उन्हें रोजगार दे पाना कठिन होगा.

हमारे श्रम कानून इस कदर जटिल हैं कि ज्यादातर कंपनियां विस्तार करने से गुरेज करती हैं. एक रिपोर्ट में विश्व बैंक ने कहा है कि श्रम बाजार के मामले में भारत दुनिया के सब से कठोर देशों में शुमार है. हालांकि कानून के प्रावधान कर्मचारियों के फायदे के लिए हैं लेकिन अकसर उन का उलटा असर होता है. इन कानूनों से बचने के लिए कंपनियां छोटी रहना पसंद करती हैं. सुधार के एजेंडे में सब से प्रमुख कर्मचारियों को नौकरी पर रखने और बरखास्त करने के नियमों में ढील देना है. यह सब से संवेदनशील मसला है. इस मसले पर संबंधित पक्षों में सहमति बनाने की कोशिश हो रही है.

चीनी सामान से टक्कर

आज भारत में मैन्युफैक्चरिंग के फलनेफूलने के रास्ते में सब से बड़ी रुकावट यह है कि यहां के सारे बाजार तरहतरह के चीनी सामान से पटे पड़े हैं और इस बात से इनकार नहीं किया जा सकता कि चीनी सामान सस्ता, सुंदर होने के साथसाथ आकर्षक और नवीनतापूर्ण भी होता है. चीन हमारे बाजारों पर कब्जा कर हमें हमारे घर में घुस कर चुनौती दे रहा है. लेकिन हम शुतुरमुर्ग की तरह समस्या को नजरअंदाज कर रहे हैं. हम चीन के बाजार में घुस कर अपना सामान बेचने की महत्त्वाकांक्षा पालना तो दूर रहा, अपने ही देश के बाजार में चीन के मुकाबले अपना माल नहीं बेच पा रहे.

यही हमारी त्रासदी है. एक तरफ हमारे देश में करोड़ों बेरोजगार हैं मगर हम उन की क्षमताओं का उपयोग कर आम जरूरतों का उपभोग का सामान भी नहीं बना पा रहे हैं. जबकि इस में कोई जोखिम भी नहीं है क्योंकि बाजार तो है ही, मोदी ने अपने लालकिले के भाषण में बहुत अप्रत्यक्ष ढंग से इस बात का जिक्र किया.  इस बारे में जानेमाने अर्थशास्त्री अरविंद पनगारिया का कहना है कि भारत श्रमोन्मुख मैन्युफैक्चरिंग के क्षेत्र में मार खा रहा है. हमारे उद्योगजगत के कर्णधार अपने ढर्रे को बदलना नहीं चाहते. वे सिर्फ वही करते रहना चाहते हैं जो वर्षों से करते रहे हैं यानी उच्च पूंजी वाले उद्योग, जैसे कि आटोमोबाइल, आटो पार्ट्स, मोटरसाइकिल, इंजीनियरिंग गुड्स, कैमिकल्स या कुशल श्रमोन्मुख सामान, जैसे कि सौफ्टवेयर, टैलीकम्युनिकेशन, फार्मास्युटिकल आदि. लेकिन देश में जो विशाल अकुशल श्रमशक्ति है, उस का उपयोग करने वाले उद्योग को चलाने में उन की कोई दिलचस्पी नहीं है. यही कारण है कि भारत चीन से गणेश या लक्ष्मी की मूर्ति बनाने या राखी बनाने के मामले में भी प्रतिस्पर्धा नहीं कर पा रहा.

श्रमोन्मुख उत्पादन

यदि भारतीय उद्योगपति श्रमोन्मुख उद्योगों में दिलचस्पी नहीं ले रहे तो इस के बीज इतिहास में हैं. भारत सरकार का झुकाव बड़े उद्योगों की स्थापना की तरफ था. लेकिन सरकार खुद जो उद्योग नहीं लगाना चाहती थी उस का लाइसैंस वह प्राइवेट सैक्टर को दे देती थी मगर उस के लिए जरूरी था कि आप सरकार के नेताओं के नजदीक हों. लेकिन इस सब का नतीजा यह हुआ कि सरकारी और प्राइवेट सैक्टर दोनों में बड़ी पूंजी वाले उद्योगों का लगना जारी रहा और श्रमप्रधान उद्योगों की संख्या में बहुत धीमी रफ्तार से इजाफा हुआ. भारत के मौजूदा विकास की सब से बड़ी खामी ही यही है कि विकास की उच्च दर हासिल करने के बावजूद श्रमोन्मुख औद्योगिक क्रांति यहां नहीं आई. यदि ऐसा होता तो इस का लाभ उन लोगों को मिलता जो ग्रामीण क्षेत्र में अब भी गरीबी की दलदल में फंसे हुए हैं.

दरअसल, भारतीय संदर्भ में समवेत विकास तभी हो सकता है जब श्रमोन्मुख उत्पादन के जरिए टिकाऊ, तीव्र विकास हासिल किया जाए और लोगों को उत्पादक रोजगार दिलाया जाए.

चीन की सफलता का राज यह भी है कि चीन ने श्रम प्रधान उद्योगों को बड़े पैमाने पर स्थापित किया. इस का लाभ उसे यह हुआ कि वह उद्योग अनुसंधान के जरिए अपने उत्पादों की गुणवत्ता को बढ़ा सका, नएनए और खूबसूरत डिजाइन ला सका और आक्रामक मार्केटिंग रणनीति अपनाकर अपने उत्पादों को दुनियाभर में बेच सका. चीन से मुकाबला करने के लिए हमारी सरकार को ऐसा माहौल पैदा करना पड़ेगा जिस में हमारे उद्योगपतियों और विदेशी निवेशकर्ताओं को श्रमोन्मुख उत्पादों के लिए बड़े स्तर की फर्में स्थापित करना आकर्षक लगे.

विदेशों पर निर्भरता

देश की त्रासदी यह भी है कि आजादी के 67 साल बाद भी हम हथियारों के मामले में पूरी तरह से विदेशों पर ही निर्भर हैं. बुनियादी सैनिक सामग्री तक के लिए हम विदेशी आयात पर निर्भर हैं. जबकि हम एटम बम बना चुके हैं. हमारे अंतरिक्ष वैज्ञानिकों द्वारा निर्मित रौकेट चांद से ले कर मंगल ग्रह तक पहुंच चुके हैं, आईटी में हमारी धाक दुनिया मानती है. हम उच्च तकनीक पर आधारित काम बहुत आसानी से कर लेते हैं लेकिन एक काम हम नहीं कर पाते, हम अपने देश में अपने सैनिकों के लड़ने के लिए हथियार नहीं बना पाते. अच्छी क्वालिटी की बंदूकें, तोप, लड़ाकू विमान, मिसाइलें, टैंक आदि बनाना हमारे वश की बात नहीं है. वे तो हमें विदेशों से ही खरीदने पड़ते हैं. कई विशेषज्ञों को तो लगता है कि भारत को आयातित हथियार खरीदने का नशा है जो आसानी से छूटने वाला नहीं है. इस साल भी हम 11 अरब डौलर के हथियार खरीदने वाले हैं क्योंकि हथियार खरीदना हमारी मजबूरी है, हम स्वदेशी हथियार उद्योग को विकसित करने में नाकाम रहे हैं.

सवाल उठता है कि हम अपनी जरूरत के हथियारों का उत्पादन क्यों नहीं कर पाते. भारत की एक बड़ी समस्या यह है कि भारत का सरकारी क्षेत्र भ्रष्ट और अक्षम है और उस के पास न तो उच्च तकनीक वाले हथियार बनाने की क्षमता है, न बड़े पैमाने पर हथियार बनाने की. हमारे पास 10 लाख सैनिकों वाली सेना है मगर हम अपनी जरूरत के 75 प्रतिशत हथियार अब भी विदेशों से खरीदते हैं. राइफल, टैंक और लड़ाकू विमान तो छोडि़ए, हम सैनिकों के लिए अच्छी क्वालिटी के कपड़े और जूते तक विदेशों से खरीदते हैं. कारण यह है कि हमारा सरकारी क्षेत्र अक्षम है और निजी क्षेत्र को हम ने रक्षा उत्पादन में शामिल नहीं किया. नतीजा यह है कि हम औनेपौने दामों पर विदेशों से हथियार खरीदते हैं. यदि हथियारों का हम अपने देश में उत्पादन करते तो न केवल पैसा कम लगता बल्कि हमारे देश के लाखों लोगों को रोजगार मिलता.

मोदी सरकार ने इस समस्या को सब से ज्यादा प्राथमिकता दी है. इसे हल करने के लिए जोरदार कोशिश शुरू की है. यहां तक कि विदेशी पूंजी निवेश 49 प्रतिशत तक कर दिया है. यदि हम हथियार उत्पादन में महारत हासिल कर सकें तो विदेशों को हथियार निर्यात भी कर सकते हैं. हथियार ही एक ऐसा उद्योग है जिस में कभी मंदी नहीं आती और मुनाफा जबरदस्त है. घरेलू हथियार उद्योग हमें रक्षा सामग्री के मामले में आत्मनिर्भर बनाएगा ही और आर्थिक तौर पर खुशहाल भी. इस तरह हम हथियारों के खरीदार से निर्माता और बाद में निर्यातक भी बन सकते हैं. इस से लाखों लोगों को रोजगार भी मिलेगा.

वैकल्पिक ऊर्जा पर जोर

ऊर्जा किसी भी अर्थव्यवस्था की रीढ़ होती है. उस के बगैर तो मैन्युफैक्चरिंग सैक्टर के पनपने के बारे में सोचा भी नहीं जा सकता. नरेंद्र मोदी ने ऊर्जा के मामले में गुजरात में चमत्कार कर दिखाया है. वहां हर गांव में बिजली है और पावर शेडिंग भी बहुत कम होती है. इस के अलावा किसानों को सिंचाई के लिए पर्याप्त बिजली उपलब्ध है. इस में वैकल्पिक ऊर्जा स्रोतों की भूमिका भी बहुत महत्त्वपूर्ण है. केंद्र में भी मोदी सरकार के एजेंडे में सौर ऊर्जा जैसे एनर्जी के वैकल्पिक स्रोतों पर जोर बढ़ाना भी शामिल है. सरकार विंड और सोलर एनर्जी सैक्टर को बड़ी राहत दे सकती है. इस के अलावा विंड एनर्जी के लिए नई पौलिसी पर भी विचार कर रही है. इस में 12 नौटिकल मील तक विंड पावर प्लांट लगाने की छूट मिल सकती है.

इस के अलावा मोदी सरकार ने परमाणु ऊर्जा परियोजनाओं को ले कर जारी नीतिगत जड़ता को पूरी तरह से खत्म करने का निर्णय लिया है. पिछले दिनों प्रधानमंत्री कार्यालय में देश की ऊर्जा समस्या पर आयोजित एक बैठक में परमाणु ऊर्जा परियोजनाओं की नए सिरे से समीक्षा करने और उन की राह की सभी अड़चनों को खत्म करने का निर्देश दिया गया है.

इस निर्देश के बाद अगले 7 से 8 वर्षों के भीतर पूरी होने वाली या जिन पर काम चालू है, उन सभी परमाणु ऊर्जा परियोजनाओं की समीक्षा जल्द ही शुरू की जाएगी. इन परियोजनाओं से देश को 20 हजार मेगावाट की बिजली मिल सकेगी.

राह आसान नहीं

वर्तमान एटमी बिजली संयंत्रों और निकट भविष्य में शुरू होने वाली सभी परियोजनाओं की समीक्षा में यह पाया गया कि देश में अभी चल रहे 4,780 मेगावाट के 20 रिएक्टर्स में से कुछ में ईंधन आपूर्ति की समस्या है. रिएक्टर्स की अनुमानित मांग और आपूर्ति के बीच इन की उत्पादन क्षमता 2,840 मेगावाट से कम बिजली पैदा हो रही है. यह देखने में आया है कि घरेलू स्तर पर यूरेनियम के उत्पादन में वृद्धि होने के बावजूद इन रिएक्टर्स की मांग पूरी नहीं हो पा रही है. परमाणु ऊर्जा विभाग को कहा गया है कि वह इस समस्या के समाधान का तरीका सुझाए.

इस तरह मोदी सरकार देश को मैन्युफैक्चरिंग हब बनाने की दिशा में कोशिशें कर रही है. यह काम आसान नहीं है. मैन्युफैक्चरिंग को बढ़ावा देने के कदमों पर अमल करने में वक्त लगेगा. और केवल केंद्र सरकार को ही नहीं राज्य सरकारों को भी इस दिशा में कदम उठाने पड़ेंगे, जैसे राजस्थान में वसुंधरा की सरकार उठा रही है. सरकार यदि इस में कामयाब होती है तो इस से करोड़ों लोगों को रोजगार मिलेगा और यह देश में अच्छे दिनों की आहट होगी.

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