धनबाद बर्दवान के बीच चलने वाली लोकल ईएमयू टे्रनों की सवारियों को दूर से ही पहचाना जा सकता है. इन रेलगाडि़यों में रोज अपडाउन करते हैं ग्रामीण मजदूर, सरकारी व निजी संस्थानों में लगे चतुर्थ श्रेणी के बाबू, किरानी, छोटीछोटी गुमटियों वाले व्यवसायी, यायावर हौकर्स और स्कूलकालेजों के छात्रछात्राएं. उस रोज दोपहर का वक्त था. लोकल टे्रन में भीड़ न थी. यात्रियों की भनभनाहट, इंजनों की चीखपुकार और वैंडरों की चिल्लपों का लयबद्ध संगीत पूरे वातावरण में रसायन की तरह फैला हुआ था. आमनेसामने वाली बर्थों पर कुछ लोग बैठे थे. उन में एक नेताजी भी थे. अभी ट्रेन छूटने में कुछ समय बाकी था कि  एक भरीपूरी नवयुवती सीट तलाशती हुई आई. कसा बदन, धूसर गेहुआं रंग, तनिक चपटी नाक. हाथ में पतली सी फाइल. उस की चाल में आत्मविश्वास की तासीर तो थी पर शहरी लड़कियों सा बिंदासपन नहीं था. एक किस्म का मर्यादित संकोच झलक रहा था चेहरे से और यही बात उस के आकर्षण को बढ़ा रही थी.

उसे देखते ही नेताजी हुलस कर तुरंत ऐक्शन में आ गए. गांधी टोपी को आगेपीछे सरका कर सेट किया और खिड़की के पास जगह बनाते हुए हिनहिनाए, ‘‘अरे, यहां आओ न बेटी. खिड़की के पास हवा मिलेगी.’’

युवती एक क्षण को ठिठकी, फिर आगे बढ़ कर नेताजी के बगल में खिड़की के पास वाली सीट पर बैठ गई.

सामने की बर्थ पर बैठे प्रोफैसर सान्याल का मन ईर्ष्या से सुलग उठा. थोड़ी देर तक तो वे चोर नजरों से लड़की के मासूम सौंदर्य को निहारते रहे. फिर नहीं रहा गया तो युवती से बातों का सूत्र जोड़ने की जुगत में बोल उठे, ‘‘कालेज से आ रही हैं न?’’

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