भारतीय अंतरिक्ष अनुसंधान संगठन ने 28 अप्रैल, 2016 को देश की सामरिक और नागरिक जरूरतों की आत्मनिर्भरता की दिशा में एक उपलब्धि हासिल करने की ओर कदम बढ़ा दिए. इसरो ने देश के नैविगेशन सैटेलाइट-आईआरएनएसएस (इंडियन रीजनल नैविगेशन सैटेलाइट सिस्टम) की शृंखला में उपग्रह आईआरएनएसएस-1जी को सफलतापूर्वक कक्षा में स्थापित कर दिया. यह सैटेलाइट 2013 से 2015 के बीच छोड़े गए कुल 7 उपग्रहों की कड़ी में आखिरी था. इस कड़ी के पूरा होने पर भारत के पास अपना जीपीएस यानी देशी गलोबल पोजिशनिंग सिस्टम होगा. इस मौके पर प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने इसरो के वैज्ञानिकों को बधाई देते हुए भारतीय जीपीएस का एक नया नामकरण भी किया. उन्होंने इसे ‘नाविक’ का संबोधन दिया, जिस का अभिप्राय ‘नैविगेशन विद इंडियन कौन्स्टेलेशन’ निकलता है. प्रधानमंत्री ने इसे ‘मेक इन इंडिया,’ ‘मेड इन इंडिया’ और ‘मेड फौर इंडिया’ का सपना पूरा करने वाली एक उपलब्धि भी बताया.

क्या है जीपीएस

जीपीएस का शाब्दिक अर्थ ‘ग्लोबल पोजिशनिंग सिस्टम’ है. यह अंतरिक्ष स्थित उपग्रहों पर आधारित एक ऐसा सिस्टम है, जिस से हर मौसम में पृथ्वी के किसी भी स्थान के बारे में किसी भी समय जानकारी मिल सकती है. इस सिस्टम की ज्यादा उपयोगिता सेना को, नागरिक सेवाओं को और ऐप आधारित वाणिज्यिक सेवाओं के संबंध में है. ऐसा एक सिस्टम सब से पहले अमेरिका ने बनाया था जो जीपीएस रिसीवर रखने वाले हर व्यक्ति को मुफ्त में उपलब्ध कराया गया. अमेरिका ने 1973 में जीपीएस प्रोजैक्ट पर काम करना शुरू किया था. यूएस डिपार्टमैंट औफ डिफैंस ने खासतौर से इसी के लिए अंतरिक्ष में स्थापित किए गए 24 उपग्रहों की मदद से यह सिस्टम बनाया था, जिस ने 1995 में काम करना शुरू कर दिया था.

मूल रूप से जीपीएस एक अमेरिकी सिस्टम ही है और अमेरिका इस का इस्तेमाल अपने सैन्य व नागरिक हितों के लिए करता है. अमेरिकी जीपीएस का इस्तेमाल करने पर इस का रिसीवर भी साथ ले कर चलना होता है पर अमेरिकी जीपीएस को टक्कर देने के लिए रूस ने ग्लोनास (रशियन ग्लोबल नैविगेशन सैटेलाइट सिस्टम) बनाया, लेकिन इस से पूरी दुनिया में सेवाएं नहीं मिलती हैं. इस के अलावा यूरोपीय संघ का ‘गैलीलियो पोजिशनिंग सिस्टम’, चीन का ‘बाइडु नैविगेशन सैटेलाइट सिस्टम’ और जापान का ‘क्वासी जेनिथ सैटेलाइट सिस्टम’ भी हैं जो अलगअलग क्षेत्रों में लोगों को जीपीएस सेवाएं मुहैया करा रहे हैं. इन में सब से नया भारत का ‘नाविक’ है.

इस की जरूरत क्यों है

जीपीएस पर अमेरिकी एकाधिकार का एक नतीजा यह निकला कि अमेरिका न तो किसी देश की सभी नागरिक जरूरतों के लिए अपने जीपीएस के इस्तेमाल की इजाजत देता है और न ही भारतीय सैन्यबलों को संवेदनशील जानकारियां मुहैया कराता है. इसी मजबूरी में भारत ने एक समय जीपीएस के रूसी विकल्प ग्लोनास सिस्टम में भागीदारी का समझौता किया था, पर उस से भी समस्याएं नहीं सुलझीं, क्योंकि ग्लोनास की अपनी सीमाएं थीं पर अब हमारा अपना जीपीएस हमें दूसरे देशों की बैसाखियों से आजाद करा सकेगा. जीपीएस की जरूरतों को सब से ज्यादा प्राकृतिक आपदाओं के समय महसूस किया जाता है. पिछले कुछ वर्षों में उत्तराखंड व जम्मूकश्मीर की बाढ़, भूकंप और देश के अलगअलग हिस्सों में चक्रवाती तूफान जैसी प्राकृतिक आपदाओं के वक्त स्वदेशी जीपीएस की जरूरत महसूस हुई है. कुछ ऐसी ही जरूरत सीमा पर चीनपाकिस्तान की तरफ से होने वाली घुसपैठ पर नजर रखने के संबंध में भी है. कहा जाता रहा है कि यदि हमारे पास अपना जीपीएस होता, तो दुश्मन देशों के सैनिकों और आतंकवादियों की भारतीय सीमा में आवाजाही का पहले से पता चल जाता. इसी तरह प्राकृतिक आपदा में लापता लोगों को उन के मोबाइल की लोकेशन के आधार पर आसानी से ढूंढ़ा जा सकता था. इंटरनैट सुविधा से लैस मोबाइल फोन में जीपीएस तकनीक ही काम करती है, जिस से लोग किसी लोकेशन के बारे में आसानी से जान सकते हैं.

जीपीएस  की मदद से उड़ते विमानों, समुद्री जहाज, जमीन पर चलते वाहनों के साथसाथ मोबाइल फोन या किसी अन्य नैविगेशन सिस्टम से लैस व्यक्ति की लोकेशन का पूरी सटीकता से पता लगाया जा सकता है. अभी तक इन सभी कार्यों के लिए हम पूरी तरह से अमेरिका पर निर्भर रहे हैं. अब तो जिस तरह ऐप आधारित टैक्सी सेवाएं देश के बड़े शहरों में चलने लगी हैं और कई कारों में भी जीपीएस लगा होता है, तो उस से कारचालक किसी स्थान पर जाने के सही रास्ते का आसानी से पता लगा सकता है. आम लोग भी अपने मोबाइल फोन में जीपीएस ऐप के जरिए स्थान, रास्ते और महत्त्वपूर्ण जगहों की सूचनाएं पा सकते हैं.

अमेरिका से मुकाबला नहीं

इस में संदेह नहीं कि भारतीय जीपीएस फिलहाल अमेरिकी सिस्टम का पूरी ताकत से मुकाबला नहीं कर सकता. पृथ्वी की जियोस्टेशनरी (भूस्थैतिक) कक्षा यानी अंतरिक्ष में 36 हजार किलोमीटर की ऊंचाई पर स्थित अमेरिका के 24 सैटेलाइट पूरी पृथ्वी पर नजर रखते हैं. 24 उपग्रहों से हर वक्त मिलने वाली जानकारियों और संकेतों के सहारे दुनिया के किसी भी कोने में मौजूदा विमानों, जहाजों, वाहनों या मोबाइलफोन धारकों की सहीसही लोकेशन का पता, ठिकाना तुरंत मालूम किया जा सकता है, इस तुलना में मई, 2015 में पूरा होने के बावजूद भारतीय जीपीएस थोड़ा कमजोर होगा, क्योंकि यह केवल भारत और इस के आसपास के 1,500 वर्ग किलोमीटर इलाके की चौकसी कर सकेगा. भारतीय सैटेलाइट्स की आईआरएनएसएस शृंखला के 7 उपग्रहों में से 4 सैटेलाइट जियोस्टेशनरी कक्षा में स्थापित किए गए हैं. इस कक्षा में स्थापित उपग्रहों को जमीन से देखने पर लगता है जैसे वे आकाश में एक ही जगह पर स्थित हों. इस के अतिरिक्त 3 सैटेलाइट जियोसिनक्रोनस कक्षा में स्थापित किए गए हैं जो पृथ्वी के ऊपर अंतरिक्ष में अंगरेजी के 8 के आकार में भ्रमण करते दिखाई देते हैं. 2 अलगअलग कक्षाओं में स्थापित इन 7 उपग्रहों की मदद से भारतीय उपमहाद्वीप में सैन्य गतिविधियों और नागरिक जरूरतों की आसानी से पूर्ति हो सकेगी. लेकिन फिलहाल इस क्षमता का सीमित व्यावसायिक दोहन ही हो सकेगा. यदि भारत भी 24 सैटेलाइट छोड़ कर अमेरिकी जीपीएस के बराबर क्षमता विकसित कर लेता है, तो पूरी दुनिया को जीपीएस से मिलने वाली जानकारियों और सिगनलों को प्रतिस्पर्धी कीमतों पर बेच कर मुनाफा कमा सकता है. भारतीय जीपीएस के तहत आरंभ से ही 2 तरह की सेवाएं देने की योजना बनाई गई है. इस में पहली स्टैंडर्ड पोजिशनिंग सर्विस है, जिस का इस्तेमाल कोई भी कर सकता है यानी इस से मिलने वाली जानकारियां जरूरत पड़ने पर किसी को भी मुफ्त में दी जा सकती हैं और उन्हें बेचा भी जा सकता है. दूसरी सर्विस रेस्ट्रिक्टेड श्रेणी की है, जिस में मिलने वाले संकेतों का इस्तेमाल सिर्फ सरकारी एजेंसियां या सेना ही कर सकती है.

कारोबार भी है एक मकसद

इस में दो राय नहीं कि जीपीएस में आत्मनिर्भरता की यह पहल भारत को दुनिया की अग्रिम पंक्ति वाले देशों की कतार में ला खड़ा करती है, लेकिन अब उद्देश्य इस तरह की सेवाओं के व्यावसायिक दोहन का भी होना चाहिए. तात्पर्य यह है कि हम अपनी सैन्य और नागरिक जरूरतों को पूरा करने के साथसाथ ऐसी सेवाओं को दुनिया के बाजारों में बेच कर विदेशी मुद्रा कमाने के उपाय भी करें. अगर भारत भी अमेरिका की तरह 24 सैटेलाइट्स का चक्र बना कर पूरी पृथ्वी को अपने जीपीएस के तहत ले आता है, तो जरूरत के वक्त न सिर्फ हम अपने विमानों, जहाजों और लोगों की दुनिया के किसी भी कोने में लोकेशन जान सकते हैं, बल्कि अपने देश से बाहर की जमीनों पर होने वाली सैन्य और नागरिक गतिविधियों से जुड़ी जानकारी अपनी सुविधानुसार किसी दूसरे देश को बेच भी सकते हैं. यही नहीं, जिस तरह अमेरिका ने अपने जीपीएस के तहत पूरी दुनिया पर अंतरिक्ष से अपनी निगरानी कायम कर रखी है, उसी तरह हम भी उस निगरानी का तोड़ अपनी तरफ से निकाल सकते हैं.

उल्लेखनीय है कि टनों वजनी उपग्रहों के पृथ्वी की सतह से 36 हजार किलोमीटर ऊपर अंतरिक्ष में जीएसएलवी द्वारा पहुंचाने की क्षमता हासिल कर के भारत पहले ही अमेरिका, रूस, चीन, जापान और यूरोपीय देशों की श्रेणी में आ चुका है. सिर्फ रौकेट का निर्माण और प्रक्षेपण ही नहीं, बल्कि कई विदेशी एजेंसियां भारतीय सैटेलाइट ट्रांसपौंडर की सेवाएं भी खरीदती हैं यानी उन के ट्रांसपौंडर या तो लीज या किराए पर लेती हैं या फिर उन से ली गई तसवीरों और आंकड़ों को खरीदती हैं. जैसे प्रख्यात विदेशी स्पेस एजैंसी, इंटैलसैट ने जब भारत के रिमोट सैंसिंग सैटेलाइट की सेवाएं ली थीं, जबकि 1999 में 2 अन्य एजेंसियों, स्पौंच औफ फ्रांस व अमेरिका की लैंडसैट ने 7 करोड़ डौलर में इसरो के सहयोगी संगठन, ऐंट्रिक्स कौरपोरेशन से तसवीरें खरीदी थीं, उस वक्त इस किस्म के सौदे से स्पेस मार्केट में एक तरह की सनसनी फैल गई थी. अकेले वर्ष 2000 में ही इसरो के सहयोगी संगठन, ऐंट्रिक्स कौरपोरेशन से ग्लोबल मार्केट ने उस के 5 रिमोट सैंसिंग सैटेलाइट्स से ली गई तसवीरें 70 लाख डौलर में खरीदी थीं.

उपग्रहों के प्रक्षेपण, रिमोट सैंसिंग उपग्रहों से खींची गई तसवीरों की बिक्री और संचार उपग्रहों के ट्रांसपौंडर्स को किराए पर देने से निश्चय ही भारत को काफी विदेशी मुद्रा हासिल हुई है. यही नहीं इनसेट श्रेणी के उपग्रहों और जीएसएलवी के सफल प्रक्षेपण के आधार पर भारत ने साबित किया है कि वह विदेशी स्पेस एजेंसियों के मुकाबले न सिर्फ बेहद कम कीमत में सैटेलाइट लौंच कर सकता है, बल्कि दुर्घटनारहित प्रक्षेपण की गारंटी दूसरों से ज्यादा दे सकता है.

इन बातों ने दुनिया में भारतीय स्पेस एजेंसी इसरो को एक मुकाम दिया है. इसी तरह यदि हमारा स्वदेशी जीपीएस दुनिया के कई मुल्कों को सस्ती दरों पर ग्लोबल पोजिशनिंग से संबंधित सेवाएं मुहैया कराएगा, तो इस बाजार में भारत की और धाक जमेगी.

भारत अगर दुनिया के उपग्रह बाजार से भारी कमाई करने में समर्थ होगा, तो इस से न सिर्फ हमारी अर्थव्यवस्था में सुधार होगा, बल्कि गरीबों की जिंदगी भी खुशहाल हो सकेगी.

तरह तरह के उपयोग

वैज्ञानिक और व्यावसायिक कार्यों के अलावा निगरानी व ट्रैकिंग जैसे कामों में जीपीएस बड़े कमाल की सुविधा देता है. इस से उन जगहों की जानकारी भी मिल जाती है, जहां से आमतौर पर दूसरे संकेत मिलने मुश्किल होते हैं, जैसे पानी के अंदर, किसी इमारत के भीतर या गुफाओं में. मोटे तौर पर इस का इस्तेमाल नागरिक और सैन्य सेवाओं में होता है. नागरिक सेवाओं के तहत नक्शा बनाने, किसी स्थान के फोटो और अन्य सूचनाएं संप्रेषित करने, भूकंप से जुड़ी गतिविधियों की जानकारी लेने और वाहन संचालन के दौरान रास्तों की सही सूचना भी देने का काम करता है. किसी वाहन, व्यक्ति या पालतू पशु का पता लगाने के लिए भी जीपीएस व्हीकल ट्रैकिंग सिस्टम, पर्सन ट्रैकिंग सिस्टम और पेट ट्रैकिंग सिस्टम काम में लाए जाते हैं.

जहां तक सैन्य उपयोग की बात है, तो सैनिक किसी अनजान जगह अथवा अंधेरे में जीपीएस की मदद से स्थान और वस्तुओं की जानकारी लेते हैं. किसी मार गिराए गए विमान के स्थान का पता भी जीपीएस से उस में लगे यंत्रों की मदद से चल जाता है.

सैन्य टुकडि़यों का संचालन भी जीपीएस से लैस होता है, जिस से वे उड़ते विमानों, ड्रोन के अलावा जमीन पर मौजूद टैंक आदि का पता लगा कर उन्हें अपने निशाने पर ले सकते हैं. लंबी दूरी की मिसाइलें भी जीपीएस से लैस होती हैं, जिस से वे अपने लक्ष्य तक पूरी सटीकता से प्रहार कर पाती हैं

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