हमारी सरकारों की आदत बन गई है कि वे किसी न किसी तरह आम आदमी की राह में रोड़े अड़ाएं. गनीमत है कि अदालतें इन रोड़ों को अभी तक हटाने में सक्षम हैं. पर पता नहीं कब केंद्र की गुस्सैल सरकार अपनी धौंस जमाने लगे और संविधान ही बदलने लगे, जैसा इंदिरा गांधी ने कई बार किया. भारतीय जनता पार्टी के नरेंद्र मोदी धीरेधीरे उस बहुमत की ओर बढ़ रहे हैं कि जिस से सरकार अपनी मनमानी कर सके.हाल में शिक्षा के मामलों में सरकार की मनमानी दिखी भी. पंडितों को नौकरियां उपलब्ध कराना सुनिश्चित करने के लिए शिक्षा मंत्री स्मृति ईरानी ने फरमान जारी कर दिया कि केंद्रीय विद्यालयों में संस्कृत अनिवार्य होगी. गनीमत है कि सर्वोच्च न्यायालय ने इस पर रोक लगा दी कि कम से कम मार्च तक संस्कृत को न थोपा जाए. उम्मीद की जाए कि तब तक सरकार का जोश ठंडा पड़ जाएगा.

वहीं, पिछली निकम्मी, भ्रष्ट सरकार की तरह नई सरकार भी दिल्ली में नर्सरी स्कूलों में प्रवेश के मनमाने नियम थोपने पर अड़ी थी. नर्सरी स्कूल निजी संस्थाओं द्वारा चलाए जाते हैं और एक तरह से ये दुकानें हैं जहां बच्चे कुछ घंटे खेलने, बात करने, पढ़ने, ड्राइंग करने के लिए मिलते हैं और उतनी देर मांएं अपना काम कर सकती हैं. उन में प्रवेश को ले कर धांधलियां होती हैं. पर वे ऐसी हैं जैसी सिनेमाहाल में नई फिल्म के लिए टिकटें ब्लैक की जाती थीं. यह कोरा व्यापारिक मामला है. इस का शिक्षा से कोई लेनादेना नहीं. नर्सरी स्कूल तो मुख्यतया आयागीरी का काम करते हैं. फिर भी सरकार अड़ी थी कि नियम उस के चलेंगे. अब उच्च न्यायालय ने सभी नियमों को गैरकानूनी करार दे दिया है. यह सही निर्णय है जो मातापिता को भटकाएगा नहीं और प्रबंधकों को राहत देगा.

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