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फोर्ब्स का फोबिया

अमेरिका से प्रकाशित फोर्ब्स पत्रिका की बादशाहत को चुनौती नहीं दी जा सकती. हाल ही में उस ने दुनिया की 100 प्रमुख कंपनियों की सूची जारी की है जिस में भारत की 5 कंपनियां–हिंदुस्तान यूनिलीवर, टाटा कंसलटैंसी सर्विस, एल ऐंड टी, सनफार्मा और बजाज शामिल हैं. यह हमारे लिए खुशी की बात है. पत्रिका ने उन्हीं कंपनियों को सूची में शामिल किया है जिन की बाजार पूंजी 10 अरब डौलर है और जिस ने अपने कुल अर्जित राजस्व का ढाई फीसदी धन शोध व विकास कार्यों पर खर्च किया है. शोध व विकास कार्यों के कारण ये सभी कंपनियां सुर्खियों में रही हैं. सूची में हिंदुस्तान यूनिलीवर 14वें स्थान पर है जबकि शेष चारों कंपनियां 50 से 100 के बीच के क्रम में हैं.

पत्रिका हर साल वैश्विक स्तर पर उद्योगों की सूची जारी करती है और दुनिया की कंपनियां सूची में अपना नाम देख कर खुश हो जाती हैं. यही हालत अमेरिकी रेटिंग एजेंसियों की भी है, सब कुछ अमेरिका के पास है. हमारी इंडिया टुडे, बिजनैस इंडिया, आउटलुक या सरिता यदि इस तरह की पहल करें तो उन की कोई सुनने वाला नहीं है. आखिर अपनी पत्रिकाओं के सर्वेक्षण में अपना नाम शीर्ष स्तर पर देख कर हमारे लोग खुश क्यों नहीं होते हैं. हमें ध्यान रखना है कि सूची में नाम आने पर हम खुशी का जो इजहार करते हैं वह फोर्ब्स पत्रिका की प्रतिष्ठा की बुनियाद है. जरूरत स्वयं पर, अपने लोगों पर और अपने प्रकाशनों पर भी विश्वास करने की है.

दिन दहाड़े

मेरे पति को जब भी स्कूटर की सर्विसिंग करानी होती तो वे पास के परिचित सर्विस सैंटर पर जा कर बोल देते और बस से औफिस चले जाते थे. सर्विस सैंटर वाले अपना आदमी भेज कर घर से स्कूटर मंगवा लेते और सर्विसिंग कर के वापस भिजवा देते थे. एक दिन दोपहर में एक व्यक्ति आया और स्कूटर की सर्विसिंग की बात कही. मैं ने यह सोच कर कि कल टूर पर जाते समय मेरे पति मुझ से सर्विसिंग की बात बताना भूल गए होंगे, सो मैं ने स्कूटर की चाबी उसे दे दी. वह स्कूटर ले कर चला गया. अगले दिन जब पति टूर से वापस आए तो सर्विसिंग की बात पूछने पर उन्होंने कहा कि उन्होंने तो सर्विस सैंटर वाले से कुछ कहा ही नहीं था. हम से मांग कर स्कूटर ले जाने वाला व्यक्ति सर्विस सैंटर का नहीं, चोर था. अंजुला अग्रवाल, मीरजापुर (उ.प्र.)

*

मेरी बेटी स्कूटी से मेरे पति के साथ जा रही थी. तभी एक बाइकर बारबार उस की स्कूटी में टक्कर मारने की कोशिश कर रहा था. मेरी बेटी ने स्पीड कम कर दी, उसे आगे निकलने का रास्ता दिया. बाइकर ने मेरी बेटी के गले से चेन खींच ली और बाइक तेजी से चलाता हुआ भाग गया. मेरे पति ने 100 नंबर पर पुलिस को फोन किया. 3 पीसीआर आईं, उन्हें बाइक का नंबर और दिशा बताई कि वह किधर गया है. यह सब 2 मिनट के अंतर पर हुआ. किंतु दिल्ली पुलिस के बहादुर जवानों ने उस के पीछे जाने की जहमत न उठा कर बस यह कहा, ‘‘हम कुछ नहीं कर सकते. आप ने पूरी नंबर प्लेट ठीक से नहीं पढ़ी.’’
रेखा, द्वारका (न.दि.)

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मैं अपनी नई मारुति कार से परिवार सहित ससुराल नाहन जा रहा था. नई गाड़ी देख कर चंडीगढ़ पुलिस के एक सिपाही ने सैक्टर 20 सी के चौराहे पर गाड़ी रुकवाई. उस ने कहा कि आप ने यातायात नियमों का उल्लंघन किया है. इसलिए तुम्हारा चालान किया जाएगा. मैं ने कहा, ‘‘सर, मैं ठीक ढंग से ड्राइविंग कर रहा हूं. फिर भी यदि कोई गलती हुई हो तो क्षमा करें.’’ उस ट्रैफिक पुलिस वाले ने सीटी बजा कर कई पुलिस कर्मियों को वहां इकट्ठा कर लिया. फिर 400 रुपए की रिश्वत ले कर मुझे जाने दिया. जब रक्षक ही भक्षक बन कर दिनदहाड़े लूट रहे हों तो लुटेरे तो लूटेंगे ही.
प्रदीप गुप्ता, बिलासपुर (हि.प्र.)

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शाम हो चली थी और एक बस ही जाने को थी. सब की सब सवारियां बस में चढ़ गईं. कंडक्टर बोला, ‘‘अपनेअपने टिकट नीचे उतर कर बनवा लो.’’ भीड़ की वजह से लोग बस से न उतर सके. एक लड़के से कहा गया कि वह नीचे चला जाए और टिकट बनवा लाए. करीब 10 लोगों ने उसे पैसे दे दिए. लड़का गया पर फिर ऊपर नहीं आया. वह सब के पैसे ले कर भाग गया था.

घनश्याम शरण श्रीवास्तव, जालौन (उ.प्र.)

महायोग : दूसरी किस्त

अब तक की कथा :

नील लंदन से अपनी मां के साथ लड़की देखने भारत आया था. दिया व उस के परिवार के ठाटबाट से प्रभावित नील व उस की मां ने विवाह के लिए तुरंत हां कर दी थी. अपनी दादी की कन्यादान करने की जिद तथा पंडित की ‘महायोग’ की भविष्यवाणी ने दिया के पत्रकार बनने के सपने को चिंदीचिंदी कर के हवा में बिखरा दिया.

अब आगे..

यशेंदु के मन में कहीं कुछ हलचल व बेचैनी थी. एक तरफ उन्हें दिया रूपी घर की रोशनी के विलीन हो जाने का गम सता रहा था तो दूसरी ओर मां के प्रति उन का दायित्व व आदर उन्हें उन के चरणों में झुकने को मजबूर कर रहे थे. आज की युवतियों के लिए केवल पति पा जाना ही उपलब्धि नहीं होती, वे पहले अपने भविष्य के प्रति सचेत व चौकन्नी होती हैं. उस के बाद विवाह के बारे में सोचती हैं. दिया का विवाह हुआ पर उसे स्वयं ही विश्वास नहीं हो रहा था कि वाकई उसी का विवाह हुआ है.

दिया सुंदर थी. मुसकराते मुख पर सदा एक चमक बनी रहती. इसी दिया को उस की सहेली के भाई के विवाह में नाचते हुए जब एक परिवार ने देखा तो झट से उन्हें लंदन में बसे हुए अपने घनिष्ट मित्र की याद आई. मित्र की मृत्यु हो चुकी थी, उन की पत्नी और बेटा लंदन में ही रहते थे. मां अपने सुपुत्र के लिए सुंदर, सुघड़ बहू की तलाश कर रही थी. दिया को जिन लोगों ने पसंद कर लिया था वे खोजते हुए दिया की दादी के पास पहुंच गए थे और उन्होंने सारी बात दादी के समक्ष खोल कर रख दी थी. लंदन वाला लड़का अपनी मां के साथ जल्दी ही भारत में दुलहन खोजने आने वाला था. इस से पहले भी वह दुलहन की तलाश में 2-3 बार भारत के चक्कर लगा चुका था. परंतु कहीं पर जन्मपत्री न मिलती तो कहीं उन के हिसाब से सुंदर, सुशील कन्या न मिल पाती. दिया को पसंद करते ही लड़के के पिता के मित्र ने दिया की दादी से मिल कर जन्मपत्री बनवा ली थी और इस प्रकार दिया के जीवन पर विवाह की मुहर लगाने का फैसला करना निश्चित होने जा रहा था.

लड़का गोत्र, धर्म के अनुसार भी उच्च था और सितारों के हिसाब से भी. दादी को बस एक ही बात की हिचक थी कि उन की पोती सात समंदर पार चली जाएगी तो म्लेच्छ हो जाएगी परंतु जब उन्होंने बिचौलिए से यह सुना कि लंदन में बस जाने वाला परिवार अति धार्मिक, पूजापाठ व पंडितपुजारियों को पूजने वाला है तो उन की बाछें खिल गईं. अरे, ऐसा ही तो घरवर चाहिए था उन्हें अपनी पोती के लिए. बस, इतनी दूर. बीच वालों ने आश्वासन दिया, ‘‘अरे अम्माजी, आजकल ये दूरी क्या दूरी है. यशेंदुजी तो कितनी बार औफिस के काम से विदेश जा चुके हैं. पूरी दुनियाभर का दौरा कर लिया है उन्होंने, फिर लंदन तो ये रहा.’’

बीच वालों ने चुटकी बजाते हुए दिया की दादी के समक्ष कुछ ऐसा खाका खींचा कि दादी बिना लड़के को देखे व बिना लड़के की मां से मिले ही विभोर हो गईं और उन पर व यशेंदु पर कुछ ऐसा सम्मोहन हुआ कि उन्होंने पंडित से दोनों की कुंडली मिलवाने का फैसला कर ही लिया. जब कामिनी से ही पूछने की आवश्यकता नहीं समझी गई तो दिया की तो बात ही कहां आती थी? परंतु जब कामिनी के समक्ष बात आई तब वह छटपटा उठी और  उस ने दबे स्वर से विरोध किया भी परंतु उन के पुरोहित के हिसाब से जन्मपत्री इतनी बढि़या मिल रही थी कि मानो संसार के सर्वश्रेष्ठ गुण दिया की झोली में आ पड़ेंगे. कामिनी को लगा कि उस की ही कहानी एक बार फिर दोहराई जा रही है.

कामिनी ने रोती हुई दिया को समझाया था, अभी कौन सा लड़के ने उसे और उस ने लड़के को देख लिया है. अभी दिल्ली दूर है, चिंता न करे. परंतु दिल्ली दूर नहीं थी. 15 दिनों में ही वह सुदर्शन लड़का अपनी मां के साथ अहमदाबाद पधार गया. कामिनी ने कई बार यशेंदु यानी यश से कहा कि वह कम से कम लड़के वालों के मूल का तो पता कर ले. यश ने पूछताछ जो भी की हो, पत्नी को तो अपने खयाल से उस समय संतुष्ट कर ही दिया था, जो वास्तव में अंदर से बहुत अधिक असहज थी.

दिया का भी बुरा हाल था. उस की समझ में नहीं आ रहा था कि उस के घर वाले उसे इस प्रकार घर से खदेड़ने पर क्यों तुले हैं? उत्तर वही था जन्मपत्री का बहुत बढि़या मिलान, क्या ग्रह हैं, सारे गुण मिल रहे हैं न.

‘‘नहीं यश, इस लड़के को हाथ से न जाने देना,’’ दादी बेटे को फुसला रही थीं.

वैसे तो यशेंदु ने भी मन ही मन कहीं कुछ हलचल सी, बेचैनी सी महसूस की थी परंतु मां के बारंबार एक ही बात की पुनरावृत्ति करने व पंडित के दृढ़ विश्वास के कारण उन के मन में भी अपनी बेटी के भविष्य की एक सुखद झांकी सज गई थी. उन की लाड़ली सुंदर, कमसिन व फूल सी प्यारी थी.

हर व्यक्ति को अपनी मानसिक व शारीरिक जरूरतों को पूरा करना होता है. ये जरूरतें नैसर्गिक हैं. ये यदि न हों तो भी व्यक्ति नौर्मल नहीं है और यदि ये पूरी न हों तो भी व्यक्ति नौर्मल न रहे. प्रकृति के साथ किसी भी प्रकार का झगड़ाटंटा मोल लेने की आखिर जरूरत क्या है? अब अपनी बात को बल देने अथवा अपनी बात मनवाने या फिर प्राकृतिक गुणों अथवा अवगुणों को किसी गणना से अपने अनुसार फिट बैठाने के लिए हम जिन उपायों को उपयोग में लाते हैं वे तो हमारे स्वयं के ही बनाए गए होते हैं. परंतु जब गले तक डूब कर हम उन में बारंबार डुबकी लगाते रहते हैं तो कभी न कभी तो थोड़ाबहुत पानी गले के अंदर भी पहुंच ही जाता है. यही हाल यशेंदु का हो रहा था.

उन्हें कभी मां की बात सही लगती तो वे उन के साथ बेटी के ब्याह के स्वप्निल समुद्र में गोते लगाने लगते, कभी फिर कामिनी पर दृष्टि घुमाते तो कामिनी की बात उन्हें काफी हद तक ठीक लगती और जब अपनी लाड़ली पर दृष्टिपात करते तो उन का कलेजा मुंह को आता. हाय, अपनी फूल सी बच्ची को अपनी दृष्टि से इतनी दूर भेज देंगे. उस के जाने से रह क्या जाएगा इस घर में. सारी रोशनी उस के जाते ही विलीन हो जाएगी. परंतु मातापिता की परमभक्ति ने यश का पलड़ा मां

के चरणों में झुका दिया था. सालभर पहले पिता तो पोती का कन्यादान देने की हुड़क मन में समेटे कूच कर गए थे, अब क्या मां भी? नहींनहीं, वे रात को उठ कर बैठ जाते.

कामिनी सबकुछ देखसुन कर भी न कुछ देख पाती, न कुछ सुन पाती. एकाध बार एकांत में पति के सम्मुख उस ने अपनी विचारधारा रखने का प्रयास किया था, ‘‘क्यों नहीं आप, अम्माजी को समझा पाते? आप शिक्षित हैं, दुनिया देखी है. देख रहे हैं, तब भी…’’

‘‘कामिनी, प्लीज, मैं मां के विरुद्ध नहीं जा पाऊंगा, मुझे परेशान मत करो,’’ वे जैसे पत्नी को झिड़क से देते.

कामिनी और भी शांत हो जाती. बेटी का मासूम चेहरा, उस की आंखों के मासूम सपने उस की आंखों में घूमने लगते. और दिया? उसे तो मानो अपने से ही अजीब सी शर्म व अलगाव सा महसूस होने लगा था. कैसे बचाए वह अपनेआप को? उस की कई करीबी सहेलियां थीं जिन्हें इस के बारे में जानकारी थी बल्कि उसी की एक सहेली से ही तो दिया व उस के परिवार के बारे में पूछताछ कर के यह रिश्ता दिया की दादी तक पहुंचा था. जब कभी सहेलियों में चर्चा होती, दिया की प्रशंसा होने लगती :

‘‘वाह दिया, बैठेबिठाए इतना बढि़या रिश्ता.’’

‘‘और क्या, पता नहीं, क्यों यह बिसूरता सा मुंह बनाए रहती है. अरे पहले लड़के को देख तो ले.’’

‘‘कभीकभी अगर कोई छोटामोटा दुर्गुण हो तब भी उसे देख कर मुंह घुमा लेना पड़ता है. तू बेकार ही…’’

दिया खीज जाती. क्या ये सहेलियां वे ही हैं जो उस से अपने पैरों पर खड़े होने की, अपने कैरियर की बातें करती थीं? रिश्ते की बात दिया की हो रही थी और शहनाई इन के दिलों में बजने लगी थी.

‘‘तो भाई, तुम लोगों में से कोई कर लो उस लड़के से शादी,’’ दिया खीज कर बोल उठी थी.

‘‘हमारे ऐसे दिन कहां?’’ एक ने लंबी सांस भर कर कहा और सब की सब खिलखिला कर हंस दी थीं. फिर तो दिया ने कभी कोई बात करने की चेष्टा भी नहीं की. ‘जो होगा, देखा जाएगा,’ उस ने अपने सिर को झटक दिया था और अपने भविष्य के बारे में सिर खपाना ही छोड़ दिया था.

आखिरकार, वह वक्त आया कि मां, बेटा व उन का बिचौलिया दिया के घर में पधारे. नील 27वें वर्ष में लगा था. दिया 19 की हो कर 20वें में लगी थी और ग्रेजुएशन कर रही थी. कामिनी का मन अब उम्र की देहरी पर पहुंच गया. आज के जमाने में कौन उम्र में इतना लंबा गैप रखता है? वह सोच ही रही थी कि भाई के साथ दिया ड्राइंगरूम में आ पहुंची. निर्विकार भाव से वह नमस्ते कर के अपनी मां के पास सोफे पर बैठ गई. नील और उस की मां ने दृष्टि उठा कर दिया को देखा और दोनों के चेहरे खिल उठे.

‘‘बेटी, यहां आ कर बैठो, मेरे पास,’’ नील की मां ने दिया को संकेत से बुलाया परंतु वह वहीं जमी रही.

‘‘अरे शरमा क्यों रही हो, आओ न,’’ उन्होंने फिर उसे बुलाया.

दिया ने एक सरसरी दृष्टि मां कामिनी पर डाली और जा कर नील की मां के पास बैठ गई. उस ने कोई पैरवैर छूने का दिखावा नहीं किया. कुछ ही पल में दिया वहां से उठ कर चल दी थी क्योंकि बड़ा भाई स्वदीप उसे हिदायत दे कर लाया था कि नील ने लड़का हो कर उन की मां के पांव छुए हैं तो वह भी नील की मां के पैर छुए. लेकिन दिया ने बड़े भाई को कुछ ऐसी दृष्टि से घूरा था कि वह सकपका कर वहां से चल दिया था. उसी के पीछेपीछे दिया भी चली आई थी. पर कुछ ही देर में पुन: नील की मां के पास आ कर बैठ गई.

नील की मां दिया से इधरउधर की बातें करती रहीं. उन्हें बताया गया था कि दिया संगीत व नृत्य में भी पारंगत है तो उन्होंने बड़ी प्रसन्नता दिखाई थी. उन के अनुसार, नील उन का इकलौता पुत्र था. सो, उन के घर में सारी रौनक नील व उन के परिवार से ही होनी थी.

जब दिया व नील का परिचय कराया गया तब दिया ने एक बार नील को ठीक से देखा, उस के युवा मन में एक बार तो थोड़ी धुकधुक सी हुई थी परंतु उसे अपने पत्रकारिता के शौक को पूरा न कर पाने का दुख महसूस हो रहा था.

युवा मन न जाने कितने सपने संजोता है. आज की युवतियों के लिए केवल पति पा जाना ही उपलब्धि नहीं होती, वे पहले अपने भविष्य के प्रति सचेत व चौकन्नी होती हैं. उस के बाद विवाह के बारे में सोचती हैं. दिया भी ऐसा ही सोचती थी. उस के घर में सभी तो सुशिक्षित हैं, सभी के शिक्षित स्वप्न हैं. नवीन सोच, नए परिवेश, भारत से विदेश तक लड़की को भेजने की तैयारी पर उसे परोसी जाने वाली थेगली सी चिपकी मानसिक पीड़ा भी. पता नहीं क्या होने को है? कामिनी व दिया की बेचैनी उन के मुख पर पसरी हुई थी.

‘‘आगे क्या करने का विचार है, बेटी?’’ अचानक नील की मां ने चुप्पी तोड़ी.

‘‘जी,’’ दिया ने दृष्टि उठा कर नील की मां की ओर देखा तो उस की दृष्टि नील से जा टकराई. प्रश्न अनुत्तरित रह गया, उस ने अपनी दृष्टि फिर नीची कर ली. शायद नील की दृष्टि के सम्मोहन से बचने के लिए.

‘‘मैं पूछ रही थी आगे क्या करना चाहती हो, दिया?’’ नील की मां ने फिर प्रश्न चाशनी में लपेट कर उस के समक्ष परोस दिया था.

‘‘पत्रकारिता, जर्नलिज्म,’’ उस ने उत्तर दिया व होंठ दबा लिए.

‘ऐसे पूछ रही हैं जैसे मुझे दाखिला ही दिलवा देंगी,’ मन ही मन उस ने बड़बड़ की और एक आह सी ले कर फिर मां को ताका जो निरीह सी अपने पति से सटी बैठी थीं. छुरी तो उस की गरदन पर चलने वाली है और मां हैं कि सबकुछ देखसुन रही हैं. उसे मां से भी नाराजगी थी, बहुत नाराजगी. यह क्या व्यक्तित्व हुआ जो इतना शिक्षित, समझदार होने के बाद भी अपने अस्तित्व को बचा कर न रख सके. एक मां के साथ केवल उस का व्यक्तित्व ही नहीं, बच्चों का अस्तित्व भी जुड़ा रहता है.

‘‘दिया का सपना है कि वह एक दिन पत्रकारिता की दुनिया में अपना नाम कर सके. मीडिया से तो बहुत पहले से ही जुड़ी हुई है, अपने स्कूलटाइम से, इसीलिए मुझे भी लगता है कि इसे अपने कैरियर पर पहले ध्यान देना चाहिए,’’ न जाने कामिनी के मुख से कैसे ये शब्द फटाफट निकल गए. मानो कोई इंजन दौड़ा जा रहा हो. उस दौरान दिया की आंखों की चमक देखते ही बन रही थी. न सही अपने लिए, मां मेरे लिए बोलीं तो सही.

‘‘यस, आई वांट टू गो फौर जर्नलिज्म,’’ दिया ने एकदम जोर से कहा तो सब के चेहरे कामिनी की ओर से मुड़ कर दिया की तरफ हो गए.

‘‘कामिनी, ठीक है पर ये लोग कह रहे हैं कि दिया की पढ़ाई में जरा भी ढील नहीं होगी. सोचो, तुम्हारी बेटी औक्सफोर्ड से जर्नलिज्म करेगी,’’ यश उन्मुक्त गगन में स्वच्छंद विचरण करते पंछी की तरह उड़ान भर रहे थे. नील के सलीके व सुदर्शन व्यक्तित्व ने उन पर भी जादू कर दिया था.

दादी का चेहरा अपने अपमान से झुलसने लगा. उन के सामने इतने वर्षों में कभी भी मुंह न खोलने वाली कामिनी आज बाहर के लोगों के समक्ष…परंतु चालाक थीं, बात को संभालना जानती थीं. बनती हुई बात आखिर बिगड़ने कैसे देतीं? और उन का कन्यादान का सपना? वह तो अधर में ही लटक जाता. यह उन का अहं कभी बरदाश्त न कर पाता. घर में आई तो बेटी बेशक 2 पीढि़यों के बाद ही सही पर उन की ही कमी से? नहीं, वे ऐसा नहीं होने देंगी. उन्होंने वहीं बैठेबैठे पंडितजी की ओर दृष्टि से ही संकेत किया.

‘‘देखिए मांजी,’’ पंडितजी ने दिया की दादी से मुखातिब हो कर कहा, ‘‘अब आप ने हमें यहां बुलाया है तो किसी प्रयोजन से ही न. हम तो पहले ही इस कुंडली का मिलान कर चुके हैं. हम ने आज तक इतने बढि़या ग्रह नहीं देखे. क्या ग्रह हैं. मानो स्वयं रामसीता की कुंडली मेरे हाथ में आ गई हो.’’

पंडितजी बोल तो गए परंतु बाद में उन्होंने अपनी जबान मानो दांतों से काट ली. रामसीता यानी विरह?

नील की मां की आंखों में एक बार हलकी सी निराशा की झलक आई फिर उन्होंने स्वयं को कंट्रोल कर लिया. ‘‘जरा देखें तो सही कामिनीजी, कैसी सुंदर जोड़ी है. सच ही, रामसीता की सी जोड़ी,’’ नील की मां को कुछ तो कहना ही था. उन्होंने पंडित की बात दोहराई तब भी किसी का ध्यान रामसीता पर नहीं गया, मानो सब हां में नतमस्तक हो कर ही बैठे थे.

‘‘देखिए जजमान,’’ पंडितजी ने फिर अपनी नाक घुसाई, ‘‘या तो भगवान, पत्री, सितारों और भाग्य को मानिए नहीं और अगर मानते हैं तो पूरे मन से मानिए. यहां स्पष्ट रूप से सितारे बोल रहे हैं कि दोनों ही एकदूसरे के लिए बने हैं. जब भगवान

ही इन दोनों को जोड़ना चाहता है तो हम लोग हैं कौन उस की बात न मानने वाले. आप चाहें तो किसी और पंडित से बंचवा लें पत्री, मिलवा लें कुंडली.’’ कह कर पंडितजी अपनी पोथीपत्रा समेटने का नाटक करने लगे.

‘‘अरे, क्या बात कर रहे हैं, पंडितजी?’’ दिया की दादी ने उन्हें डपट कर बैठा दिया, ‘‘कितने सालों से हमारे यहां हो. पहले पिताजी आते थे तुम्हारे. अब क्या हम किसी और के पास मारेमारे फिरेंगे. बैठो यहीं पर शांति से,’’ अब किस का साहस कि दादीजी की बात टाल सके. सब मुंह बंद कर के बैठ गए.

‘‘हम ने तो आप को पहले ही नील की जन्मपत्री मंगवा दी थी. आप ने मिलवाई, उस के बाद ही हम ने इन को बुलवाया है. आप तो जानते हैं कि बारबार इतनी दूर से आना, वह भी काम छोड़ कर …’’ अब बिचौलिए से भी नहीं रहा गया.

‘‘देखो दिया बिटिया, तुम्हें नील से कुछ बातवात करनी हो तो…’’ आवाज में कुछ बेरुखी सी थी फिर तुरंत ही संभल कर बोलीं नील की मां, ‘‘मेरा मतलब था कि एक बार बात तो कर लो नील से. अब आजकल सब पढ़ेलिखे बच्चे होते हैं. अपना भलाबुरा समझते हैं. तुम एक बार बात करो नील से, फिर जो भी तुम्हारा डिसीजन हो…’’

‘‘जाओ बिटिया, अपना कमरा तो दिखाओ नील को,’’ दादी ने दिया को आज्ञा दी तो उसे उठना ही पड़ा. मां के इशारे से नील भी दिया के पीछेपीछे हो लिया था.

जिंदगी का पता ही नहीं चलता, अचानक किस मोड़ पर आ कर खड़ी हो जाती है कभीकभी. जिस दिया को विवाह करना ही नहीं था, जिस के सपने अभी अधर में झूमती पतंग की भांति जीवन के आकाश में लहलहा रहे थे, उसी दिया ने न जानेकिन कमजोर क्षणों में विवाह के लिए हामी भर ली. इतनी जल्दी में विवाह हुआ कि उसे स्वयं पर ही विश्वास करने में काफी कठिनाई हुई कि वाकई उसी का विवाह हुआ है. उस जैसी लड़की इतनी आसानी से हां कैसे कर सकती है? पर यह कोई सपना नहीं था, जीवन से जुड़ी एक ऐसी वास्तविकता थी जिस से बंध कर दिया को ताउम्र रहना था.

विवाह के बाद कुछ दिन तो दिया को अभी यहीं रहना था. नील लंदन जा कर प्रौसीजर पूरा करने पर ही दिया को ले जा सकता था. इस प्रकार दिया अपनी सपनीली आंखों का सुनहरा भविष्य संजोने लगी थी. दादी बड़ी प्रसन्न थीं कि वे अपने जीतेजी अपनी पोती का ब्याह देख पाई थीं बल्कि कहें कि इसलिए प्रसन्न थीं कि उन्होंने कन्यादान कर दिया था. दिया अपनी शादी से पहले इस शब्द (कन्यादान) से बहुत चिढ़ती थी. वह अकसर अपनी मां कामिनी से बहस करती, ‘‘यह क्या ममा, लड़की क्या इसलिए होती है कि उसे दान किया जाए? जैसे वह कोई व्यक्ति न हो कर कोई चीज हो. और उस चीज के साथ मानो पूरा घर ही उठा कर उस की झोली में डाल दिया जाता है. कैश, हीरे और सोने के आभूषणों के रूप में दहेज. क्या जरूरत है इन सब की?’’

मां तो क्या उत्तर दे पातीं, पहले ही दादी शुरू हो जातीं, ‘‘अरे बिटिया, जमाने की रीत है. लड़का न हो तो वंश कैसे चले और लड़की का कन्यादान न हो तो भला…ये सब तो तेरा हक है…’’ दादी बीच में रुक जातीं और कुछ समझ में न आता तो कहने लगतीं, ‘‘बिटिया, लड़की तो होती ही है दान के लिए. अब हमारे यहां 3 पीढि़यों से बिटिया नहीं हुई थी. तेरे दादाजी तो इतने निराश हो गए थे कि कुछ न पूछो. जब तू हुई तो उन का मुंह फूल सा खिल गया था और उन्हें लगने लगा कि वे भी अब कन्यादान कर सकेंगे. पंडितजी से कितनी पूजा करवाई थी, पूछ अपनी मां से,’’ दादी बड़े गर्व से बोली थीं, ‘‘क्या शानदार पार्टी दी थी.’’

‘‘तो बिटिया इसलिए पैदा की जाती है कि उसे बड़ा कर के किसी दूसरे को दान कर दें?’’ कह कर दिया चुप हो जाती.

दादी को दिया बहुत प्यारी थी परंतु उन्हें उस का इस प्रकार प्रश्न करना कभी नहीं भाया था. वे कभीकभी यशेंदु से कहतीं भी, ‘‘यश, बेटा ध्यान रखो. लड़की है, दूसरे के घर जाना है. बहुत सिर पर चढ़ा रहे हो.’’

यशेंदु चुप ही बने रहते. बड़ी मुश्किल से तो एक गुलाब सी बिटिया महकी थी घर में. उस पर अंकुश लगाना उन्हें बिलकुल पसंद न था. पर मां के सामने बोलती बंद ही रहती थी.

‘‘अच्छा दादी, तब आप के पंडित कहां थे जब गंधर्व विवाह हुआ करते थे. और हां, वैसे तो आप देवताओं को पूजते हो, राजाओं का गुणगान करते हो, पर ये नहीं देखते कि उन्होंने भी अपनी पसंद से गंधर्व विवाह किए थे, वह सब ठीक था, दादी? तब कौन करता था कन्यादान? और आप को पता है, दान शब्द तो तब भी था ही. कर्ण की दान परंपरा को आज तक लोग मानते हैं और कहते रहते हैं, ‘दानी हो तो कर्ण जैसा.’ पर उसी जमाने में द्रौपदी जैसी औरतें भी हुई हैं. दादी, कुछ लौजिक तो होगा ही न? अच्छा, अपने पंडितजी से पूछिएगा, वे जरूर इस पर कुछ प्रकाश डाल सकेंगे.’’

‘‘दिया बेटा, दादी से इस तरह बात नहीं करते. जो कुछ हुआ है या होता रहा है, दादी ने तुम्हें वे ही कहानियां तो सुनाई हैं,’’ यश अपनी बिटिया को समझाने का प्रयास करते.

‘‘ये लौजिकवौजिक तो मैं जानती नहीं, बस, यह पता है कि हमारे पुरखे भी यही सब करते रहे हैं और हमें भी अपनी परंपराओं में चलना चाहिए,’’ दादी कुछ नाराजगी प्रकट करतीं.

‘‘बेटा, लौजिक यह है कि लड़की इसलिए होनी चाहिए जिस से घर भराभरा रहे. लड़की तो एक चिडि़या की तरह होती है जो घरभर में चींचीं करती हुई घूमती रहती है. अगर लड़की न हो तो मां और दादी लड़कों को कैसे सजाएंगी? कैसे उन के लिए शृंगार की चीजें बनेंगी? लड़की घर की रोशनी होती है, घर की आत्मा होती है. सो लड़की के बिना घर सूना रहता है. वहीं, पहले से ही दुनियाभर में नियम है कि लड़की घर में नहीं खपती,’’ कामिनी उसे समझाने की चेष्टा करतीं.

‘‘खपती, मतलब?’’ दिया ने टोका.

‘‘बता रही हूं, चैन से सुनो तो सही. खपने का मतलब है लड़की को घर में नहीं रखा जा सकता.’’

‘‘यानी लड़का घर में जिंदगीभर रह सकता है, लड़की बोझ बन जाती है?’’

‘‘नहीं पगली, बोझ नहीं. दरअसल, लड़की की सभी जरूरतें पूरी हो सकें इसलिए हमारे समाज ने उसे एक परंपरा या स्ट्रक्चर का रूप दे दिया है ताकि लड़की की शादी कर के उसे दूसरे कुल में भेज दिया जाए. सब को एक साथी की जरूरत होती है न? गंधर्व विवाह में भी तो कन्या अपने पति के साथ उस के घर जाती थी न? अपने पिता के घर तो नहीं रहती थी,’’ ऐसे मामलों में कामिनी अपनी बेटी को समझाने में पूरी जान लगा देती थी.

‘‘अरे ममा, मैं शादी की बात ही कहां कर रही हूं? मैं बात कर रही हूं दान की और ये पंडितजी बीच में कहां से घुस जाते हैं? इन्होंने यह दानवान बनाया होगा. आय एम श्योर.’’

‘‘अरे, पंडितजी को क्यों बीच में घसीट लाती है?’’ दादी बिगड़ कर बोलतीं, ‘‘पंडित न हो तो तुम्हें पत्रीपतरे कौन बांच कर देगा? कौन बताएगा यह समय शुभ और यह अशुभ है?’’

‘‘ओह दादी, जरूरत ही कहां है शुभ और अशुभ समय पूछने की? भगवान, जो आप ही तो कहती हैं, हम सब में है…’’

‘‘हां, तो झूठ कहती हूं क्या मैं…’’ दादी बिफरतीं.

‘‘मैं कहां कह रही हूं कि आप झूठ कहती हैं. मेरा मतलब यह है कि जब हम सब में वही है तब उन का कहना न मान कर इन पंडितों के चक्कर में क्यों पड़ती हैं?’’

‘‘अच्छा, तो वे तुझे साक्षात दर्शन देंगे क्या? कोई तो चाहिए रास्ता सुझाने वाला. तुम कालेज जाती हो? पहले स्कूल जाती थीं. तुम्हें पढ़ाने वाले टीचर नहीं होते वहां? झक मारने जाती हो क्या?’’

‘‘पर वे टीचर अपने सब्जैक्ट के ऐक्सपर्ट होते हैं. आप के पंडितजी क ख ग तक तो जानते नहीं अपने सब्जैक्ट में और…’’

‘‘देख बेटा, मेरे जीतेजी तो पंडितजी का अपमान होगा नहीं इस घर में. मेरे मरने के बाद जैसे तुम लोगों को रहना है रह लेना,’’ दादी और नाराज हो उठतीं. कैसा जमाना आ गया है? वे अच्छी प्रकार जानती थीं कि उन की बहू कामिनी भी इन्हीं विचारों की है परंतु उन्हें इस बात का संतोष भी था कि उन की बहू ने उन के सामने तो कभी अपनी जबान खोली नहीं है अब इस नए जमाने की छोकरी को देखो, क्या पटरपटर बोलती है. भला जिस घर में ब्राह्मण का अपमान हो और वह घर पनप जाए? जिंदगीभर कुलपुरोहित ने उन्हें समयसमय पर सहारा दिया है, चेताया है, हर विघ्न की पूजा करवाई है.

– क्रमश:

फूलों से महकती पूनम की फुलवारी

फूलों और पौधों की खुशबू व हरियाली उन्हें खूब भाती है. रोज के कामकाज से निबट कर वे अपने बगीचे में चली जाती हैं. फूलों और पौधों के बीच समय गुजारना व उन की नियमित रूप से सेवा करना उन की रोज की दिनचर्या में शामिल है. सुबह हो या दोपहर, शाम हो या रात, जब भी मौका मिलता है वे अपने बगीचे में पहुंच जाती हैं. कई खूबसूरत फूलों और सजावटी पौधों की किस्में उन के बगीचे में चार चांद लगा रही हैं, जिन्हें उन्होंने बड़े ही जतन और सलीके से सजायासंवारा है. उन के बगीचे में 300 से ज्यादा कलात्मक गमले हैं और सैकड़ों पौधों को जमीन में क्यारी बना कर लगाया गया है.

झारखंड की राजधानी रांची के मुख्य इलाके रातू रोड के देवी मंडप रोड स्थित स्टेट बैंक औफिसर्स कालोनी के अपने मकान में रहते हैं झारखंड के स्टेट टीबी औफिसर डा. राकेश दयाल व उन की पत्नी पूनम दयाल. पूनम ने अपने घर के पीछे खाली पड़ी जगह को बगीचे का रूप दे रखा है. वे कहती हैं कि 16 साल पहले जब वे अपने घर में आईं तो पति, बच्चों और परिवार की देखरेख में ही समय गुजारना होता था. पति के दफ्तर और बच्चों के स्कूल जाने के बाद वे काफी समय सो कर गुजार देती थीं. घर के पिछले हिस्से में खाली पड़ी जमीन में काफी जंगलझाड़ हो गए थे. कई बार मजदूरों से उसे साफ करवाते थे पर कुछ दिनों बाद फिर से जंगली पेड़पौधे उग आते थे. एक दिन खयाल आया कि क्यों न बेकार पड़ी जमीन में फूलपौधे लगाए जाएं. बचपन से बागबानी का शौक था. उसी शौक को जमीन पर उतारने के लिए जमीन मिल गई. बगीचे की देखरेख कर अब मैं खाली समय का बेहतर इस्तेमाल कर रही हूं.

पूनम बताती हैं कि उन का खिलता और महकता बगीचा पिछले 14-15 सालों की मेहनत का नतीजा है. फूलों की कई किस्में उन के बगीचे को गुलजार कर रही हैं. हर प्राकृतिक प्रेमी की तरह उन्हें भी फूलों का राजा गुलाब काफी पसंद है. उन्होंने अपने बगीचे में कोरल गुलाब, क्रिमसन गुलाब, औरेंज गुलाब, खुबानी गुलाब, कौपर गुलाब, सफेद गुलाब, पीला गुलाब समेत टू टोन गुलाब लगा रखे हैं. इस के अलावा डहेलिया, चमेली, रात की रानी, रजनीगंधा, मुसंडा आदि फूलों की कई किस्में आसपास के माहौल में महक बिखेरती रहती हैं.

मेहनत और लगन चाहिए

पूनम अपने बगीचे के पौधों में हरी खाद या वर्मी कंपोस्ट का इस्तेमाल करती हैं. इस से मिट्टी की गुणवत्ता और ताकत बनी रहती है. उन का मानना है कि कैमिकल खादों के इस्तेमाल से मिट्टी बंजर हो जाती है. बगीचे में ही एक कोने में 8 फुट लंबा, 5 फुट चौड़ा और 4 फुट गहरा गड्ढा बना रखा है. गार्डन को साफ करने के दौरान उखाड़े गए घासपतवार को उस में डाल देती हैं. कुछ गोबरकूड़ा भी डाल कर उसे कुछ समय के लिए सड़ने को छोड़ देने से अच्छीखासी जैविक खाद तैयार हो जाती है. वे कहती हैं कि बागबानी करने के लिए जरूरी औजार आदि रखना आवश्यक होता है. खुरपी और प्लांटकटर काफी जरूरी औजार हैं. खुरपी से पौधों की जड़ों के आसपास मिट्टी को हलका कर देने से उस की जड़ों में हवा व पानी आसानी से पहुंचता है. प्लांटकटर से काफी ज्यादा बड़ी हो चुकी बेढब डालों को काट कर अलग कर पौधों की खूबसूरती को कायम रखा जा सकता है. पूनम दयाल के बगीचे में घूमने से उन की मेहनत, लगन और कलाकारी की झलक महसूस की जा सकती है.

दिल तो बच्चा है जी

कहते हैं इंसान के विचार समुद्र की लहरों की तरह होते हैं. वे हरदम मचलने को तैयार रहते हैं. वहीं उस की भावनाओं की कोई थाह नहीं होती और भावनाएं ही उसे अपनों से जोड़े रखती हैं. लेकिन यह जरूरी नहीं कि भावनात्मक रिश्ता सिर्फ अपनों से ही हो. वह किसी से भी हो सकता है. कई भावनात्मक रिश्ते ऐसे भी होते हैं जिन का कोई नाम नहीं होता. इन में एकदूसरे के प्रति प्रेम, अपनेपन का भाव तो होता है, लेकिन यह जरूरी नहीं कि इन के बीच शारीरिक आकर्षण भी हो. इसे हम दिल का रिश्ता कहते हैं. इस भावनात्मक रिश्ते का न कोई नाम होता है और न ही इस में उम्र का कोई बंधन होता है. यह कभी भी किसी के साथ भी हो सकता है, लेकिन तभी जब दोनों के विचार आपस में मिलते हों.

अभी हाल ही में पाकिस्तान के राष्ट्रपति आसिफ अली जरदारी के 21 वर्षीय बेटे बिलावल भुट्टो और पाकिस्तान की 34 वर्षीय विदेश मंत्री हिना रब्बानी के बीच कुछ ऐसा ही रिश्ता देखने को मिला. इस के बारे में बालाजी ऐक्शन मैडिकल इंस्टीट्यूट की मनोवैज्ञानिक शिल्पी आस्ता का कहना है, ‘‘समय की कमी की वजह से जब हमें अपने साथी से इमोशनल सपोर्ट नहीं मिल पाता तो हमें जहां यह मिलता है, हम उसी की तरफ आकर्षित होते चले जाते हैं.

‘‘आजकल फिजिकल नीड सैकंडरी हो गई है. आज सब को अपने लैवल का साथी चाहिए, एकदम परफैक्ट. वैसे ह्यूमन नेचर यही है कि खानापीना, सैक्स, सेफ्टी मिले तो हम सेफ महसूस करते हैं, लेकिन आजकल लोगों का नजरिया बदल गया है. लोग जिंदगी में ठहराव नहीं चाहते. शारीरिक सुख के साथ उन्हें मानसिक सुख की भी बहुत आवश्यकता होती है. लेकिन अगर आप को अपने लैवल का साथी नहीं मिला है तो इस का मतलब यह नहीं कि आप उसे छोड़ दें या दूसरी ओर मुड़ जाएं. जरूरत है आप को समझदारी दिखाने की. आप समझदारी दिखा कर रिश्ते को संभाल भी सकते हैं.’’

रिश्ते का मूल्यांकन जरूरी: शिल्पी आस्ता आगे कहती हैं कि जहां तक हो सके रिश्ते को संभालने की कोशिश कीजिए. अपने पाटर्नर से रिश्ता तोड़ने से पहले यह जान लीजिए कि रिश्ता तोड़ना आसान होता है पर जोड़ना बहुत कठिन होता है. अगर आप का किसी से इमोशनल रिश्ता बन गया है, तो सोचिए कि क्या सचमुच वह इमोशनल रिश्ता है या आप को उस के साथ सिर्फ टाइम स्पैंड करना अच्छा लग रहा है? यह भी सोचिए कि यह इमोशनल रिश्ता कितने समय तक चलेगा? कहीं ऐसा तो नहीं कि इमोशनल अफेयर की जड़ें भावनात्मक असुरक्षा से ही संबंधित हों. इसलिए सोचविचार कर रिश्तों का मूल्यांकन करें.

क्यों बनता है ऐसा रिश्ता: आज के तनाव भरे माहौल में लोग सुकून के पल तलाशते हैं. खासकर विवाहित पुरुष चाहते हैं कि घर पहुंचने पर पत्नी उन की बातों को सुने व समझे. लेकिन घर व औफिस के कामों में उलझी पत्नी जब ऐसा नहीं कर पाती, तो उस का पति वह सुख बाहर तलाशने लगता है.

यह अकसर देखा जाता है कि कुछ विवाहित लोग अपने साथी को भावनात्मक लगाव प्रदान नहीं कर पाते या अपनी व्यस्त जिंदगी के कारण अपने साथी को जरूरी समय नहीं दे पाते, तो उन का साथी अपना मन बहलाने के लिए अपने दोस्तों या सहकर्मियों के साथ अधिक समय व्यतीत करने लगता है. अगर इन दोस्तों या सहकर्मियों के बीच कोई उसे ऐसा व्यक्ति मिल जाए, जो उस के खाली पड़े भावनात्मक पक्ष को भरने में सफल रहे, तो उस व्यक्ति के साथ यह रिश्ता बनने में ज्यादा समय नहीं लगता.

मौडर्न होता जा रहा रिश्ता: आज के समय में इमोशनल अफेयर्स यानी भावनात्मक रिश्तों के केस तेजी से फैल रहे हैं. इस से विवाहित पुरुष ही नहीं स्त्रियां भी तेजी से जुड़ रही हैं. समय के साथसाथ लोगों की सोच और जीवनशैली में भी तेजी से बदलाव आया है. आजकल शादीशुदा स्त्रियां भी अपना जीवन अपनी मरजी से जी रही हैं, क्योंकि वे पढ़ीलिखी होने के साथसाथ आत्मनिर्भर भी हैं. अगर वे अपने पति से खुद को उपेक्षित या असुरक्षित समझने लगती हैं तो वे भी बाहर ऐसा साथी तलाशने लगती हैं, जो उन्हें इमोशनल सिक्योरिटी दे सके.

ऐसा ही कुछ फिल्म ‘कभी अलविदा न कहना’ में दिखाया गया है. इस में नायिका के विचार अपने पति से नहीं मिलते, जिस से उस का अपने पति से भावनात्मक लगाव नहीं रहता. वह अपने पति से भावनात्मक रूप से जुड़ नहीं पाती. जब दूसरा पुरुष उस की जिंदगी में आता है, जो उसे भावनात्मक सहारा देता है, जिस के विचार उस से मिलते हैं, तो उस के साथ कुछ पल वह सुकून से गुजारती है. आजकल सोशल नैटवर्किंग साइटें अपनी लोकप्रियता के चरम शिखर पर हैं. इन साइटों के जरीए स्त्री हो या पुरुष दोनों ही ऐसे अनजान दोस्तों के संपर्क में आ जाते हैं, जिन्हें भले ही वे न जानते हों, लेकिन उन के साथ वे भावनात्मक जुड़ाव महसूस करने लगते हैं. लगातार एकदूसरे से जुड़े रहने के कारण वे एक ऐसी डोर में बंध जाते हैं जिसे वे कोई नाम नहीं दे सकते.

दोस्तों के साथ भावनात्मक रिश्ता कोई धोखा नहीं है. समय के साथसाथ लोगों की सोच और जीवनशैली में तेजी से बदलाव होता जा रहा है, तभी तो इस हाई टैक्नीक के जमाने में रिश्ते ही हाईटैक होते जा रहे हैं. आजकल कामकाजी पतिपत्नी को अपना ज्यादातर समय औफिस में गुजारना होता है. ऐसे में यदि किसी के विचार अपने सहकर्मी से मिलते हैं, तो वह उसे धीरेधीरे पसंद आने लगता है और वह उस से अपने दिल की बातें शेयर करने लगता है. तब न चाहते हुए भी उन में एकदूसरे के प्रति भावनात्मक संबंध पनपने लगता है.

शिल्पी आस्ता कहती हैं कि स्त्रियां ज्यादा इमोशनल होती हैं, जबकि पुरुष प्रैक्टिकल सोच रखते हैं. इसलिए स्त्रियों को भावुकता के प्रति ज्यादा सतर्क रहने की जरूरत है. एक सर्वेक्षण के मुताबिक, रिश्ते को संजीदा बनाए रखने के लिए लगभग आधी महिलाएं आत्मीयता और भावनात्मक लगाव को ही महत्त्वपूर्ण मानती हैं. केवल 2 फीसदी महिलाएं ही ऐसी हैं, जो शारीरिक संबंधों को महत्त्व देती हैं. अब निंदनीय नहीं यह रिश्ता: अब लोग ऐसे रिश्ते में कोई बुराई नहीं मानते क्योंकि उन्हें ऐसा महसूस होता है कि भावनात्मक लगाव व्यक्ति का मनोबल बढ़ाता है. यह रिश्ता जब बनता है तब व्यक्ति उत्साह से भरा हुआ होता है और यही उत्साह उसे काम में आगे बढ़ने की प्रेरणा देता है, जिस से व्यक्ति सुकून भरी जिंदगी गुजारता है.

ऐसे रिश्ते को गलत न मानते हुए एक भावनात्मक और स्वस्थ रिश्ते की शुरुआत कह सकते हैं. इस रिश्ते में एक ऐसा दोस्त होता है, जिस के साथ वह अपने सुखदुख बांट सकता है. जो उस के सुखदुख, परेशानियों में उस का भरपूर साथ देता है और कदमकदम पर अच्छेबुरे का ज्ञान कराता है. अपने जीवनसाथी की उपेक्षा झेल रहे व्यक्ति का बाहर किसी के साथ एक स्वस्थ संबंध बनाना गलत नहीं है. अगर उस के साथ वह खुशी के कुछ पल बिता ले, जो उसे सुकून दें तो इस में कुछ बुराई नहीं है. भावनात्मक लगाव बदलते युग का एक चलन बन गया है, जिसे कुछ लोग सहजता से स्वीकार कर रहे हैं, क्योंकि इस से उन को आत्मिक खुशी मिल रही है.

आस

श्वेत से जिस्म पर प्रेम की निशानी
देख ले कोई तो कह दे कहानी
होंठ का स्पर्श उंगली के पोर
वाणी है मूक बस सांसों का शोर
उस के छूने का अंदाज निराला है
आंख छलकती हुई मय का प्याला है
 

भूल गई मैं किस दुनिया में हूं
नशा है, मस्ती है, वो एक मधुशाला है
सच है प्यार, मन का चैन है
बिन उस के देह बेचैन है
कैसी तृष्णा कैसी प्यास है
फिर से उस के आने की आस है.

कौम दे हीरे पर विवाद

आएदिन फिल्मों पर विवाद और प्रतिबंध की खबरें सुर्खियां बटोरती रहती हैं. ताजा मामला फिल्म ‘कौम दे हीरे’ का है जो दूसरों से जुदा है. इस पंजाबी फिल्म पर गृह मंत्रालय के एतराज के बाद सूचना एवं प्रसारण मंत्रालय ने रोक लगा दी है. लिहाजा, फिल्म तय समय पर रिलीज नहीं हो पा रही है. सूचना एवं प्रसारण मंत्रालय को लिखे पत्र में गृह मंत्रालय ने कहा कि यह फिल्म पंजाब और उत्तर भारत के अन्य राज्यों में सांप्रदायिक सौहार्द को प्रभावित कर सकती है. गौरतलब है कि भूतपूर्व प्रधानमंत्री इंदिरा गांधी के हत्यारों सतवंत सिंह और बेअंत सिंह पर बनी इस फिल्म को सियासी विरोध और प्रतिबंध की मांगों का सामना करना पड़ रहा है.

औस्कर की दौड़

इस साल भारत की ओर से बंगला फिल्म ‘जातीश्वर’ औस्कर के लिए भेजी जा सकती है. रवींद्र संगीत की पृष्ठभूमि पर बनी इस फिल्म को 4 राष्ट्रीय फिल्म पुरस्कार मिल चुके हैं. फिल्म को दर्शकों और आलोचकों से अच्छी सराहना मिली है. सृजित मुखर्जी निर्देशित इस फिल्म में बंगला फिल्मों के सुपरस्टार प्रोसेनजीत चटर्जी ने लीड रोल निभाया है. एंटनी फिरिंगी पर बेस्ड इस फिल्म के मुख्य अभिनेता प्रोसेनजीत चटर्जी ने सोशल साइट पर कहा कि यह मेरे लिए गर्व का क्षण है. जातीश्वर की टीम की कड़ी मेहनत को उस का फल मिलने जा रहा है और यह औस्कर नामांकन के लिए चयनित होने जा रही है. देखना होगा की औस्कर की दौड़ में यह फिल्म कहां तक पहुंचती है.

विवेक का कैंपेन

फिल्म अभिनेता विवेक ओबराय को हमेशा से सामाजिक कार्यों से लगाव रहा है. पहले वे ऐंटी स्मोकिंग कैंपेन का हिस्सा थे और अब वे रक्तदान को ले कर लोगों में जागरूकता फैलाने का काम कर रहे हैं. इस के लिए विवेक देश का सब से बड़ा रक्तदान शिविर लगाने जा रहे हैं. शिविर के जरिए विवेक देश के युवाओं से रक्तदान करवा कर विश्व रिकौर्ड बनाने की तैयारी में हैं. इस मुहिम के तहत विवेक एक संस्था के साथ मिल कर करीब 300 शहरों में 700 से भी ज्यादा रक्तदान शिविर लगाएंगे और करीब 1.25 लाख यूनिट खून इकट्ठा कर के विश्व रिकौर्ड बनाने की उम्मीद लगा रहे हैं.

नहीं रहे रिचर्ड

राष्ट्रपिता महात्मा गांधी पर औस्कर विजेता फिल्म न बनाने वाले निर्देशक रिचर्ड एटेनबरो अब इस दुनिया में नहीं हैं. 24 अगस्त को उन का 90 वर्ष की उम्र में देहांत हो गया. गौरतलब है कि रिचर्ड बीमारी के चलते काफी अरसे से व्हीलचेयर पर थे. करीब 6 साल पहले सीढि़यों से गिरने की वजह से उन्हें व्हीलचेयर की मदद लेनी पड़ रही थी. हौलीवुड में यों तो उन्होंने कई फिल्में बनाईं पर भारत में उन की प्रसिद्धि महात्मा गांधी की जीवनी पर बनाई फिल्म ‘गांधी’ को ले कर हुई. रिचर्ड  ‘ब्राइटन रौक’, ‘द गे्रट एस्केप’ और ‘जुरासिक पार्क’ जैसी फिल्मों से भी जुड़े रहे. फिल्म गांधी के लिए उन्हें 2 औस्कर मिले. रिचर्ड फिल्मप्रेमियों को हमेशा याद आएंगे.

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