वह एक सीमा थी. सीमा पर तैनात वे एक सेनानी थे. सीमा भौगोलिक न थी, देश की न थी. सीमा जिंदगी और मौत की थी. वे सेना से रिटायर्ड थे, मैं सरकारी नौकरी से. गुर्दे उन के खराब थे और मेरे भी. डायलेसिस कराने के लिए सप्ताह के 3 दिन अस्पताल के इसी कक्ष में वे भी और मैं भी. इस कक्ष में एक बार में 12 लोग डायलेसिस की प्रक्रिया में होते हैं.

शरीर में जब द्रव की मात्रा अधिक हो तो डायलेसिस कराने की जरूरत होती है और अगर इस प्रक्रिया में देर होती है तो पानी फेफड़ों में भर जाता है. फेफड़ों में पानी के भरने का मतलब सांस का न आना है और यह तो बताने की जरूरत ही नहीं कि सांस का न आना मतलब कथा का समाप्त हो जाना है. फेफड़ों के पानी से पूरे भर जाने में आधे घंटे का समय लगता है क्योंकि इंसान पानी में डूब नहीं रहा कि 2 मिनट का समय लगे. यह पानी तो शरीर का ही है जो धीरेधीरे हर सांस के साथ चढ़ता है. ब्लडप्रैशर बढ़ा, पानी चढ़ा. पानी चढ़ा, ब्लडप्रैशर बढ़ा. दोनों ऐसे बढ़ते हैं मानो मृत्यु को झट से छू लेंगे.

जीवनमृत्यु की इस लुकाछिपी को आएदिन देखने का संजोग होता है. मेरी सांस फूल रही थी यानी फेफड़ों में पानी भर रहा था. औक्सीजन का सिलैंडर ले कर हम घर से चले थे. औक्सीजन के बावजूद बेचैनी बढ़ रही थी. फेफड़ों में पानी भर जाएगा तो फिर औक्सीजन जाएगी कहां?

मैं व्हीलचेयर पर थी, औक्सीजन मास्क लगा हुआ था. बेचैनी का आलम यह कि वह हर सांस के साथ बढ़ती जाए. फेफड़ों में चढ़ते पानी के साथ बेचैनी बढ़ती जाती है तेजी के साथ. डायलेसिस कक्ष में मैं उपस्थित थी किंतु कोई बैड खाली नहीं था. अपनेअपने बिस्तर पर पड़े सब लोग मुझे आधा जिंदा आधा मुर्दा लगते हैं. शायद बिस्तर पर पड़ी मैं भी ऐसी ही दिखाई देती होऊंगी.

आगे की कहानी पढ़ने के लिए सब्सक्राइब करें

डिजिटल

(1 साल)
USD10
 
सब्सक्राइब करें

डिजिटल + 24 प्रिंट मैगजीन

(1 साल)
USD79
 
सब्सक्राइब करें
और कहानियां पढ़ने के लिए क्लिक करें...