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‘‘महादेव, तुम्हारी बात हमारी सम?ा में नहीं आ रही है,’’ सोसाइटी के प्रैसिडैंट के रामलाल गुप्ताजी ने तैश में आ कर कहा. रामलाल गुप्ताजी महादेव के बहनोई चाचा भी थे और उसी सोसाइटी में रहते थे. उन्होंने ही महादेव को मकान खरीदने की सलाह दी थी.

‘‘आप ने ठीक कहा गुप्ताजी. आप की सम?ा में नहीं आएगी, न मैं सम?ा ही सकता हूं. लेकिन आप को इतना बता

दूं कि मैं किसी को भी भोजन

नहीं कराऊंगा.’’

‘‘यह तुम्हारी मरजी. लेकिन, जब तुम्हारे पिता का देहांत हुआ था तो तुम्हारे पिता पंडित दीनानाथ ने जो भोज किया था उस में उन्होंने, ईश्वर मु?ा से ?ाठ न बुलवाए, 500 लोगों को खिलाया था. यह तो तुम से रिश्तेदारी होने की वजह से इतना कह रहा हूं.’’

‘‘वह तो 20-25 साल पहले की बात हो गई. तब न कैंसर था, न कोविड और जब घी रुपए का दो सेर मिलता था.’’

‘‘हम कब इनकार करते हैं. इसी वजह से हम कहते हैं कि तुम 500 लोगों को न सही, दोस्तों, संबंधियों और ब्राह्मणों को तो भोजन कराओ.’’

‘‘मैं नहीं कराऊंगा.’’

‘‘तो तुम्हारे पितरों की आत्माएं भटकती रहेंगी और उन्हें हमेशा असंतोष रहेगा. वे न तुम्हें चैन लेने देंगे और न तुम्हारे कुनबे को. देखो, मैं ने अब पढ़ा

है व्हाट्सऐप पर कि अगर भोजन नहीं कराओगे तो तुम डिप्रैशन में आ सकते हो. इतने लोग आएंगे तो घर में

रौनक होगी.’’

‘‘मु?ो इस की चिंता नहीं है. मेरी बला से वे भटकें या आराम करें. जो नहीं आएंगे, उन की भी चिंता नहीं है.’’

‘‘बेटा, ऐसी कुभाषा मुंह से नहीं निकालते. न जाने ‘ऊपरवाला’ इस की क्या सजा दे. तुम शादीशुदा आदमी हो, ऐसा वचन आगे से कभी मत बोलना,’’ कह कर चाचाजी चले गए.

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