हमारे महल्ले के वरिष्ठ नागरिकों के पास एकदूसरे की टांग खींचने के सिवा कोई काम नहीं. दूसरे काम वे कर भी नहीं सकते. सुबह चाय ली और लग गए आज जिस की टांग खींचनी है, उस प्रोजैक्ट पर काम करने. चाय के बाद बैठे तो प्रभु पूजन को परलोक सुधारने के लिए, लेकिन दिमाग में प्रोजैक्ट वही. बैठे हैं प्रभु भजन को, सोचन रहे टांग. वैसे, गीता में कहा भी है कि कर्म ही पूजा है. यहां कुकर्म/सुकर्म कुछ नहीं. सब व्यक्ति सापेक्ष है. जो बलवान है उस के कुकर्म सुकर्मों से भी आगे का फल देते हैं.

फिर लंच किया और दो घड़ी सुस्तातेसुस्ताते भी लगे रहे किसी की टांग खींचने के प्लान को अमली जामा पहनाने, भले ही खुद उस वक्त पाजामा पहना हो या न. रात को डिनर किया और डिनर के बाद बिस्तर पर पड़ेपड़े करते रहे मंथन कि आज जिस की टांग खींची थी, उस में कहां, कैसे, क्या तकनीकी कमी रह गई थी जो टांग खींचने के बदले उस की टांग मरोड़ने के बाद भी मजा नहीं आया ताकि कल जो किसी की टांग खींची जाए तो वह कमी न रहे.

इसी क्रम के उपक्रम में हर रोज आठ पहर चौबीस घंटे अपने महल्ले के कुछ खास वरिष्ठ टाइप के वरिष्ठ चैलेंज देते हुए दूसरों की टांग खींचने का परमानंद लेते हैं तो कुछ दब्बू टाइप के टांगखेंचू या सरेआम जिन में टांग खींचने का दुस्साहस नहीं होता वे परोक्ष में किसी दूसरे की टांग पर अपनी टांग रख दूसरों की टांग खींचने का जौहर दिखाते हैं.

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