स्कूल बस का ड्राइवर बेसब्री से हौर्न बजाए जा रहा था. श्रेया अपने दोनों बच्चों को लगभग घसीटती हुई बस की ओर भागी कि अगर बस छूट गई तो फिर उन्हें स्कूल पहुंचाने का झंझट हो जाएगा. पल्लव स्कूटर से छोड़ भी आएंगे तो उस के लिए श्रेया को एक लंबा लैक्चर सुनना पड़ेगा, ‘थोड़ा जल्दी उठा करो. आखिर बस वाले को पैसे किस बात के लिए दिए जाते हैं.’

इस पर श्रेया चिढ़ कर मन ही मन बुदबुदाती कि क्या सारी जिम्मेदारी मेरी है? बच्चे हैं या आफत की पुडि़या? थोड़ी जल्दी उठ कर उन्हें तैयार करने में खुद मदद कर दें, यह होता नहीं.

किंतु आवाज श्रेया के गले में घुट कर ही रह जाती, क्योंकि उस समय ड्राइंगरूम में परिवार के अन्य सदस्य चाय की चुसकियां ले रहे होते. उन के हाथ में ताजा अखबार होती थी, सुर्खियों पर टीकाटिप्पणी चल रही होगी. उस के कुछ कहने पर सभी उसे कुछ ऐसी निगाहों से देखेंगे जैसे वह लंबी सजा काट कर घर लौटी हो. एकाध फिकरे भी कसे जाएंगे, जैसे ‘जब मालूम है कि बस पौने 7 बजे आती है तो साढ़े 6 बजे तक बच्चों को तैयार कर लिया जाए.’

लगभग दौड़ते हुए श्रेया ने सड़क पार की कि बस चली न जाए. बस ड्राइवर ने श्रेया, बिट्टू और चिंटी को देख लिया था. वह धीरे से मुसकराया, क्योंकि अकसर ऐसी स्थितियों का सामना उसे रोज ही करना पड़ता है. बस रुकी देख श्रेया की जान में जान आई.

उस का घर भी तो गली के आखिरी छोर पर है. सड़क से दूरी चौथाई किलोमीटर से कम न होगी. यह कालोनी नई ही बसी है, सो सड़क अभी कच्ची ही है. जगहजगह बालू, कंकरीट और ईंटें बिखरी पड़ी हैं.

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