ड्यूटी खत्म कर मैं शाम को घर लौट रहा था कि तभी ताज कंपाउंड में एक दुकान के सामने वाली 3 मंजिला पीली बिल्डिंग के मैनगेट से हनीफ और उस के बेटे को निकलते देख कर बाइक धीमी कर दी. बिल्डिंग के नेमप्लेट पर सुनहरे अक्षरों में लिखा था ‘सुल्तान मंसूरी, टीसी, प्रैसीडेंट, पसमांदा वैलफेयर समिति.’
मैं ने पूछा,”यहां किस काम से आए?’’
हनीफ के चेहरे पर खिंची मायूसी और फिक्र के घनेरे बादल देख कर बात जबान पर ही ठहर गई, “जी…जी…हां… नहीं… कुछ खास नहीं. बस, एक फैमिली मैटर पर सलाह लेने आया था, प्रेसिडैंट साहब से,’’ आवाज में खुरदुरापन और झुंझलाहट साफ झलक रही थी. वह चाह कर भी अपनी समस्या छिपा नहीं सका.
‘‘चलिए, चौक पर एक रेस्तरां में मिलते हैं, तब तफसील से बात करेंगे. सब ठीक हो जाएगा,’’ मैं ने बाइक स्टार्ट कर दी.
मेरा क्लासफैलो हनीफ 6 बहनों का अकेला भाई है. पिता की बेहद तंग और आर्थिक स्थिति के कारण 6वीं कक्षा से आगे नहीं पढ़ सका. बाजार जा कर ठेले पर रैडिमेड कपड़े बेच कर रोजीरोटी की जुगाड़ करने लगा. फिर किसी रैडिमेड गारमैंट की दुकान पर नौकरी करने लगा.
कुशाग्र, मेहनती और लच्छेदार बातों से प्रभावित कर किसी भी ग्राहक को खाली हाथ लौटने न देने का गुण रखने वाले हनीफ ने 25 साल की उम्र में किराए की दुकान ले कर अपनी रैडीमेड गारमैंट की थोक दुकान खोल ली. कानपुर, दिल्ली से माल ला कर
दुकानों को सप्लाई करने लगा.
3 साल बाद उस ने दूसरी दुकान खरीद ली और मार्केट में अपनी साख बना ली. देखते ही देखते उस की जद्दोजेहद और मेहनतकशी ने उसे 2-2 बिल्डिंगों का मालिक बना दिया. उस का घर बच्चों की किलकारियों से गूंजने लगी. खुशमिजाज, मिलनसार इंसान के तौर पर उस का व्यक्तित्व लोकप्रिय होने लगा.
चाय की दुकान पर हमारी रोज मुलाकात होती और बातचीत का सिलसिला भी देर तक चलता. लेकिन 3 साल पहले मेरे और उस के बीच कुछ ऐसा घटा था जिस की कड़वाहट आज भी मेरे दिलोदिमाग में बसी थी. यहां तक कि हमारा सलामकलाम भी बंद हो गया. उस तल्ख हादसे के बाद मैं उस के घर से हो कर जाने वाली सड़क पर से भी नहीं गुजरता. सालों बाद हनीफ को यकायक सामने देख कर मन कसैला तो बहुत हुआ लेकिन उस के चेहरे पर उड़ती हवाइयां और माथे की सिलवटें देख कर इंसानी रिश्ते का ऐहतराम करते हुए बात करनी पड़ी.
अभी अपने दरवाजे पर बाइक खड़ी कर ही रहा था कि तीसरी बेटी की चहकती आवाज ने आकर्षित कर लिया, ‘‘अब्बू, अभी घर के अंदर नहीं आएंगे आप? पहले जा कर कुछ मीठा ले आइए. फिर धमाकेदार खबर सुनिए,’’ शोख, चंचल और हंसमुख बेटी दरवाजे पर रास्ता रोक कर खड़ी हो गई.
“अच्छाअच्छा बेटी, पहले खबर तो सुना दीजिए. फिर हवा की तरह जा कर तूफान की तरह मिठाई ले कर लौट कर आते हैं,’’ मैं बेटी की मासूमियतभरी अदा पर मुसकरा कर बोला.
‘‘अब्बू, इस मोटी ने इंजीनियरिंग इंट्रेस ऐग्जाम में बेहतरीन रैंक हासिल किया है,’’ मंझली बेटी छोटी को पीछे खींच कर खुश हो कर बोली.
‘‘वाहवाह, आप से ऐसी ही उम्मीद थी. शाबाश मेरा बेटा,’’ कहते हुए जलतरंग सी हंसी वाली बेटी का माथा चूम लिया तो वह मुझ से लिपट गई. मारे खुशी के मेरी पलकों की कोरें भीगती देख कर दोनों बेटियों और बीवी की आंखें भी छलछला गईं.
मैं रेस्तरां से बाहर हनीफ का इंतजार करने लगा. ऐसा क्या घट गया कि हनीफ जैसे मजबूत और निडर शख्स को इतना गमजदा बना दिया. हनीफ और मैं धीरेधीरे एक जगह पर बैठ गए.
हनीफ थोड़ी देर तक टोपी की तह बनाता और खोलता रहा. उस के अंदर की बेचैनी को जुमले बनाने में वक्त लगा,”वे मऊरानीपुर वाले हमारे समधी हैं न, अजमेरी साहब. कल अपनी अहलिया के साथ आ कर मेरी बेटी निशात को घर पर छोड़ गए.’’
मऊरानीपुर वाले अजमेरी साहब के तीसरे बेटे से पिछले साल ही हनीफ ने अपनी बेटी निशात का निकाह पढ़वाया था, जो एक बेटी की मां भी बन गर्ई थी.
‘‘लेकिन क्यों?’’ मैं आश्चर्यचकित रह गया. मुझे याद है, हनीफ मंसूरी को अपनी बेटी की शादी में दिल खोल कर खर्च करते देख मंसूरी समाज के आर्थिक तौर पर कमजोर लोगों को अपनी बेटियों का भविष्य खतरे में पड़ता दिखाई देने लगा था.
‘‘पक्यात के समय ₹5 लाख से एक धेला कम नहीं,’’ समधिन अड़ गई थीं. बहुत समझाया लेकिन हनीफ को लड़के की मां की मांग पूरी करनी पड़ी.
‘‘लड़का सरकारी नौकरी करता है. महीने की बंधीबधाई पगार है, साथ में सरकारी सुविधाएं… बेटी की आरामदेह जिंदगी की गारंटी है,’’ माअशरे के लोगों ने समझाया था.
तीनसितारा होटल में बारात के ठहरने का इंतजाम, कार, गृहस्थी की जरूरतों की तमाम चीजें और डिजाइन की चीजें. समधिन के लिए सोने का सैट. समधी, देवर एवं ननदों के साथ उन के शौहरों और बच्चों को सोने की चैन, अंगूठियां एवं कान के झुमके, बारात में आए मर्दऔरतों के लिए सूट. घरातीबारातियों के लिए बुफे सिस्टम में कई डिशेज वाला खाना और स्नैक्स. कुल मिला कर ₹15 लाख खर्च किए थे हनीफ ने अपनी बेटी की शादी पर.
1 साल ही में नवासी पैदा हो गई तो बच्चे के लिए जेवर, झूला, बिस्तर, गरम कपड़े, पूरे घर के लिए कपड़े… पूरे ₹3 लाख और खर्च किए थे हनीफ ने. इतना सब देने के बावजूद बेटी को हनीफ के घर वापस छोड़ जाने पर समधियाने की नीयत और बरताव पर ढेर सारे सवाल उठने लगे.
“उस की सास अकसर कहती है कि बेटी को बीए की डिगरी तो दिलवा दी है, लेकिन ससुराल में रहने और निभनेनिभाने का तरीकासलीका नहीं सिखलाया गया है. घर का सारा कामकाज आता है, यह भी झूठ बोला था मांबाप ने. बात करने तक की तमीज नहीं है. शौहर को ले कर अलग रहने की प्लानिंग कर रही है.
“सास कहती हैं कि कल की छोकरी हमें तौरतरीके सिखला रही है. बातबात पर अपने बिजनैसमैन बाप की दौलत का घमंड दिखलाती है. सुन कर लगता है कि इतना पैसे वाला व्यापारी बाप कहीं अरब का बादशाह तो नहीं है. ऐसी छोटीछोटी, तर्कहीन, अर्थहीन बातें कर के मेरी बेटी का जीना हराम कर दिया है अजमेरी के घर वालों ने,’’ बतलाते हुए हनीफ का गला भर आया था.
बेटी का दर्द मुझ से भला ज्यादा और कौन समझ सकता है. मैं ने उस के कंधे पर हमदर्दी भरा हाथ रखा तो वह कमजोर दीवार की तरह बिखरने लगा. हनीफ के 1-1 शब्द उन की जाहिलियत, लालचीपन की कलई खोल रहा था.