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"अरे रे, रोकना," रमा ने एक बार जब फिर राहुल से कार रुकवाई, तो राहुल के मुंह से निकल पड़ा, "ओह नो."

सामने उस के वही चिरपरिचित हनुमानजी का मंदिर था जिस को वह रोज ही यहां से गुजरते हुए देखता था. पहले यह छोटा सा मंदिर था. देखते ही देखते मंदिर ने भव्य रूप ले लिया था. बढ़ते ट्रैफिक और रोज जाम जैसी स्थिति पैदा होने के मद्देनजर सड़कों को चौड़ी करने के लिए कई अवैध रूप से कब्जा की हुई इमारतों, छोटीमोटी दुकानों को हटा दिया गया. लेकिन इस मंदिर को छूने की हिम्मत किसी को न हुई. सड़क चौड़ी हुई, ट्रैफिक प्लान भी बदला. लेकिन यह मंदिर अपनी जगह पर जस का तस रहा. हां, इस का स्वरूप बदलता रहा. मंदिर में एक के बाद एक भगवान की प्रतिमाएं स्थापित होती रहीं और मंदिर का आकार छोटे से बड़ा होता गया. एक विशालकाय हनुमानजी की प्रतिमा मंदिर के बाहर ऊपर स्थापित कर दी गई. बाईं ओर से एक सड़क जाती और दाईं ओर से दूसरी. रास्ता वन-वे हो गया. वैसे तो मंदिर का मुख्यद्वार सड़क के दाईं ओर खुलता था, लेकिन हनुमानजी की प्रतिमा सड़क को 2 भागों में विभाजित करने वाले स्थान पर मंदिर के ऊपर स्थापित की हुई थी. सिंदूरी रंग की विशालकाय मूर्ति बरबस ही लोगों का ध्यान अपनी ओर खींच लेती थी.

राहुल को जो बात सब से ज्यादा अखरती थी, वह थी, वे 2 दुकानें.  मंदिर के बाईं ओर शराब की दुकान और दाईं ओर चिकन कौर्नर.  रोज शाम को इन 2 दुकानों में  जितनी भीड़ उमड़ती थी, उतनी भीड़ तो मंदिर में भी नहीं उमड़ती. बजरंगबलीजी भले ही बल में अव्वल हों, मगर लोकतंत्र के पैमाने में कहीं टिक नहीं पाते थे. सामने बड़ी सी हनुमानजी की प्रतिमा और उन के दोनों तरफ ये दुकानें एक अजीब सा विरोधाभास उत्पन्न करती थीं. शाम को मंदिर में होती आरती और शंखनाद की ध्वनि इन 2 दुकानों में भीड़ से उत्पन्न कोलाहल में दब के रह जाती. यह दृश्य राहुल को बहुत ही हास्यास्पद लगता था. हनुमानजी को क्या देखने को मिल रहा...यह विचार आते ही राहुल को हंसी आ जाती. कभीकभी तो मन करता राहुल का कि हनुमानजी की मूर्ति को कपड़े से ढक दे या इन 2 दुकानों को यहां से हटा दे, इन में दूसरा विकल्प बिलकुल भी संभव न था.

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