सर्दी की खिलीखिली सी दोपहर में जैसे ही स्कूल की छुट्टी की घंटी बजी, मैं और मेरी सहेली सुजाता रोज की तरह स्कूल से बाहर आ गए. स्कूल के गेट के बाहर छोटेछोटे दुकानदारों ने अपनी अस्थायी दुकानें सड़क के किनारे, ठेले पर और साइकिल के पीछे लगे कैरियर पर बंधे लकड़ी के डब्बों में सजा रखी थीं, जिन में बच्चों को आकर्षित करने के लिए तरहतरह की टौफियां, चाट, सस्ती गेंदें व खिलौने के अलावा पेनकौपी भी थीं.

मैं ने एक साइकिल वाले से अपना पसंदीदा खट्टामीठा चूरन लिया और सुजाता के साथ रेलवे लाइन की ओर बढ़ गई. सुजाता बारबार मेरी ओर बेचैनी से देख रही थी, लेकिन कुछ बोल नहीं रही थी. रेलवे लाइन पार करने के बाद आखिरकार उस से रहा नहीं गया और उस ने मुझ से पूछा, "नीलम, सुना है, आज तेरी विकास से लड़ाई हो गई थी?"

"हां, तो उस में कौन सी नई बात है. अकसर होती है, पर बाद में दोस्ती भी तो हो जाती है," मैं ने लापरवाही से चूरन की पुड़िया से उंगली में चूरन ले कर चाटते हुए कहा.

"बात तो कुछ नहीं, लेकिन मुझे पता चला कि उस ने तेरे हाथ पर काट भी लिया था," उस ने बहुत रहस्यात्मक ढंग से कहा, तो मैं ने उस की ओर सवालिया निगाह से देखा और फिर अपने हाथ को देखा, जहां उस ने काटा था, अब तो वहां कोई निशान भी नहीं दिख रहा था.

"तो क्या हुआ? अब तो ठीक है सब. मैं ने भी उस के 2 बार काटा बदले में," मैं ने शेखी बघारते हुए उसे बताया, जबकि मैं खुद डेढ़ पसली की थी. 10 साल की उम्र के हिसाब से मैं काफी दुबली थी, जबकि मेरी हमउम्र सहेलियां मुझ से बड़ी दिखती थीं.

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