लेखक-कमल कुमार

‘‘बौबी आता, ‘हाय ग्रैंड मां,’ कह कर चला जाता. उस के कानों में हमेशा ईयरफोन लगा रहता. वह या मोबाइल पर होता या आईपैड पर गाने सुन रहा होता. या फिर टीवी देखता, नहीं तो लैपटौप लिए बैठा रहता. उसे कितनी भी आवाजें लगाओ, उस तक आवाज पहुंचती ही नहीं. पहुंचती कैसे?

‘‘वह गलत कहां था? मैं भी गलत कहां थी. वहां घर के अंदरबाहर सायंसायं करता सन्नाटा पसरा रहता. यहां आ गई हूं, तो बीते दिनों की परछाइयों से घिरी रहती हूं. सोचती हूं, यह घर बेच दूं. कोई दूसरा घर ले लूं या ओल्डएज होम चली जाऊं. पर वहां भी जगह नहीं मिली.’’

‘‘अगर आप चाहेंगी तो इसे बेचने की कोशिश की जा सकती है, तब तक,’’ वह हिचकिचाया था, ‘‘आप मेरे फ्लैट के बाहर वाले हिस्से में रह सकती हैं. आप चाहें तो चल कर देख लें पहले.’’

‘‘चलिए, चलते हैं,’’ कह कर वह उठी थी. हाथमुंह धो कर, साड़ी बदल कर आ गई थी.

उस ने उसे कमरा दिखाया था. कमरे के साथ बालकनी थी. साथ का स्टोर, किचन की तरह इस्तेमाल हो सकता था. ‘‘आइए बैठिए,’’ वह चाय बना लाया था.

‘‘आप का परिवार? पत्नी और बच्चे?’’ वह इधरउधर देख रही थी.

‘‘मैं भी अकेला ही रहता हूं. मेरी पत्नी अब नहीं है. मेरे भी दोनों बच्चे बाहर हैं. मैं भी आप की तरह बेटे के पास से ही लौटा हूं. यह सोच कर कि अब मैं वहां नहीं जाऊंगा. जैसे भी हो, मुझे यहीं रहना है. मेरे पास और कोई दूसरा विकल्प नहीं है.’’

आराधना ने देखा शरद के हाथ में पकड़ा चाय का कप गड़गड़ा रहा था. उस ने उस के हाथ से कप ले कर मेज पर रख दिया था. ‘‘अब चलूं,’’ वह उठी थी, ‘‘मैं कल आ जाऊंगी.’’

‘‘ठहरिए, आप को छोड़ आता हूं.’’ ‘‘मैं चली जाऊंगी. आप कहां बारबार लाएंगे और छोड़ेंगे.’’

‘‘आइए,’’ उस ने अपनी गाड़ी की चाबी उठा ली थी. शरद उसे छोड़ने चल पड़े.

‘‘रुकिए, अंदर तक छोड़ देता हूं,’’ घर के गेट पर पहुंच शरद ने कहा.

‘‘गाड़ी पार्क कर के अंदर आ जाइए.’’ शरद भी घर के अंदर आ गए तो अनुराधा बोली, ‘‘सोच रही हूं, दोपहर कब की ढल गई है. शाम आएगी, रात में बदल जाएगी. मैं बड़ी ही डरपोक हूं, भीतर से. अंधेरे और अकेलेपन दोनों से डरती हूं. जब से लौटी हूं, रात को सो ही नहीं सकी. घर में सारी बत्तियां जला कर रखती हूं. मैं आज भी तो शिफ्ट कर सकती हूं. क्या आप रुकेंगे? बस, 15 मिनट से ज्यादा नहीं.’’ उस ने अखबार ला कर रख दिया था. वह एक सूटकेस ले कर आ गई थी. घर में घूम कर सारी खिड़कियांदरवाजे चैक किए थे. गैस को चैक किया था.

फिर छोटेछोटे खूबसूरत से तकरीबन 10 पौधे कार्टन में डाल रही थी. ‘‘इन को तो ले कर जाना ही पड़ेगा. बहुत मेहनत से बनाए हैं, वह बोली.’’ 10 कार्टन हो गए थे. बाकी चीजें बाद में भी लाई जा सकती हैं. कार्टन कार की डिक्की में रखे, कुछ पिछली सीट पर. अब वे पहुंच गए थे. उस ने सूटकेस दीवार के साथ टिका दिया था. पौधों के कार्टन भी वहीं रखवा लिए थे. वह कुछ सोचती हुई बैठ गई थी. ‘‘आप परेशान न हों. कल तक सब ठीकठाक हो जाएगा. कोई माली भी मिल जाएगा. ठीक से घर की सफाई भी अब कल ही हो सकेगी,’’ शरद ने कहा. वह वैसी ही बैठी रही थी, कुछ सोचते हुए.

‘‘शरदजी, हमारे फ्लैट में एक लड़का और लड़की बिना शादी किए रह रहे हैं. कुछ लोगों ने आपत्ति की थी. फिर लड़की ने समझाया था, ‘हम दोनों एडल्ट हैं. आप को हमारे यहां रहने से कोई तकलीफ है क्या?’ वे दोनों सुबह अपने दफ्तर के लिए निकल जाते थे. रात को ही लौटते थे. शनिवार, इतवार को ही कभी घर में रहते थे. उस लड़की ने आगे कहा, ‘देखिए आंटीजी, इसे लिवइन रिलेशन कहते हैं. कोर्ट ने भी कानून की दृष्टि से इसे ठीक ठहराया है. हम साथसाथ रह रहे हैं. ठीक लगा तो बाद में शादी की जा सकती है. वैसे, अब भी सब ठीक है, पर हमें शादी की जरूरत नहीं लगती.’

‘‘उन्हें कोई कुछ नहीं कहता. आखिर हर व्यक्ति को अपनी तरह जीने का अधिकार है.’’ वह रुकी थी, फिर बोली, ‘‘कोई भी हो, उम्र कितनी हो, वे एकदूसरे का सहारा बन कर साथसाथ नहीं रह सकते. या रह तो सकते हैं. हां, आपसी इच्छा से साथ रहा जा सकता है.’’ वह थोड़ा रुकी, फिर बोली, ‘‘आप की और मेरी स्थिति कुछ ऐसी ही है. हम भी तो एकदूसरे का सहारा बन सकते हैं. आप के साथ 2 दिनों का साथ ऐसा लग रहा है जैसे वर्षों से आप को जानती हूं. आप बहुत संवेदनशील हैं. आप बहुत अच्छे हैं,’’ यह कह कर उस ने धीरे से अपना सिर उस के कंधे पर टिका दिया था और सुबक रही थी.

‘‘प्लीज रिलैक्स,’’ शरद का हाथ उठा था, उंगलियां कांपी थीं. फिर धीरे से उस के बालों में हाथ फिराया था. ‘‘मैडम, निश्चित ही हम दोस्त की तरह साथ रह सकते हैं.’’

उस ने गरदन उठाई थी, ‘‘मेरा नाम आराधना है.’’

‘‘मेरा नाम शरद है.’’ स्टाइल से कही अपनीअपनी बात से दोनों ही हंस पड़े.

‘‘आराधना? घर का डिस्टैंपर हुआ, तो बहुत सी चीजें इधरउधर हो गईं. कोई संभालने वाला भी तो नहीं है न, पत्नी शांति ही घर का मैनेजमैंट करती थी. वह जौब नहीं करती थी. वैसे एमबीए थी. शुरू में जौब करती थी, पर हमारा छोटा बेटा छुटपन में बहुत बीमार रहता था. उसे सिर्फ मेड के सहारे नहीं छोड़ा जा सकता था.

‘‘बच्चा कमजोर था और बारबार बीमार होता था. आखिर, हम ने फैसला लिया था कि हम दोनों में से एक ही नौकरी करेगा. मैं ने कहा था, ‘तुम जाओ बाहर का संभालो, मैं नौकरी छोड़ दूंगा. समय मिलेगा और मैं पेंटिंग करूंगा. मैं तो बनना ही पेंटर चाहता था. पिता के दबाव में पढ़ना पड़ा.’ शांति ने कहा, ‘ठहरो, पहले अपने बेटे से तो पूछो.’

‘‘बेटा सोचता रहा, फिर बोला, ‘मुझे आप दोनों ही चाहिए. दोनों के साथ रहूंगा.’

‘‘शांति हंसी थी, ‘लालच मत कर, एक जना तो जाएगा, घर चलाने के लिए पैसे भी तो चाहिए.’

‘‘आखिर, उस ने अपनी मम्मी को चुना. शांति ने जौब छोड़ दी थी. वह घर के फूड और होमकेयर के अलावा, स्वास्थ्य विभाग और घर की इकोनौमी भी देखती थी. 2 के बजाय एक की सैलरी से घर चल रहा था. पर कोई दिक्कत नहीं आई थी. घर का रखरखाव, बच्चों की देखभाल और पढ़ाई सब वही देखती थी. वह हमारी होम इंडस्ट्री की सीईओ थी. बाद में बच्चे बड़े हो गए थे, तो उस ने एक एनजीओ जौइन कर लिया था.

‘‘अब मैं अकेला हूं, सुबह सैर करने जाता हूं. दिन में फुरसत में पेंटिंग कर लेता हूं. शाम को क्लब में बिलियर्ड खेल आता हूं. बस, समय कट जाता है.’’

आराधना ने एक मोमबत्ती जलाई और फिर उस का हाथ पकड़ कर पूरे घर में घूम आई. ‘‘यह हमारा शुभारंभ है.’’ हंस कर वह बोली. दूसरे कमरे में उस ने देखा, ‘‘अरे, यह ईजल पर आधी बनी पेंटिंग?’’ उस ने देखा कोने में बहुत सारी पेंटिंग्स रखी थीं. कैनवास में एक स्त्री छवि थी. यह छवि शांति की ही होगी, उस ने सोचा. कईर् पेंटिंग्स कई तरह से, रेखाओं में बिंदुओं में, रंगों के फ्यूजन में. दूसरे और भी प्रकृति के विविध चित्र थे.

‘‘अब आप निश्ंिचत हो कर पेंटिंग बनाओ,’’ आराधना ने कहा तो शरद हंस कर बोला, ‘‘और आप बोनसाई उगाओ. बाद में हम एक प्रदर्शनी लगाएंगे. एक नया प्रयोग होगा. पेंटिंग के साथ बोनसाई रखने का प्रयोग सफल होगा, होना चाहिए.’’

‘‘क्यों नहीं, जो प्रयोग ईमानदारी और निष्ठा से किए जाते हैं वे सफल ही होते हैं, शरद. बस, अब आप मुझे घर के बारे में समझा दीजिए.’’ आराधना बेतरतीब ढंग से बिखरे सामान को सलीके से रखने लगी.

‘‘कुछ नहीं समझना आप को. जैसा चल रहा है, चलने दीजिए. सुबह काम वाली आएगी, सबकुछ कर जाएगी. खाना भी बना जाएगी. आप सिर्फ अपनी पसंद और टेस्ट के बारे में बता देना. फिलहाल आज रात के लिए कुछ कर लेंगे,’’ शरद ने आराधना का हाथ पकड़ा और कुरसी पर बिठा दिया.

‘‘मैं करती हूं, कुछ बना लेती हूं,’’ आराधना कुरसी से उठते हुए बोली थी.

‘‘नहीं, मैं कर लेता हूं. एकदूसरे को धकेलते हुए वे दोनों रसोई में खड़े थे. वह हंसी थी, बोली, ‘‘एकसाथ कुछ कर लेते है.’’ वह हंसा था, बोला, ‘‘हां अब साथ ही कर लिया करेंगे.’’

उन की हंसी घर के अंधेरे कोनों में रोशनी बिखेर रही थी. एकदूसरे का हाथ थामे उन्हें ऐसा लग रहा था जैसे जिंदगी ने उन्हें खुशी की चाबी थमा दी है. द्य

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