थानेदार साहब किसी सस्ते जासूसी उपन्यास पढ़ने में खोए हुए थे. उन्होंने अपनी कुरसी की पीठ झुका कर पीछे की गंदी दीवार से सटा रखी थी और उन के पैर सामने पड़ी कमजोर मेज पर बिखरी हुई गंदी फाइलों पर रखे थे. कहानी के उतारचढ़ाव के साथसाथ मेज भी आगेपीछे झूलती जाती थी.

छत का पंखा आहिस्ताआहिस्ता घूम रहा था, इस पर भी कड़ी घुटन और गरमी महसूस हो रही थी. शायद कहानी में वह प्रसंग आ रहा था जब हीरो अपनी सहायिका को, जो एक सुंदरी थी, बांहों  में बांध कर यह बताता है कि किस तरह उस ने अकेले निहत्थे ही विदेशी जासूसों के दल का पता लगा कर उस का सफाया कर दिया.

तभी बाहर के कमरे में फोन की घंटी बज उठी. किसी ने फोन उठाया. थानेदार साहब का फोन था. उन्हें एक्सटेंशन दिया गया. पंजाबी में एक भद्दी सी गाली देते हुए उन्होंने किताब मेज पर दे मारी और चोंगे में जोर से ‘हां’ कहा.

‘‘मैं एस.पी. बोल रहा हूं,’’ दूसरी तरफ से आवाज आई, ‘‘कितनी बार तुम से कहा कि फोन पर धीरे बोला करो, लेकिन तुम पर असर ही नहीं होता.’’

‘‘सर...जनाब,’’ वह तेजी से उठे और एडि़यां बजाते हुए तन कर सलाम किया, ‘‘साहब, हम लोगों को फोन पर इतना परेशान किया जाता है कि...’’

‘‘चुप रहो और मेरी बात सुनो. तुम्हारे यहां से एक पत्रकार का स्कूटर चोरी चला गया था. आज शाम तक वह मिल जाना चाहिए.’’

‘‘लेकिन, साहब,’’ थानेदार साहब ने कहना चाहा, ‘‘पहले ही 10 स्कूटरों और मोटर साइकिलों के केस पड़े हैं और...’’

‘‘बकवास मत करो. उन 10 की कोई जल्दी नहीं है. यह पत्रकार का स्कूटर है, फौरन मिलना चाहिए. जल्दी करो!’’ एस.पी. ने फोन रख दिया था.

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