Writer- रमणी मोटाना
अभी उस ने पहला पैग खत्म भी नहीं किया था कि मेनका आ गई. रंजीत को अंधेरे में बैठा देख कर बोली, ‘‘भलेमानस, कम से कम बत्ती तो जला ली होती. ओह, जनाब शराब पी रहे हैं. रंजीत, मैं ने तुम से कितनी बार कहा है कि शराब पीना अच्छा नहीं.’’
‘‘अच्छा, अब भाषण मत दो, आते ही शुरू हो गईं.’’
‘‘जानते हो, मैं कहां गई थी?’’
‘‘नहीं, और मैं जानना भी नहीं चाहता.’’
‘‘लगता है, श्रीमानजी नाराज हैं,’’ मेनका बोली, ‘‘सुनो, पापा ने मु?ो जन्मदिन पर एक कार दिलाई है. चलो, अपनी नई गाड़ी में कहीं घूमने चलें.’’
‘‘नहीं, मेरी तबीयत ठीक नहीं है.’’
‘‘खाली पेट शराब पियोगे तो यही होगा. मैं तुम्हारे लिए कुछ खाने को लाती हूं.’’
मेनका किचन में गई तो रंजीत ने फूलों का गुलदस्ता मेज के नीचे सरका दिया, लेकिन मेनका की नजर उस पर पड़ गई.
वह किचन के दरवाजे से पलटी और बोली, ‘‘क्या मेरे लिए तुम यह फूलों का गुलदस्ता लाए थे?’’
‘‘हां.’’
‘‘तो यह मेज के नीचे क्यों सरका दिया. सम?ा, मेरे ऊपर का गुस्सा इन फूलों पर उतारा गया है. फूल लाए थे तो मु?ो दिए क्यों नहीं?’’
‘‘तुम्हारे पापा ने तुम्हें लाखों की कार दी है, मैं तुम्हें 100 रुपए के फूलों का एक छोटा सा गुलदस्ता किस मुंह
से देता?’’
‘‘पागल कहीं के,’’ मेनका उस की गोद में बैठ गई, ‘‘देने वाले का दिल देखा जाता है, तोहफे की कीमत नहीं आंकी जाती. तुम ने मु?ो प्यार के साथसाथ निखिल जैसा बेटा दिया है.’’
‘‘अरे हां, निखिल को तो मैं भूल ही गया था, वह है कहां?’’
‘‘मम्मीपापा ने उसे रोक लिया है. वह आज रात उन के साथ जुहू वाले बंगले में रहेगा.’’