अंकित जब इस कसबे में प्रवक्ता हो कर आया तो सालभर पहले ब्याही नीरा को भी साथ लेता आया था. नीरा के मन में बड़ी उमंग थी. कालेज के बाद सारे समय दोनों साथ रहेंगे. संयुक्त परिवार में स्वच्छंदता की जो चाह दबी रही उसे पूरी करने की ललक मात्र ने उस की कामनाओं के कमल खिला दिए.

छोटा सा कसबा, छोटा सा घर. घर में पतिपत्नी कहो या प्रेमीप्रेमिका, मात्र 2 प्राणी वैसे ही रहेंगे जैसे किसी घोंसले में बैठे पक्षी भावभरी आंखों में एकदूसरे को निहार कर मुग्ध होते रहते हैं. अतृप्त आकांक्षाओं की पूर्ति का सपना तनमन को सराबोर सा कर रहा था.

नीरा को यह सपना सच होता भी लगा. ब्लौक औफिस के बड़े बाबू सरोजजी की मेहरबानी से मकान की समस्या हल हो गई. शांत एकांत में बनी कालोनी का एक क्वार्टर उन्हें मिल गया और अकेलेपन में नीरा का साथ देने के लिए बड़े बाबू की पत्नी विमला का साथ भी था. विमला ने बड़ी बहन जैसे स्नेह से नीरा की आवभगत की थी और उन की बेटी सुगंधा और निर्मला तो जैसे उस की हमउम्र सहेलियां बन गई थीं. दोनों परिवारों में नजदीकियां इतनी जल्दी हो गईं कि कुछ पता ही नहीं चला और जब चला तो नीरा के हाथों के तोते उड़ गए.

नीरा वैसे तो सुगंधा की मुक्त हंसी के साथ उस के मददगार स्वभाव की कायल थी. वह घर के काम में सहायता करती और काम यदि अंकित का होता तो वह और तत्परता से करती. अंकित जब खाने के बाद कपड़े पहन कर कहता, ‘कितनी बार तुम से कहा है कि बटन कपड़े साफ  करने से पहले ही टांक दिया करो.’ सुगंधा तब नीरा के बोलने से पहले ही बोल पड़ती, ‘लाओ, मैं टांक देती हूं. भाभी को तो पहले से ही बहुत काम करने को पड़े हैं. औरत की जिंदगी भी कोई जिंदगी है. कोल्हू के बैल सी जुती रहो रातदिन.’

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