"हां जी सर बनाना तो आता है. पर क्या आप मेरे हाथ का बना हुआ खाएंगे?"
"हां सपना खा लूंगा. मैं इतना ज्यादा कुछ ऊंचनीच नहीं मानता. जब कोई और रास्ता नहीं तो यही सही. तुम बना दो मेरे लिए खाना."
मैं ने उसे ₹500 का नोट देते हुए कहा, "चावल, आटा, दाल, सब्जी जो भी मिल सके ले आओ और खाना तैयार कर दो."
"जी सर" कह कर वह चली गई.
शाम में दोतीन डब्बों में खाना भर कर ले आई," यह लीजिए, दाल, सब्जी और चपाती. अचार भी है और हां कल सुबह चावल दाल बना दूंगी."
"थैंक्यू सपना. मैं ने डब्बे ले लिए. अब यह रोज का नियम बन गया. वह मेरे लिए रोज स्वादिष्ट खाना बना कर लाती. मैं जो भी फरमाइश करता वही तैयार कर के ले आती. अब मैं उस से और भी ज्यादा बातें करने लगा. उस से बातें करने से मन फ्रेश हो जाता. वह हर तरह की बातें कर लेती थी. उस की बातों में जीवन के प्रति ललक दिखती थी. वह हर मुश्किल का सामना हंस कर करना जानती थी. अपने बचपन के किस्से सुनाती रहती थी. उस के घर में मां, बाबूजी और छोटा भाई है. अभी वह अपने घर में अकेली थी. घरवाले शादी में पास के शहर में गए थे और वहीं फंस गए थे.
वह बातचीत में जितनी बिंदास थी उस की सोच और नजरिए में भी बेबाकी झलकती थी. किसी से डरना या अपनी परिस्थिति से हार मानना उस ने नहीं सीखा था. किसी भी काम को पूरा करने या कोई नया काम सीखने के लिए अपनी पूरी शक्ति और प्रयास लगाती. हार मानना जैसे उस ने कभी जाना ही नहीं था.