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रश्मि ने स्पष्ट किया, “तुम्हारी सुलझी बातों का मैं कायल हूं. मगर मुझे लगता है कि तुम्हारे मम्मीपापा इसे पसंद नहीं कर पाएं."

“तो तुम्हीं बताओ कि मुझे क्या करना होगा?”

“मैं चाहती हूं कि तुम अपने पैरों पर खड़े हो जाओ. अपना खुद का व्यापार शुरू कर ही चुके हो. तुम्हारे पापा की दुकान पर तुम्हारे भैया का वर्चस्व है, इसलिए यह जरूरी था. क्योंकि दांपत्य जीवन के लिए आर्थिक स्वतंत्रता आवश्यक है.

"मेरी अपनी नौकरी है ही. फिर भी मैं उस घर में नहीं रहना चाहूंगी, जहां मुझे अपने अतीत का अहसास दिलाया जाए. मैं किसी की सहानुभूति या किसी की दया नहीं चाहती. यदि हम अलग रह सकें तो यह विवाह संभव है. आगे का आगे देखा जाएगा. हो सकता है, समय बीतने के साथ तुम्हारे मम्मीपापा को इस जातीय विभेद की व्यर्थता का बोध हो जाए.”

भारी मन लिए राकेश घर लौट आया था. उसे समझ नहीं आ रहा था कि वह अपनी इस समस्या का समाधान किस प्रकार करे. संयोगवश उसी दिन उषा दीदी एक काम के सिलसिले में वहां आई थी. मम्मी उस से कहने लगी, “अब तो राकेश का अपना बिजनैस भी शुरू हो गया. अब इस की शादी हो जाए, तो हम निश्चिंत हों.”

“तो तुम्हारी नजर में कोई अच्छी सी लड़की है क्या?”

“है ना वो लड़की, जो राकेश की दोस्त है. क्या नाम है उस का. अरे हां, रश्मि, वह मुझे बहुत अच्छी लगी है. तुम उस से एक बार बात कर के देखो.”

अगले दिन इतवार था.

“अरे राकेश, तुम्हारी दोस्त रश्मि की तो कल छुट्टी है न,” उषा ने राकेश से कहा, “उस से मुझे मिलवाओगे नहीं. वह कई बार मुझ से मिलने के लिए कह चुकी है.”

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