“सो तो है,” राकेश की मम्मी बोलीं, “मगर, हमारी ऐसी किस्मत कहां...? अभी जो लड़की देखी है, उसे नौकरी वाला लड़का ही जो चाहिए. कई जगह तो हम देख चुके हैं. हम पंडितों के भाग्य में दुख ही तो लिखा है.”
“सुखदुख अपने बनाने से बनता है मां,” उषा तपाक से बोल उठी थी, “अब हमें अपनी सोच से ऊपर उठना होगा. तभी सुख मिलेगा.”
“ये सब कहने की बातें हैं,” राकेश के पापा बोल उठे, “इसे बदलना आसान नहीं. मैं आजकल की इन फिल्मी बातों को पसंद नहीं करता. हमारे बुजुर्गों ने बहुत सोचसमझ कर यह नियम बनाए हैं. और हम उस से अलग जा नहीं सकते.”
नाश्ते की प्लेटें वही सर्व कर रही थी. राकेश का एक दोस्त अनुज उस का मुंहलगा जैसा था और कुछ अधिक ही वाचाल था. वह उस के पीछे किचन तक चला आया और खुद ही गिलास निकाल पानी ले कर पीने लगा था.
राकेश की मम्मी मुंह पर तो कुछ बोली नहीं. मगर, उस के जाते ही वे बड़बड़ाने लगीं, “ये नान्ह जात सब जगह गुड़गोबर एक किए रहते हैं. मुंह पर तो लगाम है नहीं. कुछ भी बोलते चला जाता है.”
यह सुन कर वह एकदम स्तब्ध रह गई थी. अब तक वह धड़ल्ले से किचन से अंदरबाहर होते रहती थी. कहीं उसे भी ऐसा ही कुछ कह दिया गया, तो उस की क्या इज्जत रह जाएगी. उसे अब उन के किचन के अंदर जाने में भी संकोच होने लगा था. मगर उस ने ऐसा कुछ जाहिर होने नहीं दिया.
इस फंक्शन में उसे कुछ देर भी हो गई थी. लेकिन राकेश की मां ने उसे खाना खा कर ही जाने दिया.