सफेद संगमरमर के चबूतरे पर बैठी मैं ताजमहल का अप्रतिम सौंदर्य निहार रही थी. मैं और सुधा 10 छात्राओं का ग्रुप ले कर जयपुर से आगरा घूमने आई हुई थीं. आगरा का किला और ताजमहल देखने के बाद और सब तो खरीदारी के लिए निकल पड़ी थीं पर मैं यहीं, अपनी शाम खुशगवार बनाने का प्रयास कर रही थी. किंतु जितना ज्यादा मैं उन लमहों से खुशियां चुराने का प्रयास करती, मेरी नाकाम मुहब्बत के घने काले साए उन लमहों को अपनी गिरफ्त में ले लेते.
इस से पहले कि ये साए मेरी सोच पर हावी होते, करीब आती किसी के कदमों की आहट ने मु?ो चौंका दिया.
‘‘भाभी, मैं कब से आप को आवाज दे रहा हूं.’’
‘‘ओह, दीपक भैया, आप यहां?’’ सामने रवि के अजीज मित्र दीपक को देख मैं चौंक उठी थी.
‘‘यही तो मैं आप से पूछना चाहता हूं, आप यहां कब आईं?’’
‘‘मैं और सुधा छात्राओं का ग्रुप ले कर कल ही यहां आए हैं.’’
‘‘और सुनाइए, भाभी, कैसी कट रही है?’’ दीपक के इस प्रश्न पर मेरे चेहरे का रंग उड़ गया. फीकी सी मुसकराहट बिखेरते हुए बोली, ‘‘अच्छी ही हूं.’’
‘‘आगरा में कितने दिन रुकने का प्रोग्राम है?’’
‘‘शायद 3-4 दिन.’’
‘‘ठीक है, भाभी, कल आप डिनर पर मेरे घर आ रही हैं.’’
‘‘नहीं, भैया, कल तो हम सिकंदरा देखने जा रहे हैं.’’
‘‘सिकंदरा यहां से बहुत दूर नहीं है. शाम तक आप सभी वापस लौट आएंगी, लिहाजा, इनकार की कोई गुंजाइश नहीं है.’’
दीपक का स्नेहिल निमंत्रण मैं ठुकरा न सकी. हलकीफुलकी बातें कर के वह चला गया किंतु मु?ो उद्वेलितकर गया. अब वहां और ज्यादा देर बैठना मेरे लिए नामुमकिन सा हो गया. लिहाजा, मैं होटल लौट आई. तभी सुधा बाजार से आई और मेरा उतरा चेहरा देख कर बोली, ‘‘क्या बात है, स्वाति, तेरी तबीयत तो ठीक है?’’