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‘मैं ने तो सोच लिया है. तुम्हें सोचसमझ कर फैसला करना है. मुझे जल्दी नहीं है,’ सुधीर धीरे से मुसकराए थे.

‘पर मुझे है क्योंकि मेरी मां घर आए रिश्तों में से किसी को जल्दी ही ‘हां’ कहने वाली हैं,’ वैशाली शोख निगाहों से देखती मुसकराई थी.

‘ओह, तब तो फिर मुझे ही जल्दी कुछ करना होगा,’ उस के अंदाज पर वैशाली को हंसी आ गई थी.

दोनों जल्दी ही परिणयसूत्र में बंध गए थे. सारे शहर में इस विवाह की चर्चा रही और शायद उन के बीच बनने वाली दूरियों की नींव यहीं से पड़ गई थी. सुर्ख लहंगे, गहनों की चमक और मन की खुशी ने वैशाली की खूबसूरती में चार चांद लगा दिए थे लेकिन उस के सामने सुधीर का व्यक्तित्व फीका पड़ रहा था. कुछ दोस्त ईर्ष्या छिपा नहीं पा रहे थे. ‘यार, किस्मत खुल गई तेरी तो, ऐसी खूबसूरत पत्नी? काश, हमारा नसीब भी ऐसा होता.’

तो कुछ दबी जबान से उस का मजाक भी उड़ा रहे थे, ‘हूर के पहलू में लंगूर’, और ‘कौए की चोंच में मोती’ जैसे शब्द भी उस के कान में पिघले शीशे की तरह उतर कर शादी के उत्साह को फीका कर गए थे.

शादी के बाद भी वैशाली आफिस जाती थी. सुधीर को भी उस की सहायता की जरूरत रहती थी. शहर के बड़े लोगों की पार्टियों में भी उन की उपस्थिति जरूरी समझी जाती थी. हालांकि वैशाली का संबंध मध्यम वर्ग से था लेकिन उस ने बहुत जल्दी ही ऊंचे वर्ग के लोगों में उठनाबैठना सीख लिया था. एक तो वह पहले से ही खूबसूरत थी उस पर दौलत व शोहरत ने उस पर दोगुना निखार ला दिया था. अच्छे कपड़ों, गहनों की चमक के साथ सुख और संतोष ने उस के चेहरे पर अजीब सी कशिश पैदा कर दी थी. मेकअप का सलीका, बातचीत का ढंग, चलनेबैठने में नजाकत, सबकुछ तो था उस में. लोग उस की तारीफ करते, उस के आसपास मंडराते और लोगों की निगाहों में अपने लिए तारीफ देख वह चहकती, खिलखिलाती घूमती. उसे इन सब बातों का नशा सा होने लगा था. कई दिनों तक कोई पार्टी नहीं होती तो वह अजीब सी बेचैनी महसूस करती.

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