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योगेश दीक्षित

कितने बरसों बाद आज किसी ने उस के नाम की टेर दी थी. उस के हाथ आटे से सने हुए थे इसलिए वहीं से उस ने नौकरानी को आवाज दी, ‘‘चम्पा, देख कौन आया है.’’

थोड़ी ही देर में चंपा उस के पास आ कर बोली, ‘‘बाईजी, कोई तरुण आए हैं.’’

‘‘तरुण....’’ वह हतप्रभ रह गई. शरीर में एक सिहरन सी दौड़ गई. उस ने फिर पूछा, ‘‘तरुण कि अरुण...’’

‘‘कुछ ऐसा ही नाम बताया बाईजी.’’

वह ‘उफ’ कर रह गई. लंबी आह भर कर उस ने सोचा, बड़ा अंतर है तरुण व अरुण में. एक वह जो उस के रोमरोम में समाया हुआ है और दूसरा वह जो बिलकुल अनजान है....फिर सोचा, अरुण ही होगा. तरुण नाम का कोई व्यक्ति तो उसे जानता ही नहीं. यह खयाल आते ही उस का रोमरोम पुलकित हो उठा. तुरंत हाथ धो कर वह दौड़ती हुई बाहर पहुंची, देखा तो अरुण नहीं था.

‘‘आप अर्पणा हैं न?’’ आने वाले पुरुष के शब्द उस के कानों में पडे़.

‘‘जी...’’

‘‘मैं अरुण का दोस्त हूं तरुण.’’

मन में तो उस के आया, कह दे कि तुम ने ऐसा नाम क्यों रखा, जिस से अरुण का भ्रम हो लेकिन प्रत्यक्ष में होंठों पर मुसकराहट बिखेरते हुए बोली, ‘‘आइए, अंदर बैठिए...चाय तो लेंगे,’’ और बिना उस के जवाब की प्रतीक्षा किए अंदर चली गई.

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चाय की केतली गैस पर रखी तो यादों का उफान फिर उफन गया. कैसा होगा अरुण....उसे याद करता भी है...जरूर करता होगा, तभी तो उस ने अपने दोस्त को भेजा है. कोई खबर तो लाया ही होगा...तभी चाय उफन गई. उस ने जल्दी गैस बंद की और चाय ले कर बैठक में आ गई.

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