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लेखिका- वीना श्रीवास्तव 

सामनेवाली कोठी में रंगरोगन हो रहा था. चारों ओर जंगली बेलों से घिरी वह कोठी किसी खंडहर से कम नहीं लगती थी. सालों से उस में न जाने किस जमाने का जंग लगा बड़ा ताला लटक रहा था. वैसे इस कोठी को देख कर लगता था कि किसी जमाने में वह भी किसी नवयौवना की भांति असीम सौंदर्य की स्वामिनी रही होगी. उस की दीवारें न जाने कितने आंधीतूफानों और वर्षा को झेल कर कालीकाली सी हो रही थीं. खिड़कियों के पल्ले जर्जर हो चुके थे, मगर न जाने किन कीलकांटों से जड़े थे कि अभी तक अपनी जगह टिके हुए थे.

तनीषा की उत्सुकता बढ़ती जा रही थी. कौन आ रहा है यहां रहने के लिए. क्या किसी ने इसे खरीद लिया है. कौन हो सकता है इस विशाल कोठी को खरीदने वाला. जबकि आजकल तो लोग फ्लैट में रहना ज्यादा पसंद करते हैं. यह कौन असाधारण व्यक्ति है, जो इतनी बड़ी कोठी में रहने के लिए आ रहा है.

उस का मन जिज्ञासा की सारी हदें पार करने को मचल रहा था. तभी एक नौजवान उस के घर की ओर आता दिखा. सोचा उसी से कुछ पता किया जाए किंतु फिर उस ने अपनी उत्सुकता को शांत किया, ‘‘छोड़ो होगा कोई सिरफिरा या फिर कोई पुरातत्त्ववेत्ता जिसे इस भुतही कोठी को खरीदने का कोई लोभ खींच लाया होगा. वैसे यह कोई ऐतिहासिक कोठी भी तो नहीं है. लेकिन किसी की पसंद पर कोई अंकुश तो नहीं लगाया जा सकता है न.’’

‘‘ऐक्सक्यूज मी,’’ आगंतुक उस के घर के गेट के सामने खड़ा था.

वह चौंक कर इधरउधर देखने लगी, ‘‘कौन हो सकता है? क्या यह मुझे ही बुला रहा है?’’ उस ने इधरउधर देखा, कोई भी नहीं दिखा.

‘‘हैलो आंटी, मैं आप से ही बात कर रहा हूं.’’ आगंतुक ने उस का ध्यान अपनी ओर आकर्षित किया. आंटी उसे अजीब सा लगा. क्या मैं आंटी सी लगती हूं? उस का मन सवाल करने लगा. ठीक है कि मेरी उम्र 50 की हो रही है लेकिन लगती तो मैं 35 से ज्यादा की नहीं हूं. अभी भी शरीर उसी प्रकार कसा हुआ है. हां इक्कादुक्का बाल जरूर सफेद हो गए हैं. लेकिन आजकल बालों का सफेद होना तो आम बात है.

वह थोड़ी अनमनी सी हो गई. तत्काल ही उसे गेट पर खड़े उस युवक का ध्यान आया. वह तुरंत उस की ओर बढ़ी. बड़ा ही सौम्य युवक था.

बड़ी शिष्टता से उस युवक ने कहा, ‘‘जी मेरा नाम अनुज मित्तल है. क्या पानी मिलेगा? दरअसल घर में काम चल रहा है. पानी की लाइन शाम तक ही चालू हो सकेगी. लेकिन जरूरत तो अभी है न.’’

‘‘हां, हां आओ न अंदर. पानी जरूर मिलेगा,’’ उस ने अपने माली को आवाज दे कर कहा कि नल में पाइप लगा कर सामने वाले घर की ओर कर दो जितनी जरूरत हो पानी ले लें. फिर उस ने अनुज से कहा, ‘‘आओ बेटा, मैं चाय बनाती हूं. भूख भी लगी होगी, कुछ खाया तो होगा नहीं.’’

चायनाश्ता करते हुए उस ने अनुज व उस के परिवार के बारे में पूरी जानकारी हासिल कर ली. अवनीश मित्तलजी की वह पुरानी खानदानी कोठी थी. बहुत पहले उन के पिता अभय मित्तल भारत छोड़ कर व्यवसाय के सिलसिले में नैरोबी में जा कर बस गए थे. अवनीश मित्तल भी उसी व्यापार में संलग्न थे. इसलिए बच्चों का पालन पोषण भी वहीं हुआ. अब वे अपनी बेटी की शादी भारत में अपने पुरखों की हवेली से ही करना चाहती थे इसलिए रंगरोगन कर के उस का हुलिया दुरुस्त किया जा रहा था.

‘‘विवाह कब है?’’ तनीषा ने पूछा.

‘‘जी अगले महीने की 25 तारीख को. अब ज्यादा समय भी नहीं बचा है. इसीलिए सब जल्दीजल्दी हो रहा है. मुझे ही इस की देखभाल करने के लिए भेजा गया है,’’ चायनाश्ता कर के वह चला गया. तनु भी तत्काल ही आईने के सामने जा कर खड़ी हो गई. उस ने मुझे आंटी क्यों कहा? सोचने लगी. क्या सच में मैं आंटी लगने लगी हूं. उस ने शीशे में खुद को निहारा. सिर में झिलमिलाते चांदी के तारों से भी उस की खूबसूरती में कोई कमी नहीं आई थी.

तनीषा अकेली ही रहती थी. आसपास के सभी लोग उसे जानते थे और यह भी जानते थे कि वह अविवाहित है. लोग इस विषय पर चर्चा भी करते थे. किंतु अप्रत्यक्ष रूप में ही, कारण भी कोई नहीं जानता था. किंतु तनीषा? वह तो अपने चिरकुंआरी रहने का राज बखूबी जानती थी. लेकिन दोष किस का था? नियति का, घर वालों का या स्वयं उस का? शायद उसी का दोष था. यदि उस की शादी हुई होती तो आज अनुज के बराबर उस का भी बेटा होता. उस ने एक गहरी सांस ली और बड़बड़ाने लगी, ‘कहां हो परख, क्या तुम्हें मेरी याद आती है या बिलकुल ही भूल गए हो?’ अतीत उसे भ्रमित करने लगा था…

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