लबे शीरी पे तेरी जुस्तजू होती तो क्या होती
मुकद्दर की रस्में यूं तो सिर आंखों पे,
जिगर में तेरी जुस्तजू भी होती तो क्या होती
बातों ही बातों में कितनी करीबियां आईं
जरा वफा पे चल के
आंखों में ही बात होती तो क्या होती
शाख ए गुल में खुशबू की बात ही क्या
जो जेरे ए खाक ए गुल के बाद भी
होती तो क्या होती
– दीपान्विता राय बनर्जी
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