सुनो शोर धड़कनों का

जब जिंदगी खामोश होती है

सुनो सरगोशी सांसों की

जब सोच बेहोश सी होती है

देखो तुम उम्र का वो तिनका

जब वक्त का छर्रा

पैरों तले खिसकता है

सुनो खुद के उस हिस्से का बयान

जब तुम्हारा हिस्सा सिसकता है

पढ़ो तुम उस लफ्ज को

जो लबों पर न आया

बस जबां पर है

वो तुम नहीं हो

जो तुम हो

ढूंढ़ो उसे, वो कहां है

इसी जिंदगी के दरमियान है

कहीं वजूद जिंदगी के

खुद के जाम में समेटे

पी लो दो घूंट जिंदगी के

कौन जाने कब ये सांसें

फरामोश होती हैं

सुनो शोर धड़कनों का

जब जिंदगी खामोश होती है.

– मलेंद्र कुमार

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