गरल तुम्हारा गर्भ में धारे,

तेज तुम्हारा साधेसाधे,

प्रियतम मेरे मैं थिरकूंगी.

तुम्हें तो घेरे अभिसारिकाएं,

अगणित ग्रह गणिकाएं,

प्रणयसूत्र पर मैं बांधूंगी.

देह तप्त यह चंदन चर्चित,

मय मकरंद का चुंबन अर्चित,

मादक यह मंथन सह लूंगी.

हठी प्रणयी बन चांद भी तो इक,

मोहपाश जिस का आलिंगन,

कसक कामुक सी, न बांटूंगी.

उन्मुक्त अधीर उज्ज्वल अभिसारी,

पगला, प्रवीण वह प्रेम पुजारी,

मुनहारे मोहक न मानूंगी.

सधे पगों से चाल सतर कर,

खुद की लक्ष्मण रेखा खींच कर,

चपल तरलता मैं बांधूंगी.

ज्वार प्रमादी है झकझोरे,

उछाह अनवरत अंतस घेरे,

पर बंधन था बांधा तुम से,

सूरज फेरे तुम्हारे ही लूंगी.

कैसे नियम, यह किस की रचना,

मैं धरा स्वयं सृष्टि बदलूंगी.

– डा. छवि

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